शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

सुर-४६३ : "मंगल पांडे की शहादत... याद रखेगा हिंदुस्तान...!!!"


दोस्तों...

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‘देशहित’
समझो मर्म
...
‘देशसेवा’
एकमात्र कर्म
...
‘देशभक्ति’
सबसे बड़ा धर्म
...
फिर जियो
उठाकर सर...
न आयेगी कभी शर्म...
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जब भी भारतीय स्वाधीनता का इतिहास पढ़ती तो बस, एक जगह आकर ठहर जाती वो भी तब जब उस अद्भुत पराक्रमी साहसी बलिदानी की गाथा के पृष्ठ पलटती तो गहन सोच में डूब जाती कि जब अंग्रेजो का हमारी सोने उगलती धरती प्राकृतिक सम्पदा से हरी भरी भूमि को देखकर मन ललचा गया और उन्होंने हमारी कमजोरियों का फायदा उठाकर हमें अपने ही घर में अपने ही देश और अपनी ही जमीन पर दास की तरह काम करने पर न सिर्फ़ मजबूर कर दिया बल्कि हमारी शक्तियों और क्षमताओं का भी मनमाना दोहन किया और इस तरह पुरे देश को ही अपना गुलाम बना लिया था तब वे हर काम के लिये अपने देश से तो मजदूर या श्रमिक ला नहीं सकते थे तो उन्होंने हमें ही इस काम पर नियुक्त कर दिया यहाँ तक कि सेना हो या कोई भी क्षेत्र हमें हमारे ही खिलाफ खड़ा भी कर दिया तभी तो 'मंगल पांडे' जैसे बहादुर उनकी सेना की शोभा बढ़ा रहे थे वैसे भी इतने इमानदार और ताकत से भरपूर लोग उन्हें और कहाँ मिलते लेकिन वो ये भूल गये कि हर एक भारतीय के दिल में समूचा हिंदुस्तान बसता हैं जो कभी बेबसी या मजबूरी में भले ही किसी की दासता स्वीकार कर ले लेकिन उसकी आत्मा में तो उसकी भारतमाता का ही स्वरूप ही विराजमान होता तभी तो जब कभी ऐसा वक़्त पड़ता कि उसके स्वाभिमान को ही कुचलने का प्रयास किया जाता तो उसकी अंतरात्मा विद्रोह कर उठती

यही तो उस शेरदिल देशभक्त भारत माँ के लाड़ले पुत्र के साथ हुआ जो कि और भी कई देशवासियों की तरह अंग्रेजो की सेना में एक सिपाही था लेकिन साथ ही अपने धर्म के प्रति भी जिम्मेदार था जिसने अपने जमीर अपने ईमान को रोटी की खातिर बेचा नहीं था इसलिये जब उसे ज्ञात हुआ कि उन लोगों को जो कारतूस दिये जा रहे हैं उनमें ‘गाय’ और ‘सूअर’ के मांस की चर्बी का प्रयोग किया जा रहा हैं तो वो भड़का उठा क्योंकि इस तरह तो उन सबका ही धर्मभ्रष्ट हो जाता जो भी इसका प्रयोग करते जिस समय की ये बात हैं वो  इतिहास में १८५७ की क्रांति या वतन के ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ के नाम से दर्ज हैं एक ऐसी घटना हैं जिसने आज़ादी का बिगुल बजाने की पहल की जिसने लोगों की रगों में ठंडे पड़कर जमते जा रहे लहू में एकाएक ही देशभक्ति के जोश का उबाल ला दिया सबको अचानक ही ये अहसास दिला दिया कि भले ही हमें दुश्मनों ने अपने कब्जे में ले रखा हैं और हम उनकी आधीनता में रहने को मजबूर हैं लेकिन ऐसी बेबस असहाय जिंदगी से तो दो पल की जोश-खरोश से भरी जिंदगी हैं जो भले ही छोटी हैं लेकिन उसमें अपनी मर्जी तो शामिल हैं कम से कम मरने पर इस बात का तो संतोष रहेगा कि एक गुलाम जीवन की जगह हमने एक आज़ाद मौत चुनी जिसने हमें सिर्फ़ इस दुनिया से ही नहीं उस दुनिया से भी ऊपर उठा दिया हमारा वजूद हमारी आत्मा हर तरह के बोझ से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो गयी हमने एक सार्थक मौत चुनी जिसमें कोई ग्लानि नहीं I

