सोमवार, 30 नवंबर 2015

सुर-३३४ : "दबाब जरूरी हैं... जो आगे बढ़ाये...!!!"


तमन्नायें अधूरी
इसलिये तो नहीं होती
कि उनको पाने की
कोशिश नहीं की गयी
या फिर जो भी किया गया
उसमें लगन की कमी थी
बल्कि पाने की तीव्रता में ही
वो उफ़ान न था
जो लपक लेता मंजिल को 
तभी तो कुछ पल में ही
जोश का वो झाग बैठ गया
होकर शांत जेहन की तलहटी में
वरना, वो दे सकता था
ऐसा उछाल कि
छूना आसमां भी आसां हो जाता
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मित्रों...,

‘चाँद’ जो चमकता आसमान पर जिसे निहारते सब और देखते अपनी अतृप्त इच्छाओं का अक्स उस आईने में तभी तो जहाँ किसी को उसमें अपने महबूब का दीदार होता तो किसी को रोटी और किसी को अपनी उन कामनाओं का जिसे वो या तो पाना चाहते या फिर जिन्हें न पाने की कसक <3 को टीसती रहती तो तन्हाई में रात के उस एकाकी हमसफ़र को अपने उस नितांत चुभने वाले पलों का  साथी बना लेते और कभी-कभी उससे गुफ्तगू भी करने लगते लेकिन यदि उन्होंने अपनी ख्वाहिश को मन की भीतर जन्म लेते ही उसकी शिद्दत को भी महसूस कर लिया होता तो आज शायद, ये दिन न देखना पड़ता... जी हाँ... अक्सर हम सब कई तरह की इच्छायें अपने अंतर में पालते हैं पर, केवल चंद ही उनकी अहमियत को भी उतनी ही गहराई से समझ पाते तभी तो उसे पाने जी-जान लगा देते बाकी तो उसे पाने की कोशिश तो करते लेकिन उसमें उसे पूरा करने की ‘तीव्रता’ का अहसास मिलाना भूल जाते तो फिर वो भी केवल कुछ कदमों के फ़ासले पर उनके हाथ में आने से चूक जाती कि सिर्फ कामना करने मात्र से ही तो वो ‘इच्छित वस्तु’ हासिल नहीं होती उस तक पहुँचने के लिये अतिरिक्त प्रयास भी तो करना पड़ता जो उसकी प्राप्ति के लिये एक ‘प्रेरक कारक’ बोले तो ‘फ़ोर्स’ का काम करता जिससे कि जहाँ बाकी लोग कुछ दूरी पहले ही हिम्मत हार जाते या उनका दम फूल जाता वहीँ आप उस अंतिम सिरे को फलांग किसी ‘विजेता’ की तरह अपनी ख्वाहिश की वो ‘ट्राफी’ अपने हाथों में लेकर पूर्ण संतुष्टि से अपने जीवन की शामें गुज़ारते जबकि हारने वाले केवल ‘चाँद’ को ही देख-देख अपनी रातें बिताते     

हर किसी को कुछ न कुछ पाने की चाह तो जरुर होती पर, कितने जिनकी उस चाहत के प्रति उतनी ही गंभीरता भी शामिल होती हो सकता हैं कुछ शुरूआती दिनों में वो जोश और लगन बेशक उत्साहित करें पर, फिर थोड़े दिनों बाद ही ये लगता कि यार, रहने दो इसके बिना भी तो कोई कमी न रहेगी या यदि ये न मिले तो कौन-सा जीवन की गाड़ी रुक जायेगी तो वे आधे रास्ते पर ही थककर बैठ जाते या न भी बैठे तो किसी और राह पर चल पड़ते और इस तरह भटकते-भटकते जब अंततः न तो कोई रास्ता बचता और न ही किसी तरह का कोई जुनून या फिर कोई भी इच्छा तो फिर किनारे पर बैठकर मलाल करते कि काश... पहले ये अहसास होता कि इसके बिना जीना कितना दूभर होगा तो कोई कसर बाकी न रखते और यही वजह कि हर किसी की ज़िंदगी में एक ‘काश’ तो शेष रह ही जाता जो उन्हें हर पल अपनी उस भूल का ध्यान दिलाता रहता... तो अब से ये जान ले कि ‘दबाब’ भी जरूरी होता... आगे बढने के लिये... जम्प लगाने के लिये... :) :) :) !!!    
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३० नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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रविवार, 29 नवंबर 2015

सुर-३३३ : "जुदा होकर रोना... या बेहतर एक बार सोचना...!!!"


