मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-६० : ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’... युवा वैज्ञानिकों को करें प्रेरक...!!!

साथियों... नमस्कार...


जय ‘जवान’, जय ‘किसान’ और जय ‘विज्ञान’ का उद्घोष इस देश के युवाओं के काम का न केवल सम्मान करता बल्कि उन्हें अपने क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देता क्योंकि ‘जवान’, ‘किसान’ और ‘वैज्ञानिक’ इस देश की उन्नति में निर्णायक भूमिका निभाते अतः उनको अपने कार्यक्षेत्र में उत्साहित करने के लिये अलग-अलग दिवस भी बनाये गये जिनसे कि उनके कार्यों का समुचित मुल्यांकन कर उनको पुरस्कृत किया जा सके जिससे कि वे आगे उसी लगन से कर्मरत रहे तो इसी तारतम्य में विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाले शोधार्थी को सम्मानित करने व विज्ञान में अध्ययनरत अन्य छात्र-छात्राओं को इस दिशा में आगे आकर अपनी प्रतिभा दर्शाने के लिये राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी परिषद तथा विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी मंत्रालय ने १९८६ में २८ फरवरी को ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ घोषित किया और इसके लिये यही विशेष दिन चुनने की वजह यह थी कि २८ फरवरी १९२८ को भारतीय वैज्ञानिक ‘सी.वी. रमन’ ने ‘रमन प्रभाव’ की खोज की जिसके कारण १९३० में उन्हें ‘नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया और इस तरह उन्होंने न सिर्फ भारतभूमि बल्कि विज्ञान को भी एक ऐसा अभूतपूर्व सम्मान दिलाया जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व में उनके इस योगदान को भूला पाना मुमकिन नहीं...
     
उनकी इस खोज ने उनको ‘भारत रत्न’ का ख़िताब भी दिलवाया और उनकी इस अप्रतिम खोज को सदा-सदा के लिये रेखांकित करने ही आज का दिन उनके नाम ही कर दिया गया ताकि वे सभी जो उनकी तरह बनना चाहते या कोई नई खोज करना चाहते उनको न केवल सहायता दी जा सके बल्कि उनके उस कार्य की सराहना कर उनको आगे भी इसी तरह से बढ़ने उनका मार्ग प्रशस्त किया जा सके... परंतु बहुत से लोग तो इस दिन से ही अंजान ऐसे में किस तरह से ये उद्देश्य पूर्ण होगा या युवा अविष्कार के प्रति आकर्षित होंगे जबकि वे तो हर चीज़ से दूर होते जा रहे जिससे उनकी मानसिक उड़ान भी शायद, उतनी ऊंची नहीं रह गयी लेकिन यदि वे चाहे तो जो वे सोचते उसको मूर्त रूप दे सकते केवल उनको इसकी जानकारी हो जो इस ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ का मूल उद्देश्य तो जो अपनी कल्पनाओं को साकर करने की इच्छा रखने वालों को आगे आना चाहिये और इससे जुडी सभी संस्थाओं में अपनी मौजूदगी दर्ज कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना चाहिये... इसी संदेश के साथ सबको इस दिन की हार्दिक शुभकामनायें... :) :) :) !!!   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२८ फरवरी २०१७

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५८ : “आओ, बने ‘आज़ाद’ हम सब... लेकर ये शुभ संकल्प...!!!”

साथियों... नमस्कार...


‘आज़ादी’ के दीवाने तो बहुत थे मगर, ऐसा कोई नहीं कि उसने गुलामी में रहते हुये ही खुद को ‘आज़ाद’ घोषित कर दिया हो ये काम तो सिर्फ ‘पंडित चंद्रशेखर आज़ाद’ ही कर सके जिन्होंने अपने नाम के साथ ‘आजाद’ लगाकर अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी कि जब जीवन उनका तो फिर उस पर इख़्तियार किसी और का प्रकृति के भी खिलाफ़ हैं तो ऐसी स्थिति में किसी भी इंसान को ये हक़ नहीं कि वो किसी को अपना दास बनाकर रखे लेकिन उन्होंने देखा कि वे अकेले नहीं उनके साथ अनेक हमवतन भी उन फिरंगियों के गुलाम हैं जो इस देश में आये तो थे व्यापार की खातिर लेकिन जब यहाँ का वैभव और लोगों का भोलापन देखा तो नीयत बदल गयी और ऐसा जाल बिछाया कि अनजाने में सब उनके चंगुल में फंस गये जिससे बहर निकलते-निकलते एक लंबा अरसा लगा व अनगिनत लोगों को अपने जान गंवानी पड़ी तब कहीं जाकर ये देश आज़ाद हुआ जिसे हम सब भोग रहे हैं पर, वो जिन्होंने इसे पाने के लिये अपना जीवन कुर्बान कर दिया जब आज के लोगों को अपनी जान की कीमत पर हासिल की गयी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते देखते होंगे तो न जाने क्या सोचते होंगे कि अपनी जरा-भी परवाह न करते हुये जिन लोगों के लिये शहीद हो गये वे उसकी अहमियत समझ ही न रहे बल्कि एक बार फिर इस देश को उसी दिशा में लेकर जा रहे उस पर गाफ़िल इस कदर कि अहसास भी नहीं जरा...

