गुरुवार, 31 मार्च 2016

सुर-४५६ : "दर्द की देवी 'मीना कुमारी'... की न कभी अदाकारी...!!!"


दोस्तों...

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पीड़ा का
साकार रूप बनी
‘दर्द की देवी’ कहलाई
जब-जब भी
पर्दे पर कोई रूप धरी 
‘महजबीन’ की पहचान खो गई
‘मीना कुमारी’ ऐसी अभिनेत्री बन गई
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मित्रों...,

वो समय जब भारत में मनोविनोद के बड़े ही सीमित साधन थे तब ‘सिनेमा’ का उदय होते ही वो ‘मनोरंजन’ का ऐसा पर्याय बन गया कि आज भी लोग उसे व उसके कलाकारों को हद से ज्यादा तवज्जों देते और उनकी इस दीवानगी ने ही उस दौर से लेकर आज तक इन अदाकारों के प्रति लोगों का जुनून कम नहीं होने दिया तभी तो उनके बारे में हर जानकारी पाना चाहते और वो दौर जबकि इस जानकारी को पाने के लिये भी इतने यंत्र-तंत्र नहीं थे तब पत्र-पत्रिकाओं में उनके चित्र देखकर और उनके बारे में पढ़कर या फिर ‘रेडियो’ पर उनकी आवाज़ सुनकर ही खुश हो जाते थे तभी तो उस जमाने में सिने-सितारों को जो दर्जा हासिल हुआ वो आज सभी तरह की आधुनिकतम मशीन होने के बावज़ूद भी उनसे कम अभिनय करने वाले लेकिन उनसे अधिक पारिश्रमिक पाने वाले कलाकारों को भी नहीं मिला यही वजह कि उन नींव के पत्थरों को भूल पाना संभव नहीं तभी तो आज भी उस दौर के चलचित्रों को न सिर्फ ‘क्लासिक’ का तमगा दिया जाता हैं बल्कि उसमें काम करने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियों को भी उनके प्रशंसक उतनी ही शिद्दत से याद करते और ढूंढ-ढूंढकर उन फिल्मों और कलाकारों को ‘नेट’ पर देखते रहते उनसे सीखने का प्रयास करते क्योंकि ये वो लोग हैं जिन्होंने बिना किसी अभिनय के पाठ्यक्रम या प्रशिक्षण के ही सहजता से ही जिस तरह रुपहले पर्दे पर किरदारों को अभिनीत किया तो वो चरित्र जैसे जीवंत ही हो उठे तभी तो आज भी यदि कोई सिर्फ़ ‘छोटी बहु’ बोले तो लोगों की जुबान पर अपने ही आप ‘मीना कुमारी’ का नाम आ जाता जिसने इस कदर डूबकर उस पात्र को जिया कि किसी को भी नहीं लगा कि ये विमल मित्र की ‘साहिब बीबी गुलाम’ उपन्यास का कोई काल्पनिक चरित्र हैं जिसे रजतपट पर ‘मीना कुमारी’ ने सिर्फ़ निभाया हैं

यही थी ‘मीना कुमारी’ के अभिनय की सहजता जिसने उसको दो दशक तक अव्वल नंबर पर रखा और आज तलक भी उनकी यही अदा उन्हें अपने चाहनेवालों के दिलों में भी जीवित रखे हुये हैं क्योंकि भले ही पेशे से वो एक अदाकारा थी लेकिन उसने कभी भी किसी बनावटी भाव-भंगिमा को अपने चेहरे पर आने नहीं दिया बल्कि जब भी जो भी रोल मिला उसे इस तरह से सजीव किया कि देखने वाले को वो झूठा नहीं लगा उनका बचपन जिस अभाव और वेदना से गुज़रा था उसने उनके भीतर दर्द का एक उफनता हुआ सागर पैदा कर दिया जिसकी लहरें उनकी आँखों के रास्ते से आने का मार्ग ढूंढ ही लेती थी यही था उन बोलती हुई सम्मोहक आँखों का राज़ जिसके माध्यम से वो बिना जुबान का इस्तेमाल किये भी इतना कुछ बोल देती थी कि सामने वाला मंत्रमुग्ध-सा बस उनको देखता ही रह जाता था उफ़... क्या बला का जादू था मीना की दर्दीली मय से भरी छलकती नजरों में कि अब तक भी उनके दीवानों को होश नहीं आया हैं इसलिये तो उनके इस दुनिया से जाने के बाद भी हम उनको उतने ही प्यार से याद करते हैं आज उनकी पुण्यतिथि पर उनकी यादों का चले आना ही बताता कि भले ही वो सादगी भरी सुंदरता की प्रतिमा अब हमारे बीच नहीं हैं पर, उनकी अभिनीत सभी फिल्म और उनकी मौजूदगी का अहसास तो अब भी हैं न... जो काफी हैं ये बताने को कि जाने वाले चले जाते... इंसान मर जाते पर, यदि वो एक भी ऐसा काम कर जाते जो उसके बाद भी इस जहान में उसके नाम, उसकी पहचान को जिंदा रखता तो सच मानिये उसने सही मायनों में जिंदगी जी हैं... अपने जीवन को सार्थक बनाया हैं फिर भले ही उसके लिये उसने कोई-सा भी सकारात्मक मार्ग चुना हो पर, जिससे किसी को सुकून या ख़ुशी मिली जाये वो कभी-भी गलत नहीं हो सकता

