सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

सुर-४२५ : "२९ फरवरी का दिन... चार साल में मिलता एक दिन...!!!"

दोस्तों...

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दिनों का
एक चौथाई हिस्सा
मिलकर चार साल में
एक दिन बन
हमको बोनस में मिल जाता
जी लो जी भर कि
ऐसा पल बड़ी मुश्किल से आता
साल तो आते हर साल 
मगर, ‘लीप ईयर’ का तोहफ़ा तो  
सालों में एक बार ही मिलता
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छोटी-छोटी खुशियों और अतिरिक्त रूप से मिली सौगात के क्या कहने... ऐसे में जबकि व्यक्ति को चौबीस घंटे कम लगते और वो पल-पल की मिन्नतें करता हो तो एकाएक उसे पूरा एक दिन एक्स्ट्रा मिल जाये तो फिर क्यों न वो भी लीप इयर के साथ उछलता-कूदता अपनी ख़ुशी का इज़हार करें जो न सिर्फ उसके साल में एक दिन का इजाफ़ा कर रहा बल्कि उसे उन यादों को फिर से जीने का मौका भी दे रहा जो बीते चार साल पहले कहीं छूट गयी थी जी हाँ २९ फ़रवरी एक ऐसा ही विशेष दिन जो हर चार साल के बाद हमारी जिंदगी में आता और जिनका जन्म या जिनकी कोई ख़ुशी इससे जुडी हुई वो तो इसे दुबारा फिर से अनुभूत करने के लिये अगले चार बरसों तक बाट जोहते तब कहीं जाकर २८ दिनों के फ़रवरी महीने में ये दिन जुड़ता जो उन्हें अपने साथ उन्ही गलियारों में ले जाता जहां जिया था वो पल जो उस दिन की तरह ही ख़ास था और छोड़ गया था अपने होने के पदचिन्ह दिल के किसी कोने में जो वक्त के चक्र के संग गहराते गये लेकिन आये नहीं अगले साल कि उनकी पुनरावृति तो फिर चार साल के बाद ही होती तो आज वे सब बड़े खुश होंगे जिनका इससे कोई ऐसा दिलकश नाता और जिनका नहीं वो भी प्रसन्न कि उन्हें भी ये लम्हें जीने को मिले जिसमें वो अपनी कोई कहानी लिख सकते जिसका अगला पन्ना चार सालों के बाद खुलेगा   

ये कुदरत का एक करिश्मा ही कहा जायेगा कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाने में यूँ तो हर साल ३६५ दिन के साथ कुछ अंश अधिक लेती जो दिन के चौथाई के बराबर होता और बचत के रूप में जमा होता रहता फिर जब एक-एक कर चार साल गुजर जाते तो यही चवन्नी-चवन्नी मिलकर एक रुपया भर दिन बना लेती याने कि जिस तरह से बूंद-बूंद से घडा भरता या छोटी-छोटी बचत से बड़ी मदद मिल जाती ठीक उसी तरह से ये ६-६ घंटे चार सालों में २४ घंटे के रूप में एक संपूर्ण दिवस में परिवर्तित हो जाते और आकर फरवरी महीने में जुड़ उसका भी विस्तार कर देते जो कि प्रकृति और सौर मंडल के नियमों के अधीन होते तथा इनका होना प्राकृतिक संतुलन के लिये भी आवश्यक जिससे कि सृष्टि का सञ्चालन एवं अन्तरिक्ष की गतिविधियाँ सुचारू रूप से गतिमान होती रहती इस तरह हर चार साल के बाद आने वाला ये ‘अधिवर्ष’ हमें प्रकृति के साथ कदम से कदम मिला चलने में सहायक सिद्ध होता अन्यथा ये संभावना होती कि हम पृथ्वी की गति से आगे निकल जाते जो हमारे लिये नुकसानदायक होता और मौसमों की गति भी प्रभावित होती अतः ये व्यवस्था ऋतुओं ही नही बल्कि नक्षत्र मंडल के सभी ग्रहों के भी अपनी-अपनी धूरी पर अपनी गति से भ्रमण करने हेतु जरूरी वरना अनिष्ट हो सकता हैं तभी तो वैज्ञानिकों ने काल की गणना कर इस तरह से सूक्ष्मतम विश्लेष्ण किया कि सदियाँ बीत गयी मगर, उनके इस आकलन में कोई त्रुटि न निकाल सका

आज आई २९ फरवरी की सबको बहुत-बहुत मुबारकबाद कि हम सबने इसे अपनी तरह से मनाया होगा और कुछ अलग करने का प्रयास कर इसे इसी की तरह अलग दर्जा दिया होगा तो वे सब जिनका आज जन्म हुआ या जिनकी इससे कोई ख़ुशी जुडी उन सबको भी बहुत-बहुत बधाई... कि आख़िरकार चार साल के बाद ये घड़ी फिर आई... :) :) :) !!!
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२९ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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रविवार, 28 फ़रवरी 2016

सुर-४२४ : "राष्ट्रीय विज्ञान दिवस... डॉ चंद्रशेखर वेंकट रमन को करें नमन...!!!"


