मंगलवार, 31 मार्च 2015

सुर-८८ : "दर्द भरी शायरी... मीना कुमारी...!!!"

पीड़ा का
साकार रूप बनी
‘दर्द की देवी’ कहलाई
जब-जब भी
पर्दे पर कोई रूप धरी 
‘महजबीन’ की पहचान खो गई
‘मीना कुमारी’ ऐसी अभिनेत्री बन गई
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मित्रों...,

वो समय जब भारत में मनोविनोद के बड़े ही सीमित साधन थे तब ‘सिनेमा’ का उदय होते ही वो ‘मनोरंजन’ का ऐसा पर्याय बन गया कि आज भी लोग उसे व उसके कलाकारों को हद से ज्यादा तवज्जों देते और उनकी इस दीवानगी ने ही उस दौर से लेकर आज तक इन अदाकारों के प्रति लोगों का जुनून कम नहीं होने दिया तभी तो उनके बारे में हर जानकारी पाना चाहते और वो दौर जबकि इस जानकारी को पाने के लिये भी इतने यंत्र-तंत्र नहीं थे तब पत्र-पत्रिकाओं में उनके चित्र देखकर और उनके बारे में पढ़कर या फिर ‘रेडियो’ पर उनकी आवाज़ सुनकर ही खुश हो जाते थे तभी तो उस जमाने में सिने-सितारों को जो दर्जा हासिल हुआ वो आज सभी तरह की आधुनिकतम मशीन होने के बावज़ूद भी उनसे कम अभिनय करने वाले लेकिन उनसे अधिक पारिश्रमिक पाने वाले कलाकारों को भी नहीं मिला यही वजह कि उन नींव के पत्थरों को भूल पाना संभव नहीं तभी तो आज भी उस दौर के चलचित्रों को न सिर्फ ‘क्लासिक’ का तमगा दिया जाता हैं बल्कि उसमें काम करने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियों को भी उनके प्रशंसक उतनी ही शिद्दत से याद करते और ढूंढ-ढूंढकर उन फिल्मों और कलाकारों को ‘नेट’ पर देखते रहते उनसे सीखने का प्रयास करते क्योंकि ये वो लोग हैं जिन्होंने बिना किसी अभिनय के पाठ्यक्रम या प्रशिक्षण के ही सहजता से ही जिस तरह रुपहले पर्दे पर किरदारों को अभिनीत किया तो वो चरित्र जैसे जीवंत ही हो उठे तभी तो आज भी यदि कोई सिर्फ़ ‘छोटी बहु’ बोले तो लोगों की जुबान पर अपने ही आप ‘मीना कुमारी’ का नाम आ जाता जिसने इस कदर डूबकर उस पात्र को जिया कि किसी को भी नहीं लगा कि ये विमल मित्र की ‘साहिब बीबी गुलाम’ उपन्यास का कोई काल्पनिक चरित्र हैं जिसे रजतपट पर ‘मीना कुमारी’ ने सिर्फ़ निभाया हैं

यही थी ‘मीना कुमारी’ के अभिनय की सहजता जिसने उसको दो दशक तक अव्वल नंबर पर रखा और आज तलक भी उनकी यही अदा उन्हें अपने चाहनेवालों के दिलों में भी जीवित रखे हुये हैं क्योंकि भले ही पेशे से वो एक अदाकारा थी लेकिन उसने कभी भी किसी बनावटी भाव-भंगिमा को अपने चेहरे पर आने नहीं दिया बल्कि जब भी जो भी रोल मिला उसे इस तरह से सजीव किया कि देखने वाले को वो झूठा नहीं लगा उनका बचपन जिस अभाव और वेदना से गुज़रा था उसने उनके भीतर दर्द का एक उफनता हुआ सागर पैदा कर दिया जिसकी लहरें उनकी आँखों के रास्ते से आने का मार्ग ढूंढ ही लेती थी यही था उन बोलती हुई सम्मोहक आँखों का राज़ जिसके माध्यम से वो बिना जुबान का इस्तेमाल किये भी इतना कुछ बोल देती थी कि सामने वाला मंत्रमुग्ध-सा बस उनको देखता ही रह जाता था उफ़... क्या बला का जादू था मीना की दर्दीली मय से भरी छलकती नजरों में कि अब तक भी उनके दीवानों को होश नहीं आया हैं इसलिये तो उनके इस दुनिया से जाने के बाद भी हम उनको उतने ही प्यार से याद करते हैं आज उनकी पुण्यतिथि पर उनकी यादों का चले आना ही बताता कि भले ही वो सादगी भरी सुंदरता की प्रतिमा अब हमारे बीच नहीं हैं पर, उनकी अभिनीत सभी फिल्म और उनकी मौजूदगी का अहसास तो अब भी हैं न... जो काफी हैं ये बताने को कि जाने वाले चले जाते... इंसान मर जाते पर, यदि वो एक भी ऐसा काम कर जाते जो उसके बाद भी इस जहान में उसके नाम, उसकी पहचान को जिंदा रखता तो सच मानिये उसने सही मायनों में जिंदगी जी हैं... अपने जीवन को सार्थक बनाया हैं फिर भले ही उसके लिये उसने कोई-सा भी सकारात्मक मार्ग चुना हो पर, जिससे किसी को सुकून या ख़ुशी मिली जाये वो कभी-भी गलत नहीं हो सकता