यही उस सच्चे देशभक्त ‘मंगल पांडे’ ने भी किया और इस तरह अंग्रेजी शासकों की खिलाफत कर ‘स्वाधीनता संग्राम’ के इतिहास में एक अभूतपूर्व अध्याय जोड़ दिया जिसने ‘१८५७ की क्रांति’ के रूप में ज्योति से ज्वाला की तरह भड़ककर अपने ही देश में कब्जा जमाने वाले अंग्रजों और उनकी ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थीं । वही ‘मंगल’ जो कि इस आंदोलन से ३० वर्ष पूर्व ही १९ जुलाई १८२७ को ग्राम ‘नगवा’, जिला बलिया में पैदा हुये थे उस दिन उन्होंने सब्र की हर सीमा को तोड़कर शेर की तरह ऐसी दहाड़ लगाई कि पूरी की पूरी अंग्रेज फौज काँप गयी  थी । जब ‘बैरकपुर’ की सैनिक छावनी में ‘३४वीं बंगाल नेटिव इनफैंट्री’ में कार्यरत इस सैनिक को लगा कि धीरे-धीरे बात ‘धर्म’ पर ही आने लगी हैं तो ऐसी स्थिति में भी चुप रहना न तो इंसानियत और न ही अपने वतन के प्रति ही वफ़ादारी हैं एक गुस्सा तो पहले से ही मन के किसी कोने में दबाकर रखा ही था जो अब इस असहनीय बात से इस तरह उभरा कि सैलाब बनकर बाहर आया जिसने अपने साथ अन्य देशवासियों को भी देशप्रेम के रूहानी अहसास से लबरेज कर दिया और उन्हें अपने जीवन का मकसद भी मिल गया । इतिहास के अनुसार ‘कारतूसों’ में ‘गाय’ और ‘सुअर’ की चर्बी लगे होने की बात ने एक तरह से सबके अंदर की सोयी हुई देशभक्ति को जैसे झकझोर कर जगा दिया और इस तरह आज़ादी की इस पहली लड़ाई को एक मजबूत आधारशिला प्राप्त हुई और अब सभी ‘हिंदू’ और ‘मुसलमान’ ने एकजुट होकर फिरंगियों को सबक सिखाने की ठान ली और एक स्वर में उन कारतूसों का उपयोग करने से इंकार कर दिया । इस अंग्रेजी हुकूमत को देश से बाहर खदेड़ने के लिये ‘मंगल पांडे’ ने २९ मार्च १८५७ को ‘लेफ्टिनेंट बॉग’ और कुछ अन्य अधिकारीयों पर हमला कर दिया लेकिन वो अपने अभियान में सफ़ल न हो सके और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया जिसने दूसरे साथियों को भी बग़ावत करने को को उकसाया इस गिरफ्तारी के बाद ०६ अप्रैल १८५७ को ‘मंगल पांडे’ को फांसी की सज़ा सुनाते हुये १८ अप्रैल की तारीख मुकर्रर की गयी की गई जिसकी खबर होते ही सारा हिंदुस्तान और सभी देशवासी अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध खड़े हो गये ये जनक्रांति देखकर अंग्रेज भारतवासियों की ताकत और एकता से घबरा गये वे समझ गये कि इन्हें एक नहीं होने देना हैं और ‘मंगल पांडे’ को भी उन्होंने तयशुदा दिनांक से दस दिन पूर्व याने कि आज ही के दिन ‘मृत्युदंड’ दे दिया गया और ये उनके प्रयास का नतीजा था कि ९० साल बाद १९४७ में अंग्रेज देश छोड़कर चले गये और हम सबको आज़ादी का तोहफ़ा मिला ।