बालपन से ही अपने परिवार को पालने की जिम्मेदारी उनके नाज़ुक कंधों पर आ गयी जिसने उसे वक़्त से पहले ही संजीदा बना दिया तभी तो बिना ही ग्लिसरीन के उनकी आँखें छलक जाती और पर्दे पर अनवरत दर्द को अभिव्यक्त करते हुये वो साक्षात ‘दर्द की देवी’ बन गयी और इसमें उनका साथ दिया उनकी पुरसुकून ह्रदय को बेधने वाली उस कशिश भरी आवाज़ ने जिसे सुनकर आदमी अपनी सुध-बुध भूल जाता... इस तरह वो मासूम बाला जिसका नाम कभी ‘महजबीन’ था वो बाल चरित्र, धार्मिक किरदारों को निभाते-निभाते ‘मीना कुमारी’ नाम की एक महानतम अभिनेत्री बन गयी जिसने हर तरह के सम्मान और पुरस्कार तो अपनी झोली में किये ही साथ-साथ अपने अंतर की बैचेनी को सफे पर उतारते-उतारते वो एक ‘शायरा’ भी बन गयी जो ये ज़ाहिर करता हैं कि कुछ ऐसा भी था उनके भीतर जिसे वो अभिनय से भी अभिव्यक्त नहीं कर पा रही थी तो उसके लिये उन्होंने अपनी ‘डायरी’ को अपना हमदम अपना हमनवां बनाया और उसमें अपने मन की पीड़ा को लिखती गयी जिसे पढ़कर पता चलता हैं कि वो कितनी नाज़ुक और भावुकता से भरी नारी थी पर, अफ़सोस कि उसे उसका ही परिवार, उसका शौहर या उसके जीवन में आने वाले तमाम लोग भी उसे रत्ती भर भी न समझ पाये... अमूमन ख़ामोशी के पीछे कोई तूफ़ान छूपा होता लेकिन सबको देर से खबर होती जब वो आकर गुजर जाता... ‘मीना कुमारी’ उर्फ़ ‘महजबीन’ नाम की ‘सितारा’ आसमान से टूटकर आने वाली एक दुआ थी जिसे कोई दामन या प्यार भरे हाथों का सहारा नहीं मिला वरना, वो यूँ पूरी हुये बिना ही तो चली नहीं जाती... अक्सर लोग टूटते तारे को देखकर उससे कोई ‘विश’ मांगते लेकिन जब अनजाने ही वो पूर्ण होकर उसके आंचल में आ जाती तो उसे समझ नहीं पाते शायद... तभी तो वो किसी भी कोने या दरार से टपक जाती... यही तो उसके साथ भी हुआ... तो आज पुण्यतिथि पर यही चंद अल्फाज़ समर्पित हैं... रंजोगम की उस जीती-जागती दिव्य आत्मा को... :) :) :) !!!
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३१ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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बुधवार, 30 मार्च 2016

सुर-४५५ : "हिंदी सिने जगत की पटरानी... 'देविका रानी'...!!!"

दोस्तों...

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चमक उठा
रुपहला परदा
देख उसका सौंदर्य
मंत्रमुग्ध हुये दर्शक
देखकर उसका अभिनय
बनी ‘देविका रानी’
हिंदी सिनेमा की पटरानी
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उस दौर में जबकि हिंदी सिनेमा अभी अपने बाल्यकाल में ही था आगमन हुआ ‘देविका रानी’ का जिन्होंने आते ही सिनेमा की परिपाटी ही बदल दी क्योंकि उसके पहले जितनी भी अभिनेत्रियाँ आई वे सब अपने परिवेश एवं रहन-सहन के स्तर के साथ-साथ शिक्षा के मामले में भी कमजोर थी जबकि ‘देविका रानी’ तो एक मुकम्मल अदाकारा थी जो गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के खानदान से ताल्लुक रखती थी और जिसे कि उस जमाने में ‘ड्रीम गर्ल’ से लेकर ‘फर्स्ट लेडी ऑफ़ द इंडियन स्क्रीन’ का ख़िताब हासिल हुआ यहाँ तक कि देश के प्रधानमंत्री भी उनके अभिनय एवं हुस्न के दीवाने थे । हम सब उनको १९३६ में दादामुनि अशोक कुमार के साथ आई उनकी ‘अछूत कन्या’ फिल्म से भलीभांति जानते हैं और इसका गीत ‘मैं वन की चिड़िया बनकर, वन-वन डोलूं...’ तो मेरे ख्याल से हर किसी ने ही गुनगुनाया होगा तीस के दशक में बनी ये फिल्म उस समय की एक सामाजिक स्थितियों के अनुसार एक साहसिक कदम माना जाता हैं जिसकी कहानी में महात्मा गांधीजी के विचारों का प्रभाव स्पष्ट था और इस फिल्म ने बेहतरीन कथा के अलावा गीत-संगीत, कलाकार, फोटोग्राफी के साथ-साथ सहज स्वाभाविक अभिनय व सरल दिल को छू लेने वाले संवादों के जरिये लोकप्रियता के सभी स्थापित कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये और सभी फनकारों को ले जाकर सीधे चोटी पर विराजमान कर दिया ।