बालपन से ही अपने परिवार को पालने की जिम्मेदारी उनके नाज़ुक कंधों पर आ गयी जिसने उसे वक़्त से पहले ही संजीदा बना दिया तभी तो बिना ही ग्लिसरीन के उनकी आँखें छलक जाती और पर्दे पर अनवरत दर्द को अभिव्यक्त करते हुये वो साक्षात ‘दर्द की देवी’ बन गयी और इसमें उनका साथ दिया उनकी पुरसुकून ह्रदय को बेधने वाली उस कशिश भरी आवाज़ ने जिसे सुनकर आदमी अपनी सुध-बुध भूल जाता... इस तरह वो मासूम बाला जिसका नाम कभी ‘महजबीन’ था वो बाल चरित्र, धार्मिक किरदारों को निभाते-निभाते ‘मीना कुमारी’ नाम की एक महानतम अभिनेत्री बन गयी जिसने हर तरह के सम्मान और पुरस्कार तो अपनी झोली में किये ही साथ-साथ अपने अंतर की बैचेनी को सफे पर उतारते-उतारते वो एक ‘शायरा’ भी बन गयी जो ये ज़ाहिर करता हैं कि कुछ ऐसा भी था उनके भीतर जिसे वो अभिनय से भी अभिव्यक्त नहीं कर पा रही थी तो उसके लिये उन्होंने अपनी ‘डायरी’ को अपना हमदम अपना हमनवां बनाया और उसमें अपने मन की पीड़ा को लिखती गयी जिसे पढ़कर पता चलता हैं कि वो कितनी नाज़ुक और भावुकता से भरी नारी थी पर, अफ़सोस कि उसे उसका ही परिवार, उसका शौहर या उसके जीवन में आने वाले तमाम लोग भी उसे रत्ती भर भी न समझ पाये... अमूमन ख़ामोशी के पीछे कोई तूफ़ान छूपा होता लेकिन सबको देर से खबर होती जब वो आकर गुजर जाता... ‘मीना कुमारी’ उर्फ़ ‘महजबीन’ नाम की ‘सितारा’ आसमान से टूटकर आने वाली एक दुआ थी जिसे कोई दामन या प्यार भरे हाथों का सहारा नहीं मिला वरना, वो यूँ पूरी हुये बिना ही तो चली नहीं जाती... अक्सर लोग टूटते तारे को देखकर उससे कोई ‘विश’ मांगते लेकिन जब अनजाने ही वो पूर्ण होकर उसके आंचल में आ जाती तो उसे समझ नहीं पाते शायद... तभी तो वो किसी भी कोने या दरार से टपक जाती... यही तो उसके साथ भी हुआ... तो आज पुण्यतिथि पर यही चंद अल्फाज़ समर्पित हैं... रंजोगम की उस जीती-जागती दिव्य आत्मा को... :) :) :) !!!
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३१ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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सोमवार, 30 मार्च 2015

सुर-८७ : "भारतीय सिने जगत की प्रथम स्वप्न सुंदरी... देविका रानी...!!!"

वो थी
सबसे अलग
प्रतिभा का भंडार
जो भी चाहा
सब कुछ हासिल किया
और...
हिंदी सिने जगत के
सबसे पहले पायदान पर
स्वर्ण अक्षरों में
अपना नाम ‘देविका रानी’ लिखा
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मित्रों...,

भारतीय सिनेमा के इतिहास की ईमारत का निर्माण जहाँ से शुरू होता हैं उसकी नींव में जो मजबूत शिलायें लगाई गयी हैं उनमें से एक पर ‘रजतपट की प्रथम पटरानी’ और ‘ड्रीम गर्ल’ का तमगा हासिल करने वाली ‘देविका रानी’ का नाम खुदा हुआ हैं जिसे वक़्त की आंधियां और उनके बाद आने वाली अनगिनत अदाकारायें भी हिला तक न सकी हैं क्योंकि इसकी आधारशिला को इतना दमदार बनाने के लिये उस दौर के अतिस्वपनदर्शी मेहनती और कुछ भी कर गुजरने की अद्भुत क्षमता रखने वाले कलाकारों ने किसी ईट-गारे या मिट्टी का नहीं बल्कि निरंतर अपने अथक परिश्रम के अलावा उसे साकार करने के लिये अकल्पनीय सोच को हर स्तर तक ले जाते हुये उसका निर्माण करते समय अपनी देह से बहने वाले पसीने में अपने अंदर के आब के साथ-साथ रगों में दौड़ने वाले लहू को भी सींच दिया था जिसकी वजह से वो स्थान जिसे हम आज ‘बॉलीवुड’ के नाम से जानते हैं को मूर्त रूप हासिल हो सका ऐसे में जब इसे बनाने वाले किसी भी कलाकार का स्मृति दिवस आता तो स्वतः ही कलम उसके प्रति अपने उद्गारों को अभिव्यक्त करने को मचल उठती कि भले ही वो अब न रहें लेकिन यदि वो सचमुच न होते तो क्या ये सब संभव हो पाता क्योंकि उस शुरूआती लेकिन सबसे कठिन दौर में इन लोगों ने किसी भी तरह की परिस्थिति या हालात या साधनहीनता या अभाव को अपने मार्ग में रोड़ा नहीं अटकाने दिया बल्कि यदि किसी तरह की कोई समस्या आई भी तो सबने मिलकर उसका हल खोजा और यही वजह हैं कि उस समय हमारे देश में सभी तरह की तकनीक और उत्कृष्ट दर्जे के साधन न होने के बावजूद भी कभी किसी ने भी अपना काम नहीं रोका और जब-जब किसी के सामने कोई भी संकट आया तो उसने घुटने मोड़ने के बजाय आगे बढ़कर उसका सामना करते हुये कुछ ऐसा कर दिखाया कि देखने वाले दांतों तले अंगुली दबाकर रह गये तभी तो हमारा ये ‘हिंदी सिनेमा’ जो प्रारंभ में किसी नवजात शिशु की भांति मूक और कमजोर था वो न सिर्फ धीरे-धीरे सबल बना बल्कि उसने चलना-बोलना और दौड़ना भी सीखा और आज तो वो विश्व के आधुनिकतम तकनीकी फिल्मों से भी टक्कर ले रहा हैं तभी तो हमारे यहाँ के उच्च दर्जे के अदाकार और तकनीशियन को देश के बाहर भी लोग जानते हैं उनका सम्मान करते हैं और ये सब केवल आज ही नहीं उस समय भी होने लगा था जब सीमित साधनों में ही हमारे यहाँ के दिग्गजों ने किसी बेमिसाल कृति की रचना की थी

