बुधवार, 31 मई 2017

सुर-२०१७-१५१ : 'अंतराष्ट्रीय धूम्रपान निषेध दिवस' कहता बचना तंबाखू होता ये जानलेवा...!!!


आज संपूर्ण विश्व में धूम्रपान से होने वाले खतरों को रोकने के लिये 'तंबाखू निषेध दिवस' मनाया जा रहा हैं और लगभग पिछले 40 वर्षों से इसे मनाया जा रहा हैं इसके बावजूद भी इसमें कमी होने की बजाय बढ़ोतरी ही दिखाई दे रही हैं क्योंकि अब केवल पुरुष मात्र ही नहीं महिलायें भी इसकी आदी होती जा रही हैं जिसकी वजह इसमें मौज़ूद नशा भी होता हैं जो व्यक्ति के मस्तिष्क ही नहीं सारे शरीर को इस तरह से अपने वश में कर लेता हैं उसका खुद पर, नियंत्रण नहीं रहता जिसे अक्सर वो तनावरहित होने का माध्यम समझकर जब भी कभी इस तरह के माहौल में घिरता तो इसका सहारा लेता हैं और धीरे-धीरे इसका अभ्यस्त होता जाता हैं परंतु, इस क्षणिक इंद्रिय सुख या अवचेतन की अवस्था को परेशानियों का हल समझना उसकी भूल साबित होता कि ये उसके अंग-प्रत्यंग को जकड़कर उसे रोगग्रस्त बना देता तब मजे में लिये जाने वाले कश की कश्मकश में उलझकर उसे अहसास होता कि वास्तव में वो एक शिकार की तरह मौत के बिछाये जाल में फंस चुका हैं । ऐसे में सिवाय पछताने और अंतिम घड़ी गिनने के कोई विकल्प शेष नहीं रहता क्योंकि ये उसे किसी काबिल जो नहीं छोड़ता और अफ़सोस कि इसके ज्यादातर शिकार युवा होते जो फिल्म व तस्वीरों में नायक और मॉडल को सिगरेट के साथ स्टाइल मारते पोज़ देते दिखाई देते तो इस ग्लैमर से प्रभावित होकर वो अनजाने में पहले-पहल केवल शौक में इसका सेवन करता जिसका उसे पता तब चलता जब उसे उसकी लत लग जाती और वो इसके बिना खुद को कमजोर व असहाय समझता तब तक स्थिति काबू से बाहर हो जाती यही कारण कि इसके कारण मरने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा इसलिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस दिवस को मनाने का निर्णय लिया ।

इसे कारगर तरीके से क्रियान्वित करने के लिए प्रतिवर्ष अलग-अलग थीम पर इसका आयोजन किया जाता और इस साल का नारा हैं "विकास में बाधक तंबाखू उत्पाद" जिससे कि लोगों को ये बताकर कि इसका उपयोग करने वाला सफ़लता नहीं पाता इसके प्रति जागरूक बनाया जा सके । इसके अतिरिक्त अनेक कानून या नियम भी बनाये जाते परंतु उसके बाद भी इस देश में बड़े अजीब-गरीब नजारे देखने में आते जैसे कि...

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पीते लोग
बीड़ी-सिगरेट वहां
अक्सर,
धूम्रपान वर्जित
लिखा होता जहाँ
कि नियमों का उल्लंघन
देता असीम सुख
उड़ा माखोल व्यवस्था का
करते अट्टाहास
और जब खांसते-खांसते
पड़े होते एकाकी
किसी कोने में
जर्जर तन और बेबस मन लेकर
तब सुनाई देती कानों में
मौत की हंसी बन प्रतिध्वनि
दिलाती ये अहसास
कि कश-कश का वो मज़ा
आज बन गया सज़ा
कश्मकश में डोल रही साँस
लगने लगी गले की फ़ांस
धुंए में घुलकर जो होगी ख़ाक ।।
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हमारे यहाँ किसी भी कानून या नियम का पालन यदि उसी तरह से हो जैसे कि उसे बनाया गया तो वो प्रभावी भी हो लेकिन यहाँ तो बीड़ी-सिगरेट के पैकेट पर 'धूम्रपान सेहत के लिए हानिकारक, इससे कैंसर भी हो सकता हैं' जैसी चेतवानी लिखकर अपना फर्ज निभा दिया जाता जिसे बड़ी आसानी से नजरअंदाज़ कर के लोगों द्वारा इसे खरीदकर इसका सेवन किया जाता याने कि लोग खुद अपने हाथों से अपनी मौत खरीदते पर, उनको खबर ही नहीं वरना, इतने सालों से इस दिवस को मनाते-मनाते आज ये स्थिति होनी थी कि इसके मरीज नजर न आते ये पूर्णतया प्रतिबंधित होता पर, राजस्व की ख़ातिर सरकार भी केवल वैधानिक चेतवानी देकर अपने फर्ज से मुक्ति पा रही और उसे पढ़ने के बाद भी खरीदकर पीने वाले अपनी जर्जर देह से मुक्ति पा रहे ऐसे में इसकी सार्थकता स्वयमेव संदेह के घेरे में तो अब जिसको अपनी जान प्यारी वो खुद ही निर्णय ले कि उसे कश पर, कश लगा खांसते हुये मरना या पल-पल जीवन का आनंद लेना... इस सकारात्मक संदेश के साथ सबको इस दिन का यही पैग़ाम... :) :) :) !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३१ मई २०१७

मंगलवार, 30 मई 2017

सुर-२०१७-१५० : निर्भीक, निष्पक्ष पत्रकारों का पर्व... ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ !!!