इस बार भी दुश्मन हमारे सामने हैं जिसे हम देख भी पा रहे लेकिन उसके बावज़ूद भी खुद उसकी गिरफ्त में फंसते जा रहे कि वो पराये नहीं अपने ही हैं उस पर शिंकजा भी कोई चुभने वाली बेड़ियाँ नहीं बल्कि तमाम सुविधा रूपी वो अदृश्य जंजीरें हैं जिन्हें कि हम फ़िलहाल अपनी खुशकिस्मती समझ रहे लेकिन जिस दिन उनकी वजह से सब कुछ होते हुये भी लाचार हो जायेंगे तब समझेंगे कि हर बैठे-बैठे हर चीज़ हासिल होना, उंगलियों पर सारी दुनिया को घूमाना या एक क्लिक पर हाथों पर मनचाही चीज़ मिल जाना ये सब भी बंधन हैं जिनकी वजह से प्रकृति से नाता टूट गया, स्वाभाविकता को भूल गये, दायरों में सिमट गये और तो और सरकार मोबइल, लैपटॉप और नेट भी मुफ्त में बांटकर युवा वर्ग को इस तरह से नकारा बना रही कि उसे अहसास भी नहीं हो भी क्यों जब बिना कीमत चुकाये हर चीज़ मिल रही लेकिन इसकी कीमत किस तरह वसूली जा रही ये नहीं देख रहा कोई कि इन सब गेजेट्स में देश की युवा शक्ति को व्यस्त कर देश के वे तथाकथित शासक अपनी चाल चलने में लगे उस पर तमाम तरह कि निःशुल्क योजनायें भी लागू कर दी क्योंकि वे जानते कि जब भी युवा जागा उसने क्रांति की हैं तो उसे भरमाये रखो ताकि वो कोई सवाल न पूछे न ही ऊँगली उठाये इसलिये पांचों उँगलियाँ और दिमाग सब कुछ इन यंत्रों में खपा दिया...

ऐसी स्थिति में देश के नवजवानों को इन युवा शहीदों से प्रेरणा लेनी चाहिये जिन्होंने बिना किसी के बताये ही ये जान लिया कि गुलामी की हवाओं में जीने से मरना बेहतर हैं तो अपनी अंतिम साँस तक वो गुलामी की जंजीरों से खुद को मुक्त कराने लड़ते रहे जिसका नतीज़ा कि आज हम आज़ादी की खुली हवा में साँस ले रहे... ऐसे ही एक युवा ‘चंद्रशेखर’ की आज जयंती हैं जिन्होंने बालपन में ही अपने नाम के साथ ‘आज़ाद’ लगा अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया तो हम भी जाने कि आज हमारे देश की उन्नति के लिये क्या जरुरी जिसे कर हम वापस ‘विश्वगुरु’ बन सकते हैं... देश की कुल जनसंख्या का लगभग ८०% युवा वर्ग जो अगर, दिग्भ्रमित हुआ तो इतिहास की पुनरावृति को रोकना मुश्किल होगा अतः इन वीर जवानों की कहानियों को सिर्फ दोहराये नहीं इनसे सबक लेकर अपने जीवन में बदलाव लाने का भी प्रयत्न करें जो इन दिवस का उद्देश्य... ‘आज़ाद’ की तरह हम सब भी आज़ाद बनकर उनका ऋण चुकाने का प्रयत्न करें ये संकल्प ही उनके जन्मदिवस की सर्वोत्तम सौगात होगी... :) :) :) !!!           
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ फरवरी २०१७

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५७ : “मज़हब के लिये इंसान लड़ता... जबकि, नहीं उससे वज़ूद उसका...!!!”

साथियों... नमस्कार...


भगवान् ने बनाया इंसान और क़ुदरत तो इंसान ने बनाया ‘मज़हब’ जिसके बिना वो जी सकता लेकिन वो हर शय जिनकी वजह से उसका अस्तित्व कायम उनका कोई भी ‘धर्म’ नहीं और वे जीने के लिये सबसे जरुरी इतनी-सी बात नहीं समझता तो उसी को आधार बनाकर रची एक ‘कविता’ जिसे ‘भीलवाड़ा’ से प्रकाशित ‘सौरभ दर्शन’ अख़बार में स्थान दिया गया... आज वही आप सबके समक्ष प्रस्तुत हैं...  

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हवा बोली लहू से,
बोल तेरा मज़हब क्या हैं ?
.....
कुछ देर सोच के बोला वो-

जो तेरा धर्म हैं
वही मेरा हैं
हमें इन बातों से
भला, क्या लेना-देना हैं

करते जो भेद
आदम को जात में
सोचते नहीं कि
सबकी साँसों में तू समाई
सबकी रगों में मैं दौड़ता

एक ही धरती
एक ही आसमान तले
सबका ठिकाना हैं

एक समान अनाज
एक जैसे फल खाकर
सबकी देह बनी हैं

फिर वो किस तरह
एक को दूसरे से जुदा मानते
नाम और जाति से
हर किसी को पहचानते हैं

हटा दो इन सबको
फिर पूछो उनसे यही सवाल
बोल तेरा मज़हब क्या हैं ?

नहीं सूझेगा कोई जवाब
फिर देखना बोलेंगे वो भी वही
जो अभी मैंने तुमसे कहा ।।
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हवा, लहू, जल, प्रकृति ये जीने के लिये वो आवश्यक तत्व हैं जिनकी कमी या अभाव हमारी मृत्यु की वजह बन सकते पर, इनका कोई मजहब नहीं और हर इंसान इनका एक जैसा ही  सेवन करता फिर भी इनसे कुछ नहीं सीखता... काश, हर इंसान इतनी-सी बात समझ जाये कि ‘मज़हब’ से वो नहीं न ही उसका वज़ूद हैं बल्कि इनसे हैं और फिर भी जिसके बिना वो जी नहीं सकता उसे ही गौण समझता और वो ‘मजहब’ जिसके नाम पर वो भेदभाव कर एक-दूसरे की जान लेता उसे प्रथम दर्जे पर रखता... क्यों नहीं उनकी तरह सब एक ही मज़हब ‘इंसानियत’ को ही मानते... :) :) :) !!!  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ फरवरी २०१७

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५६ : दिल... ‘दिल’ हैं... ‘मोबाइल सिम’ नहीं... ‘फीलिंग्स’ को भी समझो ‘मोबाइल एप्प’ नहीं...!!!

साथियों... नमस्कार...