‘देविका रानी’ एक ऐसी हस्ती जो कि देश के प्रथम ‘नोबल पुरस्कार’ प्राप्त करने वाले हमारे राष्ट्रिय कवि और गुरु ‘रविन्द्रनाथ टैगोर’ के खानदान से ताल्लुक रखती थी और ३० मार्च, १९०८ में विशाखापटनम में एक कर्नल पिता ‘एम.एन. चौधरी’ के घर पैदा हुई थी और अपनी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद बहुत जल्द डनाट्य विधा में प्रशिक्षण लेने के लिये ‘लंदन’ चली गईं और वहाँ जाकर उन्होंने  'रॉयल एकेडमी आफ ड्रामेटिक आर्ट' (RADA) के अलावा ‘रॉयल एकेडमी आफ म्युजिक' जैसे नामी-गिरामी संस्थाओं में प्रवेश लिया जो ये ज़ाहिर करता हैं कि उनके भीतर शुरू से ही अभिनय के प्रति रुझान था और परिवार की सहमति होने से उन्हें उस समय में भी विदेश जाने का अवसर मिल सका जहाँ पर उन्होंने अपनी प्रतिभा के दम पर स्कॉलरशिप प्राप्त कर अभिनय के साथ-साथ आधुनिक सभ्यता को भी करीब से देखा शायद, तभी उनके अंदर भी एक अलग तरह की ‘बोल्डनेस’ भी आ गयी जिसकी वजह से उन्होंने उस कालखंड से आगे की सोच दर्शाते हुये कुछ ऐसे काम किये जो उस समय सोचना भी नामुमकिन था अपनी संजीदा व संवेदनशील अदाकारी के साथ नयनाभिराम मासूम सुंदरता से अभिनय के ऐसे जलवे बिखेरे कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाकर अपनी कलाकारी का परचम फहरा दिया और हमारे यहाँ उन्होंने सिनेमा के इतिहास की किताब में ऐसी इबारत लिखी जिसने सुनहरे पर्दे पर अपने हाव-भाव से जीवंत किये जाने चरित्रों के लिये नूतन मूल्य और मापदंड स्थापित कर दिये और आगे आने वाली पीढ़ी को भी ज्ञात हुआ कि वास्तव में चलचित्र सिर्फ़ एक स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत का ही आईना हैं  

हमारी फिल्मों ने बोलना शुरू ही किया था कि तभी उसे इस अदाकारा की जबान और अदाकारी का साथ मिल गया और इस तरह १९३३ में उनकी पहली फिल्म ‘कर्मा’ का निर्माण हुआ जिसने सिर्फ अपने देश में ही नहीं विदेश में लोगों को प्रभावित किया और यह पहली फिल्म थी जिसका अंग्रेजी संस्करण भी बना जो यूरोप में प्रदर्शित हुआ बस, इसके बाद उन्हें यहाँ और वहां दोनों जगह समान रूप से नाम और पहचान हासिल हुई जिसके बाद उन्होंने सुप्रसिद्ध निर्माता और अभिनेता ‘हिमाशु रॉय’ से न सिर्फ शादी कर ली बल्कि दोनों से साथ मिलकर उस समय में ‘बॉम्बे टॉकीज’ जैसी प्रतिष्ठित कंपनी का निर्माण किया जिसे आज भी सिनेप्रेमी भूल नहीं सकते क्योंकि इसके अंतर्गत काम करना ही किसी कलाकार के लिये गौरव की बात होती थी और इसने न जाने कितने नये संघर्षरत कलाकारों को मौका देकर उनका भविष्य बना दिया इसी के बैनर तले बनी ‘अछूत कन्या’ और उसमें शीर्षक रोल करने ‘देविका रानी’ व ‘अशोक कुमार’ पर फिल्माये एक गीत ‘मैं वन की चिड़िया बनकर वन-वन डोलूं रे...’ को अब तक कोई भी विस्मृत न कर सका होगा इस फिल्म के बाद तो उनके प्रशंसकों ने उनको न जाने कितने नाम, न जाने कितने तमगे और उपाधियों से नवाज दिया और इस तरह अभिनेत्री निर्मात्री ‘देविका रानी’ बन गयी ‘फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन स्क्रीन’ और आज तक उनसे ये उनकी ये पहचान कोई भी नहीं छीन सक... इसके साथ-साथ उन्होंने हर तरह के पुरस्कार के साथ-साथ सर्वोच्च सिने सम्मान ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ भी प्राप्त किया... और ९ मार्च १९९४ को हम सबको अलविदा कर चली गयी अपनी मधुर स्मृति की विरासत सौंपकर... तो आज उनके जन्मदिवस पर उनको सभी सिने प्रेमियों की तरफ से ये प्रेमांजली... शब्दांजली... श्रद्धांजली... :) :) :) !!!  
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३० मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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रविवार, 29 मार्च 2015

सुर-८६ : लघुकथा --- 'मातम' !!


माँ कई दिनों से महसूस कर रही थी कि ‘समर’ आजकल काफी बदल गया हैं वो अब पहले जैसा खुशमिज़ाज नहीं रह गया बल्कि उदास नज़र आता हैं कुछ पूछो भी तो जवाब नहीं देता यहाँ तक कि उसके दोस्तों का आना भी बंद हो चुका था ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो किससे पता करें कि हुआ क्या हैं ?