अब जबकि अपना ही शासन बोले तो 'लोकतंत्र' हैं तब एक सरकारी नौकर हर तरह के जुल्मों-सितम अत्याचार चुपचाप सहन करता हैं और अपना मुंह बंद कर के रहता हैं और अपने बच्चों को भी यही सिखाता हैं कि चैन से अपना काम करो अपने काम से काम रखो किसी के फटे में टांग न अडाओ न ही किसी बहस में पडों सब कुछ देखते हुये भी अपनी आँख नाक काम सब बंद रखो वो कभी ये नहीं समझ सकेंगे कि किसलिये ‘मंगल पांडे’ ने अपनी जान गंवा दी आज तो लोगों को ये तक नहीं पता कि वो क्या खा रहे हैं और उस समय एक व्यक्ति ने सिर्फ़ इसलिये फिरंगी सरकार से पंगा ले लिया कि उसने ‘कारतूस’ में चर्बी मिला दी थी भले ही आज के युवाओं को ये अविश्वसनीय लगे लेकिन आज भी ‘मंगल पांडे’ हमारी आन बान शान का प्रतीक हैं जिसने सैनिक होते हुये भी अपने ही ऑफीसर्स को ललकारा उनके खिलाफ़ मुहीम छेड़ी लोगों में चेतना जगाई, मरती जा रही आत्मा को जीवन दिया लोगों में आशा का संचार किया कि नामुमकिन कुछ भी नहीं केवल आवाज़ उठाने की देर हैं फिर देर सवेर उसका सुपरिणाम आ ही जाता और यही हुआ जिस चिंगारी को उन्होंने आग लगाई थी वो ऐसी मशाल और जन आन्दोलन में तब्दील हुई कि नब्बे साल बाद ही सही अंग्रेजों को अपना ताम-झाम उठाकर इस देश की बागडोर को वापस हमारे ही हाथों में सौंपकर जाना पड़ा

हमें देखो हम अपने ही लोगों के बीच रहकर भी अपने मन की बात नहीं कह पा रहे हर बार हम लोगों को सब्ज बाग़ दिखाकर सरकार सत्ता में आ जाती और फिर पांच साल के कुर्सी पर काबिज हो हमसे मुंह फेर लेती फिर भी हम खामोश सब सहते रहते कि कहीं हमारे या हमारे परिवार पर कोई विपत्ति न आ जाये कहीं ऐसा न हो कि हमें मार दिया जाये और भी न जाने कितने तरह के डर वो भी अपनी ही चुनी गयी सरकार में अपने ही लोगों के मध्य रहते हुये भी किसी भी अन्याय के खिलाफ न तो एक जुट हो पाते न ही कोई आन्दोलन ही करते जबकि कुछ स्थितियां वाकई बेहद असहनीय और बदलाव की दरकार मांगती हैं लेकिन सभी अपने-अपने ‘कम्फर्ट ज़ोन’ में रहते हुये सिर्फ़ ये सोचते कि कोई ‘मंगल पांडे’ हो कोई ‘भगत सिंह’ हो जो हमारे लिये लड़े हमारी जगह फांसी चढ़ जाये... जबकि अपने धर्म-कर्म को महफूज़ रखने हमें ही कदम उठाना पड़ेगा... जब भी हमारे आत्माभिमान को कोई ठेस पहुँचायेगा... कोई भी हमारे लिये खड़ा न होगा गर, हम में लड़ने का जज्बा न होगा... वंदे मातरम... इंकलाब जिंदाबाद... :) :) :) !!!         
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०८ अप्रैल २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

सुर-४६२ : "विश्व स्वास्थ्य दिवस... देता निरोगी रहने का संदेश...!!!"


दोस्तों...

