रविवार, 31 मई 2015

सुर-१५१ : "सोचने से नहीं... हौंसले से बनता कोई 'विजेता'...!!!"

ख्वाहिशें
तो कई होती
हर किसी की ही
पर, पूरी न होती सबकी
जिसने भी जान लिया
सपनों को सच करने का राज़
जिंदगी काम्याब होती बस... उसकी ॥
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मित्रों...,
रीनाबचपन से ही डॉक्टर बनाना चाहती थी तभी तो जब भी उससे कोई ये प्रशन पूछता कि बेटी, बड़ी होकर क्या बनोगी तो वो तपाक से बोलती, ‘डॉक्टर’... लेकिन हकीकत में बनकर रह गयी एक जेहनी मरीज... जिसे लगता कि यदि वो अपने ख़्वाब को पूरा नहीं कर पाई तो इसकी वजह वो नहीं बल्कि दुसरे लोग हैं जिन्होंने कभी तो उसे पढ़ने के लिये पर्याप्त अवसर न दिया और यदि अवसर दिया तो साधन न दिये और जब साधन थे तो तमन्ना ही न रही... मतलब कि उसमें कोई कमी नहीं थी पर, कोई न कोई उसकी राह में रोड़ा अटकाता रहा जिसके कारण वो अपनी मंजिल तक न पहुंच सकी... तभी अपनी हर असफ़लता के लिये वो किसी न किसी को दोषी बताती रहती जबकि असलियत ये थी कि उसके ही इरादों में मजबूती न थी इसलिये हर मुश्किल घड़ी में वो कमजोर पड़ जाती फिर ठीकरा दूसरे के सर पर फोड़ अपने आपको न सिर्फ तसल्ली दे लेती बल्कि मायूस भी होती कि इतनी बड़ी दुनिया में किसी ने भी उसकी काबिलियत को उभारने में उसकी सहायता नहीं की वरना वो तो आसमान ही छू लेती... उसने कभी भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उसे उसके माहौल के हिसाब से उतना समय एवं साधन मिले थे कि वो आसानी से न सही लेकिन थोड़ी-सी कोशिशों से अपनी हसरत को पूरा कर सकती थी लेकिन उसने ही उसे गंवा दिया क्योंकि कहीं न कहीं वो ही उतनी दृढ़ नहीं थी इसलिये उस सुनहरे अवसरों को वो न तो पहचान ही सकी, न ही उसकी कदर कर सकी... साथ ही साथ अपने आपको भी न जान सकी ऐसे में किसी और पर तोहमत लगाना उसे ज्यादा मुफ़ीद लगा ।
रीनाजैसे बहुत-से लोग होते जो बनना तो बहुत कुछ चाहते पर ये भूल जाते कि चाहने से ही कुछ हो जाना मुमकिन नहीं होता उसके लिये मेहनत स्वयं को करनी पडती किसी भी सफ़लऔर असफ़लव्यक्ति के बीच केवल यही अंतर होता जिसके कारण सब उस सीमा रेखा को पार कर उन शीर्षस्थ व्यक्तित्वों में अपना नाम दर्ज नहीं करा पाते... हम कहीं न कहीं कमजोर पड़ जाते जिसका फ़ायदा किसी और को मिले न मिले पर हम जरुर चूक जाते क्योंकि ऐसा कोई नहीं जिसके पास चलकर उसकी मंजिल खुद आये सबको उस तक अपने पैरों पर चलकर ही जाना पड़ता और मार्ग के अवरोधों को भी खुद ही हटाना पड़ता... जिसमें कभी मददगार मिल भी सकता हैं पर, ऐसा होगा ही ये जरूरी नहीं इसलिये न मिले तो भी रुकने की बजाय चलते ही रहना पड़ता बस, यही वजह होती कि जहाँ हम इंतजार में रुक जाते या फैसला ही नहीं कर पाते वहीँ दृढ़प्रतिज्ञत्वरित निर्णय लेकर आगे बढ़ जाते... इसलिये हकीकत यही हैं कि नामुमकिन नहीं कुछ भी बस, उसे पाने के लिये हौंसला चाहिये... जो सबके पास नहीं होता... इसलिये हर कोई विजेतानहीं होता... :) :) :) !!!
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३१ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शनिवार, 30 मई 2015

सुर-१५० : "हिंदी पत्रकारिता दिवस...!!!"

कभी
‘अख़बार’ ही
लाता था खबरें
देश-दुनिया की सभी
जिसे पढ़ने के लिये सब
करते थे बेसब्री से इंतजार
उसकी याद दिलाने ही
सब मिलकर मनाते
‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’
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मित्रों...,