आज उसने ठान लिया था कि वो इसके पीछे की वजह जानकर ही रहेगी इसलिये जब शाम को  ‘समर’ घर आया तो माँ उसे चाय देकर हंसते हुए बोली, देख बेटा तेरे किसी दोस्त की शादी का कार्ड आया हैं और अब तू भी जल्दी से शादी कर तो मैं भी इसी तरह सबको तेरी शादी का निमंत्रण भेंजू

समर ने अनिच्छा से कार्ड लिया पर जैसे ही नाम पर नज़र पड़ी ‘नंदिता संग रणवीर’ वो चौंक गया और उसे पता ही नहीं चला कब उसके हाथों ने उसे किनारे से फाड़ दिया वो तो जब माँ चिल्लाई कि बेटा, ये तू क्या कर रहा हैं ये कोई ‘शोक पत्र’ नहीं जिसे तू यूँ फाड़ रहा हैं, ये तो शादी का कार्ड हैं तब उसे होश आया और वो बुदबुदाया... माँ आज मेरा प्यार मर गया... ये मेरे प्यार का शोक संदेश ही तो हैं      

माँ उसे जाते हुये देखती रही और बिना कुछ पूछे ही उसके ग़मगीन होने का कारण जान गयी
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२९ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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शनिवार, 28 मार्च 2015

सुर-८५ : "मर्यादा पुरुषोत्तम राम... नहीं बनना आसान...!!!"

‘राम’
एक नाम
इसमें बसे चारों धाम
बस, लो सुबह और शाम
बन जाते सब बिगड़े हुये काम
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मित्रों...,

ये लिखते हुये बड़ा गर्व हो रहा हैं कि भले ही युग बदलकर ‘त्रेता’ से ‘कलयुग’ बन गया लेकिन इस अत्याधुनिक तकनीकी युग में भी शायद ही कोई ऐसा घर हो जहाँ पर ‘रामचरितमानस’ या ‘रामायण’ जैसे पवित्र धार्मिक ग्रंथ न हो या कोई भी ऐसा इंसान हो जो कि ‘राम’ नाम या उनकी कथा से भलीभांति परिचित न हो हम सब अपने बाल्यकाल से ही इस ‘रामकथा’ को सुनते हुये ही धीरे-धीरे बड़े होते हैं और उसके हर एक पात्र को इस तरह से जानने लगते हैं कि वो हमारे परिवार और जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं उनकी ये कहानी इतने सारे आदर्श पात्र और पावन सीखों से भरी हुई हैं कि यदि हम किसी भी एक को ही अपने जीवन में उतार ले तो भले ही उस उच्चतम शिखर तक न पहुँच पाये लेकिन सबसे निम्न स्तर पर रहकर भी जिस तरह का व्यक्तित्व निर्मित करेंगे वो हमारे इस मानव जन्म को सार्थकता प्रदान करने के लिये पर्याप्त होगा क्योंकि सभी चरित्र अपने आप में परिपूर्ण और पारसमणि के समकक्ष हैं जिनके स्पर्श मात्र से हमारा वजूद भी स्वर्ण की तरह कांतिमय बन सकता हैं ये एक ऐसा महानतम धर्मग्रंथ हैं जिसमें कि मानव, वानर, भगवान, नायक, खलनायक और हर तरह के किरदार हैं जो अंततः प्रेरणा बनकर उभरते हैं तभी तो आज तलक भी इस कथा का मंचन किया जाता हैं इसका परिवेश बदलकर इसे नवीनतम स्वरुप में ढालकर प्रस्तुत किया जाता हैं जिससे कि हम ये जान सके कि किस तरह एक इंसान अपने संकल्प और लक्ष्यों का निर्धारण कर किस तरह एक-एक सोपान पार करते हुये भगवान बन जाता हैं और सदियाँ गुजर जाने के बाद भी उसका नामोनिशान मिटता नहीं बल्कि और गहरा होता जाता हैं कि क्योंकि ये कोई गढ़ी या रची गयी कहानी नहीं एक शाश्वत सच्चाई हैं स्वर्ग से उतरी पवित्र गंगा की धारा तरह जो अनवरत बहते हुये अब भी हमारे पापों को धो रही हैं  

अयोध्या के महाराजा ‘दशरथ’ ने अपने चौथेपन में बड़ी कठिन तपस्या के बल पर चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि को जब ‘पुष्य नक्षत्र’ ने अपनी प्रथम चरण में कदम रखा था तो एक नहीं चार पुत्रों को एक साथ पाया था जो एक से बढ़कर एक थे लेकिन सबसे बड़े ‘राम’ ने अपनी वय और रिश्ते में सबसे बड़े होने के कारण बालपन से ही जिस तरह की जिम्मेदारी और गंभीरता का आवरण ओढ़ा तो फिर सारा जीवन उसका निर्वाह किया और वो अपने तीनों छोटे भाइयों के लिये एक ऐसे बड़े भाई बन गये जिनकी छाया का अनुगमन करते हुये वो सभी आजीवन उनके पीछे-पीछे चलते रहे उन सबने बचपन के खेल साथ खेले और फिर विद्याध्ययन के लिये भी एक साथ ही गुरुकुल गये जहाँ सबने एक जैसी शिक्षा ग्रहण की और उस जगह अपने राजमहल की सुख-सुविधा के अलावा अपने माता-पिता से दूर होने के कारण ‘राम’ ने सभी का एक पालक की तरह ध्यान रखा और इसकी वजह से उनके बीच स्नेह का ऐसा नाता जुड़ा कि वे लोग बिना कहे-सुने भी एक दूसरे को सुनते और समझते थे तभी तो जब ऋषि विश्वामित्र राम को लेने आये तो उनके प्रिय अनुज लक्ष्मण भी उनके साथ चले आये और सबका विवाह भी एक साथ ही हुआ फिर जब माँ कैकयी की वजह से उनके पिता द्वारा मज़बूरी में उनको वनगमन का आदेश दिया गया तो भी उनके छोटे भाई लक्ष्मण उनके साथ थे और अब तो उनकी भार्या ‘सीता’ का भी संग उनको मिल गया था