दोस्तों...

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गर,
होता न
‘ज्ञान’ और
उसे परखने वाला
सिद्धांत से भरा ‘विज्ञान’
तो न होती नई खोजों की पहचान
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‘भारत’ देश में सदियों से अनगिनत चीजों का अविष्कार और खोजें हुई हैं लेकिन कुछ तो लापरवाही और कुछ उसकी महत्ता से अनभिज्ञता की वजह से लोगों ने अपने मूल्यवान शोध को न तो ‘पेंटेंट’ कराया न ही उसके प्रति वो जागरूकता रही अतः वो तो बस, उसका उपयोग कर उसे लोगों में प्रचारित करते जिसके कारण बहुत से अभुतपूर्व अनमोल साधन जिन्हें की बड़ी मेहनत से खोजा गया था वो किसी और ने अपने नाम से सुरक्षित करा लिये और हम देखते ही रह गये इसी कारण सन १९८६ में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद’ तथा ‘विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय’ ने ये निर्णय लिया कि लोगों को ‘विज्ञान’ विषय की महत्वपूर्ण सार्थक बातों की न सिर्फ़ जानकारी हो बल्कि वो इसके महत्व को समझे और इसके प्रति उनका नजरिया बदले जिससे वो जागरूक होकर खुद को इस क्षेत्र से जोड़कर सही तरह से अपने काम को दिशा दे सके जिससे कि उनकी खोजों का वास्तविक मूल्यांकन हो और उसके जाँच-पड़ताल एवं अथक कोशिशों का उसे ज़ायज हक मिल सके इस तरह २८ फरवरी को ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया ताकि साल दर साल सभी इस दिन अपनी वैज्ञानिक गतिविधयों का आकलन कर उसे सबके सामने प्रस्तुत कर सके और इसे प्रोत्साहन देने के लिये शोधार्थी को सभी आवश्यक सुविधायें व आर्थिक मदद भी दे जाने लगी जिससे कि उसके काम में कोई अड़चन न आये बस, तब से आज के दिन सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों, वैज्ञानिक संस्थानों और प्रशिक्षण शालाओं में विज्ञान से सम्बंधित विभिन्न प्रतियोगितायें, सेमीनार, संगोष्ठी और प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता जहाँ पर सभी विद्यार्थी अपने-अपने बनाये गये चार्ट, मॉडल्स व बनाई गई वस्तुओं को सबके सामने प्रदर्शित करता

सरकार ने इस दिवस को मनाने के लिये ‘२८ फरवरी’ का ही दिन इसलिये निश्चित किया कि सन १९२८ में आज ही के दिन हमारे देश के गौरव और महान वैज्ञानिक ‘प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर रमन’ ने ‘रमन प्रभाव’ की खोज की थी जिसके लिये उन्हें और इस देश को भौतिकी का प्रथम ‘नोबल प्राइज’ भी हासिल हुआ चूँकि उन्होंने इसी दिन इसकी खोज की थी इसलिये उनकी स्मृति में आज का दिन ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में जाना जाने लगा तब से आज तक निरंतर आज के दिन सभी खोजकर्ताओं को उनकी विशेष ख़ास उपलब्धि के लिये किसी सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया जाता और साथ ही पुरस्कारों की घोषणा कर उन सभी के उत्साह को भी बढ़ाया जाता जिन्होंने कि दिन-रात की लगातार मेहनत और समर्पण से किसी नयी वस्तु को इज़ाद कर देश और समाज के स्तर को बढ़ाने और लोगों का जीवन सुखी बनाने के लिये अपने अनमोल समय के अलावा वो सामान भी दिया जिससे कि वो आगे बढ़ सके । इसके अलावा ‘विज्ञान’ में हो रहे नये-नये अविष्कारों और खोजों के प्रति लोगों को ज्ञानवर्धन करने के लिए हमारे देश में साइंस सिटीभी स्थापित की गयी है और फिलहाल हमारे यहाँ लगभग चार ‘सांइस सिटी’ हैं जो कि इन चार महानगरों ‘कोलकाता’, लखनऊ’, अहमदाबाद’ और ‘कपूरथला’ में है इन ‘साइंस सिटी’ में विज्ञान के क्षेत्र में नित होने वाली नवीनतम प्रगति और वैज्ञानिकों द्वारा की जाने वाली क्रियाकलापों का प्रदर्शन किया जाता हैं है और यहां पर ‘विज्ञान’ से जुड़ी 3डी फिल्में भी दिखायी जाती हैं और साथ-साथ ही देश के अन्य क्षेत्रों जैसे कि ‘गुवाहटी’ और ‘कोट्टयाम’ में भी इसका निर्माण किया जा रहा है

