शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

सुर-२१२ : "करती दूर जीवन की कालिमा... 'गुरु पूर्णिमा'...!!!

जगतगुरु
महर्षि वेदव्यास
आये बिखेरने ज्ञानालोक
जिससे हुआ प्रकाशित परलोक
आज उनकी जयंती आई
कर पूजा गुरुदेव की
सब मनाते गुरु पूर्णिमा
दूर करती जो अंतर की कालिमा
बन दिव्य ज्ञान की अरुणिमा ॥
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मित्रों...,

एक बालक के जनम के बाद से ही उसकी शिक्षा-दीक्षा की प्रथम जिम्मेदारी उसकी जन्मदात्री माँकी होती हैं, इसलियें उसे बच्चे की प्रथम शिक्षिकाकहा जाता हैं... उसके बाद जैसे-जैसे वो बड़ा होता हैं, उसके सर्वांगीण विकास के लिये उसे गुरुकुल में विद्याध्यान के लियें भेजा जाता हैं... गुरुपूर्णिमाके दिन बच्चे की विद्यारम्भ करने के लियें उसके नन्हे-नन्हे हाथों में कलम पकड़ाकर उसकी बुनियाद मजबूत करने जीवन की पाठशाला में ज्ञानार्जन का श्रीगणेश किया जाता हैं... जो आगे चलकर उसके स्वर्णिम भविष्य की आधारशिला बनाता हैं... कितने भी युग बदल जायें, कितनी भी नई तकनीक आ जायें और हम कितने भी आधुनिक हो जाये मगर उसके प्रशिक्षण के लियें उसे सही प्रकार से समझने और सीखने के लियें किसी न किसी गुरुकी आवश्यकता कभी भी खत्म ना होगी भले ही गुरु का स्वरूप बदल जाएँ मगर बिना उसके ज्ञान प्राप्त करना असंभव ही होगा... इसलियें हमारे पूर्वजों ने अपने गुरु के प्रति श्रद्धा निवेदन करने की परंपरा का प्रचलन शुरू किया जिससे कि हम अपने उस विद्यादानी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करने के साथ-साथ नई पीढ़ी को भी धरोहर के रूप इसकी अनंत डोर सौंप जायें जिसे पकड़कर वो जीवन संग्राम की हर मुश्किल से निकलने का मार्ग अपनी बुद्धि से स्वयं ढूंढ सके ।

गुरु पूर्णिमाका दिन अपने गुरुके प्रति आदर के साथ-साथ अपनी भीतरी कोमल भावना को अभिव्यक्त करने का एक बहुत ही अनमोल अवसर प्रदान करता हैं... यूँ तो हमारा सारा जीवन ही उन सभी का ऋणी हैं जिन्होंने हमें कभी-न-कभी कुछ-न-कुछ सिखाया हैं, जिससे हम इस जगत और इसके सभी गूढ़ रहस्यों को भी समझने में समर्थ बन सके... वैसे तो माना जाता हैं कि सारी दुनिया ही एक पाठशाला हैं, जहाँ नित ही हमें कुछ नया और अद्भुत सिखने का मौका मिलता रहता हैं लेकिन हंसकी तरह नीरके बीच में से केवल क्षीरको ही ग्रहण करने का विवेक तो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक शिक्षकसे ही प्राप्त होता हैं, इसलियें हमारा मस्तक सदैव ही अपने उस ज्ञानदाता के सम्मान में झुका रहता हैं... मगर यदि अपने मन के भावों को उज़ागर करने को एक विशेष पुण्यदायी दिवस ही मिलें तो इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात और कुछ भी नहीं... और सौभाग्य से आज वो दिन आ गया जो समर्पित हैं हम सबके ज्ञानचक्षु खोलने वाली, हमने अन्धकार से प्रकाश में लाने वाली उस दिव्य ज्योति को जिसे हम गुरुकहते हैं... जो जीवन के हर मुश्किल हालात से लड़ने, अन्याय का मुकाबला करने, सत्य व असत्य को परखने, सही-गलत को पहचानने, जिंदगी को समझने, में हमारा सहायक और पथ-प्रदर्शक होता हैं... इसलिये तो हम सभी कहते हैं, तस्मे श्री गुरुवे नमः ।