उफ़...
ये सोचकर ही
दिल घबरा जाता
कि अब आगे का जीवन
गुज़ारना होगा उसके बिन
तड़फना होगा
‘ज्यूँ जल बिन मीन’
पर, कोई रास्ता भी तो नहीं
कि उसके संग भी तो
कट नहीं रहे अब रात-दिन
तो बेहतर कि
हो जाये अलग-अलग  
बिताये जिंदगी तारे गिन-गिन
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मित्रों...,

‘रेवती’ और ‘साहिल’ की जोड़ी कॉलेज के दिनों से ही बेहद लोकप्रिय थी जो भी उन्हें देखता उसे लगता कि इनसे ज्यादा एक-दूजे को चाहने वाला जोड़ा उन्होंने पहले नहीं देखा क्योंकि लैला-मजनूं, हीर-राँझा, शीरी-फ़रहाद, रोमियो-जूलियट, सोहनी-महिवाल आदि की प्रेम-कहानियां भले ही उन्होंने सुनी या पढ़ी हो मगर इन दोनों को तो रोज ही देखते तो जो सामने हैं उसे हकीकत माने या जिनको देखा ही नहीं उनकी मिसाल दे तो वे उनके ही किस्से सबको सुनाते और बताते कि ऐसा युगल तो शायद ही कोई हो सकता हैं सच... नज़र न लगे उनके प्यार को... दोनों हमेशा साथ रहे... धीरे-धीरे उनकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म होने लगी तो उनको एक-दूसरे से बिछड़ने का डर सताने लगा कि अब आगे न जाने क्या होगा, वो किस तरह से मिल सकेंगे वो लोग अभी इतने सक्षम भी तो नहीं कि अपने घर में अपनी शादी की बात रख सके पर, शायद किस्मत उनके साथ थी तो दोनों का कैंपस सिलेक्शन एक साथ ही एक ही कंपनी में हुआ और वे पुणे रहने चले गये जहाँ उनका इश्क और भी अधिक परवान तो चढ़ा ही साथ ही एक साथ रहने पर वे एक-दूजे को अधिक समझ पाये तो उनको ये अहसास हुआ कि अब उन दोनों को अपनी शादी का फैसला अपने घरवालों को बता देना चाहिये तो बस, जैसे ही छुट्टियाँ हुई वे अपने-अपने घर गये तो अपने प्रेम का सबके सामने खुलासा करते हुये ये प्रस्ताव भी रखा कि अब वे विवाह कर अपनी जिंदगी एक साथ बिताना चाहते हैं तो संयोग से दोनों के परिवार को ही कोई आपत्ति न हुई और ख़ुशी-ख़ुशी उनका शादी कर दी गयी