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रहें निरोगी
सभी हो सुखी
सबको देने ये संदेश
आओ हम मिलकर मनाये
विश्व स्वास्थ्य दिवस’...
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एक समय था जबकि दुनिया में हर तरफ पोलियो, चेचक, खसरा, रक्ताल्पता, तपेदिकरतौंधी, नेत्रहीनता, कुष्ठरोग और न जाने किस-किस तरह की बीमारियाँ फैली हुई थी ऐसे में वैश्विक स्तर पर उसका समाधान ढूँढने के लिये आज ही के दिन याने कि ०७ अप्रैल १९४८ को विश्व स्वास्थ्य संगठनका गठन किया गया और उसके दो वर्षों बाद ही ये निश्चित किया गया कि सारी दुनिया को इन जानलेवा बिमारियों के प्रति जागरूक करने के अलावा सेहत संबंधी जानकारी देने और स्वास्थ्य संबंधी नीतियाँ बनाने के लिये अब से सात अप्रैलको विश्व स्वास्थ्य दिवसमनाया जाये जिससे कि प्रतिवर्ष हर मुल्क में फैले हुये रोगों के बारे में विचार-विमर्श करने के साथ-साथ सभी मिलकर उसके विरुद्ध एकजुट होकर जंग भी लड़ सके ताकि उसे पूरी दुनिया से समाप्त किया जा सके । यही वजह हैं कि इनके प्रयासों के कारण अब बहुत-सी खतरनाक बीमारियाँ जो पहले लाइलाज़ थी जड़ से ही खत्म हो गयी लेकिन फिर उनके स्थान पर कुछ और नयी अधिक खतरनाक बीमारियाँ भी तो पैदा हो गयी ऐसे में जबकि ग्लोबलाइजेशनबढ़ा हैं समस्त जगत के बीच की भौगोलिक दूरियां भी सिमटने लगी जिसके कारण अब कहीं भी आना-जाना सुगम हुआ तो इसी के साथ कुछ समस्यायें भी उत्पन्न हुई और अब लोग इधर-उधर से अपने साथ विदेशी सामानों के साथ-साथ अनजाने में ही कुछ अन्य रोगों के वाहक भी आयात करने लगे और अब हम आये दिन कोई ऐसे बीमारी का नाम सुनते ही रहते जिसे पहले हम जानते भी नहीं थे । चूँकि अब जमाना हर मामले में बहुत आगे पहुँच चुका हैं ज्ञान-विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली पहले जहाँ किसी भी रोग को समझने या उसके विषय में खोज करने के लिये साधनों की कमी थी वहीँ अब एक ही पल में ही न सिर्फ़ उसके कारण बल्कि उसके समाधान को भी ढूंढ लिया जाता पर इसका मतलब ये कतई नहीं कि हम सब बेफ़िक्र होकर बैठ रह जाये हमारी भी कोई जिम्मेदारी हैं या नहीं कि हम अपने ही स्तर पर जो भी कर सकते हैं वो करें और अपने आस-पास के वातावरण को साफ-सुथरा रखें एवं लोगों को भी स्वच्छता के प्रति सचेत करें क्योंकि आधी समस्या तो सिर्फ माहौल की गंदगी को हटाकर हल की जा सकती हैं क्योंकि जब हमारे चारों तरफ़ ही सफ़ाई हो तो रोगाणु पनपेंगे ही नहीं, न लोग उनसे ग्रसित होकर दूसरों को भी संक्रमित करेंगे इस तरह रोग, रोगी और संक्रमण को काफी हद तक रोका जा सकता हैं ।

तकनीक ने जहाँ हम सबको इतनी सारी सुख-सुविधायें प्रदान की हैं वहीँ वो बड़ी ही चतुराई से हमें अपने जाल में फंसाकर बहुत कुछ अनमोल हमसे छीन भी तो रही हैं जिसकी खबर अक्सर हमको बड़ी देर से होती हैं दिनों-दिन आधुनिकतम गेजेट्सइज़ाद होते जा रहे हैं जो हमें चुटकियों में इतना कुछ दे देते कि उसकी चकाचौंध में हम अपनी सबसे कीमती सेहत को भी नज़रअंदाज़ कर उसे इस्तेमाल करने में इस तरह मशगूल हो जाते कि जान ही नहीं पाते कब जाने-अनजाने में किसी असाध्य रोग की चपेट में आ जाते शायद, आप सबने भी ये संदेश पढ़ा होगा---

खाना सामने रखकर भी खा न सके...

जोर से नींद आते हुये भी सो न सके...

बहुत से जरुरी कामों को अनदेखा करें...

व्यक्तिगत रूप से कमजोर होते चले जाये...

सामाजिक कार्यक्रमों में शिरकत करना मजबूरी लगे... 

हमारे आपसे रिश्ते टूटने की कगार पर पहुंचने लग जाये...

