गुरुवार, 31 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२४१ : प्रेम की अनंत खोज... साहिर-अमृता और इमरोज...!!!



‘प्यार’ शब्द को जहाँ बोल पाना भी गुनाह समझा जाता उस समाज में वो भी उस जमाने में जबकि किसी स्त्री का इतनी मुखरता से अपने मनोभावों को उजागर कर पाना आसान नहीं था तब भी ‘अमृता’ ने अपनी कलम से अपने ही नहीं अपने जैसी समस्त स्त्रियों के जज्बातों को खुलकर बयान किया और उनके तन-मन में वो जोश भरा कि उनकी प्रेरणा पाकर वे भी अपनी संवेदनाओं को उसी तरह से अभिव्यक्त कर सके जैसा वे महसूसती कि हर तरह के एहसासों से भी भी तो उसी तरह से गुजरती जिस तरह से आदम जात गुजरता तो फिर क्यों एक को तो अपनी भावनाओं को हर तरह से ज़ाहिर करने का पूर्ण अधिकार होता लेकिन जिसके भीतर जज्बातों का समंदर हिलोरें मारता हो उसे ही अपनी जुबान सिलकर रखने को कहा जाता था तो इस तरह की बंदिशों को तोड़ने में ‘अमृता प्रीतम’ का नाम शीर्ष में रखा जा सकता हैं जिन्होंने एक निश्चित परिपाटी को तोड़कर अपनी एक अलग ही राह बनाई जिसकी वजह से उनकी अपनी एक अलग पहचान बनी और इसके पूर्व किसी भी स्त्री लेखिका को जो मान-सम्मान या स्थान नहीं मिला था वो उनको मिला कि उन्होंने अपने आपको एक खुली किताब की तरह सबके सामने प्रस्तुत किया जिसमें कोई दुराव-छिपाव नहीं था जबकि उस वक्त पुरुष भी इतने बिंदास तरीके से अपनी बात को कह पाने में कहीं न कहीं कुछ संकोच महसूस करते थे लेकिन उन्होंने अपने जीवन की हर एक कहानी अपने हर एक अनुभव को जिस तरह से सबके साथ सांझा किया वो काबिले तारीफ हैं कि वो कालखंड जब औरत ‘प्रेम’ को खुद जीती नहीं थी सिर्फ़ अपने प्रेमी की नजरों में ही उसकी झलक पाकर उस की अनुभूति करती थी तब ‘अमृता’ ने न केवल ‘इश्क़’ चखा बल्कि सारे ज़माने के सामने उसे स्वीकार भी किया कि ‘अम्बर की एक पाक सुराही बादल का एक जाम उठाकर घूंट चांदनी पी है हमने बात कुफ़्र की की है हमने’ पर, कोई बात नहीं जब जाम पी ही लिया तो पी लिया फिर क्यों मुंह छिपाना, शर्म से घर के किसी कोने में चुपचाप बैठ जाना क्यों न उस स्वाद का जिक्र करना लोगों को बताना कि ये कोई गुनाह तो नहीं रब की नेमत हैं जो सबको तो नहीं मिलती फिर जिसे मिलती उसे क्यों ये समाज ये अहसास करता कि उसने कोई अपराध किया हैं? क्यों उसे सज़ा देता ? क्यों वो खुद ये तय करता कि उसे अपने मज़हब में ही इसे करने की इज़ाजत और जो गैर-जात में ऐसा किया तो फिर सूली पर चढने तैयार रहे याने कि अपने जीवन ही नहीं दिल पर भी उसका कोई अख्तियार नहीं उसे तो बस, समाज के हिसाब से ही जीना चाहिए जो उसके विपरीत कोई काम किया तो उसका भुगतमान भी करना चाहिये ऐसी विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने अपने दिल की सुनी अपने जीवन को अपने ही ढंग से जिया तभी तो आज उनके जन्मदिन पर हमने उनको याद किया... :) :) :) !!!
          
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३१ अगस्त २०१७

बुधवार, 30 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२४० : चाही थी बस, एक इज़ाजत... लेकिन, खुशियों पर भारी पड़ी इज्ज़त...!!!


‘अमीषा’ कभी फूलों पर तितलियों के पीछे भागना चाहती थी तो कभी गुब्बारे की डोर थाम उड़ना चाहती थी तो कभी उसका मन करता कि जोर-जोर से हंसे या किसी ठेले पर खड़ी होकर गोलगप्पे खाये लेकिन इनमें से वो कोई भी काम नहीं कर सकती थी कि उसके नाम के साथ उसके माता-पिता की इज्जत जुडी थी जो पतंग के मांजे से भी ज्यादा कच्ची थी तो उसके कटने का डर हमेशा बना रहता था आखिर उसके पिता उस नगर की नामी-गिरामी शख्सियत ही नहीं बल्कि खानदानी व्यक्ति थे जिनकी सात पुश्तों में किसी लड़की ने अकेले घर के बाहर कदम निकाला नहीं और न ही सामान्य लडकियों की तरह की ही कोई हरकत की क्योंकि उनको देखकर ही तो दूसरे परिवारों के भी नियम-कायदे तय होते थे तो ऐसे में उसकी किसी भी ऐसी छोटी-मोटी ख्वाहिश को पूरा करने देना या उसे किसी भी तरह की स्वतंत्रता देना उनकी मान-मर्यादा पर बट्टा लगा सकता था तो इन हालातों में अपनी छोटी-से-छोटी इच्छा को उसे मन में ही रखना पड़ता था क्योंकि अपनी मनमर्जी करने की सज़ा उसे बचपन से ही मिलना शुरू हो गयी थी