आज भले ही लोग आँख खोलते ही आस-पास अपने ‘मोबाइल’ या ‘टेबलेट’ को टटोलते हो लेकिन एक समय था जब लोगों की सुबह अखबार पढ़ने के साथ ही होती थी और जिस दिन वो न आये समझो सारा दिन उनका मूड ख़राब रहता जिसका खामियाज़ा उनसे मिलने वाले हर किसी को भुगतना पड़ता था ये होती थी उस दौर में ‘समाचार-पत्र’ को पढ़ने की ललक जिसका अंदाज़ा आज लगा पाना मुमकिन नहीं क्योंकि आज तकनीक ने हर किसी को अपनी गिरफ़्त में इस कदर जकड़ लिया कि उसके लिये ये समझ पाना आसान नहीं कि किस तरह लोग ‘न्यूज़ पेपर’ या किताबों का इंतजार करते थे और उसे पाकर उसमें ही खो जाते थे क्योंकि अब तो सब कुछ एक क्लिक पर हाज़िर पर, न तो वो आनंद ही रहा... न ही वो कशिश जो उन्हें उसके लिये लालयित करती थी ‘लैपटॉप’ या अपने ‘मोबाइल’ की स्क्रीन पर किसी भी खबर को सबसे पहले पाने के बाद भी पाठकों को उसके प्रति वो दीवानगी नहीं होती जो उसके प्रारंभिक काल से लेकर पिछले पांच-दस पहले तक लोगों में थी जिनके सामने उतने विकल्प भी तो नहीं थे तो सब तरह की खबरों को जानने के लिये यही लोगों का एकमात्र सहारा था फिर धीरे-धीरे ‘दूरदर्शन’ आया तो लोगों ने पढ़ने के साथ-साथ खबरों का जीवंत प्रसारण देखना भी शुरू कर दिया और अब सभी दर्शकों को उसमें दिखाये जाने वाले समाचारों का इंतजार रहता और वे आज भी उन समाचार वाचकों तक को नहीं भूले जिन्होंने पहले-पहल उनको अपने मुख से देश-विदेश की खबरें सुनायी थी और ‘दूरदर्शन’ का वो सुनहरा दौर था जिसमें आने वाले कार्यक्रमों को देखने वाले आज भी उतनी ही शिद्दत से याद करते जबकि आज तो पल-पल तड़का लगाकर सभी चैनल्स के बीच ग्लैमर के साथ ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ दिखाने की हौड लगी रहती हैं तब भी किसी को उनमें कोई रूचि नहीं होती क्योंकि सब जानते कि आजकल तो ‘न्यूज़’ न भी हो तो बना ली जाती

अब तो मीडिया ने बहुत तरक्की कर ली जिसकी वजह से खबरें ‘कलम’ से ‘कीबोर्ड’ और ‘पेपर’ से ‘स्क्रीन’ तक आ गयी लेकिन बनावटीपन ने उसके प्रति मन में संदिग्धता भी पैदा कर दी हैं जिसके कारण उन पर विश्वास सहज ही नहीं होता हैं लेकिन हम तो बात कर रहे हैं उस जमाने की जब हिंदी पत्रकारिता ने इस देश में जनम ही लिया था... हाँ आज ही के दिन ३० मई १८२६ को ‘पंडित युगुल किशोर शुक्ल’ ने अपने देश का सबसे पहला ‘हिन्दी समाचार पत्र’ निकाला जिसका नाम उन्होंने 'उदन्त मार्तण्ड' रखा इस तरह उन्होंने भारत में ‘राजा राम मोहन रॉय’ द्वारा प्रारंभ की गयी ‘हिंदी पत्रकारिता’ का शानदार विस्तार किया क्योंकि ये माना जाता हैं कि ‘हिन्दी पत्रकारिता’ की शुरुआत ‘बंगाल’ से हुई जिसका श्रेय ‘राजा राममोहन राय’ को दिया जाता है जिन्होंने समाज के कल्याण और जागरूकता के साथ-साथ देश में फैली कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर करने इसका सहारा लिया था और साल १८१६ ‘बंगाल गजट का प्रकाशन किया जिसे कि ‘भारतीय भाषा’ के पहले समाचार पत्र होने का गौरव प्राप्त  है जबकि ‘कलकत्ता’ से ‘पंडित जुगल किशोर शुक्ल’ के संपादन में निकलने वाले उदंत्त मार्तण्डको हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता है।

इस तरह इस देश में ‘पत्रकारिता’ का आगाज़ हुआ जिसने धीरे-धीरे एक बड़े भारी व्यवसाय का रूप इख़्तियार कर लिया और आज तो पूरी दुनिया में उसका अपना जलवा हैं जिसके कारण लोग उसकी विश्वसनीयता पर संदेह होने पर सब कुछ जानते-बुझते भी ‘न्यूज़ चैनल्स’ को ही देखना पसंद करते जो कि अपनी कमाई के कारण विज्ञापन चैनल अधिक नज़र आते हैं पर, कभी दूरदर्शन पर ‘हिंदी’ और ‘अंग्रेजी’ में प्रसारित होने वाले समाचारों के लिये दर्शकों में जो रुझान होता था उसका मुकाबला ये सारे चैनल्स मिलकर भी नहीं कर सकते हैं । फिर भी सारे विश्व को एक सूत्र में बांधने का काम जिस तरह से ये खबरें करती हैं और कोई नहीं कर सकता यदि इनका सही तरह से प्रसारण किया जाए तो इनके माध्यम से बड़ी ही तीव्र गति से कोई खबर एक साथ संपूर्ण विश्व में प्रसारित कर दी जाती तभी तो किसी भी देश में आपदा या खतरा आने पर हर कोई उसके साथ खड़ा नज़र आता जो ये बताता कि ये कितना शक्तिशाली माध्यम हैं जो अदृश्य तरंगों से हम सबको ‘एक’ साथ जोड़कर रखता हैं ऐसे में तो हमें और भी ज्यादा इसकी महत्ता को समझने की जरूरत हैं क्योंकि इसने ही तो हमें एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया हैं अपनी बात कहने का सुअवसर प्रदान किया हैं तो हम इस दिन को किस तरह विस्मृत कर सकते हैं ।