‘राम’ ने अपने जीवन में हर तरह की मर्यादा का पालन किया एक पुत्र, भाई, पति, मित्र, राजा और वनवासी याने कि हर रूप में उन्होंने अपने आपको जिस तरह से ढालकर अपने कर्तव्यों का पालन किया वो सबके लिये मिसाल बन गया और जो भी संकल्प या व्रत लिया उसे हर हाल में पूरा किया इसलिये तो उन्हें सिर्फ ‘राम’ नहीं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहा जाता हैं उनके जैसा बन पाना सब चाहते हैं लेकिन हम ये सोचते कि वो तो भगवान थे इसलिये उनके लिये कुछ भी असम्भव नहीं था जबकि यदि हम उनकी कथा का गहन विश्लेषण करें तो धीरे-धीरे उनके मानवीय स्वरूप को आदमकद होते पाते हैं जो कि इतना विशाल हो जाता हैं कि हम खुद को उस तरह बनाने में अक्षम पाते तो उनको भगवान कहकर अपने आपको कमतर समझते जबकि उनका जीवन चरित हम सबको यही प्रेरणा देता कि यदि हम सब उनकी तरह ही मर्यादित संयमित जीवन जिये तो समाज में उसी तरह एक आदर्श स्थापित कर सकते हैं... उनकी जन्मोत्सव के इस पुनीत अवसर पर हमें यही व्रत लेना चाहिये कि हम भी हर परिस्थिति में अपने फर्ज़ से न डिगेंगे और जो भी ध्येय हैं उसे प्राप्त करने के लिए हर बुराई, हर अन्याय और हर आततायी से लड़ेंगे... फिर देखना वो भी हमारा साथ देंगे... हमें आगे बढ़ने का साहस देंगे... जय श्रीराम... पतित पावन सीताराम... :) :) :) !!!    
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२८ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शुक्रवार, 27 मार्च 2015

सुर-८४ : "आई महाष्टमी की रात... मांग लो मनचाहा वरदान...!!!"

कुलदेवी
का महापूजन
परिवार का मिलन
होता एक साथ   
जब आती ‘अष्टमी’ की रात
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मित्रों...,

‘नवरात्र’ के आने से पहले ही माहौल में आध्यात्मिकता का पावन रस घुल जाता और जैसे-जैसे ये दिन-रात आगे बढ़ते लोग प्रतिदिन की साधना-उपासना हवन-पूजन से उतने ही ज्यादा भक्ति भाव से सराबोर होते जाते और आस-पास के वातावरण में भी उसी धार्मिकता का असर देखा जा सकता जिसके कारण अखिल ब्रम्हांड आदिशक्ति माँ जगतारिणी के चरणों में नतमस्तक दिखाई देता और हर जगह से समवेत स्वर में ‘जय माता दी’ के  जयकारे के साथ उनके पवित्र मन्त्रों के मद्धम स्वर सुनाई देते जिसकी प्रतिध्वनी से धरती-आकाश गूंज उठता कुछ लोग पुरे नौ दिन ही नियम-संयम का पालन करते हुयें माँ के अलग-अलग रूपों की पूजा करते और कुछ ‘पंचरात्र’ का निर्वाह करते तो कुछ भक्तगण अंतिम तीन दिन उनको समर्पित कर देते वैसे भी व्रत और उपवास दोनों के वास्तविक मायने एकदम अलग होते हैं अतः हर कोई अपने हिसाब से जितना कि वो खुद को साध सकता उसके अनुसार ही संकल्प लेकर पूजा-पाठ करता तो कोई केवल नाम जप का सहारा लेता तो कोई नित उनके दर्शन के लिये दूर किसी मंदिर को जाता या कोई रोज नंगे पांव उनके ठिकाने पर जाकर उनको जल चढ़ाता इस तरह जिससे भी जो कुछ बनता वो अपनी इस जगत माता के लिये करने तत्पर रहता क्योंकि सब जानते कि माँ केवल श्रद्धा भाव की भूखी हैं जिनको किसी भी कठिन तप या योग से नहीं केवल शुद्ध पवित्र मन से अपनी संतान के द्वारा उनके लिये अर्पण किये गये मनोभावों से ही प्रसन्नता होती हैं और जिसके अंतर में वो कोमल भावनायें होती उसे किसी भी तरह के साधन की जरूरत नहीं हैं

आज का दिन तो सबके लिये सर्वाधिक पुण्यदायी हैं क्योंकि शायद ही कोई परिवार हो जहाँ पर की घर के सारे सदस्य एकत्रित होकर अपने खानदान की कुलदेवी की वार्षिक पूजा न करते हो क्योंकि इसी से तो घर के धन-धान्य के भंडार भरे रहते कोने-कोने में शांति का निवास और सबके चेहरों पर खुशहाली दिखाई देती सभी की कोई न कोई कुलदेवी होती जिसे पूजने दूर-दूर रहने वाले पारिवारिक सदस्य भी इस दिन के लिये दौड़े चले आते इस तरह ये केवल एक औपचारिकता का निर्वहन नहीं बल्कि हमारी संस्कृति और परम्परा का पीढ़ी दर पीढ़ी चलायमान हैं और यही छोटे-छोटे रीति-रिवाज़ होते जो सकल परिवार को एक सूत्र में बांधे रखते अतः माँ का आगमन और विसर्जन दोनों ही हमारे लिये पुण्यदायिनी होता क्योंकि उनकी विदा करते समय भी सबके मन में यही कामना रहती कि माँ फिर से आये और हम सब इसी तरह एक साथ उनके चरणों में बैठकर उनके निमित्त आहुति देते हुए उनके पुनरागमन का निवेदन करें आज प्रातःकाल से ही हर एक घर में आठवाई हलवा का प्रसाद बनाकर उनको भोग लगाया जाता और रात्रि में जागरण कर उनकी आराधना की जाती कि वो सबके मध्य स्नेह भाव बनाये रखे जिससे कि सब इसी तरह फिर मिल-जुलकर अपनी मातारानी का आहवान करें