तो... बताये वो बीमारीकौन-सी हैं ??? 
.
.
.
.
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जवाब --- जनाब, यही जो हाथ में पकड़ी हुयी हैं ।

भले ही अभी हम इसे पढ़कर हंसते हो लेकिन यदि जरा-सा भी गौर से सोचेंगे तो जानकर हैरान रह जायेंगे कि ये कोई मज़ाक नहीं बल्कि एक बहुत ही भयावह सत्य हैं... जी हाँ... ये सभी यंत्र जो हमें हर तरह की सहूलियत देते हैं वही हमारी सेहत के रूप में हमसे बहुत बड़ी कीमत भी वसूल करते हैं जिसका पता हमें तब ही चलता जब वो हमें अपनी गिरफ़्त में ले चुके होते और तब उनसे बचने के लिये न जाने कितने उपाय करते और रुपया-समय सब बेहिसाब गंवाकर भी उसे दुबारा हासिल नहीं कर पाते अतः ये जरूरी हैं कि अब हम इनके प्रति भी थोड़े-से सतर्क बने क्योंकि ये सभी उपकरण फ़्रिज, कूलर, ए.सी., माइक्रोवेब, टेलीविजन, डिजिटल कैमरा, कंप्यूटर, मोबाइल, टैब, हीटर, गीजर आदि सभी हमें थोड़ा या ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं तो क्यों न हम सब इनसे भी न सिर्फ़ थोड़ी-सी दूरी बनाये बल्कि अपनी दिनचर्या को भी परिवर्तित करें जिससे कि इनके प्रभाव से होने वाले दुष्प्रभावों को कम कर सकें... ये हमारी आँखों की रौशनी, हाथों की उँगलियों के प्रसारण, जेहन की सोचने-समझने की शक्ति, पैरों की चपलता, शारीरिक चुस्ती-फुर्ती सभी को कम करते जाते हैं और फिर एक दिन हम असहाय से हो जाते तब न सिर्फ हमें इसने दूर रहने की सज़ा दी जाती बल्कि इलाज़ भी करवाना पड़ता ।

सोचे... सोचे... आखिर ये यंत्र हमसे चलते हैं... हम इनसे नहीं... तो फिर क्यों हम इनके लिये इस कदर पागल हो जाये कि अपने अंग-प्रत्यंग में होने वाले दर्द की अवहेलना करते रहें... और ये एक दिन हमें ही लील जाये तो क्यों न हम ही समझदार बन जाये... आज विश्व स्वास्थ्य दिवसपर यही होगा सबसे काम का संदेश... अपनाये सभी इसे और रहें निरोगी... :) :) :) !!!
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०७ अप्रैल २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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बुधवार, 6 अप्रैल 2016

सुर-४६१ : "सुचित्रा सेन... अभिनय और सादगी का मेल...!!!"


दोस्तों...

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पवित्र सौंदर्य
एक देवी के समान
जगाता मन में सम्मान
...
जब भी निभाया
कोई किरदार लगा ऐसा
हमारे आस-पास हो कोई जैसा
...
भूला न कोई आज तलक
आवाज़ और अनुपम चेहरा उनका
अभिनेत्री 'सुचित्रा सेन' था नाम जिनका ।।
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‘देवदास’ नदी किनारे बंसी डालकर बैठा हैं कि तभी अचानक गगरी लिये पानी भरने ‘पारो’ वहां आती हैं और बाल सखा 'देवदास' से टकरा जाती हैं एकाएक उनके बीच वार्तालाप बिगड़ता हैं और गुस्से में आकर अभिमानी 'देव' उसके माथे पर ये कहते हुये बंशी मार देता हैं कि रूप का इतना अहंकार ठीक नहीं... चाँद पर भी दाग हैं और तुम बेदाग़ लाओ तुम्हारे इस परिपूर्ण चाँद जैसे चेहरे पर भी एक दाग बना दूँ... वही देवदास, पारो से किया वादा कि मरने से पहले वो उसके गाँव जरुर आयेगा, निभाने जब मरणासन्न अवस्था में पहुंचकर दम तोड़ता हैं तो जिस तरह ‘पारो’ को बेचैनी होती हैं और वो ये जानकार कि उसके दरवाजे पर दम तोड़ने वाला कोई और नहीं उसका अपना प्रियतम हैं... विकल होकर वो अपनी हवेली, परिवार, अपना मान-सम्मान सब छोड़कर भागती हैं पर, मुख्य द्वार पर रोक दी जाती हैं तो वही बेहोश होकर गिर जाती हैं...