आज हम उन सभी कलमकारों को मन से नमन करते हैं जिन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ बिना किसी भय या दबाब के ‘सच्चाई’ को हमारे सामने लाकर रखा जिसकी वजह से कई लोगों को तो अपनी जान से तक हाथ धोना पड़ा पर वे घबराये नहीं और अपने फर्ज को निभाना अपनी प्रथम जिम्मेदारी समझा... हम सब उनके ऋणी हैं जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर भी हमें उन खबरों से रूबरू कराया जिससे हमें अपने ऐतिहासिक गौरवशाली अतीत के साक्ष्य मिलते हैं... आज ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ पर सभी पत्रकार बंधु-भगिनी को हार्दिक शुभकामनायें... :) :) :) !!!      
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३० मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शुक्रवार, 29 मई 2015

सुर-१४९ : "स्वाभाविक अभिनय से भरपूर... पृथ्वीराज कपूर...!!!"


कल
आज
और कल...
‘कपूर खानदान’
आज भी बरक़रार
‘पृथ्वीराज कपूर’ ने रखी
अभिनय की जो नींव
वो पीढ़ी दर पीढ़ी
होती जा रही और मजबूत...
आज भी कहलाते हैं युगपुरुष    
‘पृथ्वीराज कपूर’ 
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मित्रों...,

‘कपूर खानदान’ हिंदी सिनेमा का एकमात्र खानदान हैं जिसकी लागतार पांच पीढियां अभिनय के क्षेत्र में आज तक सक्रिय हैं और यदि इन्हें बॉलीवुड का पर्याय भी कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी क्योंकि ये परिवार अपनी पूरी आन-बान-शान के साथ इसी के दम पर अपना अपना परचम फ़हरा रहा हैं जिसकी नींव लगभग हिंदी सिनेमा की स्थापना के साथ-साथ ही रख दी गयी थी यूँ तो हम सभी ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि ‘दादा साहब फाल्के’ हिंदी सिनेमा के जनक कहलाते हैं क्योंकि उन्होंने ही हिंदुस्तान में चलचित्रों का निर्माण शुरू किया लेकिन यदि हम ये कहे कि इस में अपने अभिनय से जान डालने वाला यदि कोई हैं तो वो हैं ‘पृथ्वीराज कपूर जी’ जिन्होंने इसे उसकी बाल्यावस्था में ही इस तरह से अपने पूर्ण समर्पण और त्याग के साथ चार दशक तक इस तरह संवारा कि आज भी उनका द्वारा रोपा गया अभिनय का बीज एक विशाल वट वृक्ष में तब्दील होकर समस्त बॉलीवुड को अपनी छत्रछाया में समेटा हैं तो ये कोई अतिश्योक्ति न होगी । ०३ नवंबर१९०६ को पिता दीवान ‘बशेस्वरनाथ कपूर’ के यहाँ जन्मे जो कि ‘पुलिस विभाग’ में ‘सब इंस्पेक्टर’ के रूप में काम करते थे और ‘पृथ्वी’ ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ‘लायलपुर’ और ‘लाहौर’ (पाकिस्तान) में रहकर पूरी की इसके बाद ही उनके पिता का स्थानांतरण ‘पेशावर’ में हो गया तो फिर उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई ‘पेशावर’ के ‘एडवर्ड कॉलेज’ से करने के साथ-साथ ही क़ानून की पढ़ाई भी की लेकिन बीच मे उनका रूझान थियेटर की ओर होने की वजह से एकाएक उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़कर १९२८ में ही सपनों की नगरी मुंबई जाने के फैसला कर  लिया और पास में पैसे नहीं थे तो अपनी चाची से मदद लेकर पहुंच गये अपने सपनों को साकार करने और ऐसे पहुंचे कि इतिहास ही रच दिया जिस तरह से उन्होंने कदम दर कदम अपनी मंजिल को अपने करीब किया उसकी वजह से तो वे मिसाल बन गये वे यहाँ आकर उन्होंने ‘इंपैरियल फ़िल्म कंपनी’ से अपने काम का आगाज़ किया जिसकी वजह से उन्हें १९३० में 'सिनेमा गर्लनाम की एक फिल्म में काम करने का अवसर मिल गया पर इसके अलावा ‘एंडरसन’ की थिएटर कंपनी के नाटक शेक्सपियर में भी अभिनय किया और इन सभी कामों ने उनके अंदर के कलाकार को जगा दिया और अनवरत प्रयासों से आख़िरकार १९३१ में प्रदर्शित होने वाली भारत की प्रथम बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ में सहायक अभिनेता के रूप में काम करने का मौक़ा मिला गया इस तरह उनके फ़िल्मी कैरियर की शानदार शुरुआत हो गयी थी 