सन १८२६ में देश के हालात किस तरह के रहे होंगे ये केवल वही समझ सकते जिन्होंने अपने देश का इतिहास अच्छी तरह से पढ़ा हो, ऐसे समय में किसी एक हिंदुस्तानी द्वारा ‘अख़बार’ का प्रकाशन करना कितना जोखिम भरा कार्य हो सकता हैं इसका अंदाजा भी वही लगा सकता जो उस दौर की विसंगतियों से भली-भांति परिचित होगा आज के लोगों को सब कुछ बड़ा सहज लगता कि महज़ ६८ साल की आज़ादी में वे उस वक़्त की विवशता और विपरीत परिस्थितियों को भूल गये जबकि जुबां खोलना या खुलकर अपना मत रखना या वर्तमान सरकार के खिलाफ़ किसी तरह की बात सोचने पर भी सख्त पाबंदी थी लेकिन ऐसे प्रतिकूल हालातों में भी चंद लोग जिन्हें अपनी मातृभूमि और स्वतंत्र विचारधारा की परवाह थी और जो देश के लोगों तक सच्चाई लाना चाहते थे उन्होंने अपनी जाल हथेली पर रखकर भी वो काम किया जो देश व समाज के हित में था क्योंकि वे जानते थे मौत तो आकर ही रहनी हैं बेहतर कि मरने से पहले अपने वतन के प्रति अपना फर्ज़ निभा देश की मिटटी का कर्ज चूका दे फिर मरने का गम न रहेगा । इसी वजह से उन्होंने फिरंगियों की परवाह किये बिना अपने हक़ की लड़ाई लड़ी और वो सब कुछ किया जिससे उनको न सही लेकिन उनके हमवतनों को तो वो मिले जिसके लिये वे अपनी जिंदगी को भी ठुकरा रहे तो ऐसी नेक सोच के साथ उस कालखंड के युगपुरुषों ने अपने स्तर पर अपनी तरह से ऐसे काम किये कि आज भी उनका गुणगान किया जा रहा जिसका मूल्यांकन ए.सी. रूम में आराम से बैठकर नहीं किया जा सकता कि कड़कती धूप का मज़ा ये ठंडी हवा में पलने वाली कोमल कलियाँ क्या जाने जो छाँव में भी कुम्हला जाती इसके लिये तो सख्तियों के उस तंग माहौल से गुजरना होगा जहाँ सांस लेना भी गुनाह समझा जाता हो फिर भी उन लोगों ने इस तरह की परिस्थितियों में ही जीने की ठानी ताकि सारे जुल्मों-सितम और प्रहार झेलकर भी उनकी भावी पीढियां परतंत्रता की बेड़ियों से आज़ाद हो और उनकी तरह ‘गुलाम’ न कहलाये जिसका परिणाम यदि वे देख ले तो अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करें

खैर... इस तरह की बातों से भी आज के लोगों को उल्टी आती कि वे तो ये मानकर चलते कि जो उनके पूर्वजों ने किया वो उनका फर्ज़ था कोई अहसान नहीं और उन्हें आज़ाद भारत में जन्म मिला ये उनकी खुशकिस्मती जिसके लिये उन्हें उलाहने देना फ़िज़ूल तो इस बात को छोड़कर चलते ३० मई १८२६ में जहाँ ‘पंडित युगुल किशोर’ ने कलकत्ता से ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से हिंदी का प्रथम अख़बार की ५०० प्रतियाँ छापकर ‘हिंदी पत्रकारिता’ का श्री गणेश किया क्योंकि उससे पूर्व अंग्रेजी, बांग्ला, फारसी में तो समाचार-पत्रों का प्रकाशन हो रहा था लेकिन ‘हिंदी’ ही इससे अछूती थी तो इसे निकालने का श्रेय जाता हैं ‘पंडित युगुल किशोर जी’ को जिन्होंने इस विचार को मूर्त रूप दिया वो भी उस जगह से जहाँ हिंदी भाषी कम संख्या में थे उस पर अंग्रेजों की सरकार तो यही वजह रही कि हिंदी बोलने-समझने वाली जनता तक इसे डाक से भेजने के खर्च को लंबे समय तक वहन न कर पाने की स्थिति में बहुत जल्द ४ दिसंबर १८२६ को इसे पूर्ण रूप से बंद कर दिया गया लेकिन फिर भी इसने राह तो दिखा दी कि यदि पर्याप्त धन व्यवस्था हो तो इस तरह से न केवल हिंदी अख़बार निकाल जा सकता हैं बल्कि उसे जारी भी रखा जा सकता हैं तो कालांतर में इससे प्रेरणा लेकर १० मई १८२९ को ‘राजा राम मोहन राय’ ने ‘बंगदूत’ नाम से चार भाषाओँ हिंदी, अंग्रेजी, बंगला, फारसी में समाचार-पत्र निकाला जो कि पूर्व की तरह अधिक समय तक नहीं चला परंतु १९०० का वर्ष क्रांतिकारी रहा जब ‘चिंतामणि घोष बाबू’ ने ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन किया जिसने हिंदी पत्रकारिता को चरम पर पहुंचा दिया और इस तरह मार्ग में आने वाली सभी तरह की बाधाओं को पार कर्त्र हुये हिंदी पत्रकारिता ने अपनी जगह बनाई और आज़ादी मिलते-मिलते तक जो गति पकड़ी तो फिर रुकने का नाम न लिया अभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, क्रांतिवीर, स्वदेश, कल्याण, बुन्देलखण्ड केसरी, विप्लव, अलंकार, चाँद, हंस, प्रताप, सैनिक, आदि पत्र-पत्रिकाओं ने अंग्रेज सरकार को हिला दिया जिसके लिये संपादकों को कारावास तक भुगतना पड़ा लेकिन वे बेख़ौफ़ होकर निडरता से अपनी बात रखते रहे जिसके कारण उनको आज भी सम्मान से याद किया जाता हैं