जब उसने भाई की तरह बाहर जाकर पढ़ने की जिद की तो उसको किसी बड़े शहर न भेजकर उस छोटे शहर की सामान्य गर्ल्स कॉलेज में ही दाखिल किया गया जहाँ उसे रोज जाने की भी जरूरत नहीं थी कि वो घर पर ही पढ़ सकती थी इस तरह खुद को मारते-मारते उसे अपनी जिंदगी नीरस-सी लगने लगी थी जिसमें कोई उत्साह ही नहीं था क्योंकि परिवार के बाकी सदस्य तो इसे स्वीकार कर चुके थे पर, उसके भीतर शुरू से ही विद्रोह की भावना थी तो हर बात में तर्क-वितर्क करती जिससे अक्सर उसे मार भी पडती और बाकी लोगों की तुलना में उसको अधिक पाबंदियों में रखा जाता था । इतनी सारी सख्तियों के बाद भी उसने वो किया जो उसके इज्जतदार खानदान में आज तक किसी ने नहीं किया था याने कि प्रेम जो कहने को तो घर के रिश्तेदार से ही हुआ था लेकिन फिर भी जब ये भेद सब पर खुला कि वो अपनी मामी के भाई को चाहती हैं तो ये बात किसी को हजम न हुई कि उनके अनुसार वो भी उसका मामा ही हुआ जबकि उसका कहना था कि जब मामी को वो लोग अलग खानदान का समझते तो फिर उसका रिश्ता किस तरह हो सकता लेकिन किसी ने उसकी न सुनी । उस जबरदस्ती एक कमरे में बंद कर दिया जहाँ उसे खबर मिली कि जिसे वो चाहती थी वो अब इस दुनिया में नहीं हैं तो उसके पास सिवाय रोने के कोई विकल्पं न बचा उसने मरने की सोची पर, वो कायर नहीं थी तो उस दुःख को सहकर जिंदा तो थी लेकिन झूठी इज्जत के खिलाफ अपनी जंग जारी रखी ।            
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३० अगस्त २०१७

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३९ : महर्षि दधिची ने किया अस्थियों का दान... आज के ढोंगी-बाबा करते भक्तों का रक्तपान...!!!


साधु-संतों की ये पूजनीय धरती जहां अनेकानेक महान विभूतियों ने जन्म लेकर इसका परचम देश-विदेश में लहराया और इसे ‘विश्वगुरु’ के शीर्ष आसन पर विराजमान किया हैं परंतु, आज तथाकथित बाबाओं व ढोंगियों ने इन साधकों की अथक मेहनत से अर्जित ख्याति को ही कलंकित नहीं किया बल्कि अपने दुष्कर्मों से देश का नाम भी बदनाम किया उससे भक्त समुदाय खुद को ठगा महसूस कर रहा हैं क्योंकि उसके भीतर सहज ही आध्यात्मिकता का वास होता जिसकी वजह से वो आसानी से अपनी बुद्धि को दरकिनार कर उस पर सरलता से विश्वास करने लगता कि उसकी प्राकृतिक आस्था शंकाओं से दूर रहती ऐसे में जब उसे ठेस लगती या उसके मन में बसा श्रद्धा का मंदिर टूटता तो साथ उसके न केवल वो टूट जाता बल्कि किसी और पर भी विश्वास करने के लायक नहीं रह जाता जबकि वो नकली बाबा अपमानित होकर भी अपने जुर्म को कुबूल नहीं करता

ऐसी परिस्थितियों में ‘महर्षि दधिची’ की जयंती को उत्साहपूर्वक मनाना और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता कि उनकी कथा हम सबको ‘ऋषि’ शब्द का वास्तविक अर्थ बताती कि किस तरह पुरातन काल में हमारी इस पूजनीय भारत भूमि पर कभी चारों तरह वेद-पुराणों के सूत्रों का गान होता था जिससे समूचा वातावरण पवित्र होकर सुनने वाले के मन-मस्तिष्क को भी पवित्र बना देता था और इनमें जो सच्चे सन्यासी होते थे वे समाज से दूर किसी जंगल में जाकर कठोर तप करते थे । उनकी इस तपस्या का उद्देश्य समाज कल्याण होता था कि वो अपने तपोबल व अपनी कठोर साधना से कुछ ऐसा हासिल कर सके जिससे उनके देशवासियों का हित हो दूसरे शब्दों में कहे तो वे वन के एकांतवास में अपनी मानसिक तरगों से एक अदृश्य प्रयोगशाला निर्मित करते जहाँ वे तरह-तरह की खोज करते और कई तरह के प्रयोग करते जिससे फिर कोई ऐसा नवीनतम अस्त्र या शस्त्र निर्मित करते जिसके माध्यम से वो संकट काल में अपने देश के लोगों का कल्याण कर सके ।

ऐसी ही कठोर तपस्या की थी अथर्वा ऋषि के पुत्र ‘दधिची’ ने भी जिससे उनके देह की हड्डियाँ इतनी मजबूत और बलशाली हो गयी थी कि उसे किसी हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सके तो जब स्वर्ग में ‘वृत्तासुर’ नाम के राक्षस का आतंक बढ़ गया तो उसको परास्त करने का एकमात्र उपाय यही था कि ‘महर्षि दधिची’ की अस्थियों से एक ‘वज्र’ बनाया जाये जिससे उसका संहार किया जा सके क्योंकि उसके सिवा किसी दूसरे साधन से उसकी मृत्यु हो नहीं सकती थी तो देवताओं ने इस काज हेतु उनसे मदद मांगी । ‘महर्षि दधिची’ के तो जीवन का उद्देश्य ही यही था कि वे जगत के काम आ सके तो जब देवताओं ने उनसे उनके देहदान की प्रार्थना की तो उन्होंने हंसी-ख़ुशी से लोक-कल्याण व धर्म संस्थापना हेतु अपने आपको ही समर्पित कर दिया और इस तरह उन्होंने ऋषि परंपरा को कायम रखते हुए ये सन्देश दिया कि एक सच्चा साधू वो होता जो अपनी अर्जित शक्तियों से अपना नहीं बल्कि अपने देश का भला करता हैं जबकि आज के ये ढोंगी बाबा लोग तो अपने सिवा किसी का भी हित नहीं करते तो ‘महर्षि दधिची’ की गाथा से उनको ये याद दिलाना कि भेष धरना तो आसान हैं ऋषि-मुनियों का लेकिन उन जैसा त्याग-समर्पण और परोपकार की भावना को भगवा चोले की तरह ओढ़ा नहीं जा सकता इसलिये इनसे बचिये... पहले इनको परखिये तब इन पर विश्वास करिये न कि अंधभक्त बनिये... यही ‘महर्षि दधिची’ की जयंती का संदेश और उद्देश्य... सबको शुभकामनायें... :) :) :) !!!     
        
