मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-३०२ : देव जागरण की आई तिथि... ‘देव प्रबोधिनी एकादशी’ !!!



चार महीने के प्रतीकात्मक शयन के बाद आज 'देव प्रबोधिनी एकादशी' पर देवों को शंख बजाकर जगाया जाता हैं जिससे कि मंगल कार्यों का श्रीगणेश किया जा सके जो पिछले चार महीनों से बंद थे और आज इस ग्यारस को बड़े धूम-धाम से दीपावली की तरह मनाया जाता जिसमें तुलसी-शालिग्राम विवाह का भी आयोजन किया जाता जिससे कि वैवाहिक कार्यक्रमों की भी शुभ शुरुआत हो जाती हैं । वैसे तो साल में 24 एकादशी आती लेकिन इसे सबमें सर्वश्रेष्ठ माना जाता क्योंकि इसके साथ ही अन्तरिक्ष में सूर्य एवम अन्य ग्रहों की स्थिति में भी बड़ा परिवर्तन होता हैं जो मनुष्य की इन्द्रियों पर विशेष प्रभाव डालता हैं और इन प्रभावों को नियंत्रित करने तथा प्रकृति के साथ संतुलन स्थापित करने के लिए इस दिन व्रत का सहारा लिया जाता हैं क्योंकि 'व्रत' एवम 'ध्यान' से साधक के देह में स्थित समस्त चक्रों में जागृति उत्पन्न होती जिससे ऊर्जा का निर्माण होता जो उसके अंतर में संयम, धैर्य जैसे गुणों को विकसित कर उसे ज्ञानी बनाती हैं ।

हर तीज-त्यौहार का अपना अलग ही महत्व होता हैं जो हमें उसके बारे में जानने से ज्ञात होता हैं कि को भी उत्सव हम मनाते हैं उनके पीछे कोई न कोई आध्यात्मिक ही नहीं सामाजिक चिंतन भी शामिल होती हैं जिससे कि धर्मपथ के मार्ग पर चलकर कोई अपने व्यक्तित्व के साथ-साथ अपने आस-पास के परिवेश में भी सार्थक सकारात्मक परिवर्तन ला सके जिनसे की दीन-दुखी लोगों की जिंदगियो ही नहीं संपूर्ण धरा को ही इस तरह से बदला जा सके कि उसमें हर एक जीव को उसका अधिकार मिल सके न कि केवल ताकतवर या सामर्थ्यवान ही सबका भरपूर लाभ ले तो इस तरह एकादशी हमें प्रकृति से भी जोड़ती हैं और सामाजिक कायदों से भी जिसके पार्श्व में धार्मिक कथानकों का ताना-बाना इसलिये बुना गया कि उसी वजह से हो चाहे लेकिन व्यक्ति इन परम्पराओं से सदैव जुड़ा रहे नहीं तो बंधनहीन न होने या गैर-जरूरी का ठप्पा लगे होने से इंसान उस रवायत को छोड़ने में जरा-भी संकोच नहीं करता ऐसा ही कुछ हम इस पर्व में भी पाते हैं जिसमें हमें इन सभी तत्वों का अंश दिखाई देता हैं तभी तो ये सभी के द्वारा बड़े उत्साहपूर्वक मनाया जाता हैं कि ये उसे ऊर्जावान बनाकर उसको भावी जीवन हेतु तैयार करता हैं जिसकी वजह से वो आने वाली मुश्किलों का सामना हिम्मत से कर पाता हैं तो हम सब भी इसी भावना के साथ इसे मनाये दे सबको शुभकामनायें... :) :) :) !!!
            
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३१ अक्टूबर २०१७

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-३०१ : स्मरण करते आज के दिन... देश की महान विभूतियाँ तीन...!!!