उतने कठिन दौर में तो फिर भी जैसे-तैसे कई अख़बारों का प्रकाशन होता रहा लेकिन आज तकनीकी युग में कागज़ी अख़बार टी.वी., मोबाइल और कंप्यूटर जैसे यंत्रों से मुकाबला नहीं कर पा रहा क्योंकि आजकल लोग अख़बार पढने की जगह मोबाइल या कंप्यूटर पर ही समाचार पढ़ते और देखते तकनीक के साथ कदमताल करते लगभग सभी प्रमुख अख़बारों के ई-पेपर भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं उसके बावजूद भी कहीं न कहीं पन्नों पर छपने वाली खबरों से भी लोगों का जो थोड़ा-बहुत नाता बना हुआ वो उम्मीद दिलाता कि ये एकदम से बंद होने वाला नहीं और यदि कागज़ की कमी को देखते हुये ऐसा कभी हुआ भी तो उनके इलेक्ट्रोनिक संस्करणों से उनको जीवन दान मिलता रहेगा फिर भी जो खुशबू अख़बार के पन्नों से आती उसे यंत्रों के स्क्रीन पर महसूस नहीं किया जायेगा इसे तो केवल वही बता पायेगा जिसने उसका स्वाद लिया आज के कंप्यूटर व इंटरनेट से टक्कर लेने वाले अख़बारों को सुचारू रूप से चलाने वाले सभी समाचार-पत्र और उसके प्रकाशक बधाई के पात्र हैं जो अपनी उपस्थिति से महकते अहसास और अपनी अनुपस्थिति से चिड़चिड़ाने वाले भाव को पाठकों के मन में अब भी जीवित रखे हुये हैं जो भले ही कम लेकिन जीवंतता देने काफी हैं

उन सभी निडर, निष्पक्ष, बेबाक पत्रकारों को ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ की बहुत-बहुत बधाई जिन्होंने खबर पहुँचाने की खातिर अपनी जान तक गंवाई पर, जमाने को सच की रौशनी दिखाई... और वो जो आज भी हर खतरे को झेलकर हम तक हक़ीकत लाने का प्रयास कर रहे हैं.... :) :) :) !!!
                    
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३० मई २०१७

सोमवार, 29 मई 2017

सुर-२०१७-१४९ : लघुकथा : "बेचारे, शोषित लड़के" (आज का एक कड़वा सच) !!!


पुलिस थाने में सब परेशान थे एक अजीब प्रकरण जो आया था । एक जवान लड़का कह रहा था कि एक लड़की ने शादी का वादा कर दो साल तक मेरा यौन शोषण किया, मुझसे महंगे-महंगे गिफ्ट्स लिये और अब आज वो किसी दूसरे के साथ शादी करने जा रही हैं कृपया इस शादी को रोकने में मेरी मदद करो सब उसकी हंसी उड़ा रहे थे कि ये कैसे हो सकता ?

तब वो बोला, क्यों शोषण सिर्फ लड़के करते, लड़कियां नहीं करती क्या ? जब यही बात लड़की कहती तो आप मान लेते हो पर, हम लड़के बोले तो हंसी उड़ाते हो । जब एक लड़की हमारा फायदा उठाकर हमसे ज्यादा अमीर बंदे को पाकर हमें छोड़ देती हैं तो क्या हमाको तकलीफ नहीं होती या हमारा दिल नहीं टूटता तो ऐसे में क्या हमको शिकायत करने का हक़ नहीं ?