यही वो फिल्म थी कि जिसे देखकर अपने समय के देश के प्रथम प्रधानमंत्री ‘श्री जवाहरलाल नेहरु’ ने किसी आम दर्शक की तरह उनके किसी प्रशसंक के समान ‘देविका रानी’ की तारीफ़ में अपने हाथों से एक भावनात्मक प्रशंसा पत्र लिखा और २५ अगस्त १९३६ को एक विशेष शो के दौरान कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों ने इस फिल्म को एक साथ देखा जिसमें नेहरु जी के अलावा सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य नरेंद्र देव तथा श्रीमती सरोजिनी नायडू शामिल थी इस तरह इस अभिनेत्री ने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से सिर्फ आम नागरिक ही नहीं बल्कि वरिष्ठ नेतागणों को भी प्रभावित किया । हिंदी सिने जगत में उनका पदार्पण भी किसी साधारण फिल्म से नहीं हुआ बल्कि १९३३ में ‘हिमांशु राय’ के लंदन स्थित इंडो-इंटरनेशनल टॉकीज बेनर के तले बनी अंग्रेजी फिल्म ‘कर्म’ से हुआ जिसे किसी भारतीय द्वारा निर्मित पहली अंग्रेजी सवाक फिल्म होने का गौरव हासिल हैं और यही वो फिल्म हैं जिसमें भारतीय सिनेमा का प्रथम किसिंग सीन भी फिल्माया गया और इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद लंदन के प्रमुख समाचार पत्रों में केवल इसी का जिक्र था और शानदार समीक्षायें भी प्रकाशित हुई ‘मोर्निग पोस्ट’ पेपर में लिखा गया कि, “इसमें जरा भी शक नहीं कि ‘कर्म’ की नायिका ‘देविका रानी’ स्वक फिल्मो की श्रेष्ठतम तारिकाओं में हैं” तो ‘द स्टार’ ने एक कदम आगे बढ़ाकर लिखा,”जाकर मिस देविका रानी द्वारा बोली गयी अंग्रेजी सुनिये, आपको न तो इससे बेहतर आवाज़ सुनने को मिलेगी और न इससे बेहतर चेहरा देखने को मिलेगा, देविका रानी का बेमिसाल सौंदर्य लंदन को चकाचौंध कर देगा” ।

जब आप इनके बारे में जानते तो पता लगता कि आज की अभिनेत्रियाँ जो काम इतनी सुविधाओं और अकूत कमाई के बावजूद भी बमुश्किल कर पा रही वो उन्होंने उस दौर में बड़ी सहजता से किया और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की अभिनेत्री होने का गौरव हासिल किया जिसकी देश-विदेश में एक साथ जबर्दस्त तारीफ़ हुई अपनि पहली ही फिल्म ‘कर्म’ से उन्होंने सबको अपना दीवाना बना लिया था जब ये फिल्म भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने देखि तो जिस तरह से अपनी भावनाओं को शब्द दिये वो अपने आप में ही किसी सम्मान से कम नहीं उन्होंने कहां, “मैं ‘कर्म’ को एक साहसपूर्ण प्रयास ही नहीं बल्कि एक उल्लेखनीय उपलब्धि मानती हूँ, यह चित्र अपने आप में एक और निर्माता ‘हिमांशु राय’ के विलक्षण साहस, कल्पनाशीलता, धैर्य तथा सूझ-बूझ की प्रशस्ति हैं, वहीँ दूसरी और वह फिल्म की नायिका उस सुंदर तथा प्रतिभावान कृषकाय नारी ‘देविका रानी’ की प्रशस्ति हैं, जो नाटक के हृदयस्थल से रोमांस के जादुई फल के रूप में कुसमित होती प्रतीत होती हैं” ।

‘देविका रानी’ तो वो महानतम अभिनेत्री जिसे अपने देश से लेकर विदेश तक हर किसी ने सराहा और यही वजह कि वे उस दौर की मापदंड बन चुकी थी जिसके कारण समकालीन महिलायें आपसी फिकरेबाजी में एक-दुसरे को ये कहने से न चूकती कि , “तुम अपने आपको देविका रानी’ समझती हो क्या? अब आप ही कहिये जनाब कि इससे बड़ी किसी कलाकार की उपलब्धि क्या होगी कि वो जनमानस में इस कदर बैठ गयी कि लोगों को उनके सिवाय कोई दूसरा नजर न आता था उनकी सज-सज्जा, आपसी व्यवहार, बोल-चाल सब में ‘देविका रानी’ छाने लगी थी और हर महिला उनका अनुकरण करने लालयित रहती थी । उन्होंने अपने अभिनय के लिये लगभग सभी तरह के पुरस्कार प्राप्त किये यहाँ तक कि वे पहली अभिनेत्री थी जिन्हें फ़िल्मी दुनिया का सर्वोच्च समान पहला ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ प्राप्त होने के अलावा पद्मश्री अलंकरण भी प्राप्त हुआ साथ ही अनेकों छोटे-बड़े ख़िताब हासिल हुये तो आज देश की उसी ख्यातनाम हस्ती को उनके जन्मदिवस पर अनेकानेक शुभकामनायें... :) :) :) !!!               
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३० मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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मंगलवार, 29 मार्च 2016

सुर-४५४ : "अभिनय ईश्वर प्रदत्त... बाँट गये 'उत्पल दत्त'...!!!"