इसके बाद वे ‘कोलकाता’ के मशहूर ‘न्यू थिएटर’ के साथ जुड गये और ‘न्यू थिएटर’ की कई फ़िल्मों मे अभिनय किया जिनमें ‘मंजिल''प्रेसिडेंटऔर इसके बाद ही वर्ष १९३७ में आने वाली ‘विद्यापति’ ने उनको पूर्ण रूप से स्थापित कर दिया इसमें उनके काम को हर किसी ने पसंद किया और फिर इसके बाद वर्ष १९४१ में आने वाली ‘सोहराब मोदी’ की ‘सिकंदर’ फिल्म में उन्होंने इस तरह से उस किरदार को पर्दे पर जीवंत किया कि अब तो वे सफलता के शीर्ष पर जा पहुंचे । इसके बाद ही उन्होंने वर्ष १९४४ में ‘पृथ्वी थिएटर’ की आधारशिला रखी जो आज भी उतनी मजबूती से सर उठाकर खड़ी हैं जहाँ पर उन्होंने अनेक प्रयोग किये एवं उस जगह की सभी नाट्य प्रस्तुतियों में सामजिक जागरूकता के अतिरिक्त देशभक्ति, मानवीयता, धर्म-अध्यात्म आदि का संदेश देने वाली नाटिका होती थी और ये उस समय के सभी अन्य थियेटरों से एकदम अलग था और वे लोग जो कि सिनेमा के रुपहले पर्दे के दीवाने हो चुके थे पुनः थियेटर की पसंद करने लगे थे  कहते हैं कि सोलह वर्ष में पृथ्वी थिएटर के 2662 शो हुए जिनमें ‘पृथ्वीराज’ ने लगभग सभी शो में मुख्य किरदार निभाते हुए ही फ़िल्मी पर्दे पर भी विविध बहुरंगी किरदार को साकार किया और इस तरह दोनों माध्यमों में संतुलन बनाये रखा और वे ‘पृथ्वी थिएटर’ के प्रति इस क़दर समर्पित थे कि तबीयत ख़राब होने के बावजूद भी वह हर शो में हिस्सा लिया करते थे। यहाँ तक कि ऐसा भी पढ़ने को मिलता हैं कि एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री ‘जवाहर लाल नेहरू’ ने उनसे विदेश में जा रहे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व करने की पेशकश कीलेकिन पृथ्वीराज ने नेहरू जी से यह कह उनकी पेशकश नामंजूर कर दी कि वह थिएटर के काम को छोड़कर वह विदेश नहीं जा सकते इस कदर बेपनाह लगाक था उनको अभिनय और थियेटर से जिनसे कई प्रतिभाओं को उभरने का सुनहरा मौका ही नहीं मंच भी प्रदान किया और आज भी कर रहा हैं 

मेरे ख्याल से ऐतिहासिक फिल्म ‘मुगल-ए-आज़म’ में अभिनीत उनके मुगल सम्राट ‘अकबर’ के चरित्र को तो आज की पीढ़ी ने भी देखा होगा और इस तरह से वो भी उनके नाम और काम से परिचित होगी और उनके पुत्र की ही कालजयी ‘आवारा’ एवं पोते की ‘कल आज और कल’ में भी लोग आज भी उन्हें उसी तरह जिंदादिली से काम करते देखते हैं जो अपने आप में ये बात दर्शाती हैं कि व्यक्ति का कर्म उसे सदियों तक जिंदा रखता हैं उसके जाने के बाद भी केवल उसके माध्यम से ही उसका वजूद बरक़रार रहता हैं इसके अलावा उनका आला खानदान जो अब भी कार्यरत हैं उनके नाम को आगे लेकर जा रहा हैं उनके पुत्र, पोते, पड़पोते और पड़पोतियाँ भी तो अपने परदादा को भूले नहीं जिन्होंने उनके लिए इस स्वपन नगरी के द्वार खोले... अभिनय सम्राट ‘पृथ्वीराज’ को देश के सर्वोच्च फ़िल्म सम्मान ‘दादा साहब फाल्के’ के अलावा ‘पद्म भूषण’ तथा कई अन्य पुरस्कारों से भी नवाजा गया साथ ही  उन्हें ‘राज्यसभा’ के लिए भी नामित किया गया था... ताउम्र सहज-सरल स्वाभाविक अभिनय से वे खुद एक जीती-जागती पाठशाला बन गये थे जो कि आज ही के दिन याने कि २९ मई १९७२ को हम सबको अपनी यादों के साथ छोडकर चले गये.. आज उनकी पुण्यतिथि पर यही हैं उनको हमारी शब्दांजलि... :) :) :) !!!
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२९ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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गुरुवार, 28 मई 2015

सुर-१४८ : "गंगा दशहरा... दूर करें दस पापों का पहरा...!!!"