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ अगस्त २०१७

सोमवार, 28 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३८ : ‘ब्लू व्हेल’ से गर, बच्चे को हैं बचाना... तो, अपनी जिम्मेदारी को भी पड़ेगा समझना...!!!


मोबाइल की बेट्री का तो व्यक्ति बहुत ध्यान रखता जरा-भी खर्च हो तो तुरंत उसे रिचार्ज कर लेता परंतु खुद के शरीर की उतनी परवाह नहीं करता जिसे कि इतनी आसानी से रिचार्ज भी नहीं किया जा सकता और न ही देह के किसी पुर्जे के खराब होने पर उसे रिप्लेस किया जा सकता या खरीदा जा सकता कि जन्म से हमें जो प्राकृतिक नेमतें मिलती उन्हें हम ही व्यर्थ की बातों में गंवाकर कृत्रिम साधनों से अपने आपको धन्य समझते जबकि चाहे तो इन्हें ही सहेजकर रख सकते ताकि उनका अधिकाधिक सार्थक उपयोग किया जा सके फिर भी आये दिन ऐसी ही कितनी घटनायें देखने-सुनने या लोगों को गेजेट्स की वजह से मौत को गले लगाते देख भी हम संवेदनहीन बने रहते कि हमारे लिये अपनी लाइफ को एन्जॉय करना अपने तरीके से जीना ही एकमात्र लक्ष्य रह गया इसके इतर कुछ न तो देखना चाहते और न ही सुनना चाहते बल्कि इस तरह की हिदायतें या सीख देने वाले भी हमें अपने दुश्मन प्रतीत होते

इसलिये हम सबसे कटकर एकाकी जीवन के आदि होते जा रहे जहाँ एक परिवार के सदस्यों तक को एक-दुसरे की खबर नहीं यहाँ तक कि न्यूक्लियर फॅमिली में ही माँम-डेड को अपने एकलौते बच्चे तक के बारे में पता नहीं कि वो अकेले अपने कमरे में क्या कर रहा वे तो इस में ही खुश और संतुष्ट कि वे दिन-रात अथक मेहनत कर के अपनी सन्तान को वो लाइफ दे सके जो उनके पेरेंट्स उनको न दे सके उसके पास उसका अपना रूम, अपना मोबाइल, अपनी बाइक और अपना बैंक अकाउंट हैं पर, ये देखने की फुर्सत नहीं कि वो इन्हें किस तरह से यूज कर रहा हैं क्योंकि वे तो उसे शहर के सबसे महंगे और सुविधायुक्त स्कूल में पढ़ा रहे जहाँ सारी जिम्मेदारी उसे पढाने वाले टीचर्स की हैं और जो शेष रहा तो कोचिंग में वो कसर पूरी हो जायेगी आखिर यही तो आज के हर एक स्कूल जाते बच्चे की लाइफ स्टाइल हैं जहाँ वो सुबह से उठकर स्कूल चला जाता बिना ब्रेक-फ़ास्ट या लंच लिये कि उसके स्कूल में उसे सब कुछ प्रदान किया जाता तो माँ को इतनी भी जेहमत उठाने की भी जरूरत नहीं और पापा उनके पास तो टाइम ही नहीं रात देर से सोते तो सुबह भी देर से जागते जब तक बच्चा स्कूल जा चूका होता और जब वापस आते तो वो कोचिंग से आकर अपने रूम में स्टडी करने चला जाता कभी छुट्टी या वीकेंड पर ही उनकी बात हो पाती वो भी अब उसके टीन-ऐज के बाद मुश्किल हो गया कि अब इस वक़्त पर उसके दोस्तों का हक़ हो गया और फिर मम्मी-पापा का भी तो अपना सर्किल जिसे मेंटेन करना उनकी प्रायोरिटी और बच्चे की मोबाइल पर केवल खबर मिलना ही पर्याप्त कि वो अपने फ्रेंड्स के साथ हेप्पी लेकिन यही सब एक बड़ी अनहोनी के रूप में सामने आता तो अहसास होता कि उन्होंने कहाँ पर और क्या गलती कर दी