पुलिस अधिकारी बोला, हमें क्या पता तू सच बोल रहा या झूठ हो सकता उसे फंसा रहा हो तो वो तुरंत बोला, लड़की के मामले में तो आप ऐसा नहीं कहते आँख मूंदकर विश्वास करते फिर हमसे ऐसे प्रश्न क्यों ? आज लड़कियां किसी काम में लड़कों से पीछे नहीं तो इन क्षेत्र में भी अब वो हमको टक्कर देने आ गयी हैं और बुरी गत बना दी अपनी मोहक मुस्कान और अदाओं से हमें लूटकर पूरा कंगाल बना देती उस पर, शोषित भी वही कहलाती बेचारे हम तो बदनाम कि लफंगे होते तो हमको उसी की सजा भुगतनी पड़ती जबकि आजकल लड़कियां भी कम नहीं जहाँ फायदा देखती वहाँ अपना जाल बिछाती ।

पुलिस ऑफिसर बोला, ठीक हैं न इतने सालों तुम्हारे बड़े भाइयों ने उनके साथ गलत किया आज उनकी बारी आई तो वो भी वही कर रही उन्हें लगता मर्द जात ने उनकी कमजोरी का बहुत फायदा उठाया इसलिये अब वो उनका बदला ले रही हैं । मतलब आप कुछ नहीं करेंगे लड़का बोला तो थानेदार ने कहा, बेटा हम शिकायत लिख भी ले और उसके पास चले भी जाये लेकिन उसने पलटकर तुम पर ही बलात्कार का आरोप लगा दिया न तो कहीं के न रहोगे इसलिये चुपचाप जाओ और सोचो कि बच गये नहीं तो इसी थाने में कई बेकुसूर भी सजा भुगत रहे जिन्होंने कुछ नहीं किया पर, वो साबित न कर पाये क्योंकि लड़की का तो झूठ भी सच और आपके तो सुबूत भी झूठे इसलिये फिर कह रहा ईश्वर को धन्यवाद करो कि सस्ते छूट गये ।

इस हकीक़त को उसे स्वीकार करना पड़ा कि उसका दोस्त भी तो उसकी पत्नी द्वारा लगाये दहेज के झूठे इलज़ाम में सज़ा भुगत रहा जबकि पत्नी उसकी जायदाद पर ऐश कर रही याने कि अब वाकई लड़कियों के दिन फिर गये जिसकी मन्नत उन्होंने सदियों से मांगी थी पर, अफ़सोस कि अब भी शिकार बेकुसूर ही हो रहे और वो पलटकर चला गया ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ मई २०१७

रविवार, 28 मई 2017

सुर-२०१८-१४८ : 'आरक्षण... !!!'




सुबह-सुबह...
भ्रमण को जा रहे थे हम
तभी सड़क किनारे से किसी के
कराहने का स्वर उभरा
नजर उठाई तो देखा
कोई बेबस तोड़ रहा था दम
जाकर करीब उसके
मुंह पर पानी जो छिड़का
आँख खोल उसने हमको देखा
पूछा कि क्यों यहां इस तरह पड़ी हो ?
क्या नाम हैं तुम्हारा,
किसने हैं तुमको मारा ?
मुश्किल से जोर लगा
उसने ये कहा कि
नाम हैं मेरा 'योग्यता' और
'आरक्षण' नाम के गुंडे ने हैं
मुझको बेदर्दी से पीटा
लड़ते-लड़ते उससे
आखिर मैं पिछड़ गयी
होकर के बेदम यहां पर हूँ पड़ी
अब तुम बताओ तुम कौन हो ?
जिसने हैं मुझको बचाया
मुस्कुरा मैं ये बोली
नाम हैं मेरा 'आशा' जिस पर
ये धरती टिकी हुई हैं
भूखे पेट भी लोगों की
हिम्मत बनी हुई हैं
फल की न इच्छा कर दुनिया
काम में जुटी हुई हैं
तुम तो हो इतनी काबिल
फिर क्यों निराश हो रही हो ?
क्यों दूसरे की ख़ातिर
जान तुम अपनी दे रही हो ?
चलो उठो... खड़ी हो...
नई उम्मीदों के साथ कर्मरत हो
न यूँ होकर उदासीन
जीवन से मुंह मोड़ो तुम
मिलेगी तुम्हे सफलता
न यूँ हारकर तकलीफों से
दुनिया को तुम छोड़ों
पाकर साथ 'आशा' का
'योग्यता' फिर से जी उठी
होकर खड़ी वो अपने पैरों पर
हंसती-मुस्कुराती खिलखिलाती
पूर्ण आत्मविश्वास के साथ
'आशा' संग आगे बढ़ चली ।।
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२८ मई २०१७

शनिवार, 27 मई 2017

सुर-२०१७-१४७ : ‘मन’ असमंजस का झूला... ‘फ़ैसला’ पल-पल इधर-उधर डोला...!!!