एक पल को ही सोचे यदि ये ‘विज्ञान’ और ‘वैज्ञानिक’ न होते तो वो सब कुछ भी न होता जिनके माध्यम से आज हम दिन-ब-दिन सफ़लता के सौपान चढ़ते जा रहे हैं और तकनीक के मामले में दूसरे देशों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलाने का प्रयास कर रहे हैं फिर भी ये कहने में थोडा भी हिचक का अनुभव नहीं होता कि इतना कुछ होते हुये भी अब भी लोगों में इसको लेकर उस दर्जे का उत्साह नहीं हैं जितना कि होना चाहिये तथा हम लोग अभी भी उस श्रेणी का अविष्कार नहीं कर पा रहे हैं जैसा कि हम सबको करना चाहिये ऐसे में ये जरूरी हैं कि हम लोग इस दिन का प्रचार करें और उन सभी को जो कि इसमें अपना कैरियर बनाना चाहते हैं इसकी जानकारी दे प्रेरित करें जिससे कि वो भी इसके बारे में जान सके और यदि उनकी रूचि हैं तो वो समर्थन पाकर आगे बढ़ सके... तो आज इस ‘राष्ट्रिय वैज्ञानिक दिवस’ में देश के सभी वैज्ञानिकों और खोजकर्ताओं को बधाई जिन्होंने अपनी खोजों से हम सबके जीवन को सुख-सुविधा पूर्ण बनाकर हमें ये नेमतें बख्शी हैं... ये विज्ञान का चमत्कार हैं कि आज हम सब आपस में इतने दूर-दूर और एक-दुसरे से अनजान होते हुये भी जुड़े हुये हैं... ऐसे में ‘विज्ञान’ को सलाम जिसने दिये वैज्ञानिक अपार... जिनसे हुआ मुश्किलों का पुल पार... बधाई सबको फिर एक बार... :) :) :) !!!     
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२८ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

सुर-४२३ : "नियति को बदल बने 'आज़ाद'... न बने फिरंगियों के दास... !!!"



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दोस्तों,

नाम वही
जो पूरा करें अर्थ
काम वही
जो न हो कभी व्यर्थ 
धाम वही
जो बनाये जीवन सार्थक
तब ही तो बलिदान न होता निरर्थक ॥
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एक चौदह साल का बालक जो कहने को तो कमउम्र और किशोर समझा जाता हैं लेकिन जब देश की हवाओं में गुलामी की गंध हो लोग बिना जंजीरों के भी खुद को हर पल बंधन में महसूस करते हो और अपने मन से न तो जी सकते हो न ही कुछ कर सकते हो तो ऐसे हालातों में कभी-कभी मूक बेबस जानवर भी हिंसक हो जाता या प्रतिकार को तड़फ उठता फिर बात जब जीते-जागते सामर्थ्यवान और सोचने-समझने की क्षमता रखने वाले इंसान की हो वो यदि चुप रह जाये तो उसे लड़ने से पहले ही हार मानकर बैठ जाने वाला मजबूरियों से समझौता करने वाला कायर के सिवा और क्या कहा जायेगा लेकिन परतंत्रता के उस दम तोड देने वाले सख्त नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त और जीने के लिये हर तरह से प्रतिकूल वातावरण में क्या छोटा क्या बड़ा हर कोई फिरंगियों को अपनी जमीन से बेदखल कर देने को तत्पर हो उठा । इसलिये जब १९२० में महात्मा गांधीजीने असहयोग आंदोलनछेड़ा तो ये कमसिन चंद्रशेखरभी उसमें शामिल हो गया क्योंकि उसके अंदर का लहू भी उबल रहा था जो किसी भी हाल में ख़ुद को और अपने भाई-बहनों को स्वतंत्र कराना चाहता था इसलिये उसने भी अपने आपको इस लड़ाई का हिस्सा बनने में देर न लगाई और इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करने लगे फिर वही हुआ जो होना था एक दिन अंग्रेजों ने उन्हें धरना देते पकड़ लिया और कर दिया अदालत में हाज़िर फिर शुरू हुआ सवाल-जवाब का दौर मजिस्ट्रेट ने उस बहादुर लड़के से जब पूछा कि---