कुछ ऐसा ही ‘आर्य’ के माता-पिता भी महसूस कर रहे थे जब उन्हें खबर मिली कि उनकी एकमात्र संतान ने किसी कंप्यूटर गेम के चेलेंज को पूरा करने अपनी जान दे दी तो वे हैरत में पड़ गये कि उन्हें इस बात का अहसास क्यों नहीं हुआ कि वो किसी ऐसी गतिविधि में लिप्त हैं परंतु अब इतनी देर हो चुकी थी कि उसकी भरपाई किसी भी तरह संभव नहीं थी और वो सारे सुख के सामान, वो सभी आधुनिक यंत्र, वो सारी सम्पत्ति उन्हें मुंह चिढा रही थी कि जिसके भविष्य को सुरक्षित करने उन्होंने ये सब कमाने अपने आपको दांव पर लगा दिया वो ही अब इस दुनिया में नहीं बचा इन सबमें उनसे कहाँ पर और क्या मिस्टेक हो गयी जो उनका बच्चा एक कंप्यूटर गेम के कारण उन्हें छोडकर चला गया पर, सर को दोनों हाथों से पकड़कर सोचते भी रहे वो दोनों लेकिन तब भी ये नहीं जान पाये कि जिन हाथों से उन्हें अपने इकलौते बेटे को सहेजना था उससे वे कमाने में ही लगे रहे और जो समय बचा तो उसे मोबाइल चलाने में व्यस्त रहे लेकिन उसे बढ़कर गले लगाना या सीने से चिपकाकर सोना ही भूल गये कि वो जगह मोबाइल ने ले ली और हद्द तो तब हो गयी जब उन्होंने ये लत उसे भी लगा दी कि वो भी पढ़ाई से बचे टाइम को एन्जॉय कर सके और बिज़ी भी रहे जिस तरह उनके माता-पिता ने टी.वी. के जमाने में भी उनको कसकर रखा और टाइम टेबल के अनुसार ही देखने दिया तो वो कुछ बन सके और उनकी आँखें भी बची रही जबकि उनके बेटे को तो इसकी वजह से अभी से ही चश्मा लगा गया था लेकिन ये सब समझने में इतनी देर हो गयी कि अब इसका कोई अर्थ नहीं रहा या शायद हो सकता यदि वे किसी और बच्चे को इसका शिकार न होने दे और इस सोच ने उन्हें दिशा दिखाई तो वे चल पड़े उस मार्ग पर अकेले ही... :) :) :) !!!  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२८ अगस्त २०१७

रविवार, 27 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३७ : निर्देशक ‘हृषिकेश मुखर्जी’ और गायक ‘मुकेश’... जीना इसी का नाम हैं का देते संदेश...!!!


फ़िल्मी दुनिया ही नहीं विभिन्न क्षेत्रों में अक्सर ऐसा होता कि दो अलग-अलग स्थानों में जनम लेने वाले दो भिन्न प्रकृति के लोग जीवन के किसी मोड़ पर अचानक टकरा जाते या कहे कि मिल जाते और फिर जोड़ी बनाकर कुछ ऐसा अनोखा काम कर जाते कि कभी-कभी तो दो नाम एक बन जाते तो कभी भले इस तरह से एकाकार न भी हो पर, एक-दूसरे से उनका ऐसा रिश्ता बन जाता कि दोनों की रचनात्मकता से कुछ नायाब शाहकार निर्मित हो जाता जो ये दर्शाता कि यदि कभी प्रतिभाओं का मिलन होता जो अपना अहम् किनारे पर रखकर एकजुट हो एक दिशा में काम करते तो फिर उन दोनों के जेहन की काबिलियत से ऊर्जा का एक ऐसा विशाल मंडल आकार लेता जिससे बनने वाली कृति को सफलता मिले न मिले लेकिन जो रचना पैदा होती निसंदेह वो कमाल की होती कि यहाँ दो हुनरमंद शख्सियत ने अपनी पूरी सृजन क्षमता को निचोड़कर उसे बनाया होता हैं  कुछ ऐसा ही अभूतपूर्व अनोखा रचा गया हिंदी सिने जगत के रजत पर्दे पर जब कोलकाता में जन्मे और अपनी निर्देशन क्षमता से साधारण पारिवारिक मूल्यों वाली असाधारण फ़िल्में बनाने वाले ‘हृषिकेश मुखर्जी’ जिन्हें कि प्यार से सभी ‘हृषि दा’ बुलाते थे ने अपनी निर्देशित फिल्मों के गायन में किरदारों के लिये उस जमाने के लोकप्रिय राज कपूर की आवाज़ के रूप में जाने जाने वाले दिल्ली में जन्मे संवेदनशील हरदिलअजीज गायक ‘मुकेश चंद माथुर’ जिन्हें कि हम सब सिर्फ ‘मुकेश’ के नाम से जानते हैं से मिले तो उन दोनों की संगत से कुछ अधिक दिलकश तराने हमें सुनने को मिले      

ये भी एक संयोग हैं कि इन दोनों का जन्म एक ही कालखंड में हुआ जिसमें केवल एक ही साल का अंतर हैं कि जहाँ ‘हृषि दा’ १९२२ में तो ‘मुकेश साहब’ १९२३ में इस धरा पर आये और जाने का क्रम भी उल्टा रहा कि ‘मुकेश’ पहले तो ‘हृषि दा’ बाद में गये लेकिन यहाँ उनके अलविदा कहने का दिन एक ही था बोले तो आज याने कि २७ अगस्त को परंतु इस दरम्यान उन्होंने अपनी ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा से हम लोगों को कुछ ऐसे गाने और फिल्मों की सौगात दी जिसने हमारे जीवन से जुडकर हमारे सामान्य पलों को अनमोल बना दिया तो उनके जाने के बाद भी हम उनके निर्देशित चरित्रों और उनकी मखमली आवाज़ से सजे नगमों से अपनी तन्हाई में भी मुस्कुरा उठते हैं ‘हृषि दा’ ने सारे जीवन ऐसी फ़िल्में निर्देशित की जो हमारे अपने आस-पास नजर आने वाले वास्तविक चरित्रों को पर्दे पर साकार करती रही और ऐसे परिस्थितिजन्य अवसर उत्पन्न किये जो देखने वालों के लबों पर अनायास ही मुस्कान बिखरते रहे तभी तो आज भी उनकी वो फ़िल्में चाहे वो ‘अभिमान’ हो या ‘चुपके-चुपके’ या ‘नमक-हराम’ या ‘सत्यकाम’ या ‘अनुपमा’ या ‘अनुराधा’ या फिर ‘अनाड़ी’ सभी आज भी उतनी ही असरकारक कि उनमें जिन कहानियों को दिखाया गया वे वर्तमान काल में भी प्रासंगिक है इसी तरह ‘मुकेश’ आरंभ से ही अपनी दर्द भरी आवाज़ और अपने दिल को छू लेने वाले गीतों की वजह से सबके प्रिय बन गये और उनके गाये गीत ज्यादातर भावुकता से भरे होने के कारण सबको अपने ही दुःख-दर्द की प्रतिध्वनि प्रतीत होते जिनसे वो अपने टूटे हृदय पर सुरीला मरहम लगाते और उस पीड़ा को भूलाने का प्रयास करते जिसने उनके जिगर को जख्मी किया कि ‘मुकेश’ की आवाज़ में वो कशिश और शिद्दत थी जो सुनने वाले की आँखों में तरावट लाती तो सीने में सुकून का अहसास दिलाती थी