दोस्तों...

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कभी हंसाया
तो कभी रुलाया
और कभी डराया भी
लिया रूप कोई भी    
पर, दर्शको को रिझाया
कुछ यूँ उतर गये
हर किरदार के भीतर तक
कि देखने वालों को फिर
‘उत्पल दत्त’ नजर न आया
अंतिम साँस तक
दर्शकों का मनोरंजन किया
तो प्रशंसको ने भी प्यार लुटाया
आज ‘जन्मदिन’ पर याद कर उनको
हमने भी अपना फर्ज़ निभाया
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कोई चाहे फिल्मों का दीवाना हो या नहीं या फिर उसे फ़िल्में देखने का शौक हो या नहीं लेकिन कुछ फिल्मों ने इस तरह से कीर्तिमान बनाया कि हिंदी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर बन नाम ही नहीं कमाया बल्कि दर्शकों के दिलों पर भी अपना मुकाम यूँ बनाया कि बीत गये साल दर साल लेकिन उनका प्रभाव अब तक भी जरा-सा कम न हो पाया कुछ ऐसा ही जादुई असर हैं ‘गोलमाल’ मूवी का जो आज भी यदि किसी चैनल पर आ जाये तो फिर उंगलिया ‘रिमोट’ पर थमकर रह जाती हैं, जिसमें काम करने वाले हर एक अदाकार की सहजता-सरलता और भूमिका ने देखने वालों को अपना मुरीद बना लिया फिर भी ‘उत्पल दत्त’ और उनके इश्श्श्श कहने की अदा और मूंछों के प्रति लगाव को कोई भूल न पाया और यहाँ तक कि 'अच्छाआ....' बोलने की उनकी अपनी शैली ने तो उन्हें भीड़ में अलग खड़ा कर दिया जब-जब वे पर्दे पर आये उनके चेहरे की भाव-भंगिमा ने बिना बोले भी अपना काम कर दिया क्योंकि ‘उत्पल दत्त’ कोई बनावटी कलाकार नहीं बल्कि ‘मेथड स्कूल’ के सच्चे अभिनेता थे जो किसी भी भूमिका को महज़ खानापूर्ति न समझते थे बल्कि उसको पूरे दिल से निभाते थे बल्कि अपना काम पूर्ण समर्पण से इस तरह करते थे कि जो भी चरित्र उनको निबाहने को दिया जाता पूरी तरह से उसमें समा जाते थे तभी तो देखने वालों को भी वे ‘उत्पल दत्त’ नहीं बल्कि वही किरदार नजर आते थे

यदि आज की पीढ़ी उनको उनके असल नाम से न भी पहचानती हो तो निसंदेह ‘गोलमाल’ के उनके काल्पनिक नाम ‘भवानी शंकर’ के रूप से आज भी बखूबी जानती हैं और एक अभिनेता के लिये इससे बड़ी उपलब्धी भला और क्या होगी कि सिनेमा हॉल से निकलने वाले दर्शक उसकी भूमिका को उसके अभिनय, उसके अंदाज़, उसके संवाद और उसकी अदायगी को विस्मृत न कर पाता हो उसकी नकल उतारकर उसको बार-बार दुहराकर उसके अहसास में डूब जाता हो कुछ ऐसा ही प्रभाव पैदा किया था ‘उत्पल दत्त’ ने अपनी हर एक भूमिका से जो उनकी अभिनीत हर एक फिल्म के साथ एक यादगार बन चुकी हैं और फिल्म जगत में आने वाले अभिनय के इच्छुक लोगों को प्रेरणा देने के अलावा उनसे कुछ अलहदा सीखने का अवसर भी देती हैं क्योंकि ये उस समय के ऐसे कलाकार हैं जबकि अभिनय को सीखने के लिये आज की तरह कोई संस्थान नहीं होते थे, न ही तकनीक ही इतनी सक्षम थी तब कलाकार स्वयं की प्रेरणा से या अपने भीतर के अनुभवों से ही किसी भी किरदार को रजत पर्दे पर जीवंत करते थे तभी तो उस साधनहीन, अनुभवहीन, गैर-तकनीक दौर के लोगों ने जो भी किया वो आज भी अमर-अमिट हैं और उसका गुणगान किया जाता हैं कि कम संसाधनों और तकनीक की अनुपलब्धता के बावजूद भी वे हर एक कल्पना, हर एक सपने को हूबहू सिनेमा के सेल्युलाइड स्क्रीन पर उतार पाने में कामयाब हो सके जो आज भी फ़िल्मी दुनिया में आने वाले प्रशिक्षुओं के पाठ्यक्रम ही नहीं बल्कि सिनमा के मुरीदों को भी आश्चर्यचकित करता हैं