‘सलोनी’ अभी नई-नई ही शहर में आई थी उसके पहले तो उसने अपने गाँव से ही स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी चूँकि वो पढ़ने में बहुत अच्छी थी तो उसका चयन शहर के बड़े कॉलेज में हो गया था और यहाँ आने के बाद वो इस नये आधुनिक तीव्रगामी परिवेश से अपनी चाल मिलाने की कोशिश में लगी थी लेकिन बात केवल ‘चाल’ की होती तो शायद ठीक था परंतु यहाँ कि लडकियों का तो ‘चलन’ भी निराला था तो सबकी हिदायत थी कि सिर्फ ‘चाल’ नहीं ‘चलन’ भी सुधारो अपना जबकि उसके उसी ‘चाल-चलन’ की वहां खूब तारीफें होती थी और उसके चरित्र प्रमाण-पत्र में ही उसे इसी वजह से अति-ऊतम दर्शाया गया था लेकिन यहाँ तो लडकियाँ छिप-छिपकर रात को हॉस्टल से सिनेमा देखने जाती तो कभी किसी रेस्टोरेंट में जाकर खाना खाती और कभी-कभी मॉल में जाकर शौपिंग करती याने कि वे सब काम करती जिनकी सख्त मनाही थी और ये सब तो ठीक था लेकिन उन सबके बॉय-फ्रेंड्स भी थे जो उसकी समझ से परे था क्योंकि गाँव में भी वो कन्या शाला में पढ़ी और यहाँ भी गर्ल्स कॉलेज में एडमिशन लिया कि उसे बचपन से ही ये सिखाया गया कि छलावों से दूर रहना, सिर्फ अपनी पढाई पर ध्यान देना और किसी के चक्कर में कभी न आना फिर भी न जाने कैसे इन लडकियों ने अपने दोस्त बना लिये शायद, ये वही लडके थे जो कॉलेज के गेट पर खड़े रहते थे और ऐसा नहीं कि इन लडकियों की इनके घरवालों ने ये सब बातें न बताई लेकिन वे कहती यहाँ भी यदि उसी तरह कुढ़-कुढ़कर जियेंगे तो फिर मस्ती कब करेंगे, अपनी लाइफ कब जियेंगे इसलिये जो अब मौका मिला तो मन की हर साध पूरी करेंगी फिर बाद में घरवालों ने किसी के पल्ले से तो बांध ही देना हैं उसके पहले जरा जिंदगी का ये रंग भी तो देख ले...

‘सलोनी’ पर मगर, सहेलियों द्वारा दिये गये इन सारे तर्कों-कुतर्कों का कोई भी असर नहीं होता क्योंकि उसके जेहन में प्रेम की अवधारणा एकदम स्पष्ट थी जिसमें किसी तरह का मज़ाक या कोई भी हल्कापन शामिल नहीं था उसके लिये तो ये ‘शंकर-पार्वती’, ‘राम-सीता’ या ‘राधा-कृष्ण’ की तरह का जीवन का विशिष्ट हिस्सा था जिसे उसने बचपन से सुनी अमर-प्रेम कहानियों से प्रेरणा लेकर ही इजाद किया था जो बॉयफ्रेंड कल्चर के सांचे में कहीं भी फिट नहीं होता उसे तो ये ‘लिंकअप’ / ‘ब्रेकअप’ और ‘लिव-इन’ जैसे आधुनिक संबंध समझ ही नहीं आते जहाँ सब केवल अपनी संतुष्टि के लिये कोई रिश्ता बनाते और यदि वो पूरी न हुई तो झट दूसरे से नाता जोड़ लेते उसने तो इसे जीवन का सबसे अहम फ़ैसला माना था जो ऐसे पल-पल बदलता नहीं और न ही दिल को इस तरह से हर किसी को दिया जा सकता आखिर, वो भी तो एक अंग जिसे सभी अहसास महसूस होते और जो इस तरह बार-बार टूटते-जुड़ते संवेदनहीन हो सकता न जाने क्यों ये सब समझते नहीं कि ‘दिल’ किसी ‘मोबाइल’ की ‘सिम’ नहीं, जिसे किसी के भी द्वारा दिये लुभावने प्लान्स या किसी धमाकेदार ऑफर से प्रभावित होकर बदल दिया जाये ये और न ही कोई ‘एप्प’ की दूसरा पसंद आने पर पहले को अन-इंस्टाल कर दिया जाये लगता, इस मशीनी युग में इंसान खुद को भी एक ‘गेजेट’ ही समझने लगा हैं और जहाँ कोई अगला अधिक जोरदार दिखा पहले को रिमूव किया और कभी-कभी तो एक-से अधिक को भी ‘इंस्टाल’ किया या ‘ड्यूल सिम’ में जिस तरह अलग-अलग ‘सिम’ लगाते वैसे अलग-अलग नंबर पर अलग-अलग प्रेमी रखा उफ़...

कोई कितनी भी हंसी उडाये या उसे भड़काये उसके मन में गहरे अंकित उन परिभाषाओं को वे सब बदलने में कामयाब न हो सकी और तो और उन सबकी ये दलील भी कोई काम न कर सकी कि तुम जिसके लिये खुद को बचाकर रख रही वो कोई दूध का धुला न होगा फिर तुम्हीं क्यों उसके लिये खुद को इन खुशियों से वंचित कर रही और ये भी तो हो सकता कि आजीवन अकेली ही रह जाओ कोई ऐसा मिले नहीं क्योंकि आजकल वैसे मॉडल बनते नहीं... तब भी बिना विचलित हुये उसने कहा, मैं ‘मीरा’ की तरह एकाकी अपने प्रेम की कल्पना के साथ निबाह कर सकती हूँ पर, अपने ‘दिल’ को ‘सिम’ और अपनी ‘फीलिंग्स’ को एप्प नहीं बना सकती गर, कोई होगा वैसा तो मिल जायेगा और जो न भी मिला तो अपने बेदाग़ दिल से मुझे कोई शिकायत न होगी... :) :) :) !!!   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२६ फरवरी २०१७

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५५ : “शिवजी ब्याहने चले... आओ हम भी बाराती बने...!!!”

साथियों... नमस्कार...