जब इन दोनों ने एक साथ काम किया तो ‘हृषि दा’ के मध्यमवर्गीय किरदारों ने ‘मुकेश’ की दर्दीली आवाज़ के साथ यूँ ताल से ताल मिलाई कि एक के बाद एक ११ फिल्मों ‘आनंद’, ‘अनाडी’, ‘आशिक’, ‘’बीबी और मकान’, ‘चुपके-चुपके’, ‘छाया’, ‘नौकरी’, ‘फिर कब मिलोगी’, ‘सत्यकाम’, ‘मेम दीदी’ और ‘मधुमती’ और २४ गीतों में उनकी जुगलबंदी नजर आई और ये फ़िल्में सिने इतिहास के पन्नों पर अपना नाम दर्ज करवा गयी जिन्हें विस्मृत कर पाना मुमकिन नहीं कि इनकी कहानियां, इनके कलाकार और पात्र सभी हमारे नजदीक के ही लोग जिन्होंने हमारे ही लफ्जों को अपनी आवाज़ और अपने अभिनय से यूँ संवारा कि उनसे हमारा एक अटूट नाता बन गया जो आज भी उसी तरह से बरक़रार हैं यदि याद न आ रहा हो तो याद दिलाये अक्सर शाम को जब सूरज ढलता दिखाई देता तो जुबान में अपने आप ही ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाये...’ गीत आ जाता तो यात्रा करते समय ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीन हमें डर हैं हम खो न जाये कहीं...’ गाकर थकन भूल जाता और इसी तरह जब दुनियादारी की बात समझ न आये तो लोग ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी सच हैं दुनिया वालों के हम हैं अनाड़ी...’ कहकर अपनी फ़ितरत जताते तो कभी अपनी प्रेमिका के लिये प्रेमी के होंठो पर ‘कहीं करती होगी वो मेरा इंतजार जिसकी तमन्ना में फिरता हूँ बेकरार...’ थिरक जाता तो कभी प्रेमिका की राह तकता कोई पुकार उठता ‘दिल तड़फ-तड़फ के कह रहा हैं आ भी जा...’ तो कभी ‘दिल की नज़र से नजरों की दिल से ये बात क्या हैं...’ पूछता दिखाई देता तो कभी रात में चाँद को देखकर ‘वो चाँद खिला वो तारे हंसे ये रात अजब मतवारी हैं...’ गाकर मन बहलाता तो कभी आँखों में आँखें डालकर कहता ‘ये तो कहो कौन हो तुम, कौन हो तुम...’ और कभी ‘बागों में कैसे ये फूल खिलते हैं...’ गुनगुनाता तो कभी कभी अपने किसी प्रिय को ‘मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपनें बुने, सपनें सुरीले सपने...’ जैसे गाने की सौगात देता तो कभी उसी के लिये ‘तुम जो हमारे मीत न होते गीत ये मेरे गीत न होते...’ भी गाता और सबसे बढ़कर इंसानियत को दर्शाता ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार किसी के वास्ते ही तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम हैं...’ से अपने मनोभावों का प्रदर्शन करता और इस तरह से उन दोनों महान आत्माओं को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता... :) :) :) !!!    
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ अगस्त २०१७

शनिवार, 26 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३६ : मानवता की राह पर जब कोई चलता... तब कहीं वो ‘मदर टेरेसा’ बन पाता...!!!!


एकाएक ही कोई आश्चर्य या चमत्कार नहीं घटित होता और न ही कोई अचानक ही महात्मा या महाशक्ति बन जाता कि इसके लिये जन्मों की तैयारी होती तभी तो बाल्यकाल से ही मन में वो भाव जागता कुछ ऐसा ही हुआ था बारह वर्ष की नाज़ुक अवस्था में अगनेस गोंझा बोयाजिजू को ये अहसास हो गया कि उनका जन्म मानवता की सेवा के निहितार्थ हुआ हैं तो उन्होंने ये संकल्प ले लिया कि वे अपना सारा जीवन उसी को समर्पित कर देगी और फिर उन्होंने उस दिशा में कदम बढ़ाते हुये सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो में शामिल होने का निर्णय लिया और ये तय किया कि वे इंसानियत को जीवित रखने के लिये जो कुछ भी संभव होगा वो आजीवन करेंगी तो अपने इस कठिन निर्णय को उन्होंने अंतिम समय तक भी निभाया और चूँकि उनके भीतर प्रारंभ से ही नर सेवा के प्रति झुकाव था जिसने ये साबित किया कि ये अंतरात्मा ही होती जो स्वाभाविक रूप से हमें अपनी मूल प्रवृति की और झुकाने को प्रेरित करती परन्तु हम ही उसे अनसुना आकर देते तो फिर उसकी आवाज़ भी बंद हो जाती लेकिन उन्होंने तो इसे बहुत जल्द न केवल सुना बल्कि उसका अनुकरण भी किया तो फिर सबने उन्हें प्रेम से ‘मदर टेरेसा’ नाम से संबोधित कर उनका मान बढ़ाया कि एक स्त्री ने हर तरह की परिस्थिति में समझौता किये बिना परदेस में वो कर दिखाया जो आज भी बहुत से लोगों का मार्गदर्शन करता अज जन्मदिन पर उनका पुन्य स्मरण और शब्दांजलि... :) :) :) !!!
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२६ अगस्त २०१७


शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३५ : हर्षोल्लास से मनाये गणेशोत्सव... आस्था-विश्वास का दस दिवसीय पर्व...!!!