उनके द्वारा ‘भुवन शोम’ में अभिनीत नायक की भूमिका ने जहाँ उनको अभिनय का ‘राष्ट्रीय सम्मान’ दिलवाया तो वही एक ही निर्देशक ‘ऋषिकेश मुखर्जी’ के निर्देशन में तीन बार सर्वश्रेष्ठ  हास्य अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार हासिल किया ‘गोलमाल’, ‘नरम-गरम’ और ‘रंग-बिरंगी’ फिल्म के लिये जो आज भी अपनी ताजगी बरकरार रखे हुए हैं क्योंकि कोई कितना भी प्रयास कर ले लेकिन उनकी मिमक्री करना या उनकी ज्यों की त्यों नकल कर पाना किसी के वश की बात नहीं हैं । यूँ तो उन्होंने अपने जीवन काल में कम ही फ़िल्में की लेकिन हर एक फिल्म और भूमिका में उन्होंने अपनी विशेष छाप छोड़ी जिसके बलबूते वे इतनी बड़ी फिल्म इंडस्ट्री में अपना एक अलहदा स्थान बना पाये जिसे आज तक उनसे कोई भी छीन नहीं पाया कि वो सादगी और अभिनय की सहजता जो प्राकृतिक थी उसे कोई भी कॉपी नहीं कर पाया इसलिये फ़िल्मी इतिहास में उनकी भूमिकाओं का अपना ही एक अलग अध्याय हैं अंग्रेजी रंगमंच से शुरुआत कर उन्होंने जिस तरह से बंगला एवं हिंदी फिल्मों में अपनी जगह बनाई उसकी मिसाल नहीं । 
      
उन्होंने केवल ‘हिंदी’ ही नहीं ‘बंगला’ फिल्मों में भी अपने अभिनय का जलवा दिखाया और हर तरह की भूमिकाओं को बड़ी कुशलता से परदे पर साकार किया फिर चाहे वो ‘नायक’ हो या ‘सह-नायक’ या ‘हास्य कलाकार’ या नकारात्मकता भरा ‘खलनायक’ या फिर कोई चरित्र भूमिका उन्होने सबके साथ पूरी तरह से न्याय किया यही वजह कि उनको किसी विशेष दायरे में बांधकर उनका आकलन नहीं किया जा सकता फिर भी जिस तरह से उन्होंने हल्की-फुल्की मजाकिया फिल्मों में अपने भूमिका को अभिनीत किया वो लाजवाब हैं । अधिकतर लोग मसखरे के रोल के लिये विविध स्वांग रचते और तरह-तरह के गेटअप धारण करते और आजकल तो अश्लील संवादों, फूहड़ आवरण व गलत इशारों से कॉमेडी करते फिर भी बेबाक हंसी की वो लहर पैदा नहीं कर पाते जो ‘उत्पल दत्त साहब’ केवल अपने बोलने या अपनी मुखमुद्रा से ही कर देते थे यहाँ तक कि अपनी गोल-गोल आँखों का इस्तेमाल भी वो कुछ इस तरह से करते कि देखने वाला मुस्कुराये बिना न रह पाता था याने कि बिना किसी उपरी आवरण या अश्लीलता का सहारा लिये वो सहज ढंग से ही देखने वालों को ठहाके लगाने पर मजबूर कर देते थे ।                   

आज उसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी स्वाभाविक अभिनय में प्रवीण अदाकार, एक दक्ष नाटककार, सम-सामयिक विषयों पर सृजन करने वाले जारुक लेखक और कुशल निर्देशक को उनके जन्मदिवस पर अनेकानेक शुभकामनायें कि भले ही वो आज अपने दैहिक स्वरुप में हमारे बीच मौज़ूद नहीं हैं लेकिन अपने अभिनीत किरदारों के रूप में वे सदैव हमारा मनोरंजन करते रहेंगे, हमें गुदगुदाते रहेंगे... तो हमें ये अनमोल सौगात देने के लिये उनका बहुत-बहुत आभार और प्यार... :) :) :) !!! 
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२९ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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सोमवार, 28 मार्च 2016

सुर-४५३ : “खबर नहीं अगल-बगल की..... खो गया मोबाइल में आदमी...!!!”


 दोस्तों...

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दादी माँ’ बड़ी देर से हर एक का नाम लेकर पुकार चुकी थी पर, न ही कोई उनको सुन रहा था और न ही उनकी बात का जवाब दे रहा था जबकि वे बिस्तर से उठने में असमर्थ अतः पाने पीने के लिये तड़फ कर रह गयी थी... लेकिन कोई आया नहीं ये तो अब हर रोज का किस्सा हो गया इस घर में तो अगल-बगल बैठे लोग भी एक-दूसरे की नहीं सुनते तो फिर वे तो अलग-थलग एक कमरे में पड़ी... ऐसे में उनके पास अतीत को याद करने के सिवाय कोई चारा न रह जाता---