जब-जब भगवान इस धरा पर मानव रूप में आयें तो उन्होंने भी गुरु की महत्ता को सार्थकता देने हेतु एक सच्चे जिज्ञासु विद्यार्थी के रूप में किसी-न-किसी गुरु का शिष्यत्व भी स्वीकार किया और स्वयं को एक साधारण मानव से आसाधारण व्यक्तित्व में परिवर्तित कर सारे विश्व के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत किया... रामके रूप में यदि उन्होंने ऋषि वशिष्ठ’, महर्षि विश्वामित्रऔर अन्य कई ऋषि-मुनियों को अपना गुरु मान उनके श्रीचरणों में पूर्ण श्रद्धा से अपना मस्तक रखा तो कृष्णके रूप में भी उन्होंने महर्षि सांदिपनीके यहाँ एक सामान्य शिष्य के रूप में ही प्रवेश लिया और पूरी लगन से हर एक विधा को सिखा... जिससे वो सभी चौसठ कलाओं में दक्ष होकर एक धर्मरक्षक, परोपकारी, कुशल रणनीतिकार, राजनीतिज्ञ और उतने ही संवेदनशील इंसान भी बन सकें... ऐसे ही एक गुरुजन भारत भूमि के जन को अपने बुद्धि कौशल और प्रखर ज्ञान से दिशा दिखाने वाले जगतगुरु महर्षि वेदव्यासकी जयंती गुरु पूर्णिमाकी आप सभी को ढेर सारी बधाईयाँ... दिल की अतल गहराइयों से... :) :) :) !!!
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३१ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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गुरुवार, 30 जुलाई 2015

सुर-२११ : "लघुकथा - बयाँ-ए-गुल...!!!"

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मित्रों...,



नन्हा ‘शौर्य’ हाथों में फूल लिये दूर खड़ा था तो उसे देखकर उसकी माँ आश्चर्य से बोली, अरे तुम स्कूल नहीं गये और ये फूल भी वापस ले आये... ये तो तुम अपनी दोस्त ‘शिविका’ के लिये ले गये थे फिर क्या हुआ बोलो... उसने वो फूल माँ के हाथों में थमाकर कहा, ‘मम्मा, ‘शिविका’ ने मेरा दिल तोड़ दिया पता उसने मुझे छोड़कर ‘राज’ से दोस्ती कर ली... और आज वो स्कूल बस में भी उसके पास ही बैठी थी तो मुझे गुस्सा आ गया और मैं लौट आया... अब मैं न तो उस बस, से जाऊंगा न ही उस स्कूल में पढूंगा... अचानक जैसे बिजली कौंधी और ‘अवंतिका’ दस साल पीछे पहुँच गयी जब ऐसे ही अचानक ‘गौरव’ ने कॉलेज आना बंद कर दिया था तब वो लाख जतन करने पर भी उसकी वजह न जान पाई थी... आज लगा जैसे जवाब मिल गया... जिस दिन से उसने ‘नमन’ से दोस्ती की थी उसके बाद से ही ‘गौरव’ ने उससे नाता तोड़ लिया था यहाँ तक कि शहर से ही दूर चला गया था फिर बड़े दिनों बाद किसी फ्रेंड से पता चला कि वो किसी के इकतरफ़ा प्यार में ख़ुद को गंवा बैठा... उस वक़्त अपनी नादान उमर में वो इसे समझ न पाई थी लेकिन आज उसके बेटे ने जैसे वो वाकया याद दिला दिया क्योंकि उसने भी तो आखिरी बार ऐसे ही फूल पकड़े थे... और... इतना ‘जनरेशन गेप’ कि जो हम किशोरावस्था में महसूस करते थे ये बच्चे अभी से करने लगे... उफ्फ... भले ही अभी ये मासूम हैं और उसे इतनी शिद्दत से नहीं महसूसते पर, अब यदि उसे ‘शौर्य’ का नादान बचपना बचाना हैं तो उसे इन बातों से दूर रखना होगा... मतलब टी.वी. / इंटरनेट / मोबाइल सब पर बैन लगाना होगा... सच, आज इन फूलों ने एक साथ कई राज बयाँ कर दिये... और वो मुस्कुराने लगी
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३० जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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बुधवार, 29 जुलाई 2015