दूर करती
मनसा वाचा कर्मणा
हर पाप मानवों के
दर्शन मात्र से तर जाते
कलुष भी मिट जाते
सभी देवता और दानवों के
‘गंगा’ सिर्फ़ नदी नहीं
जन्मदात्री माँ... पावन देवी हैं
पूजा कर दीप जलाते
साथ-साथ सब आरती गाते
मिलकर ‘गंगा दशहरा’ मनाते
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मित्रों...,

भारतभूमि ही एकमात्र ऐसी पावन पवित्र स्थली हैं... जहाँ पर पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और नदी-सागर को भी हम पूज्य मानते हैं और उतनी ही श्रद्धाभक्ति से उसकी पूजा करते हैं तभी तो हम सारे विश्व में अलहदा नज़र आते हैं हमारी सभ्यता और संस्कृति जितनी प्राचीन हैं उतनी ही उसकी जड़े गहराई तक जमी हैं जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें समय-समय पर प्रकृति द्वारा देखने को मिल ही जाता हैं जब-जब भी कोई आपदा आई तो इन्हीं आस्थाओं ने हमारे अस्तित्व को मिटने से बचाया हैं अतः हम सब कुछ खत्म होने पर भी पुनः खड़े होने की काबिलियत रखते हैं ‘फिनिक्स’ की तरह हर बार अपनी ही राख से फिर जन्म ले लेते हैं... ये अमरता हमारे जींस, हमारे रक्त में किसी एक दिन की रस्म अदायगी से नहीं बल्कि सदियों से हमारे पूर्वजों की द्वारा की जा रही अनवरत तपस्या से आई हैं जिसने हम सबको भी इसके प्रति जागरूक बनाया और हमने भी अपनी गौरवशाली परम्पराओं की अटूट डोर को उतने ही विश्वास से थामे रखा हैं इसलिये तो आधुनिकता या किसी अन्य संस्कृति का अनुकरण करने के बावजूद भी किसी भी ऐसे पर्व पर हमारी वो पुरातन प्रथा उतने ही गर्व से सर उठाये खड़े नज़र आती हैं जिसके साथ हम भी नूतन ऊर्जा से भरकर आगे बढ़ जाते हैं और इस तरह ही तो हम अपने उस सभ्यता के दामन को पकड़े चलते रहते हैं

यदि ऐसा न होता तो आज ये भी लुप्त होने की कगार पर होती पर ऐसा नहीं हैं अब भी सब ऐसे ही किसी पुण्य दिवस पर हर्ष-उल्लास से भर जाते और एक साथ मिलकर न सिर्फ उसे मनाते बल्कि एक दुसरे को शुभकामनायें देकर उस ख़ुशी को दुगुना कर लेते... तो हम भी अपने मित्रों को इस पवित्र दिवस की हार्दिक शुभकामना देकर इसे सहस्त्र गुना कर लेते हैं... :) :) :) !!!          
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२८ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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बुधवार, 27 मई 2015

सुर-१४७ : "<<< ‘चाबी वाली गुडिया’... तूने मन मोह लिया... >>>"


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मित्रों...,

हम ये सोचते हैं कि इश्क़ तो रब की मेहरबानी हैं सबको हासिल नहीं होता... बड़े किस्मतवाले होते हैं वो जिन्हें सोने-सा खरा प्रेम मिल जाता हैं... मगर, कभी-कभी ये भी देखा हैं कि वो ख़ालिस रिश्ता भी बीच राह में आकर टूट ही जाता हैं... जिसकी वजह अक्सर कोई ‘तीसरा कोण’ होता हैं... क्योंकि नजदीकियां और दिन-रात की संगत से ये एहसास होता हैं कि प्रेमी-प्रेमिका के लिये जो आकर्षण की बातें थी, अब वही विकर्षण का कारण बन गई हैं... ख़ास तौर पर जब दोनों ही एक से प्रतिभाशाली हो तब तो उनका वो ‘हूनर’ ही खलनायक बन उनका अलगाव कराता हैं... बहुत नजदीक से देखने में ये भी पाया हैं कि जब बरसो-बरस पुराना प्यार यूँ बिखरता हैं तो अमूमन प्रेयस को एक ऐसी प्रेयसी मिल जाती हैं जो उसके इशारों पर चलती हैं... उसका हंसना-बोलना, चलना-फिरना, उठाना-बैठना यहाँ तक कि अगला कदम भी उसके दिए निर्देशों पर उठता हैं... ये उसके उस अहं को तुष्ट करती हैं जिसे चोट पहुंची थी क्योंकि उसका अपना कोई वजूद कोई शख्सियत नहीं होती इसलिये महाशय को ये बहुत लुभाती हैं... वो हर समय इन्हें प्रभु मान पुजती रहती हैं और ख़ुद को उनकी प्रेम दिवानी बताती हैं... दिन-रात उनके ही नाम की माला जपती रहती हैं अपना सर्वस्व अपना जीवन वो ख़ुदा की नहीं बल्कि इनकी देन समझती हैं, इसलिये उनको देवता मान लेती हैं... आश्चर्य होता हैं मगर अच्छी-खासी पढ़ी लिखी लडकियाँ भी ऐसी सोच रखती हैं, तभी तो आदमी की सोच में अब भी वही उसे पति-परमेश्वर मानने वाली औरत की ही छवि बसी हैं... जब ऐसी बिना रीढ़ की हड्डी की लचीली गुड़िया मिल जाये तो फिर सर ऊंचा कर आँख-से-आँख मिला बात करने वाली भला कैसे टिक पायें... :( ???
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२७ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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मंगलवार, 26 मई 2015

सुर-१४६ : "उसी से ठंडा... उसी से गरम... फिर भी न समझे हम... !!!"