यूँ तो हर महीने ही ‘शिव-रात्रि’ आती लेकिन ‘महा-शिवरात्रि’ तो बरस में सिर्फ एक बार ही आती जिसका इंतजार हर शिव भक्त को रहता कि वो ऐसे औघड़-दानी जो कभी किसी की मन की मुराद अस्वीकार नहीं करते तभी तो उन्हें ‘भोलेनाथ’ भी कहा गया कि वे तो असुरों के तप करने पर उनको भी मनचाहा वरदान दे देते और कोई भी मुश्किल घड़ी हो या किसी दानव का आतंक बढ़ जाये तो फिर सारे देवता उनकी शरण आते तब वे पल भर में उनको हर तरह की परेशानियों से मुक्त करते इसलिये एक नाम उनका देवों के देव ‘महादेव’ भी पड़ गया और समुद्र मंथन के दौरान जब गरल निकला तो समस्त सृष्टि को बचाने उन्होंने उस कालकूट विष का पान कर किया जिससे सबने उसे ‘नीलकंठ’ का नाम दिया और इसी तरह जन स्वर्ग से गंगा को लाने का भागीरथ जी ने निश्चय किया तो उस वक़्त भी शिव ने ही आगे आकर उन्हें शीश पर धारण किया जिससे ‘गंगाधर’ उनका नाम पड़ा चूँकि वे अनादि काल से ही इस ब्रम्हांड में उपस्थित हैं व उनकी प्रेरणा से ही जगत निर्माण का कार्य किया गया तो उन्हें ‘परमपिता’ का नाम दिया गया जो इस जगत के पालक ही नहीं संहारक भी और जब दुनिया में पाप-अधर्म बढ़ जाता हैं तो वही अपने तीसरे नेत्र को खोलकर एक पल में उसका विनाश भी कर देते हैं याने कि सृष्टिपलक से संहारकर्ता भी बन जाते जो यह दर्शाता कि एक पिता अपनी संतान से यदि निःस्वार्थ प्रेम करता हैं तो उसकी गलतियों पर उसे सज़ा भी दे सकता हैं तो हमें अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिये वरना उनकी एक दृष्टि मात्र से सब ख़ाक हो जायेगा तब हमारे पास न तो पछताने और न ही विलाप करने का समय होगा तो हम उनको महज़ ‘भगवान’ न समझकर उनके नाम एवं स्वरुप में छिपे प्रतीकों को समझने का प्रयास भी करें...

‘शिवजी’ को कल्याणकारी सिर्फ इसलिये नहीं कहा गया कि वे परम शक्तिशाली और सदैव सबका हित चाहते बल्कि उन्होंने कुदरत की बनाई हर उस शय को अपने निज निवास ‘कैलाश’ में स्थान दिया जिन्हें कि अक्सर हम हेय दृष्टि से देखते चाहे फिर वो नन्ही चींटी हो या विषैला सांप या फिर उनका वाहन नंदी या वे भूत-प्रेत, निशाचर भी जिनका उल्लेख ग्रंथों में किया गया, उन्होंने सबको ही अपने हृदय में जगह दी यहाँ तक कि एक दूसरे के परस्पर विरोधी मूषक-नाग-मोर-बैल-सिंह सब एक साथ एक-जगह पर बिना विरोध के रहते जो हम सबको यह सन्देश देने का प्रयास हैं कि जिस तरह ये जानवर अपने मन के बैर-भाव को भूलकर बिना लड़ाई-झगड़े के एक साथ रह सकते तो हम इंसान जो कि परम ज्ञानी व बुद्धिमान होने का दावा करते फिर भी हम इन सबसे से ये प्रेरणा लेने की बजाय सब कुछ जानते-बूझते भी जात-पांत, उंच-नीच जैसे तुच्छ विषयों को लेकर लड़ते रहते वो भी उस भगवान के नाम पर जिसने हमको बनाया और हमारी नासमझी का भाव तो ये भी हमने उनकी बनाई दुनिया में अनेक ‘भगवान’ ही बना डाले पर, उसके बाद भी सबकी डोर उसके ही हाथ में जब चाहे जिसकी या सबकी एक साथ खींच ले क्योंकि जिस तरह से अब चारों तरफ अमानवीयता के दृश्य बढ़ते जा रहे निसंदेह वो कभी भी अपनी तीसरी आँख खोल सकते हैं तो इस रात्रि को हम इस पर भी विचार करे कि कहीं ये ‘कालरात्रि’ न बन जाये...

‘महेश्वर’ का अपना परिवार भी हैं जहाँ जगतमाता ‘पार्वती’ और उनके दो प्यारे-प्यारे बालक ‘कार्तिकेय-गणेश’ भी उनके साथ रहते और इस तरह उनके जीवन से हमें केवल मिल-जुलकर रहने का सबक ही नहीं मिलता बल्कि अपने परिजनों का ध्यान रखने का ज्ञान भी मिलता क्योंकि ‘शिव-पार्वती’ का अटूट प्रेम दाम्पत्य जीवन की आधारशिला जहाँ ‘शिव’ ने ‘पार्वती’ को सही मायनों में अपनी अर्धांगिनी मानते हुये अपना अर्धासन दिया और दोनों इस तरह से एकाकार हुये कि ‘अर्धनारीश्वर’ की कल्पना को साकार किया जहाँ उन्होंने ये साबित किया कि एक सफल वैवाहिक जीवन के लिये पति-पत्नी दोनों का एक-बराबर होना निहायत जरुरी जो केवल ‘अर्धांग-अर्धांगिनी’ कहने मात्र से हासिल नहीं होता बल्कि इसके लिये दोनों को इस तरह एक-दूसरे को अपने जीवन में जगह देनी पड़ती कि अपनी देह के आधे हिस्से की तरह से उसके साथ व्यवहार करना पड़ता जो उन दोनों के इस स्वरुप से पता चलता और उनका अटूट संबंध इतना गहन कि ‘सती’ रूप में वे अपने जीवनसाथी की उपेक्षा बर्दाश्त न कर पाई तो अपनी उस देह का त्याग कर दिया लेकिन पुनः ‘पार्वती’ के रूप में जनम लेकर उनको ही पाने कठिन तपस्या प्रारंभ कर दी जिसकी वजह से ‘शिवजी’ ने आज रात को ही उनसे फिर एक बार विवाह किया और ऐसा कि कोई उन्हें फिर जुदा न कर सके तो उन्होंने उनको अपनी देह में ही बसा लिया जो प्रत्येक दंपति को परिणय के वास्तविक अर्थ से परिचित करवाता तो आज की इस पावन रात्रि के इन मायनों को समझने का भी प्रयास करें और अपने जीवन को उसी तरह से खुशहाल बना ले क्योंकि उन्होंने धरती रहने को ही बनाई मिटाने नहीं तो हम क्यों नहीं उसकी उस खुबसूरत दुनिया को कायम रखने कोशिश करें...     