आज नन्हा ‘आरुष’ सुबह से ही बड़ा खुश था उसके फ्रेंड ‘बाल गणेशा’ का हेप्पी बर्थ डे जो था तो जल्दी से उठकर बिना किसी के कहे ही वो नहा-धोकर तैयार हो चुका था कि थोड़ी देर बाद पापा के साथ बाज़ार जाकर गणपति की एक मूर्ति लायेगा और दस दिन तक उनकी पूजा करेगा और हर दिन अलग-अलग मिठाई खायेगा जो भी उसके दोस्त ‘गन्नू’ को पसंद हैं तो उसका जोश देखकर उसके मम्मी-पापा भी उसकी ख़ुशी में खुश दिखाई दे रहे थे उसने तो रात को उनको स्थापित करने के लिये पूजा घर के एक कोने में अपनी स्टडी टेबल लगाकर रंगीन पेपर्स, लट्टू एवं लाइट्स से बड़ी सुंदर सजावट कर रखी थी कि जब वो उनकी मूर्ति लेकर आयेगा तो उन्हें इस जगह पर बिठायेगा उसके इस काम में मम्मा ने भी उसकी मदद की थी जिससे कि उसका उत्साह दुगुना-चौगुना बढ़ गया था जब वो मार्किट गया तो उसे वहां तरह-तरह की सजी-संवरी मूर्तियाँ दिखाई दी जिन्हें देखकर उसकी आँखों में वो चमक नहीं दिखाई दी जो उसके पापा देखना चाहते थे तो उन्होंने उसे हर दुकान ले जाकर दिखाई पर, उसे किस तरह कि चाहिये थी ये उन्हें समझ नहीं आ रहा था तभी उसकी नज़र एक ठेले वाले पर पड़ी जिसके पास एकदम साधारण बिना रंगी मिट्टी की मूर्तियाँ थी जिसे देखकर वो उछल पड़ा कि यही तो वो ढूंढ रहा था और उसने झट एक मूर्ति ले ली

ये देखकर उसके पापा बहुत खुश हुये कि उनके बेटे को उत्सव मनाने के साथ-साथ पर्यावरण की भी उतनी ही परवाह हैं इस बात ने उन्हें निश्चिंतता से भर दिया कि आज की पीढ़ी केवल मौज-मस्ती करना ही नहीं जानती बल्कि अपनी संस्कृति और परंपरा का निर्वहन करने में भी पारंगत और इसके अलावा वो अपने आस-पास के वातावरण के प्रति भी उतनी ही सजग हैं यदि उसे सही परवरिश और सही मार्गदर्शन दिया जाये तो पुरातन व नवीन रवायतों का एक संतुलित उदाहरण पेश कर सकती हैं । इस जनरेशन की सबसे बढिया बात यह हैं कि इसे अधिक समझाना नहीं पड़ता अत्याधुनिक तकनीक कहे या कंप्यूटर युग का कमाल कि वो इशारों को भी समझ लेती हैं तो ऐसे में अगर उनको इन माध्यमों से ही सही शिक्षा या संदेश दिया जाये तो गजब की पौध तैयार हो सकती हैं जिसकी दिमागी काबिलियत का मुकाबला कोई भी नहीं कर पायेगा लेकिन जिसे देखो वही अपने बच्चों को मोबाइल या लैपटॉप तो दे रहा लेकिन उसका उपयोग किस तरह करना या उस पर क्या देखना ये नहीं बता रहा तो अपनी ना-समझी से वो दिग्भ्रमित हो रही और ऐसे में जो उसकी बुद्धि से उसे समझ आ जाता वो उसे ही सही समझने लगती जबकि इन गेजेट्स की देते समय यदि माता-पिता थोड़ा-सा समय भी उन्हें दे दे तो सोने पर सुहागा हो जाये और बच्चे ‘ब्लू-व्हेल’ जैसे खतरनाक गेम्स के चक्कर में अपनी अनमोल जिंदगी न गंवाये ।

उसे आज बेहद ही ख़ुशी हो रही थी कि उन दोनों ने मिलकर अपने बेटे ‘आरुष’ को बचपन से अपने देश के गौरवशाली इतिहास से परिचित करवाया ताकि गलत जानकारियों से उसकी भी गलत मानसिकता निर्मित न हो जाये और इसके साथ ही उन दोनों ने उसे अपने देश की विविध विशेषताओं व थोड़ी सतरंगी तो थोड़ी अतरंगी परम्पराओं का भी ज्ञान दिया तो आज उसके जेहन में किसी तरह का कोई पूर्वाग्रह या कोई भ्रम नहीं हैं वो यदि दोस्तों के साथ ‘फ्रेंडशिप डे’ मनाता हैं तो अपने पर्वों पर भी उतनी ही धूम मचाता हैं । इस सोच ने उसको सुकून दिया और उसने घर जाकर धूमधाम से गणेश प्रतिमा की स्थापना कर सबको बधाइयाँ भी दी... :) :) :) !!!
            
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२५ अगस्त २०१७

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३४ : प्रेम-त्याग का कठोर तप... ‘हरतालिका तीज व्रत’...!!!