'शरतचंद्र चट्टोपध्याय' का कालजयी सृजन 'देवदास' सिर्फ एक काल्पनिक उपन्यास हैं लेकिन इसने जनमानस में जिस तरह अपनी पैठ बना रखी हैं कोई भी इस किरदार को महज आभासी नहीं कह पाता क्योंकि कहीं न कहीं हर कोई अपने जीवन में कभी न कभी तो प्रेम की सुखद अनुभूति से गुजरता ही है । ये और बात हैं कि सबको वो हासिल नहीं होता फिर उनकी परणिती ‘देवदास’ जैसी होती इस तरह ये गढ़ा गया शब्दिक पात्र जीवंत हो गया और किवदंती बन गया जिस पर सहज ही विश्वास हो जाता... अब जरुर प्रेमी उससे सबक लेकर बेहद व्यावहारिक और सैधांतिक हो गये हैं लेकिन उसे भूल फिर भी न सके तभी तो इस पर सर्वाधिक फ़िल्में बनी लेकिन कहने में संकोच नहीं कि 'विमल रॉय' कृत ‘देवदास’ उस लेखन एवं स्वाभाविकता के जितने नजदीक हैं उतनी कोई और नहीं तभी तो ‘देवदास’ बोलो तो सिर्फ और सिर्फ अभिनय सम्राट 'दिलीप कुमार' का चेहरा ध्यान में आता जिस तरह डूबकर उन्होंने उसे आत्मसात किया वो उसके पर्याय बन गये और 'पारो' तो फिर 'सुचित्रा सेन' कोई दूसरी हुई ही नहीं जिसने ‘पारो’ को इस तरह रजत पर्दे पर साकार किया कि लगने लगा इसके सिवा कोई और ‘पारो’ हो ही नहीं सकती... हम ‘चंद्रमुखी’ का रोल अभिनीत करने वाली 'वैजयंती माला' को भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते जिन्होंने कि इस फिल्म के लिए सर्वोत्तम सहनायिका के पुरस्कार के लिये नामांकित किये जाने का विरोध किया था । ये था हिंदी सिने युग का वो दौर जब 'सिनेमा' पैयाँ-पैयाँ चलने लगा था और इस तरह के समर्पित कलाकार उसके कदमों में अपार जोश और सीने में साँसें भर रहे थे यही वजह हैं कि इसकी आधारशिला इतनी मजबूत हो गयी कि सौ साल गुजरने के बाद भी इमारत उतनी ही मजबूती से न सिर्फ खड़ी हैं बल्कि और दमदार भी होती जा रही हैं  ।