तुम्हारा नाम क्या हैं ?
तो निडरता भरा जवाब आया आज़ाद।         

उसके बाद पिता के नाम को जानना चाहा तो
एक और बेखौफ़ उत्तर स्वाधीन

अंत में जब घर का पता तलब किया गया तो
सर उठाकर बोले जेल

एक बच्चे के इस हौसले भरे प्रतिउत्तर से उसके अंदर के जोश और हिम्मत का अंदाज़ा आसानी से लगता हैं कि किस कदर वो ब्रिटिश शासकों के पिंजरे में कैद अपनी भारतमाताको स्वतंत्र कर खुली फिजाओं में तिरंगा फहराते देखना चाहता था इसलिये अपना नाम ही आज़ादरख लिया था और फिर जब तक जिंदा रहे इस नाम की लाज रखी और जब वक़्त आया दुश्मनों ने चारों और से घेर लिया तब भी खुद को जीते-जी उनके हवाले करने की बजाय अपनी पिस्टल की अंतिम गोली को खुद के सीने में उतार लिया लेकिन उनकी गिरफ़्त में नहीं आये इस तरह जो नाम  उन्होंने स्वयं ही चुना था उसे अपनी जान देकर भी निरर्थक न होने दिया । तभी तो इतने बरस बाद भी हम उनकी इस शहादत को विस्मृत नहीं कर पाये क्योंकि जब कोई अफ़साना स्याही की जगह लहू से लिखा जाता हैं तो वो फिर किसी भी तरह नहीं मिटता चाहे काल बदल जाये या दुनिया या फिर इतिहास वो उसी तरह सुर्ख रहता और सदियों तक आने वाली पीढ़ियों को शहीदों की दास्तां कहता जिसने उसे जाने के बाद भी अमर कर दिया ।

पंडित चंदशेखर आज़ादका व्यक्तित्व व कृतित्व हर एक नवजवान के लिए प्रेरक और संदेशप्रद हैं जिसे पढ़कर और सुनकर वो खुद के लिये भी इस तरह जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर आगे बढ़ सकते हैं... उनका छोटी-सी जीवन गाथा में इतने सारे उत्साहवर्धक जोश से भरे प्रसंग हैं कि कोई भी उसे पढ़कर अपने अंदर भी उस ऊर्जा को अनुभव कर सकता हैं  तो फिर आज २७ फरवरी उनके पुण्यदिवस पर उनको शत-शत नमन... कोटि-कोटि प्रणाम जिन्होंने हम लोगों को स्वतंत्र जमीन-आसमान देने के लिये अपने आपको पुर्णतः समर्पित कर दिया... वंदे मातरम्... इंकलाब जिंदाबाद... का नारा बोल-बोलकर इस धरा को अपने कर्मों से गर्वित किया... नमन... :) :) :) !!!
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२७ फरवरी २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

सुर-४२२ : "वीर सावरकर की फिर याद आई...!!!"


दोस्तों...

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ये धरा
ने भूलेगी
अपने सपूतों का
समर्पण और बलिदान
जिन्होंने वतन की खातिर
कर दिया अपना तन-मन प्राणदान
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वैसे तो इस देश को आज़ाद हुये अधिक समय नहीं हुआ फिर भी आज की पीढ़ी बहुत ही जल्द इस देश को स्वतंत्र कराने वाले अनगिनत क्रांतिकारियों की शहादत को भूलने लगी उसने तो खुली हवा में आँख खोली और बंधनमुक्त जीवन का वरदान पाया इसलिये उसे तो अब याद भी नहीं कि कभी ये भारतमाता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी थी और इस देश पर फिरंगियों का शासन था ऐसे समय में हर एक देशवासी ने अपनी मातृभूमि को दुश्मनों के चंगुल से छुड़ाने के लिये हरसंभव प्रयास किया जिसके लिये उसने दिन-रात, समय-असमय, सुख-दुःख किसी की भी परवाह नहीं की और हंसते-हंसते अपने आपको अपने देश के लिये निछावर कर दिया जिनमें से कुछ लोगों को तो सब याद करते हैं उनके नाम स्वर्णाक्षरों में इतिहास में अंकित हो गये और अनेक ऐसे भी हुयें जिनकी दास्तान भी लोग भूल गये लेकिन ये भारतमाता तो अपनी किसी भी संतान को भूल नहीं सकती और जब-जब किसी शहीद की पुण्यतिथि आती उसकी आँखें नम हो जाती और वो चुपचाप उसकी स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित करती हम सब जिसे भी इस पावन धरा पर जनम लेने का सुअवसर मिला हैं उनके इस ऋण से तो कभी उऋण नहीं हो सकते लेकिन उनको याद कर उनकी कुरबानी की उस अमर गाथा को दोहराकर उनके प्रति अपने मन की भावनाओं का प्रदर्शन तो कर सकते हैं ये नवजवान पीढ़ी जो उनको बिसराती जा रही उन्हें ये अफ़साना सुनाकर कम से कम उन वीर लोगों से परिचित तो करवाया ही जा सकता हैं ताकि वे भी अपने देश के क्रांतिकारियों के नाम, उनकी कहानियां और उनके त्याग को जान पाये जो काल के गाल में समा गये पर इस मिटटी के कण-कण में अपने लहू से अपनी वीरता की अमिट कथा लिख गये