‘सती’ रूप में अपने अर्धांग की मान-मर्यादा ही नहीं बल्कि उनसे अपार प्रेम की खातिर उन्होंने उनका नाम लेकर अपने आपको ही हवन कुंड की अग्नि में होम कर दिया इससे बड़ी चाहत की दूसरी मिसाल और क्या होगी जबकि कोई अपने प्यार के लिये अपनी जान तक कुर्बान कर दे और फिर जब दूसरा जनम लेकर आये तो फिर उसे पाने के अलावा अंतर में कोई और मनोकामना शेष न हो तो अपनी उस अंतिम इच्छा को ही अपने इस नवीन जीवन की एकमात्र साध बना उन्होंने वो कर दिखाया जिसकी कल्पना भी नामुमकिन कि अपनी अर्धांगिनी के अग्निस्नान की खबर जब उनके प्राणप्रिय को मिली तो उनके दुःख और दर्द की सीमा ही न रही और उन्होंने भी अपनी प्रियतमा के प्रति अपने अनंत प्रेम को उसी तरह से अभिव्यक्त किया जैसा कि कोई दीवाना करे उन्होंने खुद की सुध-बुध बिसराकर उनकी उस मृत देह को लेकर सम्पूर्ण संसार का भ्रमण किया और जगह-जगह उनके अंगों के विसर्जन से शक्ति पीठों का उदय हुआ उसके बाद भी जब उनके भीतर की आग शांत न हुई तो फिर उन्होंने अपने आपको पूर्ण रूप से साधना में लीन कर लिया ऐसे में जब ‘पार्वती’ ने उनको ही पति रूप में पाने की इच्छा व्यक्त की तो एकबारगी सबको ये असंभव ही लगा कि ‘शिव’ तो धूनी रमा चुके अब किसी से भी विवाह न करेंगे लेकिन ‘पार्वती’ भी हिमालय की पुत्री तो उनकी ही तरह अडिग व अटल जो थान लिया तो ठान लिया फिर चाहे जो हो उस संकल्प को पूरा करना ही हैं तो इस असाध्य लक्ष्य को जीवन का ध्येय बनाकर उन्होंने पहले तो घर से पलायन किया फिर एकांत में जाकर कठिन व्रत-तप किया जिसके लिये निर्जल-निराहार रहकर अपने आपको भूला केवल शिव का ही ध्यान किया तो उनकी इतनी कठिन तपस्या ने उनकी समाधि को भंग कर दिया और फिर वही हुआ जो वे चाहती थी यानि कि शिव से विवाह तो ये सिद्ध करता कि यदि मन में कुछ भी पाने की चाह हो तो फिर सच्ची लगन से उसको पाने जुट जाना चाहिए चाहे कितनी भी मुश्किलें आये रुकना या झुकना न चाहिए तो वो ईश्वर भी उसे देने मजबूर हो जाता तो इस तरह हरतालिका का ये कठोर व्रत-तप हमें बहुर सारी शिक्षायें देता जिन्हें ग्रहण कर हम अपना जीवन सफल बना सकते हैं इसी आशा के साथ सबको इस पर्व की अनेकानेक शुभकामनायें... :) :) :) !!!
   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ अगस्त २०१७


बुधवार, 23 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३३ : जब बच सकते गुनाह से... फिर क्यों धंसते जा रहे दलदल में...???



जिसे देखो वही उस मौके की तलाश में रहता जबकि वो अपने गुनाहों को किसी दूसरे के उजले दामन में पौंछ खुद को बेदाग साबित कर सके कि आलम ही कुछ ऐसा कि जाने-अनजाने या फिर चाहे-अनचाहे ही कुछ ऐसा करना पड़ता जो मन को अपराधबोध से भर देता लेकिन जब यही सब बार-बार लगातार होता जाता तो फिर अंतर की वो पवित्र भावना न जाने कब तिरोहित हो जाती और इंसान गलतियों का अभ्यस्त हो जाता यही वजह कि छोटे-मोटे भ्रष्टाचार उसकी रगों में इस कदर घुल चुके कि वो खुद ही आगे बढकर अपनी सुविधा के लिये रिश्वत जैसे कृत्य खुद करता और पता ही न चलता कब अनजाने दलदल में धंस जाता...

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अपनी
गलतियों का
ठीकरा फोड़ने
जब तक हो किसी का सर
.....
अपने
शत्रुओं को
मारने के लिये
जब तक हो किसी का कंधा
.....
अपने
सलीब को
ढोने के लिये
जब तक हो किसी की पीठ
.....
अपनी
करनी की
सजा भुगतने के लिये
जब तक हो किसी के फैले हाथ
.....
अपने
गुलामी की
जंजीर बाँधने
जब तक हो किसी के पाँव
.....
अपने
किये की
तोहमत लगाने
जब तक हो किसी का नाम
.....
आदमी
बड़ा बेफिक्र
अपराधबोध से मुक्त
खुद को हर इलज़ाम से
बरी समझता हैं...
.....
पर...
उपरी अदालत में तो
न चलते ये तर्क ये दलील
फिर वो क्यों खुद को
बेगुनाह साबित करने इतनी
जद्दोजहद करता हैं
.....
एक पाप से बचने
कोई दूसरा पाप करता हैं ।।
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इस दौड़ती-भागती दुनिया में जहाँ दूसरे को गिराकर खुद को आगे बढ़ाने की जद्दोजेहद में सब लगे हो तब किस को होश को उसके पैरों के नीचे जमीन हैं या फिर किसी का सर उसे तो बस, येन-केन-प्रकरण शीर्ष पर पहुंचना ऐसे में जरूरी कि तनिक रुककर विचार करे इससे पहले कि पूरी तरह से डूब जाये... देर ही हुई हैं अभी अंधेर तो नहीं... :) :) :) !!!
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ अगस्त २०१७

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३२ : सब कुछ था उसके पास... फिर भी लगा वो कंगाल...!!!