'टालीगंज' की 'सुचित्रा सेन' भी उस शुरूआती दौर में जब मुंबई आई तो उसने एक साथ ‘हिंदी’ और ‘बंगला’ सिनेमा को अपने अप्रतिम बंगाली रूप सौंदर्य के जादू से मंत्रमुग्ध कर दिया उस पर उनकी कशिश भरी दिल में उतरती आवाज़ और अलहदा संवाद अदायगी का अंदाज़ साथ अभिनय की सहजता सबने मिलकर हर किसी को अपना मुरीद बना लिया था कहते हैं बंगाल में तो देवियों की मूर्ति भी उनकी शक्ल के समान बनाई जाती थी ये आलम था उनके अप्रतिम मनमोहक रूप का । यूँ कहने तो उन्होंने यहाँ चंद फिल्मों में ही अभिनय किया पर सभी 'मील का पत्थर'  चाहे हो ‘देवदास’, ‘बंबई का बाबू’, ‘ममता’ और ‘आंधी’ केवल चंद फिल्म या किरदार नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम अध्याय हैं जो ये बताता कि अभिनय संख्या से नहीं भावों से नापा जाता और इस मापदंड पर उनके द्वारा निभाया गया हर एक पात्र इतनी विवधता और रंग लिये हुए हैं कि एक को ही दस के बराबर माने तो ये अनगिनत अलग-अलग भाव भंगिमा हैं जिसे देखने के बाद उसकी गहराई का पता लगता हैं । यदि हम सिर्फ ‘पारो’ को ही केंद्र में रखकर उनका आकलन करें तो भी उन्हें समझ सकते हैं... जब जब वो पर्दे पर आती तो रजत पटल भी उनके असाधारण व्यक्तित्व के आगे छोटा नजर आता ऐसा प्रभावशाली था उनका असली वजूद था जिसके सामने बड़े-बड़े निर्देशक भी अदब से सर झुकाकर खड़े होते थे उनसे पूछकर ही दृश्य और संवाद भी रखे जाते थे क्योंकि उनका कंठ स्वर भी अपनी ही तरह का एक अलग कोमलता लिये कान के रास्ते दिल में उतरता मखमली अहसास था तभी शायद वो बोलती भी कम थी कि कहीं वो आवाज़ इतनी सामान्य भी न हो जाये कि व्यक्ति सुन सुनकर बोर ही हो जाये । उनके चेहरे पर ऐसा सादगी भरा दैवीय सौन्दर्य का तेज था कि उन्हें देखकर मन में कोई विकार नहीं बल्कि श्रद्धा का भाव जगता उनमें मादकता या मांसलता होने के बाद भी भारतीयता का ऐसा असर था कि उन्हें देखकर भले ही कोई अपलक देखता रह जाये लेकिन उसके भीतर कामुकता नहीं जगेगी ये उस समय की अधिकांश अभिनेत्रियों की विशेषता थी तभी तो उस वक़्त ये ‘सेक्सी’ या ‘हॉट’ नहीं बल्कि भरतीय मानदंडों पर ही सुंदरता को परखने के बाद कोई ‘अभिनय की देवी’ तो कोई ‘दर्द की देवी’ या कोई ‘सौंदर्य की देवी’ आदि उपमाओं से नवाजी गयी जबकि आज अश्लील फूहड़ शब्दों से उनको न सिर्फ नवाज जाता बल्कि उसी नजरिये से उनको देखा जाता जबकि वो भी चाहे तो इसी तरह की अपनी छवि निर्मित कर सकती पर अब तो अभिनय की जगह इस बात की होड लगती कि कौन किस फिल्म में कितने कम कपड़े पहनकर कितने सेक्सी अवतार में नजर आयेगी ।

आप लोगों ने भी शायद इस बात पर गौर किया हो कि उस वक़्त कैमरा नायिकाओं के जिस्म की जगह उनके चेहरे पर अधिक फोकस किया जाता था इसलिये नहीं कि वे अधिक सुंदर थी क्योंकि सुन्दरता की तो अभी भी कोई कमी नहीं पर, उस समय अभिनय की प्रधानता थी तो चेहरे के मनोभावों को कैद करने की कोशिश की जाती थी अब जबकि तकनीक की मदद से हर कोई सुंदरतम दिखाया जा सकता तब भी विदेशी लोकेशन, हजारो सहनर्तक, भव्य सेट आदि का सहारा लेकर नायक या नायिका के चेहरे की बजाय उसके चीखने चिल्लाने या उसकी देह पर ही  कैमरा घूमता रहता । ‘सुचित्रा सेन’ इतनी अधिक सुंदर और सम्मोहक थी कि हर ‘एंगल’ से खुबसूरत नजर आती उनका ‘क्लोज अप’ प्रशंसकों को दीवाना बना देता तभी तो सबसे ज्यादा उनके चेहरे को अलग-अलग कोण से दिखाया जाता... उनका यही ‘फोटोजेनिक फेस’ उनका प्लस पॉइंट बन गया था इसलिये आपको उनके ‘क्लोजअप’ अधिक मिलेंगे । उन पर फिल्माये गाये गीत भी एक से बढ़कर एक जिसमें अभिनय का अद्भुत पैनापन.... तभी तो ‘ममता’ फिल्म में ‘छूपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा कि जैसे मन्दिर में लौ दिये की’... या ‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह... बैठे हैं उन्हीं के कुचे में हम आज गुनाहगारों की तरह...’ या ‘रहें न रहें हम महका करेंगे बनके कली बनके सबा बाग़ ए वफा में....’ और ‘आंधी’ फिल्म में ‘तुम आ गये हो नूर आ गया हैं...’, ‘तेरे बिना जिंदगी से शिकवा तो नहीं...’ तो  ‘बंबई का बाबू’ में ‘देखने में भोला हैं दिल का सलोना...’, ‘चल री सजनी अब क्या सोचे कजरा न बह जाये रोते-रोते...’ उफ़... गीत भी सारे अमर हो गये तो फिर किरदार किस तरह न जीवंत होते... आज उनके ‘जन्मदिवस’ पर उनको याद करते हुए उनके ही गीत ‘रहें न रहें हम महका करेंगे बन के कली बन के सबा बाग़ ए वफा में... जब हम न होंगे तब हमारी ख़ाक पर तुम रुकोगे चलते-चलते... अश्कों से भींगी चांदनी में एक सदा सी सुनोगे चलते चलते... वही पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे बन के कली बन के सबा.... सच... अब कली में ही बस गया नाज़ुक-सा वो अक्स उनका... जो कभी एक झलक पर देखने वाले को अपना दीवाना बना देता था... अब तो यहीं ढूंढना हैं ‘सुचित्रा सेन’ को जो कली या सबा बनकर अभिनय जगत की फिजाओं में महक रही हैं और सदैव इसी तरह अपने अद्भुत पाकीज़ा हुस्न से हमको मदहोश करती रहेगी... :) :) :) !!!
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०७ अप्रैल २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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सोमवार, 4 अप्रैल 2016