‘महाशिवरात्रि’ को एक नये दृष्टिकोण से देखने का ये छोटा-सा प्रयास आपका जीवन बदल सकता कि ये केवल ‘शिव-पार्वती विवाह’ की परम-पावन बेला नहीं बल्कि उसमें निहित गुढ़ार्थों को एक अलग नजरिये से देखने की भी शुभ-रात्रि हैं तो आये हम उनके विभिन्न नामों, उनके अर्थ और उनके परिवार में सम्मिलत प्रत्येक जीव के होने के दर्शन के साथ-साथ उनके और पार्वती के ‘अर्धनारीश्वर’ स्वरूप व उनके अपनी संतान के प्रति पालक वाला स्नेह की गहनता को अपनी भ्रकुटी में स्थित सुप्त तृतीय नेत्र के माध्यम से देखने का प्रयास करें यही इस ‘महाशिवरात्रि’ की सार्थकता होगी... सबको इसी आशा के साथ मंगलमय शुभकामनायें कि वे आज की रात को व्यर्थ न जाने देंगे... अपने अंतर में छिपी उस दिव्य रौशनी रूपी आत्मा को महसूस करेंगे... :) :) :) !!!      
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२४ फरवरी २०१७

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५४ : एक अभिशप्त अप्सरा... ‘मधुबाला’... !!!

साथियों... नमस्कार...


किस्सों-कहानियों में परी, अप्सरा, हूर के बारे में पढ़ते-सुनते हैं लेकिन उनको देखा किसी ने भी नहीं पर, जब ‘मधुबाला’ को रजत परदे पर देखा तो लगा कि शब्दों से बुनी वो अद्भुत  कल्पना साकार होकर हमारे सामने आ गयी शायद, यही वजह कि सबने उसे सौंदर्य की मिसाल बनाकर रख दिया गया और निर्देशकों में भी हर कोण से उसकी बाहरी सुंदरता को दिखाने की होड़ मच गयी जिसका नतीजा ये हुआ कि कोई भी उसके भीतर न झाँक सका और उसके भीतर पलता नाज़ुक दिल अपनी ख्वाहिशों को मार-मार लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करते-करते ये भूल गया कि वो भी तो हाड-मांस का बना उस शरीर का एक अंग मात्र हैं कोई अदाकारा नहीं जो कैमरा ऑन होते ही अपनी अंदरूनी तकलीफों को छिपकर कृत्रिम मेकअप लगे चेहरे पर, होंठों को विशेष अदा से तिरछा कर मनमोहक मुस्कान बिखेर अभिनय करने लगे उसकी इस छोटी-सी भूल का खामियाज़ा सिर्फ उसे ही नहीं उस जिस्म को भी उठाना पड़ा और उस तकलीफ़ का अंशतः प्रभाव हम पर पड़ा कि एक दिल की वजह से ही ‘मधुबाला’ को असमय इस दुनिया से कूच करना पड़ा...

वो भी एक ऐसी उमर में जबकि जिंदगी की सही मायनों में शुरुआत होती क्योंकि इसके पहले तो कब बचपन की जगह जवानी ले लेती पता ही नहीं चलता और जब यौवन पर, संजीदगी की परत चढ़ती और आँखों पर पड़ा रूमानियत का चश्मा भी उतरता जिससे कि रंगीन दुनिया के भ्रामक रंग उतरने लगते जिससे कि उसके नीचे दबी बदसूरती भी दिखाई देने लगती तो वय के ऐसे सबसे सहज-सरल मोड़ पर आकर उसका कोमल दिल हांफने लगा जबकि इसके पहले वो जीवन में आने वाले सभी खतरनाक मोड़ो को झेल गया या शायद उस झेलने के चक्कर में उसने अपनी सारी ऊर्जा ही गंवा दी तो जब जरूरत पड़ी उसके पास संचित धडकनों का कोई खज़ाना न शेष था ऐसे में कमबख्त दिल की वजह से इस अभिशप्त सौंदर्य मलिका को महज़ ३६ बरस की कमउम्र में आज ही के दिन हमसे जुदा होना पड़ा और हम भी आज उसे केवल उसकी उस अद्भुत अलौकिक सुंदरता को ही याद करते या उसके चित्रों में उसकी मनमोहक मुस्कान को ही देखते जिसमें छिपे दर्द की छाया को तो कोई भी न देख सका वो भी नहीं जिन्होंने उसे जनम दिया...

यदि ऐसा होता तो उसे बचपन से ही पूरे घर की जिम्मेदारी सँभालने की खातिर अपने से भी भी बड़ी उम्र के नायकों की नायिका बनाकर सिने जगत की जगमगाती मगर, निष्ठुर दुनिया में न भेज दिया होता और जो भेज ही दिया था तो उसके मन के जज्बातों को भी समझने की कोशिश की होती न कि केवल अपनी रोजी-रोटी का जरिया माना होता तो शायद, ऐसी स्थिति में न केवल उसके जीवन की लंबाई थोड़ी बढ़ जाती बल्कि उसके मन की साध पूरी होने से उसे जीने के लिये जो सबसे जरूरी थी वो सांसें मिल जाती क्योंकि मियाद सिर्फ़ जीवन की नहीं अभिशाप की भी होती जिसे पूरा करने ही वो आई थी तो साँसों से पहले वही खत्म हो गयी तो जो भी सपने उसने देखे थे उसे अपने साथ ही लेकर चली गयी एक दर्द देकर उन सबको भी जिन्होंने उसकी कदर नहीं की अब तड़फते हैं कि काश.... लेकिन, एक मौत ही तो हैं जिसके उपर किसी इल्तिजा, किसी तकलीफ और किसी पुकार का कोई असर नहीं होता अफ़सोस कि न तो उसके आने की कोई खबर होती. न ही जाने का ही पता होता वो तो बस, एक झटके में आकर यूँ गुजरती कि सामने वाले को भी समझने में थोड़ी देर लग जाती यदि ऐसा न होता तो क्या उसके प्यार को ठुकराने की कोई गलती करता पर, अब तो यही यादें व बातें ही शेष रह गयी जिनके सहारे वीनस ‘मधुबाला’ को याद करना हैं... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२३ फरवरी २०१७