‘लावण्या’ ने जैसे ही मोबाइल ओपन किया सामने नोटिफिकेशन में ‘सुमित’ के कई मैसेज थे लेकिन सबमें एक ही बात लिखी थी कि कहाँ हो तुम ? जल्दी ऑनलाइन हो न तुमसे जरूरी बात करनी हैं तो उसने सोचा कि ऐसा क्या हो गया जो वो उससे शेयर कर्ण चाहता हैं वैसे भी सोशल मीडिया पर उन दोनों को दोस्त बने अधिक दिन नहीं हुये लेकिन इस दरम्यान वो जान चुकी थी कि किस तरह ‘सुमित’ अपने एक आईडिया को स्टार्टअप में बदल एक बेहद सफल बिजनेसमैन बना जिसके पास दुनिया की हर सुख-सुविधा और ऐशो-आराम की हर एक चीज़ हैं यहाँ तक कि उसकी पसंद की लडकी से ही उसकी शादी हुई लेकिन उसके बाद भी कहीं न कहीं वो उसकी बातों में अकेलापन और दर्द महसूस करती कि उसकी वाइफ के पास तो उसके लिये टाइम ही नहीं आखिर वो भी तो एक सुपर मॉडल हैं जिसके पास अनेक कम्पनीज के मॉडलिंग के प्रस्ताव होते तो उसका एक कदम देश तो दूसरा विदेश में रहता जिसकी वजह से उनके बीच में दूरियां बढती जा रही थी क्योंकि जब भी उसको जरूरत होती या वो उसको अपने पास महसूस करना चाहता वो कभी भी उसके करीब नहीं होती ऐसे में वो सब चीजें जिसे पाने उसने इतनी मेहनत की वो सब उसे ज़हर लगने लगती कि इनकी वजह से ही उसका प्यार उससे बहुत दूर हो गया था जबकि कभी जब वो संघर्ष कर रही थी तब ‘सुमित’ की कंपनी ने उसे मॉडलिंग का पहला ऑफर देकर उसका हौंसला बढ़ाया था और जब उसने उसे प्रपोज किया था तब उसने प्रॉमिस किया था कि वो शादी के बाद ये सब छोड़ देगी कि जो कुछ भी वो कमाना चाहती वो सब उसे ‘सुमित’ से ही हासिल हो जायेगा फिर भला वो किसलिये परेशां होगी लेकिन शादी के बाद अचानक जब उसके प्रोफाइल से प्रभावित होकर कुछ बड़ी कम्पनियों ने उसे प्रस्ताव दिये तो वो इंकार न कर सकी जबकि ‘सुमित’ का सोचना था कि जब उनको जरूरत नहीं तो फिर किसलिये वो ये सब करना चाहती वो भी अपने दिये हुये वादे को तोड़कर पर, उन कम्पनीज के लुभावने प्रस्तावों ने उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी और उसने उन्हें स्वीकार कर लिया तब ‘सुमित’ को पहला झटका लगा लेकिन अपनी व्यस्तता और काम के कारण उसने उसे झेल लिया पर, उसके बाद जब वो लगातार ही एक के बाद एक ऑफ़र लेती गयी और उसकी वजह से उसने एबॉर्शन भी करवा लिया तो तो वो झल्ला गया पर, जब उसकी पत्नी ने अपना निर्णय सुना दिया कि वो अपने कैरियर को यूँ चरम पर छोड़कर न तो बच्चे पालना चाहती हैं और न ही पछताना चाहती हैं तब उसे दूसरा झटका लगा जिसे उसने अपनी सफ़लता के नशे में सहन कर लिया पर, हद तो तब हो गयी जब उसका एक्सीडेंट हुआ जिसकी वजह से उसे बीएड रेस्ट करना था तब उसकी इच्छा थी कि वो सब काम छोडकर उसके नजदीक आ जाये तब उसने उसे तीसरा और अंतिम झटका दे दिया कि जिस काम के लिये उसे उसकी जरूरत वो तो कोई नर्स भी कर सकती लेकिन जो वो कर सकती सिवा उसके कोई न कर सकता तो इसके बाद ‘सुमित’ ने उससे कोई भी उम्मीद या अपेक्षा रखना छोड़ दिया और तभी उन सबसे कमजोर लम्हों में उसकी ‘लावण्या’ से दोस्ती हुई तो भावुकता में बहकर न जाने कब उसने उसे अपनी सारी कहानी कह डाली जिसने उनकी मध्य दोस्तों को गहरा कर दिया इसलिये जब उसने उसके इतने मेसेजेस पढ़े तो तुरंत रिप्लाई किया बोलो क्या बात हैं तो उधर से एक सन्देश आया आज उसकी कंपनी ने वो मुकाम हासिल कर लिया जिसकी उसे ख्वाहिश थी पर, अब मुझे खुद से ज्यादा मेरा ड्राईवर खुशनसीब लगता जिसकी पत्नी उसका बहुत ख्याल रखती और उसके दोनों बच्चे उसके कांधों तक आकर उसका सहारा बनने लगे और एक वो हैं सब कुछ उसके पास फिर भी मन उदास... :( :( :( !!!
       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२२ अगस्त २०१७

सोमवार, 21 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३१ : सरहद पार से इक ख़त आया... हवाओं ने उड़कर जिसका जवाब पहुँचाया...!!!


बिखर गये
वो दर्द भरे आखर
पढ़ते-पढ़ते ही
इबारत धुंधला गई
देखते-देखते
पिघल गया कागज़
रोती आँखों में
अक्स बनते-बिगड़ते रहे
सिसकियों के बीच
थरथराते होंठों पर कोई नाम
आकर भी न आ पाया
मगर, दूर कहीं
किसी दिल को करार आया
सलामत रहे सरहद पर
देश की ढाल बना मेरा प्रियतम
दुआ में उठे हाथों संग
किसी होंठ पर ये पैग़ाम आया
तो रोती आँखों को पोंछ
सैनिक ने खुद को
नई ऊर्जा से भरपूर पाया
चूम लिया टुकड़ा-टुकड़ा ख़त का
तो शर्मा कर मूंद ली आँखें
ख़त लिखने वाली ने
जब यूँ अपने पत्र का जवाब पाया
हवाओं ने दुरी का अहसास मिटाया
तो फिर न किसी ने भी खुद को
तन्हा अकेला उदास पाया ।।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२१ अगस्त २०१७