अमूमन हम सबको ही कभी न कभी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता जबकि हम किसी एक निश्चित फैसले पर स्थिर नहीं हो पाते उस वक्त हम खुद को असमंजस के झूले पर पींगे मारता-सा महसूस करते हैं और हमारा ‘निर्णय’ उपर-नीचे होते झूले जैसा पल-पल बदलता रहता कभी तो एकदम से हम ख़ुशी से इतने हल्के हो जाते कि उड़कर आकाश छू लेते और कभी तो भीतर इतना बोझ महसूस करते कि एकदम आसमान से धरती पर आ जाते ऐसे में किसी ठौर भी ठहर नहीं पाते कि जो हम चाहते वो संभव नहीं होता इसलिये मनचाहा निर्णय लेने की आस में इतना समय व्यतीत कर देते लेकिन, कहीं ये अहसास भी होता कि यदि हमने अपने मन की कर ली तो इसकी वजह से कहीं आगे चलकर किसी अप्रिय परिस्थिति का सामना तो नहीं करना पड़ेगा क्योंकि हम कितने भी सुलझे या सकारात्मक दृष्टिकोण वाले क्यों न हो मगर, जीवन में कभी-न-कभी सबके साथ अनायास ही कुछ ऐसा घटित होता कि मन डांवाडोल हो जाता क्योंकि भले हमारा अपने आप पर कितना भी नियंत्रण हो पर, कुछ बातें या कुछ चीजें ऐसी हो जाती कि संयम की शिला भी अपनी जगह से डिग ही जाती

शायद, इसका कारण हमारी आंतरिक मनोदशा होती जो किसी ऐसे पल की बाट तो जोह रही होती लेकिन, अपने साथ होने वाली घटनाओं की वजह से वो इसे असंभव मान जो भी हुआ उसे ही अपनी किस्मत समझ हालात के साथ समझौता कर लेती परंतु जब हम उसे कमजोर मान लेते तब भावी प्रबल होकर हमारे सामने वो दृश्य उपस्थित कर देता जो हमने स्वप्न में कभी देखा या दिल ही दिल में जिसकी कल्पना की थी ऐसे में अंतर्द्वंद की हालत बिल्कुल झूले में बैठकर पींगें मारती देह की तरह होती जिसका स्वयं पर कोई वश नहीं होता वो तो खुद को झूले के हवाले कर उस अहसास को जीती लेकिन, भीतर कभी घबराहट तो कभी गुदगुदी होती रहती इसी तरह असमंजस की स्थितियों में भी फैसले के पलड़ा कभी ‘हाँ’ तो कभी ‘ना’ की तरफ डोलता रहता और सम पर आ नहीं पाता तो हम स्वयं ही किसी एक तरफ झुक जाते पर, अनिर्णय की स्थिति जस की तस बनी रहती क्योंकि हम जानते कि हमने वही चुना जो हम चाहते थे पर, वास्तव में जो होना चाहिये था दरअसल वो क्या था या क्या हो सकता तो फिर ‘मन’ को झूले में झूलता हुआ पाते और जब समाधान नहीं मिलता तो शांत होकर अपने आपको वर्तमान हालात के हाथों सौंप देते

जिनके लिये जीने का मतलब सिर्फ खुद की ख़ुशी होती उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो हर हाल में अपने मन की ख़ुशी का चयन करते पर, जो सबको साथ लेकर चलते या समाज की परवाह करते वे जरुर इस तरह की परिस्थिति आने पर बहुत परेशान हो जाते क्योंकि वे अपना कोई भी कदम अपने लिये न उठाकर अपने-से जुड़े रिश्तों और अपने आस-पास के परिवेश के अनुसार चलते तो चाहते हुये भी वो करने से डरते जिसके प्रति लालायित होते कि उनकी मनमानी करने से वो नींव दरक सकती जिस पर समूचा घर खड़ा हुआ हैं और यही वो लोग होते जिनके त्याग की वजह से परिवार कायम रहते रिश्ते फलते-फूलते भले उन्हें उनके इस समर्पण का प्रतिदान नहीं मिले पर, वे जानते कि उनके किरदार की कमजोरी नई पीढ़ी को गलत मार्ग दिखा सकती तो वे अपने बढ़े कदमों को मोड़ लेते उनको ये जीवन दर्शन हजम करने या समझने में परेशानी होती जिन्होंने जीवन का अर्थ सिर्फ़ अपने इर्द-गिर्द समेट रखा और जो अपनी किसी ख़ुशी को त्यागने को हरगिज़ तैयार नहीं होते चाहे जग रूठे या रिश्ते-नाते उनको तो बस, जो करना वो करना और जो चाहिये वो वो चाहिये ही और आज ऐसे लोगों की संख्या अधिक तो वो इस तरह की बातों को भावनात्मक बेवकूफी की संज्ञा देते पर, उन्हें नहीं पता कि उनके अस्तित्व को मजबूत बनाने में ऐसे ही बेवकूफों का बलिदान होता जो ‘मैं’ नहीं ‘हम’ पर विश्वास करते... आखिर अकेला ‘मैं’ कब तक टिकेगा ‘हम’ होंगे तो हर अहसास के मायने बदल जायेंगे... :) :) :) !!!      

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ मई २०१७

शुक्रवार, 26 मई 2017

सुर-२०१७-१४६ : ‘बलात्कारी’ !!!


ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब अख़बार की सुर्ख़ियों या न्यूज़ चैनल की हेड लाइन में दुष्कर्म या यौन शोषण की किसी घटना का उल्लेख न हो और अब तो इन्तेहाँ ये हो गयी कि शिकारी इस कृत्य को अंजाम देते वक़्त न तो ‘स्त्री‘ की जात, न उम्र और न ही उसकी अवस्था देखता भले ही समाज में वो इसी के आधार पर हर कार्य करता हो लेकिन, ऐसे समय वो केवल देह देखकर उस पर हमला करता क्योंकि उसका मकसद केवल अपनी देह की संतुष्टि होती ऐसे में ‘शिकार’ कोई भी हो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता जबकि उसके इस वहशीपन के बाद एक अच्छी-खासी, जीती-जागती, आने वाली जिंदगी के सपने सजाने वाली ‘लड़की’ महज़, पीड़िता बनाकर रह जाती जिसका तन-मन-आत्मा सब कुछ घायल होकर बेजान-सी हो जाती जबकि अमूमन उसके साथ ये घिनोनी हरकत करने वाला एक सामान्य जीवन गुज़ारता फिर भी ये तय हैं कि...       

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वो भले ही ज़िस्म को
लहू-लूहान और टुकड़े टुकड़े कर दे
पर, कभी भी रूह पे काबिज़ हो नहीं सकता ।

पहन ले कितने ही ताबीज़
बाँध ले हाथों में मन्नत के धागे
पर, वो कभी भी ख़ुदा का बंदा हो नहीं सकता ।

बचा ले ख़ुद को भले ही कानून से
हवालात की कालकोठरी और फांसी के फंदे से
पर, भगवान की बेआवाज़ लाठी की मार सह नहीं सकता ।

सोच ले भले कि स्वर्ग-नर्क किस्से हैं
हम तो अपनी जिंदगी अपने ही दम से जीते हैं
पर, दोजख़ की आग़ में जलने से बच नहीं सकता ।

ज़िस्म को समझता हो महज़ खिलौना
किसी की जान लेना बन सकती हैं, उसकी फ़ितरत
पर, अपनी जिंदगी की खैर किसी तरह मना नहीं सकता ।
•∙•∙•

ऐसे दरिंदे के लिये दुनिया में हर सज़ा कम हैं, मौत भी उसके गुनाह को धो नहीं सकती कि उसने सिर्फ एक लड़की नहीं अनंत संभावनाओं को पूरा होने से पहले ही मिटा दिया तो ऐसे लोगों को बद्दुआ दो या गालियाँ सब बेअसर हैं...
   
#बाराबंकी_रेप_कांड
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२६ मई २०१७

गुरुवार, 25 मई 2017

सुर-२०१७-१४५ : ‘वट सावित्री अमावस्या’ और ‘शनि जयंती’ के बहाने... धार्मिक आस्था के मर्म पर चोट करने वालों पर निशाने...!!!



आजकल लोगों को अपने देश और उसकी पुरातन परम्परों के साथ-साथ प्रत्येक रीति-रिवाज़ ही नहीं हर एक उस बात पर ऊँगली उठाने की आदत हो गयी हैं जिससे लोगों की अटूट आस्था जुडी हुई उस पर करेले जैसी आधुनिकता जब उच्च शिक्षा की नीम पर चढ़ जाये तो विषैली कड़वाहट देखते ही बनती हैं कि अधकचरे ज्ञान और नकारात्मकता की आँख से हर चीज़ को देखने की आदत ने उन्हें अच्छी-खासी सदियों पुरानी अपनी वही आधारशिला गलत नजर आ रही जिस पर उनका अपना परिवार ही नहीं देश की समूची व्यवस्था टिकी लेकिन उन्हें तो मात्र अपना ज्ञान बघारना उससे किसी की बरसों पुरानी आस्था आहत हो या फिर वही श्रद्धा जिसके दम पर उनका अस्तित्व कायम उनको कोई सरोकार नहीं कि उनका लक्ष्य उस बुनियाद को ही मिटाना जिस पर वे खड़े हैं मने कि जिस डाली पर बैठे उसे ही काटने में लगे हुए हैं ये अतिबुद्धिमान सुशिक्षित नये-नये बने ज्ञानी लोग ये सब देखकर, पढ़कर ताज्जुब यही होता कि ये सब इतने कि उन्हें ये अहसास ही नहीं कि जिस ‘संस्कृति’ से संपूर्ण विश्व में हमारी अपनी व्यक्तिगत पहचान कायम वे पल-पल उसे ही चोट पहुंचाते रहते इस भ्रम पर कि एक बार जो ये ध्वंस हो गयी फिर तो अपने हिसाब से सब कुछ नवीनतम रचेंगे चाहे ‘संविधान’ हो या फिर ‘वेद’ या हमारी ‘परम्परायें’ वे हर पुरानी चीज़ को नई से बदल देंगे बोले तो उन्हें लग रहा कि ये सब कुछ घर के रेनोवेशन जितना सहज-सरल तो बेचारे रोज ही तोड़ते रहते प्राचीन भारत की दीवारों पे उगी हुई विशाल बरगद के वृक्ष जैसी चारों तरफ अपनी जड़ें फैलाई हुई हमारी उस युगों पुरानी सनातन संस्कृति को जो आने वाली पीढ़ी की धरोहर जिससे हमारी अपनी वैयक्तिक पहचान जिसके अवशेष ही शेष फिर भी अधिकांश लोगों की यही कोशिश कि जो शेष हैं वो भी न रहे सब कुछ नया हो जाये क्योंकि उन्हें अपनी उस पुरानी परम्पराओं से नफ़रत होने लगी जिसकी वजह वही ‘पश्चिमी सभ्यता’ हैं जिसने कभी हमें गुलाम बनाया था सच, में आंकलन करे तो पाते कि यूँ तो उसने हमें १९४७ में शारीरिक गुलामी से मुक्त कर  दिया परंतु मानसिक रूप से कैद कर रखा हैं तभी तो हिमायती लोगों को उनका रहन-सहन, खान-पान, पहनावा और स्वछंद विचरण पसंद आता जबकि हमारे यहाँ सामाजिक व्यवस्था और रीति-रिवाज़ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अपनी महत्ता साबित कर चुके हैं पर, जिन पर विदेशी संस्कृति का काला रंग चढ़ा उन पर फिर किसी भी तरह के तर्क या बात का कोई असर नहीं होता वो तो हर तरह से इसे गलत साबित कर अपना काम निकलाना चाहते ये भूलकर कि बिना जड़ों के हवा में लटका उनका स्वयं का अस्तित्व ‘त्रिशंकु’ की भांति हो जायेगा जिसका अपना कोई नाम या अपनी पहचान बाकी न रहेगी तब वापिस लौटने पर भी हाथों में कुछ न आयेगा कि सब कुछ तोड़कर जाने पर किरचें ही बचेगी जो चुभन के सिवा कुछ भी न दे सकेगी