आज ऐसे ही एक लाल ‘विनायक दामोदर सावरकर’ जिन्हें कि हम सब ‘वीर सवारकर’ के नाम से जानते थे का बलिदान दिवस हैं जो सिर्फ़ एक सच्चे देशभक्त ही नहीं बल्कि बड़े विचारक दार्शनिक स्पष्ट वक्ता होने के साथ-साथ समाज-सुधारक भी थे जो इस देश की सभी गलत परम्पराओं और कुरीतियों को भी जड़ से मिटाना चाहते थे जिससे कि लोग आपस में लड़ने-मरने की जगह अपने आपको इस धरा को स्वतंत्र कराने के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर दे जाती-पति भेदभाव से ऊपर उठकर ख़ुद को और दूसरे को भी सिर्फ़ एक मानव समझ उसके साथ भाईचारे का व्यवहार करें वे २८ मई १८८३ को नासिक के भगूर गाँव में पैदा हुये थे और खुद को एक ‘हिंदू’ मानते थे तथा ‘हिंदुत्व’ के पक्षधर थे इसलिये उन्होंने आजीवन ‘हिंदू’ जाति, ‘हिंदी’ भाषा और अपने देश ‘हिंदुस्तान’ के लिए कार्य किया जिसकी वजह से वह ‘अखिल भारत हिंदू महासभा’ के लगभग ६ बार ‘राष्ट्रीय अध्यक्ष’ चुने गये कहते हैं कि उन्होंने अपने देश को स्वतंत्र करने के लिये १९४० में पूना में अभिनव भारतीनाम के एक ‘क्रांतिकारी संगठन’ बनाया साथ ही आज़ादी को हासिल करने और उसके लिये अनवरत काम करने हेतु उन्होंने ‘मित्र मेला' के नाम से एक गुप्त संगठन का भी निर्माण किया । इस तरह उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ही अपने देश की खातिर समर्पित कर दिया और अपने उग्रवादी विचारों एवं ओजपूर्ण भाषण शैली से देश के जन-जन को जागरूक करने का कार्य करते रहे ये उनके सतत संघर्ष का ही परिणाम था कि लोग उनकी बात को न सिर्फ समझे बल्कि ओनके साथ खड़े भी हुये और उनके संगठन में भी शामिल होते गये । उनका कहना था कि--- ‘हे मातृभूमि ! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ । देश सेवा में ईश्वर सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की हैं” ।
   
इससे हमें पता चलता हैं कि एकाग्रता और पूरी लगन से जब कोई अपने कर्म को सेवा मान लेता हैं और उसे पूजा मानकर करता हैं तो उसके लक्ष्य भी उससे दूर नहीं रहते क्योंकि कर्म ही पूजा हैं और जो ह्रदय से देश को ही अपना धर्म मान ले उसके पास लोग स्वतः ही खिंचे चले आते हैं... उनका विश्वास था कि सामजिक और सार्वजानिक हित को ध्यान में रखकर यदि कुछ किया जाता हैं तो फिर उसका सुपरिणाम पूरी जनता को मिलता हैं इसलिये वो सबको एक समान मान उन्हें साथ लेकर चले... और देश की आज़ादी के समय वे इसके विभाजन के पक्ष में भी नहीं थे लेकिन उसे रोक न सके परंतु आज भी उनके विचार हम सबके लिये प्रेरणा का अनुपम स्त्रोत हैं अनेक ग्रंथ जो उन्होंने लिखे उनमें सही इतिहास वर्णित किया हैं... आज ही के दिन २६ फ़रवरी, १९६६ को मुंबई में वे इस देश को अलविदा कर चले गये और आज उनकी बलिदान दिवस पर हम सब उनको याद कर कोटि-कोटि नमन करते हैं... :) :) :) !!!      
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२६ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

सुर-४२१ : "वादे संग ऐतबार पलता... एक के साथ दूसरा भी टूटता...!!!"

दोस्तों...