सुर-२१० : "हर नुस्खा आज़मा डाला... पर, न खुला क़िस्मत का ताला...!!!"

सब कुछ
ठीक-ठाक था
कहीं कोई कमी न थी
न ही प्रयासों में
न ही मेहनत में
फिर भी...
कभी शुरुआत तो
कभी अंतिम चरण में
असफलताटकरा ही गयी
बड़ी वफा से निभा रही
ताल्लुक अपना एकतरफ़ा ही
साथ हम जैसे मेहनतकशों के
और करती बड़ी नफ़रत
अपनी जुड़वाँ बहन सफ़लतासे ॥
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मित्रों...,

आज अचानक ही एक लंबे अरसे बाद इत्तफ़ाक से एक शोपिंग मॉल में आकाशकी मुलाकात अपने बचपन के सहपाठी और दोस्त नरेनसे हो गयी तो वो उसे देख खुद को रोक न सका और उसके करीब जाकर पीछे से उसके कंधे पर हाथ रख उसे चौंका दिया नरेनचमचमाते सूट-बूट में किसी आकर्षक एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व के शख्स को देख एकदम सकपका गया और इससे पहले कि उसे पहचान पाता तब तक वो उसे अपनी आग़ोश में ले चुका था और बड़ी बेतकल्लुफ़ी से उन मासूम नादानियों के किस्से बयाँ कर रहा था जो उन दोनों ने बचपन में साथ मिलकर की थी उसकी बातों से वो धीरे-धीरे उसे पहचानता गया कि ये तो उसका बेहद करीबी मित्र था मगर, पढ़ाई में उसकी तरह न ही अव्वल आता था और न ही उसकी तरह उसके भीतर चित्रकला, गीत-संगीत या अन्य कोई भी हूनर था पर, इन सबके बावज़ूद भी वो किस्मत का बड़ा धनी था जिसकी वजह से कोई भी काबिलियत न होने पर भी उसे हर काम में सफ़लता मिलती थी जबकि नरेनकठोर परिश्रम करने के बावजूद भी कहीं न कहीं चूक जाता था तभी तो स्कूली शिक्षा में सारे जिले में प्रथम आने के बाद भी वो वही रह गया जबकि औसत अंक लाने के बाद भी आकाशअपने पिता की धन-दौलत के दम पर उस छोटी जगह से बड़े शहर के बड़े कॉलेज में उच्च शिक्षा हासिल करने चला गया और फिर वहां से पंख लगाकर विदेश की उड़ान भर ली जिससे उनके बीच ताल्लुकात की कड़ी कमजोर होते-होते टूट गयी जो अब जाकर जुडी हैं जबकि वो उसी जगह रहकर छोटे बच्चों की ट्यूशन पढ़ाते हुये अपनी आगे की पढाई करने लगा और इस तरह अपने आर्थिक रूप से कमजोर माता-पिता का सहयोगी बन घर की जिम्मेदारियों में हाथ बंटाने लगा पर, उसकी सारी कोशिशें, सारी मेहनत, सारी दौड़-भाग हर बार की तरह उसे उस ऊंचाइयों तक न ले जा सके जहाँ तक उसके साथ के उससे कमतर साथी पहुंच चुके थे ।