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५२ : “आज़ादी में पंछी गाता... रुखा-सूखा भी भाता...!!!”

साथियों... नमस्कार...


आज़ादी का मतलब केवल स्वच्छन्दता नहीं होता जो कि आजकल के लोग समझते बल्कि इसका तात्पर्य केवल इतना हैं कि कोई बंधन न हो फिर भी एक अहसास हो कि किसी की चाहत में हम बंधे और अपने जीवन में पर अपना अधिकार तो हो लेकिन उसके मायने किसे दूसरे के लिये हो सिर्फ अपने लिये जीना हद्द दर्जे की खुदगर्जी कहलाती जो जानवर भी पसंद नहीं करते पर, इसका मतलब नहीं कि हम उन्हें कैद में रखें उनकी अपनी दुनिया में वो हर तरह से मस्त रहते फिर भले दाना-पानी के लिये कितनी भी मशक्कत करनी पड़े कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन पिंजरे में बिना मेहनत के मिलने वाला स्वादिष्ट भोजन भी रस नहीं आता कि उस पर पहरा होता और हर जीव नजरबंदी से कतराता कि वो अपनी मर्जी से जीना चाहता परंतु फिर भी कहीं ये ख्वाहिश होती कि कोई हो जो उसके हर-कदम हर एक गतिविधि को नोटिस करे क्योंकि उसकी रचना ही ऐसी कि अकेलापन नहीं भाता और बेड़ियों में भी कसमसाता दरअसल वो चाहता कि स्नेह की ड़ोर हो तो सही लेकिन ऐसी कि जिसमें वो खुद को कैदी न समझे याने कि वो ऐसी न हो कि एक झटके में ही टूट जाये पर, ऐसी भी न हो कि उसका कसाव दम घोंटने लगे ये एक अजब-सा फलसफा हैं आज़ादी का जहाँ पर, इंसान कैद में स्वतंत्रता को महसूस करना चाहता...

सिर्फ इन्सान नहीं उसकी भावनायें भी सांस लेना चाहती खुली हवा में उसके सपने, उसके अरमान भी उड़ना चाहते खुले आकाश में कि जीने की ललक उनके भीतर भी होती तो उन्हें दबाकर न रखे उड़ने दे... :): ) :) !!!       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२२ फरवरी २०१७

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५१ : हर काम में अपनी भाषा अपनाओ... ‘मातृभाषा दिवस’ को यूँ सार्थक बनाओ...!!!

साथियों... नमस्कार...


२१ फरवरी एक ऐतिहासिक दिन हैं क्योंकि इस दिन ही ‘ढाका’ में लोग ‘बंगला भाषा’ की स्वीकृति के लिए सड़कों पर उतर आये थे जिसकी वजह यह थी कि जैसा कि हम सब जानते हैं कि हर काल में शासक वर्ग की भाषा ही शिक्षा और राजकाज का माध्यम रही है जैसे कि  मुस्लिम दौर में अरबी-फारसी शिक्षा का माध्यम रही थी तो फिरंगियों के जमाने में अंग्रेजी का बोलबाला रहा तो ऐसी स्थिति इस बात की आवश्यकता महसूस की गयी कि विशेष तरह की शिक्षा या ज्ञान के लिये तो ‘अंग्रेजी’ को अपनाया जाये लेकिन एक आम हिन्दुस्तानी को आधुनिक शिक्षा उसकी अपनी ज़बान में ही दी जाये ताकि वो उसे अच्छी तरह से समझ सके  उसी वक्त ‘मदर टंग’ जैसे शब्द का अनुवाद ‘मातृभाषा’ सामने आया जो कि ‘बांग्ला शब्द’ है और उस दौर के सभी समाज सुधारक यही चाहते थे कि आम आदमी को मातृभाषा (बांग्ला भाषा) में आधुनिक शिक्षा दी जाये तो इस तरह दुनिया में भाषाई स्वीकृति के लिए पहला आन्दोलन हुआ जिसमें गोलीबारी भी हुई जिसकी वजह से कई प्रदर्शनकारी शहीद भी हुए तब ‘यूनेस्को’ महासभा ने नवम्बर 1999 में दुनियां की तमाम भाषाओँ के संरक्षण और संवर्धन की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए वर्ष 2000 से प्रतिवर्ष 21 फरवरी को ‘अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ मनाने का निश्चय किया जो कहीं न कहीं संकट में हैं और इस महासभा में विश्व की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता के संरक्षण और संवर्धन हेतु विश्व स्तर पर प्रयास किये जाने का प्रस्ताव रखा गया