कभी-कभी
जिस आवाज़ से
मन बेजार हो जाता हैं
.....
खोकर उसे ही  
वो फिर एक बार
उसे पाने बेकल हो जाता हैं ॥
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 मित्रों...,

‘जोहेब’ अब भी ‘रुबीना’ से बेइन्तेहाँ मुहब्बत करता था लेकिन... उसकी बच्चों जैसे हरकतें जिसकी वजह से उसने उसे पसंद किया था समय गुजरने के साथ ही उसे बुरी लगने लगी थी पर, वो थी कि न तो समझने को ही तैयार थी... न ही बदलने को ही और वो भी तो उसे छोड़ने के ख्याल मात्र से अधमरा-सा हो जाता... वो जब पास होती तो वो एकदम चिडचिडा जाता पर, जब वो दूर होती तो उसे याद कर कर के उसका बुरा हाल हो जाता... उसने एक बार गुस्से में उसे छोड़ दिया पर, उन दिनों उसने हर एक पल उसको अपने करीब महसूस किया और जब लगा कि उसके साथ जीने से ज्यादा बुरा उसे खोकर जीना हैं तो उसने अपनी गलती मान उसे फिर से अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया लेकिन ज्यादा कुछ बदला नहीं... ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो किस तरह इस उलझन से बाहर आ सकता हैं... ???

यूँ तो हम सभी जानते हैं कि किसी भी चीज़ की अहमियत उसे खोने के बाद ही पता चलती हैं लेकिन उसे दुबारा पाना हमेशा तो मुमकिन नहीं होता हैं न... क्योंकि यदि उसे पुनः हासिल करना हमारे इख़्तियार में होता तो हम हर संभव कोशिश कर उसे पा लेते लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं तब ऐसे हालातों में सिवाय पछताने के और कुछ भी हमारे हाथ में नहीं होता... पर, एक अजीब सी स्थिति से भी हम अक्सर दो-चार होते हैं जब हमें किसी की उपस्थिति अच्छी भी लगती हैं तो कहीं वही हमारी परेशानी का सबब भी बन जाती हैं... इस तरह के अजीबों-गरीब हालात में हमें समझ ही नहीं आता कि आखिर हम करें क्या ??? क्योंकि हम भीतर कहीं ये जानते हैं कि इसके बिना जीना दुश्वार होगा लेकिन उन पलों में तो साथ जीना भी मुश्किल लगता... उफ़... एक बेहद उलझन भरी स्थिति होती हैं वो जब किसी का होना और न होना दोनों ही हमारे लिये जीने-मरने का प्रश्न बन जाता हैं बिल्कुल उसी तरह जैसी कि ‘अजगर’ और ‘नेवले’ की वो जानलेवा असमंजस भरी स्थिति जिसमें कि उसे उगलना या निगलना दोनों ही जिंदगी का सवाल बन जाता हैं

हर इंसान की अपनी एक अलहदा शख्सियत और फ़ितरत होती तभी तो हम उसे पसंद करते लेकिन साथ-साथ रहने पर वही बातें जो पसंदगी का सबब थी एकाएक नापसंदगी बन जाती... यूँ तो कहते कि बात करने से हर मसले का हल निकल जाता लेकिन कभी-कभी जितना अधिक इन बातों को सुलझाने का प्रयास किया जाता वो उतनी ही हमें अपनी गिरफ्त में ले लेती क्योंकि हर कोई खुद को सही समझता... आज के जमाने में तो वैसे भी सबका अहं बहुत अधिक बढ़ा हुआ हैं क्योंकि हर कोई पढ़ा-लिखा और हुनरमंद हैं तो वो आसानी से दूसरे की काबिलियत को स्वीकार नहीं कर पाता... जो समझदार हैं हम उनकी बात नहीं कर रहे क्योंकि वो एक-दूसरे के सच्चे हमसफ़र बनकर उनको सहयोग करते पर, जो कमअक्ल हैं या कहें कि खुद को अगले से अधिक योग्य समझते वो किसी भी तरह अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते... तब वे अनचाहे ही अलग होकर अपनी उस मुसीबत को उस समय तो दूर कर लेते लेकिन कुछ ही समय बाद ही उनको ये अहसास होता कि जो हुआ वो नहीं होना था लेकिन तभी जेहन के किसी कोने में ये ख्याल भी कौंध जाता कि दुबारा उठाया गया कदम कहीं उसे फिर उसी अज़ाब में तो नहीं डाल देगा... ???

इस तरह की दुविधापूर्ण स्थितियों में अक्सर हम वही फ़ैसला लेते हैं जो कम तकलीफदायक होता हैं पर, कहीं न कहीं हम ये भी जानते हैं कि इसके बाद भी हम पूरी तरह तनावरहित नहीं होने वाले हैं... दिल के किसी कोने में उसकी कमी तो बनी रहेगी जो हमें ताउम्र सालेगी फिर भी हम सीने पर एक चट्टान रख लेते जो हमारे दर्द को उभरने न दे... जीना भी सीख ही लेते किसी तरह उसके बिना पर, तन्हाई में ‘चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद हैं’ सुनते हुये उस जुदाई के गम को पाले रहते... लेकिन किसी भी तरह उसे दूर करने की कोशिश नहीं करते क्योंकि वो हमें अधिक कठिन लगता... जबकि ये सोचना चाहिये कि अपने निर्णय से हम एक साथ कितने जीवन को प्रभावित कर देते जिसका खामियाज़ा हमें अकेले नहीं हमारे साथ जुड़े लोगों भी भुगतना पड़ता हैं... शायद ये नियति हैं कि लम्हों की खता सदियों की सज़ा में तब्दील होकर एक तारीख में दर्ज हो जाती हैं... फिर जिसके आते ही वो याद भी दबे पांव चली आती... काश... वो जाने वाले को भी साथ ले आ पाती... :( :( :( !!!
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२६ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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सोमवार, 25 मई 2015

सुर-१४५ : "संवेदनशील अभिनेता और इंसान... सुनील दत्त...!!!"