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वो भी क्या दिन थे...
जब...
न टी. वी.
न कंप्यूटर
न मोबइल
न इंटरनेट
न वीडियो गेम
न ही शोपिंग मॉल
न ही छोटे परिवार
तब...
सबके पास
अपने लिये ही नहीं
अपनों के लिये भी
साथ दूसरों व देश-समाज
हर किसी के लिये वक़्त था
आदमी आदमियत से न दूर था
अब तो खोया रहता
तरह-तरह के गैजेट्स मे
आमंत्रित करता बीमारियां
घुट के मरता एकाकी
फिर भी न समझता
कि सुविधाएं
मानव के लिये बनी हैं
न कि मानव उनके लिये
जो उनकी खातिर
अपने आप से ही नहीं
हर किसी से दूर होता जा रहा
"सोशल मीडिया' से संबंध निभा
खुद को सामजिक मान रहा
जबकि अगल-बगल ही
बसने वालों को न पहचान रहा
धीरे-धीरे आदमी से
पुनः आदिम बनता जा रहा ।।
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अंत में वे हाथ उठाकर भगवान् से यही दुआ करती कि---”हे प्रभु, प्रकृति रोज अपने तरीके से जता रही फिर भी मशीन बनते जा रहे आदमी को अहसास नहीं हो रहा... ऐसे में अब तू कोई ऐसा चमत्कार कर कि आदिम बनता जा रहा आदमी अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सके... ताकि करीब आती जा रही कयामत को वक्त से पहले आने से रोका जा सके” :) :) :) !!!  
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२८ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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रविवार, 27 मार्च 2016

सुर-४५२ : "विश्व रंगमंच दिवस... !!!"


दोस्तों...

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संपूर्ण
‘विश्व’ ही
एक रंगमंच हैं
फिर भी
मनाते हम सब
‘विश्व रंगमंच दिवस’
जो समर्पित
उन कलाकारों के प्रति
जो करते अभिनय
मान ‘अभिनय’ को कला
न कि उनके लिये
जो नित रचते नूतन स्वांग
करने पूरा अपना स्वार्थ
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आदिकाल से ही मानव अपने मनोरंजन के लिये नये-नये साधन ढूंढता रहा हैं जिससे कि उसे अपनी अंदर छूपी प्रतिभा के अलावा नई-नई कलाओं का भी ज्ञान होता हैं और फिर शुरू होती हैं कवायद उसे निखारने की इसी क्रम में ‘आदमी’ की जिज्ञासु प्रवृति ने उसे अपनी मानवीय भाव-भंगिमा को ही एक विधा के रूप में विकसित करने का विचार दिया जिससे कि ‘अभिनय’ कला का जन्म हुआ और ‘भरत मुनि’ ने अपने ग्रंथ में इसकी बारीकियों का उल्लेख करते हुये गहन प्रकाश डाला जिससे कि आने वाली पीढियां भी इसमें महारत हासिल कर सके और अदाकारी की उस विधा को सम्मान देने हेतु ‘इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट’ ने १९६१ में ‘अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस’ की नींव रखी ताकि सिर्फ़ अदाकारी ही नहीं बल्कि अदाकारों को भी उनका वास्तविक स्थान प्राप्त हो सके जिससे कि वे अपने इस कला क्षेत्र पर गर्व कर सके और नये लोग भी अपनी नई ऊर्जा एवं विचार के साथ इस क्षेत्र में आकर इसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचा सके इस पावन उद्देश्य से ही इस दिन की शिला रखी गयी और तब से आज तक इसे मनाने की परंपरा का विधिवत निर्वहन किया जा रहा हैं जिसने अपने शैशवकाल से शुरू कर आज पूर्ण परिपक्व अवस्था में प्रवेश कर लिया हैं परंतु, बढती तकनीक एवं मनोरंजन के नवीनतम साधनों ने इसे पार्श्व में धकेल दिया हैं लेकिन फिर भी अभिनय की दुनिया में आने के लिये आज भी कलाकार इसे ही सर्वश्रेष्ठ माध्यम और रास्ता समझते हैं जहाँ न वे केवल अपने अंदर की काबिलियत को तराशते हैं बल्कि संतुष्टि का अहसास भी पाते जो उनको कहीं और न मिलता तभी तो आज जितने भी सर्वश्रेष्ठ फनकार हैं उनका आगाज़ इसी पटल से हुआ हैं और आज भी वे इसके प्रति पूर्ण समर्पण भाव से अपने कर्तव्य का पालन कर रहे जिसकी वजह से उनसे प्रभावित होकर नवोदित फ़नकार भी इसे अपना कार्यक्षेत्र बनाने आगे आ इसे भविष्य में भी जीवित बनाये रखने के लिये अपने आपको होम कर इतिहास लिखते हैं