सबसे बड़ी बात तो ये थी कि उसके शिक्षक बन जाने पर उसके पढाये बच्चे तक किसी न किसी पद पर पहुंच गये थे लेकिन न जाने क्यों हर तरह के प्रयत्न करने पर भी उसकी तकदीर ने हमेशा उसे ठेंगा दिखाया जबकि वो तो किसी तरह की लकीरों या ज्योतिष या किस्मत या ग्रह-नक्षत्रों को भी नहीं मानता था पर, उसके हर तरह के प्रयासों के बाद मिली विफलता ने उसे ये मानने पर मजबूर कर दिया कि इस तरह की कोई चीज़ होती हैं और जिसके साथ ये बेरुखी दिखाती हैं फिर वो चाहे कुछ भी जतन कर ले ये किसी तरह भी नहीं मानती तभी तो नरेनकी हर सकारात्मक सोच, सही तरीके से बनाई योजनाओं को भी इस कमबख्त ने ऐसा चूर-चूर किया कि भले ही वो उसके हौंसलों को या उसके बार-बार नाकाम होने पर भी फिर कोशिश करने के उसके जज्बे को न तोड़ सकी जिसके कारण वो हर हालात में खुश रहता बस, जब कभी ऐसे किसी सफ़ल इंसान को देखता तो कुछ पल को मायूस जरुर हो जाता पर, फिर उसे झाड़कर आगे बढ़ जाता क्योंकि अब वो ये जान गया था कि ये नाकामयाबी और ये निगोड़ी बद-किस्मत उसके सदा के हमसफर हैं जो हमेशा उसके वजूद से यूँ ही चिपके रहेंगे यदि ऐसा न होता तो उसे काम्याबी जरुर मिल गयी होती क्योंकि उसकी कोशिशों में कोई कमी न थी और उसकी यही संतुष्टिउसे विपन्न जीवन में भी सहारा देती और वो तन्हाई में अक्सर सोचता कि जो भी हुआ उसकी वजह क्या हैं कहीं उसमें ही तो कोई कमी नहीं लेकिन जब उसे अंदर से जवाब मिलता कि उसने कहीं कोई कसर न छोड़ी थी बल्कि अर्जुनकी तरह केवल लक्ष्य पर ही अपनी नज़र गड़ाई थी और जूनून की हद तक उसके पीछे पड़ा था फिर भी हमेशा कोई न कोई उसके हिस्से की नौकरी ले गया वो करता भी क्या जहाँ तक लिखित परीक्षा की बात होती वो उस दरिया को पार कर लेता लेकिन जब बात साक्षात्कार की आती और उसके साथ ही टेबल के नीचे से दिखाने वाली प्रतिभा की तो वो हमेशा हार जाता ।

फिर भी उसे ख़ुशी होती कि उसने जो कुछ भी उसके हाथ में था उसमें पूरा दम-ख़म दिखाया किसी भी बात से डरा नहीं पर, जो उसके वश में नहीं वो उसे किस तरह पा सकता हैं और अब तो उसकी उम्र हर तरह की नौकरी की तयशुदा सीमा पार कर चुकी हैं तो ऐसे में उसने मान लिया कि उसके भाग्य के ताले की चाबी किसी अँधेरी खाई में जाकर गिरी जो मिलती ही नहीं और वो मुआ ताला उसकी लगाई किसी भी कुंजी से खुलता नहीं ऐसे में यही मुमकिन हैं कि जो कुछ हैं उसी में खुश रहा जाये आख़िर कब तक कोई अपने अनदेखे अदृश्य दुश्मन से लड़ सकता हैं... तो फिर वो जो कुछ क्षण फलर तक आकाशको अजनबी समझा रहा था बड़ी सरलता से उसके साथ घुल-मिल कर बातों में मगन हो गया... सही हैं न... जब आपके प्रयास ईमानदार हो तो फिर बेईमानों की तरह किसलिये जीना... :) :) :) !!!      
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२९ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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मंगलवार, 28 जुलाई 2015

सुर-२०९ : "करो प्रकृति बचाने का संकल्प... आया 'विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस'...!!!"