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‘भरोसा’
चाहे हो किसी का
बड़ी मुश्किल से हासिल होता
जिसे रखना बरकरार
होता बड़ा कठिन
और गंवाना बड़ा ही सहज
तभी तो कोई भी
उसको आसानी से खो देता
और दुखद कि अहसास तक नहीं होता
मगर, जिसने किया उसको तो
बड़ा भारी सदमा लगता
एक पल जीना भी दूभर हो जाता
तो दूसरी तरफ कोई
अपनी ही वादाखिलाफी से परे
जीवन के पल-पल का मजा लेता   
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‘वादा’ और ‘ऐतबार’ जैसे एक सिक्के के दो पहलू चाहे कहो ‘हेड’ या फिर ‘टेल’... इसे आप किसी खेल के दो निर्णय ‘जीत’ या ‘हार’ की तरह भी समझ सकते फिर भी ये तय कि चाहे दो कोई भी नाम इस अहसास को कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक के बिना दूजे का अस्तित्व संभव नहीं होता क्योंकि दोनों का एक-दूजे से बड़ा ही गहरा संबंध होता जिसे पृथक नहीं किया जा सकता वजह ये कि जब भी कोई किसी से कोई भी ‘वादा’ करता तो ‘ऐतबार’ स्वतः ही सक्रिय हो जाता या जब मन के भीतर ‘ऐतबार’ होता तभी तो ‘वादा’ किया जाता याने कि जब भी किसी को कोई वचन दिया जाता तो अगला अपने आप ही उसके पूर्ण होने का भरोसा कर लेता क्योंकि यदि उसने ऐसा नहीं किया तब कहने वाले की बात निरर्थक होकर रह जायेगी जब किसी को आप पर विश्वास ही नहीं तो फिर ‘वादा’ करने की भी कोई आवश्यकता ही न रह जायेगी इसलिये ‘वादे’ के साथ ‘ऐतबार’ भी बंधा हुआ चला आता और जब तक ये न हो ‘वादा’ महज़ कोरी बात बनकर रह जाता जिसमें प्राण फूंकने का काम यही तो करता... इसी तरह जब आप किसी पर बहुत ज्यादा भरोसा करते तो उससे आपकी अपेक्षा बढ़ जाती जिन्हें पूर्ण करने का यदि कोई भी औपचारिक करार हो जाये तो बेचैन दिल को भी करार आ जाता लगता कि जो भी कहा गया वो जरुर ही पूर्ण होगा इसलिये तो जब अंतर में सहज ही ये भाव बसा होता तो फिर उसे हर किसी की बात पर पूर्ण विश्वास होता और वो बिना किसी शंका के सामने वाले के कहे गये शब्दों पर पूरा विश्वास करता मतलब कि ‘वादे’ के लिये ‘ऐतबार’ तो ‘ऐतबार’ के लिये ‘वादे’ का होना जरूरी कि वही तो दूजे को सार्थक बनाता हैं

इसमें गौरतलब ये भी कि ‘वादा’ करना तो फिर भी आसां कि सिर्फ कुछ शब्द ही तो कहना किसी से लेकिन ‘ऐतबार’ उसका अंतर की कोमल जमीन पर जनम लेना जरा मुश्किल होता कि ये कोई खर-पतवार नहीं जो किसी भी भूमि पर पैदा हो जाये ये तो केवल जो सच्चे व ईमानदार होते उनके अंदर सहज ही भरा होता तभी तो वे हर किसी पर भरोसा कर लेते लेकिन जब उसी भरोसे को चोट पहुँचती तो फिर उसका इलाज़ दुनिया के किसी दवाखाने में मुमकिन नहीं क्योंकि ये कोई वस्तु नहीं जो टूटकर फिर जुड़ जाये ये तो केवल एक भाव होता जो कभी अपने आप तो कभी किसी के द्वारा भीतर उत्पन्न होता जिसे उसी तरह बनाये रखना या उससे भी अधिक मजबूत बनाना किसी अगले व्यक्ति पर निर्भर करता वो भी तब जब वो किसी से जुड़ा होता ऐसे में यदि वादा करने वाला उसे भूला दे या उसे तोड़ दे तो फिर उसका दुबारा उसी तरह से निर्माण संभव नहीं होता कि इसे बनाने वाला ईट-गारा दुनिया की किसी भी दुकान में उपलब्ध नहीं होता बल्कि ये तो ‘मन’ के अदृश्य महीन तंतुओं से बना होता और जब यही ‘ऐतबार’ किसी भी बंदे का अपने आप पर होता तो फिर उसे तोड़ पाना सिवाय उस व्यक्ति की अपनी ही करनी के किसी के भी लिये मुमकिन नहीं होता इसलिये अक्सर, ये कभी किसी अपने तो कभी किसी पराये के हाथों धोखा खाता ही रहता और टूट-टूटकर एक दिन दुनियावी रंग में रंगकर अन्य लोगों की तरह गिरगिट के रंग-रूप में ढल जाता फिर न किसी से कोई तवक्को और न ही कोई वादा करता यदि करता भी उसके शब्दों में ही वो वजन नहीं होता कि किसी के मन में कोई विश्वास जगे तो ऐसे में उसका अपना वास्तविक स्वरूप ही बदल जाता फिर जिसका होना या न होना कोई मायने ही नहीं रखता हैं ।              