‘रंगमंच’ समस्त अदाकारों के लिये मंदिर के समान एक पवित्र स्थान होता जहाँ कला की देवी ‘सरस्वती’ स्वयं विराजमान होकर उनको आशीष देती और उनके वरदहस्त के तले वे अपनी अदाकारी के पुष्प उनके चरणों में अर्पित कर देश व समाज को जागरूक करने का सन्देश देने इस तरह की कहानियों का चयन करते जिससे कि मनोरंजन के साथ-साथ दर्शकों का ज्ञानवर्धन भी हो और साथ ही साथ वो देश में फ़ैली हुई कुरीतियों व अंधविश्वासों को दूर करने में भी सहायक हो जो कि किसी भी ‘नाटक’ का मुख्य उद्देश्य होता हैं । इसलिये आज भले ही इसका स्थान कहीं थोडा नीचे चला गया हो लेकिन इस क्षेत्र में काम करने वालों के उत्साह में कोई कमी नहीं वे तो इसे फिर से पहले जैसा मुकाम प्रदान करना चाहते जिससे कि इसमें प्रवेश करने वाले को अपने भविष्य के बारे में कोई अनिश्चितता न हो जिसके कारण आज ये क्षेत्र पिछड़ता जा रहा क्योंकि केवल अदाकारी से तो जीवन चलाया नहीं जा सकता उसके साथ जीविका होना भी जरूरी तो इसे व्यवसायिक दर्जा दिलाने इसका व्यवसायीकरण भी किया जा रहा जिसने इसके प्रति प्रशिक्षु कलाकारों का रुझान बढ़ाया हैं तो आज के दिन सभी वास्तविक एवं रंगमंच के कलाकारों को बहुत-बहुत बधाई... जिन्होंने हमारी महफ़िल ही नहीं तन्हाई भी सजाई... :) :) :) !!!        
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२७ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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शनिवार, 26 मार्च 2016

सुर-४५१ : "भले न बनो 'ज्ञानी'... पर, जरुर बनो 'आदमी'...!!!"


दोस्तों...

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‘मंजर’ तो
आस-पास दिखते कई
पुकारते भी हमें
बढ़ाते हाथ मदद के लिये
तो कभी देखते
बड़ी उम्मीदों के साथ
कभी हम रुकते
कभी पिघल भी जाते
तो कभी करना भी चाहते
जरूरतमंद की सहायता
पर, तभी न जाने कैसे ???
याद आता कि
अरे, उससे तो हमारा
कोई रिश्ता या नाता नहीं
क्यों किसी के फटे में टांग अड़ाना ?
क्यों किसी अंजान की खातिर 
अपना समय बर्बाद करना ?
क्यों फालतू मुसीबत में पड़ना ?
और फिर हम...
चुपचाप बढ़ जाते आगे
शुक्र मनाते कि चलो बच गये
लेकिन, जब पढ़ते
सुबह अख़बार में वो खबर तो
बड़े वाले हमदर्द बन संवेदना लुटाते
चार आंसू भी ढलका देते
पर, ये न सोचते कि
‘इंसानियत’ को भूलाकर
आज जिनके हम मददगार नहीं बने
मुंह फेरकर आगे निकल गये
कल वो भी तो हमें
किसी मुसीबत में फंसा देखकर
इसी तरह अजनबी बन गुजर जायेंगे
हमारा किया हमें लौटायेंगे
 
क्या नहीं... :( ????   
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घटना-०१
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‘कनिष्का’ ऑफिस को लेट हो गयी तो उसने जल्दी से स्कूटी निकाली और फुल स्पीड में भगा दी मगर, आगे ज्यादा ट्रैफिक में वो संभाल न सकी तो सामने से फल की टोकनी सर पर रखे आती एक फलवाली से टकरा गयी जिससे उसका सामान और वो दोनों गिर गये लेकिन उसे तो केवल घड़ी की तेज भागती सुइयां और उनके बीच अपने बॉस का चेहरा नजर आ रहा था तो उसने रुककर उसे देखने की बजाय गाड़ी आगे बढ़ दी जबकि पीछे वो गरीब औरत होने वाले नुक्सान के साथ-साथ अपनी कमर को पकड़े रो रही थी पर, आते-जाते लोगों को भी उसकी परवाह नहीं थी तो किसी तरह उसने अपने आप को उठाया और फूटपाथ पर बैठ सर पकड़ सोचने लगी जो हुआ सो हुआ मगर, अब रात को घर में चूल्हा किस तरह जलेगा ???

दूसरी तरफ़ ‘कनिष्का’ को ऑफिस में अपने प्रेजेंटेशन की वजह से सबकी बहुत वाह-वाही के अलावा वो प्रोजेक्ट भी हासिल हो गया जिसके लिये उसने इतनी मेहनत की थी और अब उसे अमरीका जाने का अवसर हाथ लगा था तो वो बहुत खुश थी, शाम की पार्टी की तैयारी में जुट गयी थी और सुबह वाली घटना की तो उसे याद तक नहीं थी
 
घटना—०२
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‘होली’ के अवसर पर नगर में बहुत बड़ा ‘कवि सम्मेलन’ था तो देश के बड़े-बड़े कवी-कवयित्री उसमें आमंत्रित थे जो अपने-अपने साधन से कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गये थे रात भर एक से बढ़कर एक कलमकारों ने अपनी कलम का जलवा अपनी दमदार प्रस्तुति से दिखाया शहर के एक ख्यातनाम कवि ने तो गरीबों और असहायों को अपनी कविता समर्पित करते हुये कहा कि वो इस बार ऐसे लोगों के बीच ही अपना त्यौहार मनायेंगे ताकि उन दुखियों को भी थोड़ी ख़ुशी दे सके जिसे सुनकर पंडाल के आस-पास बैठे निर्धनों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी और अगले दिन ‘होली’ पर वे सब बड़ी आस लगाये उनके घर के सामने एकत्रित हो गये जहाँ ‘होली मिलन समारोह’ चल रहा था जिसमें नगर के सभी नामी-गिरामी लोग आये थे तो जैसे ही कवि महोदय को खबर हुई उन्होंने पुलिस बुलाकर उन सबको अच्छे डंडे पड़वाये फिर भी वो दुखी लोग समझ न पाये कि ‘कवि’ और उसकी ‘कविता’ केवल मंच के लिये थी उसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं इसलिये वे तो अब भी उम्मीद कर रहे हैं क्योंकि इसी के सहारे तो वे जिंदा हैं तभी तो पेट की खातिर किसी की भी बातों में आ जाते सिवाय भूख के वे किसी अहसास को नहीं जानते तो जहाँ उसकी व्यवस्था दिखे वे चले जाते