गुम हो गये
नदी पर्वत झरने
नहीं दिखते
पशु पक्षी परवाने
नहीं गूंजते
कल-कल के तराने
हम सभी ने
खाली कर दिये खज़ाने
जिसके बिना
जी न पायेंगी कल संताने
इसकी रक्षा करें
चलो मिलकर इसी बहाने
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मित्रों...,

बात आज की नहीं बल्कि आने वाले समय की हैं... जो वैसे तो अभी काल के गर्भ में हैं लेकिन उसकी कल्पना करना तो हमारे वश में हैं तो उसी भविष्य की एक झलक...

‘शेफाली’ अपनी पांच साल के बेटे ‘अर्नव’ को ‘पंचतंत्र’ की कहानियाँ सुना रही थी और हर कहानी के साथ नन्हे-मुन्ने दिमाग में उठते सवालों के जवाब भी देती जा रही थी कभी वो तरह-तरह के जानवरों और पक्षियों के बारे में पूछता जैसे कि शेर, चीता, बंदर, जिराफ़, खरगोश, हिरण, गिलहरी, मेढ़क, झींगुर, मगरमच्छ, मछली, चूहे, कबूतर, कोयल, गोरैया, बुलबुल, मोर, कठफोड़वा, पपीहा, तोता, गीदड़, लोमड़ी, सियार तो कभी पेड़ों या फलों के बारे में जानना चाहता कि कदंब, मौलीश्री, चंदन, आम, चंदन, नीम, अशोक, पीपल, बरगद, सेमल, गुलमोहर, कनेर, अमरुद, जामुन, केला ये सब किस तरह के दिखाई देते हैं... माँ के पास कोई जवाब नहीं सिवाय तस्वीरें दिखाने के तो वो हर शय का चित्र दिखा उसके बारे में बता देती तब वो बोलता कि क्या आपने इन सबको देखा हैं तो उसका जवाब हाँ में सुनकर झुंझला जाता कि फिर वो सब अब क्यों नहीं हैं ? कहाँ चले गये ?? किसने उन्हें चुरा लिया ???     

‘शेफाली’ के पास उसके किसी भी सवाल का उत्तर नहीं था या फिर हैं भी तो वो उसे देने में हिचक रही हैं क्योंकि उसे लगता हैं कि कहीं न कहीं वो भी इन सबके लिये दोषी हैं क्योंकि भले ही उसने प्रकृति की हर अनमोल सौगात को नहीं देखा लेकिन उसके समय तक भी बहुत सी चीजें बची हुई थी जिनके बारे में वो भी इसी तरह जानने के उत्सुक रहती थी तब उसकी माँ उसे बताती थी कि अब भले ही ये सब नजर नहीं आते लेकिन कभी इसी पृथ्वी का हिस्सा थे और हम सब मिलकर सहजीवन बिताते थे पर, धीरे-धीरे अनगिनत प्रजातियाँ हम इंसानों की स्वार्थ की भेंट चढ़ गयी जिनकी संख्या दिन-ब-दिन कम ही होती जा रही हैं माना कि इस समय तक तो पशु-पक्षियों की ज्यादातर नस्लें लुप्त हो चुकी हैं और केवल छवियों में ही कैद हैं लेकिन हम ये भी तो कह नहीं सकते कि जो शेष हैं वो भी कितने समय तक बची रहेगी क्योंकि सब ये सोचते कि ये तो प्रकृति प्रेमियों या पर्यावरण के प्रति जागरूक समाज सेवकों का काम हैं तो वो ही कर लेंगे पर, कोई खुद ही आगे बढ़कर उसे सुरक्षित करने का प्रयास नहीं करता और यही सब सोचते-सोचते उसके जेहन में कोई विचार आया और वो ख़ुशी से चहक कर बोली, चलो हम दोनों मिलकर आज से ही जो बचे हैं उनको ही बचाने की मुहीम शुरू करें वरना, जब तुम्हारे बच्चे तुमसे यही प्रश्न पूछेंगे तो तुम मुझसे भी ज्यादा शर्मिंदा होगे क्योंकि जरा-सा ही ही सही लेकिन यदि क़ुदरत का अंश बाकी हैं तो उससे फिर से कायनात का निर्माण किया जा सकता हैं  