जब भी कहीं कोई ‘वादा’ टूटता तो साथ उसके कहीं कोई ‘ऐतबार’ भी टूटता चाहे किसी को खबर हो या न हो लेकिन जिसमें संवेदनायें भरी वो अपने आप ही उस दर्द की लहर को महसूस कर लेता और ये भी जानता कि भले ही अब कुछ उससे भी अच्छा हो जाये या अगले को अपनी भूल का अहसास हो और वो वापस ही क्यों न आ जाये मगर, जो टूट गया वो तो फिर जुड़ने से रहा इसलिये जब भी किसी से ‘वादा’ करना ये ध्यान रखना कि आपके वादा करते ही सामने वाले के भीतर ‘ऐतबार’ का स्विच भी ऑन हो गया जो अब आप पर निर्भर कि आप उसे अपने ही हाथों बंद करते या फिर उसकी रगों में दौड़ती आपके वादे की तरंगों को उस तक पहुँचने से रोक देते जिससे वो स्वतः ही निरर्थक होकर रह जाता... इस तरह ये निश्चित कि ‘वादे’ की किरणों से ही ‘ऐतबार’ का सूरजमुखी खिलता जिसे खिलाये रखना या मुरझाने देना सिर्फ ‘सूरज’ के हाथ में जो यदि दगाबाज हो तो फिर ‘सूरजमुखी’ का बिखरना निश्चित हैं अब ये आप पर निर्भर कि आप क्या करते हो महज़ झूठा एक ‘वादा’ या फिर सच्चा ‘दावा’ जिसकी सशक्त जमीन पर ‘ऐतबार’ की बुलंद ईमारत खड़ी होती... :) :) :) !!!                  
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२५ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

सुर-४२० : "तलत महमूद की आवाज़ का जादू... दिल पर न रहता काबू...!!!"

दोस्तों...

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‘संगीत’
मन का मीत
बनकर दिल बहलाता
उस पर जब फ़नकार हो
मरहम सी आवाज़ वाला तो
हर जख्म अपने आप
सुनकर उसके तराने भर जाता
अपना ही अंदरूनी दर्द  
उसके गीतों संग बयां होता जाता
फिर तन्हा होकर भी
दुखी मन तन्हा कहाँ रह पाता
वो तो उसके साथ-साथ ही  
अपनी वेदना बना नगमा गुनगुनाता
फिर खुद को बड़ा हल्का पाता
जब दर्दे दिल आंसुओं में बह जाता
‘तलत महमूद’ को सात सुरों में पिरोया
गम भूलाने का ये फन था आता
तभी तो ये जहाँ उनको न भूल पाता
आज जन्मदिन पर...
फिर उनके सदाबहार नगमे दोहराता     
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मैं दिल हूँ
एक अरमान भरा
तू आ के मुझे पहचान जरा...

किसी भी पहचान की जरूरत नहीं इस आवाज़ को वो खुद अपनी पहचान हैं जो कानों में पड़ती तो राह चलता भी अपना काम भूल जहाँ का तहां खड़ा रह जाता और यदि किसी मरीज को इसे सुनाया जाये तो वो भी अपना रंजो गम बिसरा सुरों के संग बह जाता फिर पीड़ा से निकलने वाली ‘आह’ पता नहीं चलता कब ‘अहा’ में बदल जाती ऐसा कमाल का जादू आता था संगीत के मर्मज्ञ और सात सुरों को अपने भीतर आत्मसात कर लेने वाले फ़नकार ‘तलत महमूद’ को जिनके कंठ में अजब सी कशिश समाई जिसे केवल सुनकर ही महसूस किया जा सकता हैं  यकीन न हो तो उनका कोई भी गाना सुन लीजिये कितने भी तनाव में या दर्द से भरे हुये न हो खुद को एकदम हल्का महसूस करेंगे क्योंकि उनकी रेशमी आवाज़ में उपरवाले ने जमाने भर के दर्द को अपने भीतर सोख लेने का वरदान बख्शा था जो कानों के रास्ते जब हृदय में उतरती तो उसमें होने वाला हल्का-हल्का दर्द आँखों के रास्ते से बाहर निकल जाता जिससे भीतर बड़ा सुकून महसूस होता जिसकी तलाश में इंसान न जाने कहाँ-कहाँ भटकता मगर, उस हकीम के पास न जाता जो बगैर मर्ज पूछे ही उसे भांप लेता फिर अपनी मद्धम स्वर लहरियों के स्पर्श से हर तकलीफ़ को बाहर दफा कर देता फिर न कोई कहता---

दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या हैं ?
आखिर इस दर्द की दवा क्या हैं ??

अब तो उसे वो दवा मिल गयी जिसकी उसे तलाश थी वो भी इतनी मधुर तो कौन कमबख्त फिर किसी वैद्य के पास जाये बस, उसके गाने लगा पलकों को मूंदकर उसकी रागिनीयों में गुम हो जाये और जब आँखें खुले तो खुद को तरोताज़ा पाये कि उसने तो अनजाने में उसके गम को चुरा उसे हर दर्द से मुक्त कर दिया

सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया
दिन में अगर चराग़ जलाये तो क्या किया ???