इस तरह २१ फरवरी को ‘मातृभाषा दिवस’ मनाया जाने लगा जिसका उद्देश्य यह था कि संपूर्ण विश्व की सभी भाषाओ को सम्मान मिले और ख़ासतौर पर उसे जो एक बच्चा पैदाइश के बाद अपनी माँ से सीखता जिसे हम ‘मातृभाषा’ कहते जो एक देश में रहते हुये भी प्रांत या क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण सबकी अलग हो सकती इस मामले में भारत सबसे आगे जहाँ सबसे ज्यादा भाषायें बोली व समझी जाती क्योंकि ये एक ऐसा विशाल लोकतांत्रिक देश हैं जिसने कभी किसी भी देश या जुबान की वजह से किसी को भी अपने यहाँ शरण देने से गुरेज नहीं किया अतः इस मामले में हम काफी समृद्धशाली और यदि इस पक्ष को नजरंदाज कर दे कि इस भाषाई भिन्नता के कारण हम सबको कुछ दिक्कतों का भी सामना करना पड़ता फिर भी ये हमारे लिये अत्यंत गौरव का विषय कि हम उस देश के वासी हैं जहां थोड़ी-सी दूरी से ही जुबान और जल के स्वाद में फरक आ जाता हैं तो हमारे लिये तो ये दिन बड़ा ख़ुशी का हैं कि एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1652 मातृभाषायें प्रचलन में हैं, जबकि संविधान द्वारा 22 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता प्रदान की गयी है एवं भारत में इन 22 भाषाओं को बोलने वाले लोगों की कुल संख्या लगभग 90% है तथा कुल मिलाकर भारत में इनमें से 58 भाषाओं में स्कूलों में पढ़ायी की जाती है इस तरह से देखा जाये तो हम भाषाओँ के मामले में अन्य देशों से आगे हैं ।

इसकी सार्थकता तभी हैं जब हम इस इसकी वास्तविकता को समझे और इसे अपने देश की प्रगति के उपयोग में लाये क्योंकि यदि हम गहराई से सोचे तो पायेंगे कि दुनिया के कई विकसित और विकासशील देश सफ़लता की ऊँचाइयों को छू रहे हैं तो इसकी वजह उनका अपनी मातृभाषा में काम करना हैं जिसका सबसे बेहतरीन उदहारण जापानहै जो कि वैश्विक बाज़ार में एक आर्थिक और औद्योगिक शक्ति है और इस मुकाम तक वह सिर्फ और सिर्फ अपनी मतृभाषा की बदौलत ही पहुंचा है इसी तरह चीनभी विश्‍व पटल पर एक महाशक्ति बन कर उभरा है तो इसमें भी उसकी मातृभाषा मंदारिनका अहम योगदान है तो हमें भी अपनी भाषा हिंदीको वही स्थान दिलवाना चाहिये कि अन्तर्राष्ट्रीय मानचित्र पर उसे नकारा नहीं जा सके और इस तकनीकी युग में तो ये और भी आसान क्योंकि सामान्य काम से लेकर इंटरनेट तक के क्षेत्र इसका प्रयोग बख़ूबी हो रहा है तथा भूमण्डलीकरण के इस दौड़ में जबकि देशों की भौगोलिक दूरियां मिटती जा रही है यह ज़रूरी है कि हम अपनी कमियों को समझें और अपनी भाषा को वही मान-सम्मान दिलाये जो दूसरे देशों में उनकी भाषा को प्राप्त हैं तब इस दिन की सार्थकता सिद्ध होगी क्योंकि मातृभाषा में काम करने से प्राप्त सहूलियतें हमारे विकास की रफ्तार को बढ़ायेंगी तो हमें इस तरह के प्रयत्न करने हैं कि हम इसी भाषा के दम पर विश्व गुरु बने न कि विदेशी भाषाओँ की नकल कर अपनी भाषा भी बिगाड़ ले जबकि दूसरे देशो पर नजर डाले तो पायेंगे कि वे अपनी भाषा में किसी दूसरी को दखल देने नहीं देते और हम सबको अपनाने के चक्कर में कहीं के नहीं रहते तो अपनी भाषा का अपना हथियार बनाओ... मातृभाषाको हर काम में अपनाओ... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२१ फरवरी २०१७

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५० : लघुकथा : “सेम पिंच” !!!

साथियों... नमस्कार...


बचपन से साथ पली-बढ़ी और पढ़ी-लिखी भी वो दोनों सहेलियां तो एक-दूसरे को खुद से ज्यादा जानना स्वाभाविक भी था इसलिये अक्सर उनकी पसंद मिलती थी लेकिन अपनी समझ का इम्तिहान लेने वो एक-दूजे से छिपकर कभी बाज़ार या कहीं भी जाती तो वहां से लाई अपनी पसंद जब सामने रखती तब भी दोनों के मुंह से सहज ही ‘सेम पिंच’ निकल जाता इसे यूँ कहे कि यदि एक सूरत तो दूसरी आईने में उभरी उसकी हूबहू प्रतिकृति थी

एक ऐसी ही आज़माइश करने जब ‘अनिका’ ने ‘शैफाली’ को अपने घर बुलाकर उस शख्स से मिलाया जिससे उसके पापा उसका रिश्ता तय करने जा रहे थे तो उसकी जुबां पर आया ‘सेम पिंच’ उसे ही कचोटने लगा कि इस सूरत को पहली बार देखकर ही वो उसे अपने मन में बसा चुकी थी... लेकिन, नहीं जानती थी वो कि साथ रहने से कभी-कभी तकदीरों की लकीरों में लिखा नाम भी एक हो जाता हैं और उस वक्त ‘सेम पिंच’ खुद को ही पिंच करने लगता हैं       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२० फरवरी २०१७

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

सुर -२०१७-४९ : हिंदुओ के सर का ताज़... ‘छत्रपति शिवाजी महाराज’ !!!

साथियों... नमस्कार...