फिर इस तरह ‘शेफाली’ ने उसी दिन से अपने निर्णय को अमली जामा पहनाने हेतु तैयारी शुरू कर दी सबसे पहले उसने अपने बेटे के हाथों से कुछ पौधे लगवाये फिर अगले दिन उसे लेकर अपने गाँव गयी जहाँ अनेकों किसान भुखमरी एवं बदहाली की वजह से अपनी जमीन बेचने को मजबूर हो चुके थे उन सबको उसने आने वाले समय की भयावह काल्पनिक छवि बताई और किस तरह वे सब वर्तमान परिस्थिति से निपटने एकजुट होकर एक-दूसरे की मदद कर साँझा चूल्हा, साँझा जीवन अपनाकर अपने आपको बचा सकते हैं उसका तरीका बताया जिससे कि उनकी जरूरतें पूरी हो सके और वे खेतीबाड़ी / बागवानी / पशुपालन / हस्तशिल्प / मत्स्यपालन और दूसरे कामों के प्रति जो उदासीन हो चुके हैं फिर से उत्साहित होकर उन्हें शुरू कर सके और फिर उसने कुछ लोगों को अपने साथ जोड़कर इस काम को अंजाम दिया जिसमें थोड़ा वक़्त तो लगा पर, गाँव में फिर से खुशहाली आ गयी और अब उसका अगला पड़ाव अपना शहर था जिसे वो छोड़कर आई थी पर, वही तो वो लोग रहते थे जो इसके लिये सर्वाधिक जिम्मेदार थे तो उसने वही जाकर इस अभियान को अंजाम देने का सोचा और चूँकि अब तक उसके पास काम करने वाले स्वयंसेवको का एक जत्था जमा हो गया था और अच्छी-खासी रकम भी तो उसने यहाँ आकर सबके साथ मिलकर अपनी कार्य पद्धति को थोड़ा बदलते हुये प्रकृति सरंक्षण के काज का आगाज़ किया जो उतना आसान नहीं था जितना गाँव में पर, उसके पास उनको समझाने, जगाने की कोरी दलील के अलावा अनुभव का भंडार, अनवरत कार्य करने की ऊर्जाशक्ति थी तो राह में आने वाली मुश्किलों को दूर करने का हुनर भी तो इस तरह उसने अपने आपको ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ी को तो बचाया ही साथ उस आत्मग्लानि से भी मुक्त हुई जो उसे सर उठाने नहीं दे रही थी पर, आज वो अपने बेटे के साथ गर्व से ‘प्रकृति सरंक्षण दिवस’ मना रही थी जिसके उद्देश्य को उसने अपना तन, मन, धन देकर सार्थक किया था... और सबसे यही कहती कि “आज तुम बचाओ प्रकृति... कल वो बचायेगी तुम्हारी संतति...” :) :) :) !!! 
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२८ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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सोमवार, 27 जुलाई 2015

सुर-२०८ : "चले गये 'अब्दुल कलाम'... करता देश सलाम...!!!"

‘अग्नि’ की उड़ान
बनी देश की पहचान
‘मिसाइल मेन’ ने किया
ऐसा अद्भुत चमत्कार
जिसने बढ़ाया देश का मान
आज उनके अवसान पर
करता हैं देश नमन
वो रहेंगे सदा-सदा अमर
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मित्रों...,