धीरे-धीरे दिन पर दिन गुजरते गये और वे जितने करीब आये उनके बीच उतनी दरारें भी आती गयी कि एक-एक पल साथ रहने पर उनको ये अहसास हुआ कि उनकी कुछ आदतें जिसे वे उस वक़्त अपनी मुहब्बत के जूनून में देख न सके अब उनको ही नागवार गुजरने लगी तो जितना संभव था उन्होंने साथ निभाने का प्रयास किया पर, जब लगा कि इस रिश्ते को इससे अधिक ले जाना संभव नहीं तो दोनों तलाक लेकर अलग हो गये पर, किसी ने भी झुकना या अपने आपको बदलना गंवारा न किया कि उनके अहं ने उनकी आँखों पर खुद के सर्वश्रेष्ठ होने की पट्टी जो बांध दी तो वही दो लोग जो पहले एक-दूजे के बिना जीने की कल्पना से भी घबराते थे अब अलग हो जी रहे थे पर, अंदर से ये भी समझ रहे थे कि उनका निर्णय ठीक नहीं क्योंकि उनकी चाहत भी कम नहीं पर, उनके फैसले के तराजू पर तो उसका पलड़ा हल्का साबित हुआ और जुदाई जीत गयी जबकि उनके पास ये ये विकल्प भी होना था कि वो मध्य का रास्ता निकालते और अलग होने की जगह आजीवन रेल की पटरियों की तरह चलते तो हो सकता था किसी दिन उनकी राहें एक हो जाती आखिर दिल में तो प्यार भरा ही था तो जोर मारता ही भले ही कुछ दिनों के लिये वो जरा कमजोर पड़ गया हो पर, उन्होंने इस पर विचार तक न किया और तुरत-फुरत सदा के लिये अलग होकर पछताते रहे पर, इस सच को स्वीकार न किया कि पृथक होकर रोने से साथ रहकर सोचना बेहतर साबित होता तो वही हुआ... एक दिन उनके बीच किसी तरह का भी रिश्ता बाकी न रहा सिवाय अटूट बंधन की टूटन की किरचों के जो चुभती रही आँखों में अंत समय तक... जब प्यार हद से ज्यादा हो तो उसे थोड़ा-सा समय देना ही चाहिये... भले ही उस समय में मौन ही क्यों न धारण करना पड़े... क्या नहीं :( :( :( ???      
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२९ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शनिवार, 28 नवंबर 2015

सुर-३३२ : "एक अंतराल जरूरी हैं... रिश्तों के लिये...!!!"


पढ़ते रहे ताउम्र
लगा आँखों से अपनी
रोज-रोज अखबार 
और ये शिकायत कि
लफ्ज़ ही धुंधले लिखे हुये
पर, राज़ ये खुला जब
गलती से दूर हुआ अखबार
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मित्रों...,

‘रिश्ता’ चाहे कोई भी हो लेकिन उसमें बीच में कुछ अंतराल जरूरी हैं ताकि वो लंबे समय तक उसी ताज़गी से निभ सके पर, अगले की मंशा तो अधिक से अधिक से नजदीक आने की होती कि सामने वाले को जल्द-से-जल्द पूरी तरह से जान ले जिससे कि उनके मध्य किसी भी तरह का कोई पर्दा न रहे जबकि इस फासले की भी अपनी एक अलग ही अहमियत होती क्योंकि इसकी वजह से ही तो वो ‘रिलेशन’ कायम रह पाता टकराव से बचा रहता जिस तरह शीशे के दो गिलास या किसी भी पात्र को टकराकर टूटने से बचाने के लिये उनके बीच कोई कागज़ का टुकड़ा या गत्ता रख दिया जाता उसी तरह दो-लोगों के कांच से नाज़ुक रिश्ते को बचाने के लिये भी दोनों के दरम्यां कुछ तो भले ही जरा-सा ही क्यों न हो एक ‘स्पेस’ निहायत जरूरी हैं वरना अंजाम वही होगा जो उन ‘ग्लास’ के टकराने का होता लेकिन आजकल तो ये सबसे ज्यादा देखने में आता हैं कि दो लोग अचानक ही कभी भी, कहीं भी मिलते हैं और इतने घनिष्ठ बन जाते कि उनके बीच किसी भी तरह का कोई भी फ़ासला नहीं होता पर, जितनी तेजी से वो एक-दूसरे के जितने करीब आते हैं उतनी ही तेजी से फिर उनके मध्य उतनी ही दूरियां भी बढ़ जाती हैं जिसे समझने की बजाय अक्सर वो किसी और रिश्ते में अपने आपको जोड़कर अपने दर्द को कम करना चाहते मगर, जो इनमें गहराई तक बंधे होते वे इसे बर्दाश्त न कर पाते और सोचने पर मजबूर हो जाते कि आखिर ऐसा हुआ क्यों ?