सबको खुद को बहुत बड़ा प्रगतिवादी विचारक और आधुनिक युग का प्रवर्तक सिद्ध करने का ऐसा चस्का लगा कि उसके लिये उन्होंने माध्यम अपनी उस गौरवशाली वैदिक परंपराओं को चुना जिस पर निशाना लगाने से उन्हें अपना लक्ष्य आसानी से मिल जायेगा कि इनसे करोड़ों की आस्था जुडी और जब उस पर वार किया जायेगा तो वे तिलमिलायेंगे जिससे उन्हें तवज्जो मिलेगी और उनका काम बन जायेगा तो इस फार्मूले पर आजकल सभी तथाकथित बुद्धिजीवी चल रहे हैं और चुन-चुनकर हमारे प्राचीन वेद, पुराण, उपनिषद, धार्मिक ग्रंथों से कथा व पात्रों को सामने लाकर उन पर अपने शब्द बाणों से हमला कर उस स्तर तक जा रहे जिस पर जाकर ‘टारगेट’ का मर्म बिंध जाये तो वो तिलमिलाकर इनसे तर्क-वितर्क करें इसलिये सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग के किस्से निकाल के ला रहे और बड़ी सावधानी के साथ उनमें से केवल नकारात्मकता को ही चुनकर पेश कर रहे ऐसे में जिसको ज्ञान नहीं या जो उस धर्म का नहीं वो मजे ले रहा याने कि भेदभाव का जहर इस तरह से आज भी रगों में भरा जाकर उससे अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा रहा हैं ऐसे लोगों को यदि आपने गलती से भी आईना दिख दिया और उसके लिये इनके तरकश में यदि तर्क का कोई तीर नहीं हुआ तो ‘ब्लॉक’ का ‘ब्रम्हास्त्र’ तो हैं जिसे चलाकर ये सामने वाले को नेस्तनाबूद कर देते और समझते कि इन्होने बड़ी जंग जीत ली जबकि अपने कपड़े उतारने से व्यक्ति स्वयं ही नंगा होता न कि उससे सामने वाले को कोई फर्क पड़ता वो तो केवल आपको अहसास दिलाता कि जिस देश में शर्म-लिहाज और दूसरों की भावनाओं का सम्मान किया जाता वहां इस तरह से छीछालेदर करना ठीक नहीं लेकिन नंगा खुदा से बड़ा तो फिर उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा इस तर्ज पर वे राम, कृष्ण, परशुराम, भीष्म पितामह, गौतम बुद्ध, विवेकानंद, सीता, यशोधरा, अहिल्या, सावित्री याने कि जितने भी हमारे आस्था व श्रद्धा के पात्र सबका मजाक बना रहे उन पर घटिया आरोप लगा अपने आपको उनसे बड़ा साबित कर रहे क्योंकि खुद की तो कोई पहचान नहीं तो जिनकी हैं उनसे ही अपना नाम भी बना लिया जाये वही पुराना फंडा दूसरों की लकीर को मिटाकर अपनी बड़ी करना तो सब उसी में लगे पड़े इस वक्त पुरे जोर-शोर के साथ यकीन न हो तो देख ले आजकल सोशल मीडिया पर लिखी जा रही अधिकांश पोस्ट के ‘हॉट टॉपिक्स’ यही सब जिन पर सर्वाधिक लिखा जा रहा और ये लेखन ही इसके पीछे छिपी दुर्भावना को स्पष्ट करने में सक्षम जिसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं कि विकृत मानसिकता से उपजे ये मकड़ीनुमा गंदे विचार इनको अपने जाल में शिकार की तरह फंसा चुके जिनसे निकलना इनके बस की बात नहीं अतः ये पल-पल उसके द्वारा लीले जा रहे नासमझी की इससे बड़ी इन्तेहाँ और क्या होगी कि व्यक्ति अपनी ही कोख को गाली दे और अपने हाथों से अपने ही पवित्र इतिहास पर कालिख मले
                                