'डॉक्टर अवुल पाकिर जैनुल्लाब्दीन अब्दुल कलाम' जिन्हें हम सब ‘ऐ.पी.जे. अब्दुल कलाम’ के नाम से जानते थे बेहद सामान्य परिवार में १५ अक्टूबर १९३१ को ‘तामिलनाडु’ के ‘रामेश्वरम’ कस्बे में हुआ जहाँ उनके पिता ‘जैनुल आब्दीन’ एक नाविक का काम करते और पढ़े-लिखे भी न थे पर, बेहद सादा जीवन जीते हुये उच्च विचारों के धनी होने के साथ-साथ सदैव हर किसी की सहायता के लिये तैयार रहते थे और उनकी इस सादगी भरी नफ़ासत ने ही उनके बचपन को जीवन के निहायत जरूरी पाठ पढाये जिनके लिये किसी पाठशाला में जाने की जरूरत नहीं इसी तरह उनकी माँ ‘आशियम्मा’  भी एक स्नेहिल धर्म-कर्म में विश्वास रखने वाली थीं जिन्होंने अपने पुत्र को भी संवेदनशीलता के अलावा सबसे प्रेम करना सिखाया तभी तो उन्होंने कभी किसी इंसान में मज़हब के नाम पर कोई भेद नहीं किया न ही अपने आपको किसी विशेष आस्था से जुड़ा हुआ दिखाया जिसने पूरी दुनिया के सामने उनको एक नेक इंसान के रूप में दर्शाया । हालाँकि उनका बाल्यकाल बेहद कठिनाई भरा रहा जिसमें उन्होंने स्कूली पढाई के साथ-साथ जिंदगी के सबक भी सीखे पर वे कभी भी न घबराये तभी तो अख़बार बेचने का काम करते हुये अपनी शिक्षा और लक्ष्य के बीच संतुलन बनाये रखा जो उन्होंने बचपन में ही तय कर लिया था कि वे बड़े होकर देश की सेवा करेंगे तो इस निर्णय ने उनके अंदर जोश का ऐसा संचार किया कि अंतिम साँस तक भी उनके भीतर यही लगन दिखाई दी भले ही उनके पास बचपन में हर तरह की सुख-सुविधा के साधन या आर्थिक संपन्नता नहीं थे पर चूँकि उनके अंदर प्रतिभा का भंडार और हर तरह के हालात से लड़ने का अद्भुत हौंसला था तो जिस तरह की भी कठिन परिस्थिति उनके समक्ष आई उन्होंने उतने ही साहस से उसका सामना किया लेकिन अपने आगे बढ़ते हुये कदमों को पीछे न रोका तभी तो वे अपने देश के युवाओं को ये विचार दे सके कि “सपने वो नहीं जो हम सोते हुये देखते हैं बल्कि वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते” इस आदर्श वाक्य को उन्होंने सिर्फ कथनी के तौर पर ही नहीं दोहराया बल्कि इसे जिया और जो भी स्वप्न देखे थे उनको साकार किया और हमसे कहा, “इससे पहले कि सपने सच हों आपको सपने देखने होंगे" वाकई जब तक हम किसी भी मंजिल को टी कर उसके लिये सफर की शुरुआत नहीं करेंगे उस तक किस तरह से पहुचेंगे तो पहला कदम तो हमें रखना ही होता हैं कहीं भी पहुँचने के लिये तो उन्होंने भी न सिर्फ चलने का आगाज़ किया बल्कि आज भी शिलांग में भाषण देते हुये ही उनके हृदय ने उनका साथ छोड़ दिया जिनसे ये स्वतः ही सिद्ध कर दिया कि वे एक निष्काम कर्मयोगी थे जिसने हमेशा ही जो भी ज्ञान उनके पास था उसे बाँटने में कभी कोई संकोच नहीं किया