जब वे एक-दूजे के बिना जी नहीं सकते तो फिर जुदाई का ये ज़हर उनको किसलिये पीना पड़ा ?

तब गहन चिंतन करने पर उनको ये पता चलता कि उन्होंने संबंध बनाते समय ये सोचा ही नहीं कि ‘रिश्ते’ भी तो सांस लेते और उनको भी अपने आपको जीवंत बनाये रखने के लिये ताज़ा हवा की जरूरत पड़ती और ये नजदीकियां जितनी अधिक बढ़ती उतनी ही ज्यादा उन्हें सांस लेने में दिक्कत होती जिसके कारण उनका भी दम घुंटने लगता और वे पहले तो मुरझाते अगर फिर भी उनकी तरफ ध्यान न दिया गया तो फिर वे पूरी तरह से बेजान होकर रिश्तों की उस ठूंठ से विलग हो जाते अगर, उनमें जीवन का कुछ अवशेष बाकी होता तो वे फिर से अनुकूल माहौल पाकर जी उठते वहीँ कुछ ऐसा भी होते कि इंतजार में यूँ ही अपनी जगह पर सुप्त-से पड़े रहते और कुछ तो प्रतिकूलता को सहन न कर पाने के कारण मर ही जाते याने कि सब कुछ उस फ़ासले पर निर्भर करता जो न हो तो फिर परिणाम कुछ भी हो सकता हैं लेकिन उसका खामियाजा हमें बहुत बुरी तरह से उठाना पड़ता तो बेहतर कि हम अपने सभी ‘रिश्तों’ में चाहे वो किसी भी तरह का क्यों न हो एक ‘गैप’ बनाकर रखे उनको भी अपनी तरह जीने की आज़ादी दे एक पतंग की तरह खुले आकाश में जितनी ऊँचाई तक संभव हो उड़ने की ढील दे जब लगे कि वो हमारे दायरे से बाहर हो सकता तो डोरी खिंच ले मतलब उसका नियंत्रण पूरी तरह से आपके हाथ में हो मगर, ध्यान रहे कि कोई तीसरा भी बीच में आकर उस डोर को काटने की कोशिश न करें उस स्थिति में उस पर से आपका अधिकार खत्म हो जाता हैं सच.. रिश्तों की मिसाल किसी से भी दी जाये मगर, फिर भी उनको न तो सही तरीके से परिभाषित किया जा सकता हैं और न ही उनकी व्याख्या ही की जा सकती हैं कि वे तो हर शय से परे हैं हम केवल किसी चीज़ का उदाहरण देकर उसे समझाने का प्रयास कर सकते हैं पर, फिर भी वे तो अपनी ही तरह के सबसे अलग और सबसे अनमोल अहसास होते जिन्हें सिर्फ दिल से जिया जाता और दिल से ही महसूस किया जाता हैं आख़िरकार... दिल से जो जुड़े होते हैं

रिश्ते <3 के
जुड़े होते दिल से
जिये जाते
घुल-मिल के
मगर,
टूट जाते
किल-किल से...

तो फिर उनको बचाने जुट जाओ पूरे <3 से... :) :) :) !!!
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२८ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

सुर-३३१ : "मधुशाला की हाला... भरती मन का प्याला...!!!"


मधुशाला’
अब तक न
हुआ खाली प्याला
भरी उसमें
अनंत भावों की हाला
जिसे पढ़कर
कटता मन का जाला
कहता पीने वाला
ला... ला... और ला...
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मित्रों...,