इन लिखने वालों में से किसी में इतना सामर्थ्य और नैतिकता का बल नहीं और न ही त्याग, समर्पण, सेवा और क्षमा का भाव जिनसे हमारा अतीत समृद्धशाली और न ही अपने परिजनों या अपने-से जुड़े रिश्तों की मर्यादा व गरिमा का अहसास जिसके लिये उन लोगों ने अपना आप होम कर दिया और वैसे भी हर काल और युग के नियम व प्रथायें सर्वथा भिन्न तो एक की दूसरे से तुलना ही बेमानी हैं कि समय और परिस्थिति के अनुसार उस कालखंड की अपनी मान्यतायें निर्धारित की गयी जिसके अनुसार उस समय के लोगों ने अपना व्यवहार सुनिश्चित किया और युग परिवर्तन के साथ ही पुरानी परिपाटी बदल गयी जिसका स्थान कुछ नूतन चरित्र और नवीन नियमावली ने ले लिया और इस तरह से प्रत्येक काल विशेष के अपने ही महान व्यक्तित्व हुये जिन्होंने उसी तरह से अपना किरदार निभाया जैसा कि उस काल के अनुरूप होना था बाकी अपवाद स्वरूप कुछ बातें हमेशा होती हैं लेकिन उनका वास्तविक विश्लेषण केवल वही कर सकता जिसे उस अवधि के इतिहास का पूर्ण ज्ञान न कि कोई भी ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा अपनी बुद्धि से उसके अर्थ निकाल लोगों पर थोपने की कोशिश करें जैसी कि आजकल इन सोशल मीडिया के नये-नये लेखक बने अल्पज्ञ लोगों द्वारा की जा रही हैं । ‘सतयुग’ में प्रचलित धारणाओं को इंगित कर हम उस समय में हुये अवतारों पर छींटाकशी नहीं कर सकते और न ही ‘त्रेतायुग’ के पौराणिक चरित्रों को हम ‘द्वापर’ में अपनाये जाने वाले संविधान या उनकी जीवन शैली के आधार पर आंक सकते उन युगों के कथानकों में जो भी वर्णित वो उस कालखंड के अनुरूप हैं जिसे हम आज के आधार पर देख कमतर जताने की कोशिश करते इससे हम बड़े सभ्य या शिक्षित नहीं बन जाते बल्कि उस युग पर अपना अल्प ज्ञान जताते और यदि हम ऐसा कोई शोध प्रस्तुत करना ही चाहते तो विस्तृत अध्ययन और पूर्ण प्रमाण के साथ उसे लोगों के समक्ष रखे न कि केवल उस विवादित अंश को ही प्रस्तुत कर अपने आपको सबके मध्य बहुत बड़ा वाला छिद्रान्वेषी घोषित करे जिसमें हमें अज्ञानी व विधर्मी लोगों के कमेंट्स व लाइक्स तो अवश्य मिल जायेंगे लेकिन सच्चाई से हम अनभिज्ञ ही रह जायेंगे । ‘राम’ और ‘कृष्ण’ के चरित्र पर हल्की बातें लिखना तंज कसना कोई कठिन काम नहीं और न ही ये प्रतिबंधित क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा रक्षा कवच हमारे साथ परंतु कभी सोचकर देखना कि किस तरह से उन्होंने विपरीत परिस्थियों में भी मर्यादा का पालन किया तब जाकर वे पूज्य बने चूँकि आप में वो सामर्थ्य नहीं कि उनके चरणों की रज भी बन सको तो आपने उनके साधारण से विराट बने स्वरुप को घटाने का काम चुन लिया और लगे सूरज पर थूकने जबकि वो आप पर ही आकर गिर रही पर आप तो बुराई में ऐसे मगन कि उसे देख ही नहीं पा रहे तो लगे रहे अपने ही वस्त्र उतारने में पर, ध्यान रखना कि नंगापन आपका ही नजर आयेगा किसी की कुछ न बिगड़ेगा आपकी ही बदनामी होगी जो हो भी रही ।

आज भारतीय संस्कृति के दो प्राचीन पर्व ‘वट सावित्री अमावस्या’ और ‘शनि जयंती’ के एक साथ होने के अद्भुत संयोग के शुभ अवसर पर यही कहना चाहती हूँ... आज भी चंद लोगों को इस त्यौहार के पावन मौके पर भी अपने ही उपर ऊँगली उठाते देखा तो इसके बहाने से ही जो भी मन में आया वही लिख दिया... सबको ‘वट सावित्री’ और ‘शनि जयंती’ की अशेष शुभकामनायें... :) :) :) !!!        

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२५ मई २०१७