सिर्फ़...
अभिनय ही नहीं
हर नेक काम किया
देश-समाज को भी उन्होंने
अपने कर्मों का योगदान दिया
तभी तो आज हमने उनको याद किया
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मित्रों...,

‘स्टार ऑफ़ द मिलेनियम’ और ‘एंग्री यंग मेन’ के नाम से जाने वाले जीते-जागते अभिनय संस्थान ‘अमिताभ’ बच्चन ने एक बार अपनी सोशल साईट के प्रोफाइल पर एक स्टेट्स लिखा था कि---“मैं ऐसा मानता हूं कि रुपहले पर्दे पर एंग्री यंग मैनका किरदार सर्वप्रथम ‘महबूब खान’ ने अपनी फिल्म मदर इंडियामें पेश किया था और ‘बिरजू’ के इस किरदार को इस फिल्म में ‘सुनील दत्त’ ने बेहद ही खूबसूरती के साथ निभाया था अतः ‘एंग्री यंग मैनके खिताब के असली हकदार वो नहीं बल्कि ‘सुनील दत्त’ हैं

जितनी साफ़गोई से उन्होंने इस सच्चाई को न सिर्फ़ उज़ागर किया बल्कि दुनिया के सामने स्वीकार भी किया वो स्वतः ही ये ज़ाहिर करता हैं कि आज जिस अभिनेता की पुण्यतिथि पर हम उसे याद कर रहे हैं उसने सभी के जेहन में अपनी गहरी छाप छोड़ी हैं यूँ तो उसके अभिनय के अनेक रंग हैं लेकिन ‘बिरजू’ ने जिस तरह से इतिहास रचा वो आज भी हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर माना जाता हैं । इस एक फिल्म ने विश्व परिदृश्य पर जिस तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज की उसकी वजह से उसने देश-विदेश में अपनी न सिर्फ़ धूम मचा दी बल्कि कीर्तिमान का परचम भी लहरा दिया और आज भी अनेक कलाकार उस तरह के किरदार को अभिनीत करने का स्वपन देखते हैं क्योंकि जिस दौर के लोग और फिल्मों  की हम बात कर रहे हैं हैं उन्होंने ही तो ‘हिंदी सिनेमा’ की उस बुलंद ईमारत जिसे कि आज हम ‘बॉलीवुड’ कहते हैं की आधारशिला रखी और फिर अत्याधुनिक तकनीकों एवं सर्वसुविधा युक्त साधनों के अभाव के बावज़ूद भी अपने अथक परिश्रम और नवीनतम प्रयोगों से उसकी एक-एक ईट रखी जिसकी वजह से आज भी वो उतनी ही मजबूती से टिकी हुई हैं । जिसने आज तरक्की तो बहुत ज्यादा कर ली और कमाई के नाम पर भी बॉक्स ऑफिस पर नित नये रिकॉर्ड भी बनते रहते और आज के ये हीरो-हीरोइन चंद दृश्य जिसमें कि आधे से अधिक काम तकनीशियन द्वारा ही अंजाम दे दिया जाता के लिये करोड़ों की रकम वसूल करते लेकिन फिर भी न ही आज के कलाकार न ही आज की फ़िल्में ही उन पुराने अदाकारों और फिल्मों के मुकाबला कर पाते अब तो किसी भी फिल्म के रिलीज़ के चंद घंटे बाद ही उसके ‘हिट’ या ‘फ्लॉप’ होने की घोषणा हो जाती और महज़ दो-तीन दिन में उसकी आय का एक नया कीर्तिमान भी बन जाता जबकि पहले तो फ़िल्में सालों-साल चलती और अपने प्रदर्शन से सिल्वर जुबिली, गोल्डन जुबिली, प्लेटिनम जुबली मनाती थी ।