‘हालावाद’ के जन्मदाता ‘डॉ हरिवंश राय बच्चन’ को सिर्फ़ हिंदी साहित्य में अपने अविस्मरणीय योगदान के लिये ही नहीं बल्कि अपनी कलम, आकर्षक व्यक्तित्व और प्रभावशील आवाज़ से सारी दुनिया में अपने लेखन से अपनी मातृभूमि का नाम रोशन करने के लिये भी जाना जाता हैं कि उस वक़्त जबकि न तो कलमकारों की ही कमी थी और न ही विषयों की तब ऐसे समय में उन्होंने अपनी एक अभिनव पहचान बनाने के लिये एक अलहदा अंदाज़ चुना जिसके कारण हर चाहनेवाले ने उनको दिल से अपनाया तो हर आलोचक ने भी अपने ढंग से सराहा इसलिये तो उनके प्रशंसकों का जमावड़ा दिनों-दिन बढ़ता ही गया जो उनको सुनने के लिये दूर-दूर से दौड़े चले आते थे कुछ तो उनकी झलका देखने भी लालयित रहते कि उनकी चुम्बकीय छवि में अपनी ही तरह का एक अलहदा आकर्षण था जो विरासत में उनके पुत्र सदी के महानायक ‘अमिताभ बच्चन’ को भी प्राप्त हुआ जिन्हें कि उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता हैं वाकई... एक लेखक सिर्फ शब्दों से ही सृजन नहीं करता बल्कि उसके हर कर्म में ही कुछ नूतन गढ़ने का भाव झलकता तो फिर उसकी संतान किस तरह इससे वंचित रह सकती भले ही फिर ये कहा जाये कि ‘अमिताभ’ को बनाने में उनकी माताजी ‘तेजी बच्चन’ का ही हाथ था लेकिन उनकी रगों में तो उनके पिता ने लहू के संग ही अपने विशिष्ट गुणों का भी संचार कर दिया था जिसने उनके भीतर उनकी ही तरह लेखनी के साथ-साथ उसे अपने ही तरीके से प्रस्तुत करने का अद्भुत स्वर भी प्रदान किया था तभी तो ‘मधुशाला’ को सुनने वाले सिर्फ और सिर्फ ‘बच्चन साहब’ के कंठ से उसका रसास्वादन करना चाहते

एक ‘हाला’ जिसे लोग गम गलत करने के लिये इस्तेमाल करते तो एक वो जिसे पीकर नहीं बल्कि सुनकर ही आनंद सागर में गोता लगा सकते साथ ही इसमें इतना गहरा दर्शन भी छुपा हुआ जिसके लिये शब्दों के अर्थ में नहीं बल्कि उसके उन मायनों में खोना पड़ता जो सहज में ही दिखाई नहीं देते लेकिन जिनकी अनुभूति करने पर वे स्वतः ही स्पष्ट भी हो जाते यही वजह कि ‘मधुशाला’ और उसके ‘रचनाकार’ दोनों को साहित्य जगत में एक विलक्षण स्थान प्राप्त हुआ जिसे उनके बाद भी अब तक कोई हासिल नहीं कर पाया कि जितनी भी बार उनके लिखे को पढ़ा जाता उतनी ही बार उसके कुछ नूतन अर्थ सामने आते पढ़ने वाले ‘मधु’ के अथाह सागर में डुबकी लगाकर ‘अर्थों’ के अनमोल मोती ढूंढकर लाते उन पर शोध करते और ये प्रयास करते कि काश वे भी उनकी तरह लिख सकते तो सहज ही उस मुकाम को भी हासिल कर लेते पर, क्या किसी की नकल कर उसके समकक्ष पहुंचा जा सकता हैं ये प्रयास तो कईयों ने किया और तरह-तरह से उनकी लकीर छोटी कर भी खुद  को उनसे उच्च साबित करने की भी कोशिशें की पर, ये भूल गये कि उस व्यक्ति ने तो स्वयं ही अपनी अलग राह चुनी और अपने लिये एकदम नया, एकदम अलग एक अनूठा विषय चुना कि सबके बीच भी अपनी एक अलहदा पहचान बना सके और वही हुआ जो उन्होंने सोचा था वे लोग जो ‘उमर खय्याम’ की रुबाइयों को विस्मृत कर उस विधा से दूर हो गये थे उनको एक नये पात्र में नई शैली में लोगों के सामने परोसा तो साहित्य प्रेमी जो नीरसता से ऊबे हुये थे इस छलकते प्याले के रस में सराबोर होकर झूम उठे फिर क्या था एक के बाद एक कृतियों का अनवरत सिलसिला शुरू हो गया मधुशाला, मधुबाला, मधु कलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, हलाहल, मिलन यामिनी, सोपान, जनगीता आदि ।