वे मानते थे कि "अपने मिशन में कामयाब होने के लिए, आपको अपने लक्ष्य के प्रति एकचित्त निष्ठावान होना पड़ेगा" जिसके कारण उन्होंने अपना सफर शुरू तो किया ‘रामेश्वरम’ से लेकिन अपने छोटे-छोटे कदमों से उन्होंने पूरी दुनिया को ही नाप लिया और अपने देश का नाम ऐसा रोशन किया कि पहले वैज्ञानिक बनकर अपने हुनर से देश को बेमिसाल अविष्कारों का तोहफ़ा दिया और फिर अपनी चमत्कारिक प्रतिभा, अथक कार्यक्षमता एवं अद्भुत कौशल से राष्ट्रपति पद तक उड़ान भरी और एक ऐसे राष्ट्रपति बने जिन्होंने जन-जन के दिल में अपनी जगह बनाई और देश के बच्चे-बच्चे ने उन्हें प्यार से गले लगाया जो बताता हैं कि उनका मन कितना स्वच्छ निर्मल एवं मासूम था जिसने कभी न तो रंग-रूप और न ही पद के आधार पर आदमी का विश्लेष्ण किया बल्कि ये माना कि “भले ही हमारी शक्लों सूरत साधारण हो लेकिन हमारे कर्म असाधारण होना चाहिये” और उनके कामों का यदि यहाँ जिक्र करना शुरू किया तो एक किताब ही भर जायेगी क्योंकि इन्होने तो केवल पद पर रहते हुये या सेवा में होने पर ही नहीं बल्कि हर एक पल कुछ न कुछ सार्थक किया और देश की युवा शक्ति को जागरूक करने के प्रयास करते रहे उनका कहना था कि युवा ही देश की शक्ति हैं अतः उनका सक्रिय रूप से हर काम में भाग लेना जरूरी हैं क्योंकि "शिखर तक पहुँचने के लिए ताकत चाहिए होती है, चाहे वो माउन्ट एवरेस्ट का शिखर हो या आपका पेशा”। उनका तो हर एक वाक्य ही प्रेरणा का मंत्र होता था जिससे कोई भी अपना जीवन सफल बना सकता हैं और उनके अंदर ये विश्वास, ये ऊर्जा का स्त्रोत आया था उनके ईश्वर पर असीम विश्वास से इसलिये उनका ये भी कहना था कि, "भगवान ने हमारे मष्तिष्क और व्यक्तित्व में  असीमित शक्तियां और क्षमताएं दी हैं, इश्वर की प्रार्थना हमें इन शक्तियों को विकसित करने में मदद करती है" अतः हमें प्रभु का ध्यान एवं धन्यवाद करना चाहिये जिससे कि हमारे अंदर कृतज्ञता का भाव आये और हमारा आत्मसम्मान हमें आत्मनिर्भर बनाये जिससे कि हमें किसी से मदद न लेना पड़े बल्कि हम दूसरों की सहायता करने के काबिल बन सके और ये सब केवल उन्होंने कहा नहीं बल्कि अपने जीवन काल में हर एक उक्ति को साकार कर दिखाया कि किस तरह एक मध्यमवर्गीय बालक केवल अपने आत्मविश्वास एवं प्रतिभा से आकाश की ऊँचाई छू सकता हैं जबकि सब कुछ उसके प्रतिकूल हो तब भी बस, उसे ये विश्वास होना चाहिये कि उसके जीवन एवं मंजिल के मार्ग में यदि मुश्किल आती तो उसकी वजह से अपना रास्ता या लक्ष्य नहीं बदले बल्कि उस नकारात्मकता को सकारात्मकता से परिवर्तित करें जो हमें डराती हैं इसके लिये ये जानना जरूरी हैं कि "इंसान को कठिनाइयों की आवश्यकता होती है, क्योंकि सफलता का आनंद उठाने कि लिए ये ज़रूरी हैं" याने कि सहज-सरल पथ पर चलकर तो कोई भी कहीं भी पहुंच सकता हैं लेकिन कंटक भरे मार्ग से जाने का आनंद केवल एक जीवट व्यक्ति ही समझ सकता हैं जो दुखों से नहीं डरता बल्कि उस पर विजय प्राप्त करता हैं अतः "कृत्रिम सुख की बजाये ठोस उपलब्धियों के पीछे समर्पित रहिये"... ये कथन आज उनके अंतिम क्षणों में भी उनकी उपलब्धि का बखान करता हैं... उनका ये असामयिक निधन देश की अपूरणीय क्षति हैं जिसे सुनकर हर देशवासी दुखी हैं... उनके यूँ चले जाने पर सबकी आँखें नम हैं... उनको हम सबका शत-शत नमन हैं... और... भावों से भरी श्रद्धांजलि... :( :( :’( !!!       
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२७ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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