जितने खुबसूरत अल्फाज़ उतनी ही सादगी से उसे गाया ‘तलत महमूद’ ने जो अपने आप में एक दर्शन भी समेटा और हर किसी के जीवन के उस पहलू को बयाँ करता जिसमें उसकी वो दास्ताँ छिपी जब अनजाने में उसने अपनी लापरवाही से अपना कुछ बेहद अनमोल गंवा दिया और जब अहसास हुआ तो उसके अपने ही प्रयास उसे बेमानी लगे क्योकि तब तक बड़ी देर हो चुकी थी और हम सबके ही जीवन में ऐसा कोई अफसाना जरुर होता तो ऐसे में ये ग़ीत मन को बड़ा भाता ।

रात ने क्या-क्या ख़्वाब दिखाये
रंग भरे सौ जाल बिछाये
आँखें खुली तो सपने टूटे
रह गये गम के काले साये...

ऐसा तो कोई नहीं जिसने कभी कोई सपना न देखा हो तो ज़ाहिर कि सब तो पूरे होने से रहे कुछ तो टूटेंगे ही तो ऐसे उन टूट स्वप्नों की किरचें आँखों में चुभना भी लाजिमी तो इस तरह की स्थिति में ये गीत दिल की गहराइयों में उतर उस दर्दीली परस्थिति से उबरने में सहायक बन जाता कि इन शब्दों के माध्यम से उस अबूझ पहेली का हल जो मिल जाता जिसने उसे बड़ी देर से परेशां किया हुआ था ।

जिंदगी देने वाले सुन
तेरी दुनिया से जी भर गया
मैं यहाँ जीते जी मर गया...

कभी न कभी तो सबको इस दुनिया से कोफ़्त होती तो उस अलहदा अहसास को इस तराने में महसूस किया जा सकता जो हर दिल को अपना-सा लगता और वो पाता कि वाकई ये दुनिया अब जीने लायक नहीं रह गयी और जब इसे छोडकर जाने का मन करता तो फिर ये गाना बहुत याद आता जो हमारी मनोस्थिति को जस का तस बयाँ कर देता ।

दिल मतवाला लाख संभाला
फिर भी किसी पर आ ही गया...

इश्क़ के बीमार को इस गाने में अपना हाले दिल अभिव्यक्त होता महसूस होता क्योंकि प्यार तो लाख कोशिशों के बाद भी हो ही जाता तो ऐसे में इसे सुनना दिल को करार देता कि हर कोशिश को नाकाम बना आखिर मुहब्बत ने दिल में घर बना ही लिया किसी की नजरों के तीर ने उसे घायल कर ही दिया

ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहाँ कोई न हो
अपना-पराया मेहरबां, ना-मेहरबां कोई न हो...

यूँ तो ‘तलत’ ने उस दौर के सभी नामचीन अभिनेताओं को अपनी आवाज़ दी मगर, जिस तरह से वो अभिनय सम्राट ‘दिलीप कुमार’ की आवाज़ बने वो अपने आप में मिसाल हैं क्योंकि एक को यदि ‘ट्रेजेडी किंग’ तो दूजे को ‘दर्द भरा गायक’ कहा जाता था तो ऐसे में उन दोनों का संगम अद्भुत हुआ जिसने एक के बाद एक बेहतरीन नगमे देकर सुनने वालों को गीतों का अनमोल खज़ाना दिया जहाँ एक गायिकी तो दूसरा अभिनय में बेजोड़ था फिर उनका मेल तो इतिहास बनना ही था सो बना और गज़ब बना जिसे बिसरना नामुमकिन ।

●...कोई नहीं मेरा इस दुनिया में आशियाँ बर्बाद हैं
आंसू भरी मुझे किस्मत मिली हैं जिंदगी नाशाद है...

●...शामे गम की कसम आज ग़मगीन हैं हम
आ भी जा आ भी जा आज मेरे सनम...

●...जब-जब फूल खिले तुझे याद किया हमने        
देख अकेला हमें, हमें घेर लिया गम ने....

●...कहाँ हो...
कहाँ मेरे जीवन सहारे
तुम्हे दिल पुकारे...

●...एक मैं हूँ एक मेरी बेकसी की शाम हैं
अब तो तुझ बिन जिंदगी भी मुझ पे एक इल्ज़ाम हैं...

●...ये हवा, ये रात, ये चांदनी
तेरी एक अदा पे निसार हैं
मुझे क्यों न हो तेरी आरजू
तेरी जुस्तजू में बहार हैं...

●...ऐ मेरे दिल कहीं और चल
गम की दुनिया से दिल भर गया...
ढूंढ ले अब कोई घर नया...

●...किसको खबर थी ?
किसको पता था ??
ऐसे भी दिन आयेंगे
जीना भी मुश्किल होगा
मरने भी न पायेंगे...
  
आज सुरों के उस सरताज जिसने हर दर्द पर अपनी आवाज़ का मरहम लगाया के जन्मदिवस पर गीतों भरी ये शब्दांजलि... :) :) :) !!!
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२४ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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