नवरात्र में यूँ तो हर दिन के अलग-अलग देवी होती जैसे कि अष्टमी तिथि की देवी ‘महागौरी’  को माना गया हैं लेकिन ऐसी भी मान्यता हैं कि प्रथम तीन दिन जगतजननी माँ दुर्गा, अगले तीन दिन धन की देवी महालक्ष्मी और अंतिम तीन दिवस में विद्या की देवी माँ सरस्वती के रूपों की पूजा की जाती हैं... जिससे की भक्तगण उनसे शक्ति, ऐश्वर्य और ज्ञान प्राप्त कर अपना जीवन सफ़ल बना सके तो फिर सभी लोग आज रात माँ से निर्मल बुद्धि प्रदान करने की मनोकामना व्यक्त करें जिससे कि जीवन की गाड़ी को सहजता से पार लगाया जा सके... जय माता दी... :) :) :) !!!
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२७ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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गुरुवार, 26 मार्च 2015

सुर-८३ : "हर स्त्री हैं... अष्टभुजी त्रिनेत्रधारी....!!!"

अंबा
दुर्गा
काली
या फिर
जो भी हो  
चाहे उसका नाम
पर, जब तक वो हैं शांत
बस... तब तक ही हैं आपकी शान
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मित्रों...,

साधना-उपासना के ये नौ दिन आते ही इसलिये हैं कि हर कोई अपने भीतर की अव्यवस्थित ऊर्जा को एकत्रित कर इस तरह संगठित कर ले कि आने वाले दिनों की मुश्किलात का सहजता से सामना कर उससे बाहर निकल सके साथ ही इस संचित ऊर्जा का उपयोग अपने लक्ष्य को साधने के लिये कर सके जिससे कि जो भी स्वप्न उसने देखें हैं उसे साकार कर जीवन को सार्थकता प्रदान कर सके तभी तो सम्पूर्ण जगत में सारे भक्तों के सामूहिक तपोबल से उत्पन्न सूक्ष्म तरंगों के प्रसारण से हम लोग आस-पास के वातावरण में भी उस को महसूस कर पाते हैं और अपने आप ही उत्साह से भर नूतन स्फूर्ति के साथ अपने कामों को अंजाम देते हैं इन दिनों साधक जिस अदृश्य शक्ति की उपासना करते वो कोई और नहीं वास्तव में नारी का ही प्रतीकात्मक स्वरूप हैं और जिस दैवीय मूरत की सभी लोग पूजा करते हैं वो हमारे भीतर समाया हुआ शक्ति का अंश हैं और हर स्त्री उसी का मानवीय अवतार हैं भले ही हमें उसकी वो अष्टभुजा या तीसरा नेत्र दिखाई न दे लेकिन होता जरुर हैं अंतर केवल इतना हैं कि ये केवल हमारे भीतर छूपी हुई आठ शक्तियों और उस तेज का परिचायक हैं जिसे जागृत कर हम भी मानव से भगवान के स्तर तक पहुँच सकते हैं

देवी की आठ भुजाओं और उसमें पकड़े हुये अलग-अलग अस्त्र-शस्त्रों एवं माथे पर नज़र आने वाले तृतीय दिव्य नेत्र की अवधारणा गहन चिन्तन और दर्शन का विषय हैं जो कि एक  साधारण इंसान के अंदर सुप्तावस्था में उपस्थित होती हैं लेकिन अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को विषय विकारों में उलझाने की वजह से हम उसे समझ नहीं पाते इसलिये तो हर किसी में आपको वो आभामंडल नज़र नहीं आता जो किसी विशेष व्यक्तित्व के चारों और एक ऐसा वृत बनाता कि उसे देखने या मिलने वाला सहज में उसके प्रति आकर्षित हो जाता इसलिये तो जिसे भी ये रहस्य समझ में आता वो अपनी अनवरत की कठोर साधना दृढ़ निश्चय शक्ति से उसे जगाकर आम से ख़ास बन जाता हैं जबकि दूसरा केवल उसका अनुसरण कर उसका अनुगामी या शिष्य बन जाता अपने भीतर की इस सोयी हुई ताकत को जगाने के लिये जिस तपस्या की आवश्यकता होती वो सबके लिये असंभव तो नहीं लेकिन किसी-किसी के मन में ही उसे जगाने की इच्छा होती और वही साधक ऐसा कर पाता जो संयम के साथ अपने चेतन का अवचेतन के साथ सामंजस्य बिठा लेता जहाँ पर ये सारी की सारी ताकतें ख़ामोशी से सोती रहती लेकिन जब उन पर मंत्रोचार और ध्यान की सतत चोट की जाती तो धीरे-धीरे वो अपनी आँखें खोल देती और बस उसी पल आपके अंदर असीम ऊर्जा का एक विशाल स्त्रोत फूट पड़ता जिसके कारण आपके लिए कुछ भी कर पाना असम्भव नहीं होता