सिर-४६० : "चिंतन : सब, बातें हैं... बातों का क्या..???"

 दोस्तों...

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नेतालोग भाषण में केवल वही बातें बोलते जिनसे चुनाव के पहले उनकी सीट पक्की होती और चुनाव के बाद बनी रहती... लेकिन लोगों की गलती जो इतने बरसों से इतने दलों और उनसे अधिक नेताओं के गिरगिटाना रवैये को देख कर भी सुधरे नहीं, उसे सच मान अन्धविश्वास करते यहाँ तक कि उनके अपने तक उनको पहचान नहीं पाते ठगे जाते ।

यकीन न हो तो जरा इस पर नजर डाले---
 
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आज मंत्रीजी
बड़े जोश में बोले---
"ये जातिप्रथा, ये भेदभाव
हमारे लिये कलंक हैं
हमें इसे मिटाना ही होगा
आपस में मेल करना पड़ेगा
सबको इससे उपर उठकर
एक दूजे का हाथ थामना होगा"।
.....
सदन में बड़े उत्साह से
सबने उनकी इस पहल को
देशहित में प्रेरक बताया
घर में सभी ने उनकी
दिल खोलकर तारीफ़ की
और बेटी ने तो इस बात पर खुश हो
आगे बढ़कर अपने प्रिय पापा से
अपने विजातीय प्रेम का
खुलासा कर दिया
फिर क्या ???
सारे घर में सन्नाटा छा गया ।
..........
अगले दिन अख़बार में छपा
भीषण रोड हादसे में
मंत्रीजी की इकलौती बेटी की मौत
जिसे उन्होंने विपक्ष की चाल बताया
इस तरह एक बार फिर
मीडिया ने 'ऑनर किलिंग' को
राजनितिक रंग देकर
नेताजी का रास्ता साफ़ कर दिया ।।
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जब नेताका समय आता तो सब उसके गुलाम होते उसके बिना बोले ही उसकी बात समझ जाते और वैसा ही करते जैसा वो चाहता तभी तो जनता के सामने वही आता जो वो कहता... और रहे हम... हमें तो जी, आदत पड़ गयी उनको कथनी-करनी का विलोम देखकर भी न सुधरने की फिर भी शिकायत क्यों करते समझ नहीं आता :( :( :( ???

जबकि हम चाहे तो सत्ता पलट दे और चाहे तो आसमान को जमीन पर झुका दे लेकिन तब न, जब ऐसा करना चाहे, भई यदि एक के बाद एक पार्टी को मौका देने से हमारा काम चला रहा तो फिर कोई इतना कष्ट काहे उठाये... क्यों न बैठकर चैन की बंशी बजाये... जो उसका प्रिय काम... :) :) :) !!!
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०४ अप्रैल २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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