घटना-०३
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‘अर्पिता’ अपने घर से दूर पुणे में एक होस्टल में रहकर अपनी ‘एम.बी.ए.’ की पढाई कर रही थी और कॉलेज में जैसे ही पंद्रह दिन के सेमेस्टर ब्रेक की घोषणा हुई उसने तुरंत ऑनलाइन ही अगले दिन का रिजर्वेशन कराया और अपना सामान पैक कर दूसरे दिन ट्रेन में बैठ गयी मगर, उसे कंफर्म आरक्षण न मिला तो वो एक जगह बैठ टी.सी. का इंतजार करने लगी जिसने उसे सीट दिला दी तो पहले तो उसने इत्मिनान से अपना सामान रख फिर आस-पास का जायजा लिया तो सामने की सीट पर एक फैमिली को देख चैन की साँस ली फिर नजरे घुमाई तो देखा उपर बर्थ पर कुछ हमउम्र लडके बैठे हैं जो शायद, उसी की तरह अपने घर जा रहे जो फ़िलहाल लैपटॉप में कोई मूवी देख एक-दूसरे को इशारा कर हंस रहे हैं फिर उसने सामने बैठे परिवार की महिला से बात की तो पता चला कि उसके पति वैज्ञानिक हैं जिन्हें कि सम्मानित करने के लिये दिल्ली बुलाया गया हैं तो वो पहले वो अपने घर पुणे जायेंगे फिर वही से दिल्ली को निकलेंगे तो उसने उनसे थोड़ी बातें की लेकिन वे जरा रिज़र्व नेचर के लगे तो वो अपना डिनर कर सो गयी पर, रात में उसे लगा जैसे कोई उसके बेहद करीब हैं आँख खोली तो सामने उन बदमाश लडको को पाया वो घबराकर उठी और उनको डांटने लगी तो वे और भी ज्यादा बदतमीजी करने लगे वो उठकर जाने लगी तो दो लोगों ने उसका हाथ पकड़ लिया तो उसने सामने बैठे यात्रियों को पुकारा मगर, सब करवट बदल सोते रहे उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो क्या करे, वो चारो-पांचो उसे बुरी तरह घेर उसके साथ छेड़खानी कर रहे थे और वो कुछ कर नहीं पा रही थी कि उसके हाँथ बंधे थे और लड़के ज्यादा थे किसी तरह उसने अपने पैरों से उनको गिराया तो वे लडखडा गये और वो भागी लेकिन तभी वे सामने आ गये तो ऐसे में उसे कुछ न सुझा तो बांयी तरफ दरवाज़ा खुला नजर आया और वो उससे बाहर कूद गयी ।

ऐसी कई घटनायें हमारे आस-पास तोज घटित होती जिनके हम मूक प्रत्यक्षदर्शी होते और हमारी संवेदनहीनता का स्तर तो अब इतना उपर जा चुका हैं कि पहले तो केवल दूसरों को नजरंदाज करते थे पर, अब तो अपने भी तड़फ रहे हो तो उतना दर्द नहीं होता मजे से नाश्ते के साथ ऐसे खबरें देख-पढ़ अपनी राय ज़ाहिर करते एक बार भी ये नहीं सोचते कि उस जगह हम भी तो हो सकते थे और हमारी जगह वो पीड़ित पर, हम तो ये मान चुके हैं कि हमारे साथ तो ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता और जो कभी हो ही जाये तो ‘इंसानियत’ की दुहाई देते याने कि ‘मानवीयता’ निभाना केवल अगले का ठेका हमारा तो उससे बस, अपनी जरूरत भर का नाता इसी घटिया स्वार्थी सोच ने इन आतंकियों और मुजरिमों के हौंसले बढ़ा रखे हैं और यदि हम एकजुट हो इनका मुकाबला करें तो ये मुट्ठी भर दहशतगर्दी छिपने की जगह तलाशते नजर आयेंगे... इसलिये भले ही ‘ज्ञानी’ न बनो कोई बात नहीं मगर, ‘आदमी’ जरुर बनो ताकि बच सके ‘आदमियत’... बच सके ‘विश्वास’, ‘परोपकार’, ‘दया’, ‘धर्म’, ‘परहित’, ‘जनसेवा’... जैसी निःस्वार्थ भावनायें भी जो अभी तो विलुप्ति की कग़ार पर खड़ी हमको तक रही हैं...पर, आखिर कब तक... :( :( :( ???                    
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२६ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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