हमारे धर्मग्रन्थों और वेदशास्त्रों में इस तरह के योग और कुंडलिनी जागरण करने की अनेकानेक विधियों का वर्णन हैं जिनके द्वारा हम ये काम कर सकते पर, खुद पर ही नियन्त्रण न हो पाने की वजह से हम उसे करना नहीं चाहते और फिर आज के शॉर्टकट के जमाने में हर कोई कम से कम समय में अधिक लाभ कमाना चाहता इसलिये वो ऐसे उपाय ढूंढता जिनसे झटपट उसका काम बन जाये तो इस तरह के तरीकों की भी कमी नहीं लेकिन ये उसी तरह के होंगे जो आपको क्षणिक लाभ ही दे सकेंगे पर, सबके लिये सबसे आसान जो तरकीब हैं वो तो उसे भी नहीं अपनाना नहीं चाहता तभी तो देवी की पूजा करने वाला ही उसके साक्षात् रूप की अवहेलना करता जबकि यदि हर कोई ‘मनुस्मृति’ के केवल इस मंत्र को जो दर्शाता हैं कि “जहाँ नारी की पूजा होती हैं वहां देवता निवास करते हैं” को ही अपने जीवन में उतार लेते तो आज हर घर में सुख-शांति और खुशियों का निवास होता क्योंकि हर एक औरत के अंदर ‘दुर्गा’ या ‘काली’ या ‘अंबा’ या जिस भी नाम से हम ‘देवी’ को याद करें का वही तेजोमय अष्टभुजीय त्रिनेत्रधारी स्वरूप समाया हुआ हैं जिसे वो खुद बड़ी मुश्किल से दबाकर रखती ताकि घर-घर खुशहाली रहें... हर किसी के चेहरे पर मुस्कान खिलती रहें... क्योंकि वो जानती हैं कि जिस दिन उसने वो रूप धारण कर लिया कोई उस अपार तेज को झेल नहीं पायेगा... तो फिर इससे सहज-सरल और कुछ नहीं कि हर कोई देवी की पूजा करें न करें लेकिन उसके इस मानवीय रूप को कतई अपमानित या शर्मसार न करें... बस, इतने में ही वो उसके उस अन्नपूर्णा और लक्ष्मी रूप को प्रसन्न कर अपने जीवन को सुखी कर सकता... और यदि कभी गलती से उसका वो रोद्र रूप सामने आ ही जाता तो फिर सभी जानते हैं कि किस तरह सब कुछ एक पल में खत्म हो जाता... यदि वो सृजनकर्ता और जननी हैं तो संहारक और विध्वंशक भी हैं ये आप पर निर्भर करते कि आप उसे किस रूप में देखना चाहते हैं... :) :) :) !!!           
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२६ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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बुधवार, 25 मार्च 2015

सुर-८२ : "कलमकार पत्रकार... 'गणेश शंकर विद्यार्थी' का वार... 'प्रताप'!!!


दूसरों को
बचाने ख़ातिर
जान अपनी दे गये
पर, मरकर भी अमर हो गये
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मित्रों...,

ये तो इस देश का और हम सबका सौभाग्य हैं कि इस पावन भूमि पर ऐसी महान और देशभक्त आत्माओं ने जनम लिया कि यदि हम रोज भी किसी एक के प्रति अपने मनोभावों को प्रकट कर उसे आभार व्यक्त करें तो भी दिन कम पड़ जायेंगे लेकिन इन अमर शहीदों की गिनती न खत्म होगी वाकई ये सत्य हैं कि काल के अनुसार ही एक समय में एक जैसी आत्मायें पैदा होती हैं जो अपने कृत्यों से एक समान कार्य कर ऐसा ऊर्जावान वातावरण तैयार करती हैं कि अन्य लोग भी उसके वशीभूत होकर उसी कर्मधारा में प्रवाहित होकर उसी तरह के नेक काज करते हैं तभी तो जब ये देश गुलाम था उस वक़्त हर उम्र का देशवासी अपनी मातृभूमि और अपनी प्यारी भारत माता के बंधन की कल्पना कर उस कसमसाहट को महसूस कर तड़फड़ा रहा था और सभी ने अपने मन में ये संकल्प लिया कि वो अपने वतन को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिये जो भी संभव होगा सब कुछ करेंगे इसलिये तो जिससे भी जो कुछ भी उससे बन पड़ा उसने वो सब कुछ किया बच्चे, बड़े, बूढ़े, औरतों आदि सभी ने स्वतंत्रता संग्राम के उस पुनीत यज्ञ में अपने-अपने कर्मों और बलिदान की आहुति डाली जिससे कि इस सामूहिक प्रयास से उन डोरियों की कसावट कुछ कम हो जाये, गुलामी की वो जंजीरे कुछ कमजोर हो जाये ये शायद, सभी की कोशिशों का नतीजा था कि उनके इन छोटे-छोटे प्रहारों ने लोहे की उन मजबूत जंजीरों को न सिर्फ़ तोड़ा बल्कि अपनी माँ और अवाम को स्वतंत्र कर उसे खुली हवा का उपहार दिया जिसकी वजह से हम सब आज इस माहौल में बिंदास जी पा रहे हैं लेकिन हमें इतना कृतध्न भी नहीं बनना चाहिये कि जब हमारे किसी भी क्रांतिकारी जिसने कि हम सबको स्वतंत्रता की अनमोल सौगात देने में अपने प्राणों का बलिदान दिया हैं कि कोई भी तिथि आये तो हम सब उसे न सिर्फ याद करें बल्कि जिस तरह भी हो उसे श्रद्धांजलि अर्पित करें