६ जून, 1929 को झेलम जिले के खुर्द गांव में जन्मे ‘बलराज रघुनाथ दत्त’ उर्फ ‘सुनील दत्त’ बचपन से ही अभिनेता बनने की ख्वाहिश रखते थे परंतु उन्हें सफलता एकदम से ही हासिल नहीं हुई बल्कि एक लंबे समय तक संघर्ष की कड़ी राहों पर चलना पड़ा यहाँ तक कि ‘साउथ एशिया’ के सबसे पुराने रेडियो स्टेशन ‘सीलोन’ की हिंदी सेवा में बतौर अनाउंसर काम भी किया तब जाकर कहीं जाकर उनकी शुरुआत १९५५ में उनकी प्रथम प्रदर्शित फिल्म रेलवे प्लेटफार्मसे हुई जो कि सफल न हो सकी पर, जैसा कि होता हैं कि मंजिल तक पहुंचने के लिये पहला कदम जरूरी होता और जिसके पीछे-पीछे दूसरे कदम रखने से ही वो हासिल होती हैं इस तरह उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में पदार्पण कर दिया और अन्य लोगों को अपने काम से प्रभावित किया लेकिन ये केवल पहला पड़ाव था जिससे गुजर कर ही अंतिम पायदान तक जाना था तो वो भी रुके नहीं और इसके बाद जिस किसी फिल्म में उन्हें जो भी भूमिका मिली उन्होंने उसे स्व्व्कर कर पूरी ईमानदारी से अपना काम किया पर वक़्त से पहले किस्मत से ज्यादा किसी को मिला हैं न किसी को मिलता तो उनका भी वो सुनहरा समय अभी आया न था वैसे वो आता भी किस तरह जब पहले से ये तय था कि उनकी तकदीर का ताला तो एक कालजयी कृति मदर इंडियासे ही खुलेगा । ये उस समय की एक ऐसी फिल्म थी जिसमें ‘सुनील दत्त’ ने अपने किरदार के लिये जोखिम लिया था क्योंकि जो रोल उन्होंने चुना था वो नकारात्मक था पर, उन्हें अपने आप पर पूरा विश्वास था तभी तो इस फिल्म में उन्होंने उसे उतनी ही विश्वसनीयता से अदा किया और उसी फिल्म में उनकी माँ का अभिनय करने वाली महान अदाकारा ‘नर्गिस’ से शादी करने का भी एक महत्वपूर्ण फैसला किया जिसे उतनी ही शिद्दत से निभाया भी पर, उन दोनों के अलग-अलग मज़हब होने के कारण जब उनसे उनके होने वाले बच्चों के धर्म के बारे में सवाल किया तो वे बड़ी सहजता से बोले, “मेरे बच्चे हिंदू या मुस्लिम की नहीं, बल्कि इंसान की संतान होंगे" इस तरह उन्होंने आज से पचास-साठ बरस पहले ही समय से आगे चलना शुरू कर दिया था इस तरह वो आज भी कई सिने कलाकारों के लिये प्रेरणा स्त्रोत हैं

उसी समय में उन्होंने अभिनय के अलावा १९६३ में प्रदर्शित होने वाली अपनी फिल्म फिल्म ये रास्ते हैं प्यार के के माध्यम से फिल्मों के निर्माण क्षेत्र में भी कदम रख दिया था और फिर निर्देशन में भी अपने हाथ आजमाते हुये वर्ष १९६४ में उन्होंने फिर एक बार जोखिम लेते हुये एक अनूठी फिल्म बनाने का निर्णय लिया जिसने किसी फिल्म में सबसे कम कलाकार होने का ‘गिनीज बुक’ रिकॉर्ड बनाया क्योंकि ये पूरी फिल्म अतीत को जीते एकमात्र किरदार के इर्द-गिर्द ही घुमती हैं जिसे उन्होंने ने ही अभिनीत किया था केवल अंतिम दृश्य में नर्गिस नजर आई थी । उन्होंने कभी भी किसी नायिका प्रधान या मल्टी स्टारर फिल्म में काम करने से कोई ऐतराज़ नहीं किया क्योंकि उन्हें अपने काम पर भरोसा होता था तभी तो वे उनके सबके बीच भी अपनी उपस्थिति उतने ही जोरदार तरीके से दर्ज कराने में सफल हो जाते थे इस तरह अपने रास्ते पर चलते हुये उन्होंने लगभग सौ से अधिक फिल्मों में अभिनय करते हुए हर तरह के किरदार निभाये जिनकी वजह से उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के अलावा फ़िल्मी दुनिया में योगदान के लिये ‘दादा साहब फाल्के रत्न अवार्ड’ के साथ-साथ ‘पदमश्री पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया

उनके जीवन में एक और महत्वपूर्ण पड़ाव आया जब उनकी पत्नी ‘नर्गिस’ का अचानक ही कैंसर की बीमारी की वजह से देहांत हो गया तो उसने उनके अंदर की मानवीयता को और भी अधिक जगा दिया और फिर उन्होंने समाज को इस खतरनाक बीमारी के प्रति जागरूक बनाने का पुनीत संकल्प लिया और इस तरह अपनी पत्नी की याद में 'नर्गिस दत्त फाउंडेशन' की स्थापना की और उसके बाद से ही अब उनका रुझान सामाजिक कार्यक्रमों अधिक होने लगा और समाज सेवा के इस काम को बड़े स्तर पर करने के लिये उन्होंने ‘राजनीति’ के क्षेत्र में भी अपना कदम रख दिया और कांग्रेस का दामन थाम कर पांच बार (1984, 1989, 1991, 1999 और 2004) लोकसभा चुनाव जीते और 2004 में ‘यूपीए’ की सरकार में उन्हें खेल एवं युवा मंत्रालय सौंपा गया । उनके अंदर एक अत्यंत संवेदनशील  मासूम इंसान था जो समाज एवं देश के प्रति अपने फर्ज़ को समझता था इसलिये शायद, उन्होंने पदयात्रा का अभूतपूर्व नेक काज भी किया जिसकी वजह से हमें भी उनको करीब से देखने का अवसर मिला... तो आज उनकी पुण्य तिथि के इस दुखद अवसर पर उस लोकप्रिय नेता, अभिनेता, निर्माता-निर्देशक और उससे भी उपर एक जज्बाती इंसान को ये हैं मेरी शब्दांजलि... :) :) :) !!!   
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२५ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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