जितनी सहजता-सरलता से उन्होंने अपनी कलम से  हर विषय पर अपने अहसासों को लिखा उतनी ही साफगोई एवं सच्चाई से अपनी आत्मकथा को भी अपने पाठकों के समक्ष बिना किसी हेर-फेर या बिना किसी लाग-लपेट के चार खंडों में सबके सामने पेश कर दिया जिसे कि हिंदी साहित्य की अप्रतिम धरोहर माना जाता हैं तो आज सदी के इस महान रचनाकार को जन्मदिवस पर मन से नमन... :) :) :) !!!                     
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२७ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

पोस्ट-३३० : "मिटाना होगा आतंकवाद ... जो करती मानवता का नाश...!!!"


मिटाना होगा
दुनिया से आतंकवाद
जो सदा करता
आदमियत का विनाश
अब न चुप रहना
वरना पड़ेगा दुःख सहना
जब न इंसा रहेगा
हर तरफ सिर्फ़ ज़ुल्म बचेगा
उससे पहले हमको
अपने आपको तैयार करना पड़ेगा 
हर एक आतंकी को
अब निडरता से जवाब देकर 
इस दुनिया में फिर से
अमन चैन का परचम लहराना होगा
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मित्रों...,

‘माँ’ के बाद यदि कोई निःस्वार्थ प्रेम को ताउम्र जीता हैं तो वो हैं एक ‘सैनिक’ जो सदैव बिना मांगे सिर्फ और सिर्फ़ देना जानता हैं यहाँ तक कि कई मायनों में तो उसका त्याग, समर्पण किसी ‘जननी’ की सेवा एवं तपस्या से भी कई गुना अधिक होता क्योंकि एक माँ तो अपनी सन्तान को जनम देती इसलिये उसका अपने बच्चों से लगाव होना बेहद सामान्य बात होती हैं लेकिन हमारे फ़ौजी भाइयों का तो हमसे किसी भी तरह का कोई खूनी रिश्ता नहीं होता लेकिन वो तो फिर भी हमारी सुरक्षा के प्रति सदैव सजग, सचेत रहते यहाँ तक कि एक जन्मदात्री केवल किसी विकट परस्थिति में ही वो भी केवल अपने बच्चों की खातिर अपनी जान दे सकती लेकिन ये सिपाही तो कभी भी किसी भी वक़्त जब भी कोई इस देश और देशवासियों को नुक्सान पहुँचाना चाहता तत्क्षण अपनी जान हथेली पर लेकर उससे भिड़ने तैयार हो जाते और यदि फिर किसी स्थिति में अपने प्राणों को भी न्यौछावर करना पड़े तो एक पल भी न सोचते वो भी उनके लिये जिन्हें न तो जानते न ही कभी मिले केवल दिल से ‘हमवतन’ होने के कारण उनको अपना भाई-बहिन मानते तो शपथ के समय किये गये वादे को हर तरह से निभाते और हम क्या करते कई बार तो उनको याद तक करना भूल जाते जबकि वो देश के प्रहरी व हमारे रक्षक भी अपनी इच्छा से बनते जबकि उनके पास भी अपने जीवन को सुख से जीने के अनेक विकल्प उपलब्ध होते फिर भी अपने घर-परिवार और अपनों से दूर रहने वाला कर्मक्षेत्र चुनते क्योंकि वे तो निःस्वार्थ सच्चे देशभक्त होते हैं यूँ यही दायित्व पुलिस’ का भी होता लेकिन वर्दी पहनते ही उनके रवैये में बदलाव आ जाता लेकिन उनमें भी कुछ ऐसे होते जो पुलिसिया ड्रेस को पहनकर भी अपना फर्ज़ नहीं भूलते और हम चैन से रहे इसलिये अपनी जान गंवा देते हैं