कल ही हम सबको सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आई.टी. कानून से ‘66A आर्टिकल’ को रद्द करते हुये  ‘इंटरनेट’ की विशाल दुनिया में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का तोहफा मिला और आज ही फिरंगियों के शासनकाल में जबकि बोलने तक पर पाबंदी थी अपनी कलम के माध्यम से ‘पत्रकारिता’ के क्षेत्र में सरकार की नींव को हिला देने वाले एक निर्भीक और जुझारू कलमकार होने के साथ-साथ उतने ही बड़े देशभक्त, समाजसेवी एवं राजनीतिज्ञ ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ की पुण्यतिथि हैं जिन्होंने किसी अस्त्र-शस्त्र नहीं बल्कि अपनी बेबाकी और अभिव्यक्ति के एक अलहदा अंदाज़ और छोटी-सी कलम से ही अंग्रजों को नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया था २६ अक्टूबर १८९० को इस देश के कानपुर शहर में इस वीर सपूत ने जनम लिया इनकी प्रारंभिकशिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी जहाँ पर उन्होंने उर्दू-फ़ारसी का गहन अध्ययन किया पर अपनी परिवार की आर्थिक मजबूरियों की वजह से वो अधिक पढ़ न सके और एंट्रेंसतक पढ़कर ही उन्हें बीच में ही अपनी पढाई अधूरी छोड़नी पड़ी लेकिन इन कठिनाइयों के बावजूद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा जिसकी बदौलत उन्होंने अपनी सतत मेहनत और अपूर्व लगन से पत्रकारिता के सभी दांव-पेंच को सहेज कर अपने आपको एक निडर कलम का धनी बना लिया और उनकी इस प्रतिभा के दम पर उनको एक नौकरी भी मिली गई पर, अपनी निष्पक्षता, ईमानदारी और बेबाकी ने अंग्रेज़ अधिकारियों को उनका शत्रु बना दिया और उन्होंने गुस्से में आकर वह नौकरी छोड़ अपना स्वतंत्र काम करने का निर्णय लिया ये थे उस दौर के ‘रियल हीरो’ जो किसी से नहीं डरते थे और अपनी बात बेखौफ़ कहते फिर चाहे सामने उनके कोई भी खड़ा हो तभी तो जब इस देश पर ब्रिटिश शासन था तब भी जो सत्यवान थे वो बिना किसी डर के सत्य की राह पर चलते रहें ‘सत्यमेव जयते’ के सूत्र को अपने कर्म से सिद्ध कर गये

अपने देश के लोगों में नवजागृति लाने और उनके सुप्त होते जोशों-खरोश में नवीन चेतना का संचार करने के लिए उन्होंने महाराणा प्रतापके हौंसलों और हिम्मत से प्रेरणा लेते हुये प्रतापनामक एक साप्ताहिक समाचार-पत्रका प्रकाशन शुरू किया जिसका प्रथम अंक ९ नवम्बर १९१३  को प्रकाशित हुआ अपने इस अंक से ही उन्होंने लोगों को प्रेरणा देने हेतु ऐसी पंक्तियों का सहारा लिया जिसे पढ़ते ही लोगों के खून में उबाल आ जाये और इस तरह से ये पंक्तियाँ उनके हर अंक में छपने लगीं---

"जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
यह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है"।।

अपने स्वप्न के साकार रूप इस प्रथम अंकमें ही उन्होंने उसकी नीति, उसके उद्देश्य और कार्यक्रम पर प्रकाश डालते हुये लिखा कि---

आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर पूरा विश्वास रखकर प्रतापकर्मक्षेत्र में उतरा है। समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परम उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं” ।

अपने भाई-बहनों की रगों में जोश भरने के लिये उन्होंने अपने समाचार-पत्र को माध्यम बनाकर ऐसे उत्साहवर्धक संदेश प्रसारित किये---

भारत के नवयुवकों,

तुम्हारे सम्मुख जो कार्य है, वह अत्यंत महान है सैकड़ों नहीं, सहस्त्रों नहीं, लाखों माताओं के लाल जिस समय तक अपने देशवासियों की अनन्य सेवा में अपने समस्त जीवन को व्यतीत न करेंगे, तब तक इस महान कार्य का सिद्ध होना संभव नहीं है । यदि तुम सच्चे मनुष्य बनना चाहते हो, तो अपनी शिक्षा का उचित प्रयोग करना सीखो । स्वार्थ त्याग दो, हर प्रकार के व्यक्तिगत सुखों को तिलांजलि दे दो निज मातृभूमि को मृत्यु से बचाकर अमरत्व की ओर ले जाने का भी यही उपाय है।

कहते हैं कि अपनी साहित्य साधना के दौरान एक बार गणेश शंकर की भेंट पंडित सुन्दरलालजीसे हुई जिन्होंने  उनको हिन्दीमें लिखने का गुरुमंत्र और विद्यार्थीका उपनाम भी दिया जिसे उन्होंने अपने नाम के साथ सदा-सदा के लिये ऐसा जोड़ लिया कि आज भी उनका नाम इसके बिना अधुरा प्रतीत होता हैं यहाँ तक कि उनके जीवन काल में कभी ऐसा अवसर भी आया जब किसी ने उनसे पूछा कि आप अपने नाम के साथ विद्यार्थीउपनाम क्यों लिखते हैं ? तब विद्यार्थीजी ने उतनी ही सहजता से उसे बताया कि--- मनुष्य अपने  संपूर्ण जीवन में कुछ न कुछ सीखता ही रहता है और उसकी वही जिज्ञासु प्रवृति उसे एक सच्चा विद्यार्थीबनाती हैं इसलिये तो मैं अपने नाम के साथ विद्यार्थीजोड़ता हूँ क्योंकि मैं अपने आपको विद्यार्थी मानता हूँ” । उनकी इस कर्म-साधना के मध्य में ही अचानक जब २३ मार्च १९३१ को अंग्रेज हुकूमत से भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी तो पूरे देश में रोष की लहर दौड़ गई जिससे दंगे होने लगे और जिसमें निसहाय लोगों को बचाने खातिर जब वे इस लड़ाई में कूद पड़े तो आज ही के  दिन २५ मार्च १९३१ को उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गयी... इस तरह अपनी अंतिम साँस तक वो देशहित और जनहित में ही लगे रहे आज उनकी इस क़ुरबानी को याद करते हुए उनको ये शब्दांजलि... शत-शत नमन... कोटि-कोटि प्रणाम... :) :) :) !!!
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२५ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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