भारत देश सदा से यहाँ पर बाहर से आने वाले आगंतुकों को ललचता रहा क्योंकि यहाँ कि भूमि और लोग धन-धान्य ही नहीं चारित्रिक गुणों से भी भी भरपूर थे ऐसे में जो भी एक बार यहाँ आता वो इस पर कब्जा जमाना चाहता जिसमें कई लोग काम्याब भी हो जाते लेकिन सिर्फ कुछ समय के लिये ही कि यहाँ के बाशिंदे अधिक समय तक किसी के नियंत्रण में नहीं रह सकते अतः विद्रोह का बिगुल बजकर ही रहता जिसका बीड़ा उठाने कोई न कोई शूरवीर आगे बढ़ता जिसके पीछे वीरों का कारवां खुद-ब-खुद आकर खड़ा हो जाता कुछ ऐसा ही हुआ था आज से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व जब १५२६ में तैमूरी राजवंश का राजकुमार ‘बाबर’ उस वक़्त दिल्ली के सुल्तान ‘इब्राहिम शाह लोदी’ को ‘पानीपत के पहले युद्ध’ में हराकर ‘सलतनत-ए-हिंद’ बना जिससे कि ‘मुग़ल साम्राज्य’ की नींव पड़ी और उनका शासन काल १५वीं शताब्दी से शुरू होकर १९वीं शताब्दी के मध्य तक चला और इस तरह उन्होंने हम पर लगभग ४०० साल शासन किया और उनके शासन काल में हिन्दुओं पर जब तरह-तरह के ज़ुल्म ढाये गये तो कई हिंदू राजा-महाराजाओं ने उसका विरोध किया जिसमें एक नाम आता हिंदू हृदय सम्राट ‘छत्रपति शिवाजी महाराज’ का भी आता हैं जिन्होंने ६ जून १६७४ में ‘मराठा साम्राज्य’ की स्थापना की और फ़ारसी भाषा की जगह ‘संस्कृत’ और ‘मराठी’ को राजकाज की भाषा बनाया...

शिवाजी ने अपने पराक्रम से जो कुछ भी हासिल किया या जिस तरह का साहस दिखाया वो सब उनकी माँ ‘जीजाबाई’ की दी गयी शिक्षाओं का परिणाम था क्योंकि वे अत्यंत प्रतिभाशाली महिला थी लेकिन उनके पति याने कि ‘शिवाजी’ के पिता ‘शाहजी भोंसले’ द्वारा उनकी माँ की उपेक्षा किये जाने पर उन्होंने अपनी संतान पर ही अपना पूरा ध्यान लगाया और बाल्यकाल से ही किताबी ज्ञान की जगह हर तरह की व्यावहारिक शिक्षा उसे स्वयं ही दी जिसके लिये उसे रामायण, महाभारत की कथाएं तो सुनाई ही साथ ही राजनीति व युद्ध कौशल में भी पारंगत किया और इसमें उनके गुरु ‘समर्थ रामदास’ का भी योगदान गिना जाता हैं जिन्होंने अपने शिष्य को इस तरह से हर तरह की परिस्थिति के अनुसार तैयार किया कि वे एक धार्मिक व्यक्ति, कुशल रणनीतिकार, जाबांज योद्धा और एक हर दिल अजीज सम्राट भी बने याने कि उनका सर्वांगीण विकास किया गया जिसमें नैतिक पक्ष पर अधिक जोर दिया गया साथ ही मानवीय पहलू को भी नजरअंदाज़ नहीं किया गया शायद, तभी वो कम उम्र से ही अधिक तार्किक निर्णय ले पाते थे जैसा कि उनके किस्सों से पता चलता हैं...

जब वे केवल १४ वर्ष के थे तो उनके सामने एक ऐसा मसला आया जिसमें कि किसी गाँव के मुखिया पर, जो कि बड़ी-घनी मूछों वाला बड़ा ही रसूखदार व्यक्ति था, एक विधवा की इज्जत लूटने का आरोप साबित हो चुका था तो ऐसे में उन्होंने निर्णय लेने में एक पल की भी देरी नहीं की  और तत्काल बोले कि “इसके दोनों हाथ और पैर काट दो, ऐसे जघन्य अपराध के लिए इससे कम कोई सजा नहीं हो सकती जबकि आज स्वतंत्र भारत में भी कोई भी न्यायाधीश ये साहस नहीं दिखा पाता कि एक दुराचारी को इतना कठोर दंड दे सके लेकिन वो महिलाओं का बेहद सम्मान करते थे और इंसानियत के ये गुण उनकी माँ ने उनको दिये थे तो वे उस नजरिये से भी मामलों को परखने की दृष्टि रखते थे इसलिये सामने कोई भी हो उनका फैसला हमेशा सटीक ही करते जिसने उनको एक न्यायप्रिय राजा का दर्जा भी दिलवाया तो उनके स्वाभिमान ने उनको अपने आप पर गर्व करना सिखलाया शायद तभी जब एक बार उनके पिता उनको बीजापुर के सुलतान के दरबार में ले गये तो उन्होंने तीन बार झुककर सुलतान को सलाम किया और शिवाजी से भी ऐसा ही करने को कहा लेकिन वे तो शेर की तरह निडर व बहादुर थे तो अपना सर ऊपर उठाये सीधे खड़े रहे पर, विदेशी शासक के सामने किसी भी कीमत पर सर झुकाने को तैयार नहीं हुये...

‘शिवाजी’ के जीवन में बचपन से लेकर अंतकाल तक कई कहानियां हैं जो उनकी अलग-अलग चारित्रिक विशेषताओं को उजागर करती कि किस तरह उनकी माँ ने उनके भीतर एक-एक गुण भरा था जिसने उनको एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व में तब्दील कर दिया जिसमें ढूंढने पर भी कोई कमी नजर नहीं आती वो भी उस दौर में जबकि मुगलों ने हम पर तरह-तरह के अत्याचार, अन्याय किये उन्होंने उनकी स्त्रियों के साथ उतनी क्रूरता नहीं दिखाई तब भी जब वे उनके कब्जे में थे और उनकी ये कहानी मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं कि जब उनके सिपाही मुगलों की किसी अत्यंत रूपवती स्त्री को उनके सम्मुख लाये तो उन्होंने उसे देखकर उसके सौन्दर्य की तारीफ करते हुये कहा कि “काश, मेरी माँ भी इतनी खुबसूरत होती तो आज मैं भी इतना ही सुंदर होता” और इस तरह उन्होंने उसके भीतर भी औरत के ममतामयी रूप का दर्शन किया जबकि मुगलों ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी ऐसे वीर, साहसी हिंदुओ की आन-बान-शान शिवाजी महान को आज उनकी जयंती पर हम सब करते सलाम... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१९ फरवरी २०१७