एक ऐसा ही अवसर आया २६ नवंबर २००८ को जब कुछ आतंकवादियों ने इस देश के जनसंख्या बहुल क्षेत्र को अपना निशाना बनाया और देश को भयभीत कर अपने गलत इरादों को कामयाब करना चाहा तब ऐसे समय में ‘पुलिस’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा बल’ दोनों ने मिलकर अपना कर्तव्य पूर्ण किया आज उसी शहादत की बरसी... सभी शहीदों को मन से नमन... :) :) :) !!!            
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२६ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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बुधवार, 25 नवंबर 2015

सुर-३२९ : "गुरु नानक जयंती का संदेश... मिटे मन के क्लेश...!!!"


जब-जब भी
इस धरती पर
अधर्म बढ़ता और
धर्म कम होने लगता
तो फिर करने
उस पाप का विनाश
प्रभु लेते स्वयं अवतार
या भेजते कोई पुण्यात्मा
जो भूले-भटकों को
दिखाये सत्य का मार्ग
जगाये अंतर का परमात्मा  
तो आये ‘गुरु नानक’
दिया प्रभु का संदेश हमको
आज उनकी जयंती
करते हम सभी नमन उनको
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मित्रों...,


भारत की भूमि को यूँ ही तो परम पावन मोक्षदायिनी नहीं कहा जाता बल्कि इसके कण-कण में परमात्मा का निवास हैं और यही वो धरा हैं जिसमें आने भगवान् भी लालायित रहते तभी तो मानव देह धर अवतार लेते रहते लेकिन सदैव उनके आने का कारण अधर्म को इस भूमि से मिटा धर्म का परचम लहराना होता क्योंकि हम सभी मानव जो कि उस दिव्य शक्तिमान परम शक्तिशाली अदृश्य परमात्मा की संताने हैं वे सभी युग परिवर्तन के साथ ही अपने पवित्र संस्कारों को भूल इस मायावी दुनिया में न सिर्फ रम जाती जाती बल्कि कुछ तो अपने वास्तविक स्वरूप से एकदम विपरीत पापात्मा बन जाती और दूसरी पुण्यात्माओं को परेशान करती जिससे कि पृथ्वी का संतुलन बिगड़ने लगता तो फिर ऐसी स्थिति में जरूरी होता कि ईश्वर आये और इन भटकी हुई संतानों को सद्मार्ग पर लगाये तो वे किसी न किसी रूप में जरुर आते और गिरते नैतिक मूल्यों के साथ ही धर्म की पुनः संस्थापना करते ऐसा ही हुआ था आज से करीब पांच सौ साल पहले जब भारत में पठानों का राज था और लोगों का धर्म के प्रति रुझान कम होने लगा था जिससे कि मनुष्यों का नैतिक पतन होने लगा था तो सबके अंदर की उस बुझती ईश्वरीय लौ को फिर से जलाने ‘गुरु नानक’ का अवतरण हुआ चूँकि वे प्रभु की वाणी का प्रचार करने आये थे तो बचपन से ही उनकी अध्यात्म के प्रति गहन रूचि थी और वे सबके भीतर छुपी उस सूक्ष्म आत्मा के दर्शन करते थे अतः किसी में भी भेदभाव नहीं करते थे जिसके कारण हिंदू एवं मुसलमान दोनों की ही उनके प्रति असीम श्रद्धा थी तो सभी उनके वचनों को ध्यान से सुन अपने आपको उसके अनुसार बदलने का प्रयास करते थे पूरे देश में इसका प्रचार करने हेतु उन्होंने पैदल ही एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रायें की और अपनी इस धार्मिक चेतना की शुभ यात्रा में वे मक्का, मदीना, ईरान, काबुल सभी जगह गये और हर जगह उस परमात्मा के अलौकिक प्रवचन से लोगों को आत्मदर्शन के लिये प्रेरित किया जिससे कि वे स्वयं ही अपनी आँखें मूंद उस जगतपिता का साक्षात्कार कर सके

ईश्वर एक हैं, ईश्वर ही प्रेम हैं और वही सबके अंदर निवास करता हैं किसी मंदिर, मस्जिद या पूजास्थल में नहीं अतः हमें सबको एक नजर से देखना चाहिये क्योंकि बाहरी रूप में हम कुछ भी नजर आये लेकिन आंतरिक रूप से तो सभी एक दिव्य ज्योत जिसे कि ‘आत्मा’ कहते हैं होते हैं पर, हमारे भीतर देहाभिमान आ जाता तो हम खुद को ‘शरीर’ से समझते जबकि पंचतत्वों से निर्मित ये काया तो केवल कर्म करने के लिये दी गयी जिसमें हम इतने खो गये कि अपने आने का लक्ष्य ही भूल गये और उपरी भेष-भूषा के आधार पर हर मानवाकृति को अलग-अलग नाम, अलग-अलग पहचान और अलग-अलग सम्प्रदायों में बाँट उनके अलग-अलग धर्म भी निर्धारित कर दिये और फिर अपने आपको सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने आपस में ही लड़ने-झगड़ने लगे तो फिर ऐसी स्थिति में हमारी खिंची गयी उन बंटवारे की लकीरों को मिटाने किसी को तो आना ही था तो समय-समय पर अलग-अलग रूपरंग लेकर उस प्रभु को आना पड़ा तो कभी वो राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, हजरत मुहम्मद या ईसा मसीह बनकर आये और अपने हर तरह के स्वरूप में उन्होंने एक ही बात दोहरायी कि ‘ईश्वर एक हैं’ लेकिन हमने उन पवित्र संदेशों या वाणी को ग्रहण करने की जगह उस बाहरी आकृति को पकड़ लिया और यहीं से सारी समस्या शुरू हुई जिसने इंसान को इंसान से जुदा कर दिया कि हम अपने सच्चे स्वरूप दिव्य आत्मा को विस्मृत कर दैहिक ढांचे को ही अपनी वास्तविक पहचान मान लिया यदि गहराई से सभी धर्म ग्रंथो का अध्ययन कर उनमें लिखे सद्विचारों का चिंतन-मनन करें तो फिर उस अलौकिक तथ्य बड़ी आसानी से आत्मसात कर सकते जिसके बाद फिर किसी भी अन्य गूढ़ संकेतों को जानना शेष न रह जाता पर, ये अकेले करना संभव नहीं तभी तो ‘गुरु’ आते हैं हमें आत्मदर्शन कराने हमारी आत्मा का उस परमात्मा से मिलन कराने जैसा कि ‘गुरु नानक जी’ और सभी पुण्यात्माओं ने भी किया था पर, हमने तो किसी की भी वाणी के मर्म को समझने की बजाय उनको ग्रंथों में कैद कर अपने पूजा स्थलों में उन पैगम्बरों की भी मूर्ति स्थापित कर उनको पूजना शुरू कर दिया क्योंकि ये हमें अधिक आसान लगा बनिस्बत कर्म करने और सद्मार्ग पर चलने के तो फिर किस तरह से मुक्ति मिलती इसलिये जन्मों के चक्कर में पड़े हुए हैं ।

‘गुरु नानक’ के उपदेशों में भी वही सब समाया जो दूसरे किसी भी मत या पंथ के संस्थापकों के प्रवचन में भी नजर आता तो आज इस ‘प्रकाश पर्व’ की सार्थकता तभी होगी जब हम उनके संदेशों के मूल अर्थ को स्वीकार कर अपने जीवन में उतारेंगे... इसी के साथ आप सभी मित्रों को ‘गुरु नानक जयंती’ एवं ‘प्रकाश पर्व’ की लख-लख बधाइयाँ... :) :) :) !!!               
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२५ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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