विविधताओं से भरा अपना देश जितना अपनी बहुरंगी छवि और उसके बावजूद भी उनमें सामंजस्य के लिये जाना जाता हैं उतना ही उसका ये रूप और उसकी अनेकता में एकता वाली छवि को कायम रखने में उन लोगों का भी योगदान माना जाता हैं जिन्होंने इस धरती पर जन्म लेकर उसके प्रति अपने मानवीय व नैतिक कर्तव्यों का पालन किया इसलिये इनके नाम देश के इतिहास ही नहीं उसके हृदय में भी सदा-सदा के लिए अंकित हो गये कि किस तरह इन्होंने अपने-अपने अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में अपनी भूमिका का जिम्मेदारी से न केवल निर्वहन किया बल्कि हम सबको धरोहर के रूप में ऐसी विरासत सौंप गये जिन पर हम नाज़ करते हैं एक तरफ हम जीवन भर सोचकर भी अपना कर्मस्थल और लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर पाते वहीं दूसरी तरफ यहां ऐसे लोगों ने आंखें खोली जिनके सामने उनका स्पष्ट ध्येय और जीवन उद्देश्य था जिसके निर्धारण के पश्चात् उन्होंने अपने आपको पूर्णरूपेण उसके प्रति समर्पित कर दिया कि उस क्षेत्र में वो एक मिसाल बन गये आज ऐसा ही एक सौभाग्यशाली दिवस जिससे  तीन ऐसी महान हस्तियों का जुड़ाव जिन्होंने सर्वथा पृथक कार्यक्षेत्रों को अपने निर्दिष्ट संकल्प प्राप्ति के लिये चुना और उसे हासिल कर शीर्ष पंक्ति में अपनी जोरदार उपस्थिति से सबक ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया और उनके अद्भुत कार्यों ने उन्हें दूसरों के समक्ष एक आदर्श के रूप में स्थापित कर दिया ।

सर्वप्रथम पुण्य स्मरण उस दिव्यात्मा का जिसने वेदों में वर्णित सूत्रों के वास्तविक अर्थ को ग्रहण करते हुये धर्म की एक नवीनतम धारा का विकास किया जिसे 'आर्य समाज' के नाम से जाना जाता हैं । उन्होंने उस समय के समाज में व्याप्त सभी तरह की कुरूतियों एवं अंधविश्वासों का पुरजोर विरोध ही नहीं उसे समाप्त करने के लिये हरसंभव जमीनी प्रयास भी किया ताकि धार्मिक आडम्बरों में फंसे लोग इनसे मुक्त होकर अपनी ऊर्जा व समय को सार्थक कामों में लगाकर भारतवर्ष को उन्नति के पथ पर ले जा सके और ये काम आसान नहीं था लेकिन उनका संकल्प इतना दृढ़ था कि कोई भी बाधा उन्हें अपने मार्ग से विचलित न कर सकी । महज़ 21 साल की आयु में इन्होंने सन्यासी जीवन का वरण किया क्योंकि उनको जो प्राप्त करना था उसके लिये यही एकमात्र मार्ग था जिससे कि वे किसी भी दूसरी जिम्मेदारी में बंधकर मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति कमजोर न पड़ जाये तो पारिवारिक रिश्तों की जगह सांसारिक रिश्तों को अपना लिया सबको अपना मान लिया और जगह-जगह घूम-फिरकर सबको ये संदेश दिया कि उनके भीतर अंग्रेजी हुकूमत से लड़ने की सामर्थ्य हैं जरूरत केवल उसे पहचानने और उसका उपयोग करने की हैं जिससे कि सभी का भला हो सके उन्हें जागरूक बनाकर स्वामीजी ने एक करने का बीड़ा उठाया कि उसके बिना ये जंग जीत पाना संभव नहीं और वर्ण-व्यवस्था की सामाजिक विसंगति को नए तरह से परिभाषित किया कि इसका तात्पर्य ये नहीं कि कोई किसी से ऊंचा या नीचा हैं बल्कि उनमें जो अंतर हैं वो प्राकृतिक जिसके आधार पर किसी को कम समझना गलत हैं इस तरह की कई गलत धारणाओं को तोडने का उन्होंने प्रयास किया जिसका नतीजा कि उनके साथ जुड़ने वालों की संख्या बढ़ने लगी और उनके प्रयासों की वजह से बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह, नारी शिक्षा और वर्णभेद के प्रति लोगों में जागृति आई ।

सिनेमा के माध्यम से 70mm के रजत परदे पर भी न केवल उत्तम सामाजिक संदेश दिया जा सकता हैं बल्कि देशसेवा भी की जा सकती हैं और ये कारनामा कर दिखाया निर्देशक, अभिनेता  वी. शांताराम ने जिन्होंने क़रीब छह दशक लंबे अपने फ़िल्मी सफर में हिन्दी व मराठी भाषा में कई सामाजिक एवं उद्देश्यपरक फ़िल्में बनाई जिन्होंने समाज में चली आ रही कुरीतियों पर गहरी चोट करते हुए उनके लिये अपनी तरफ से एक समाधान भी प्रस्तुत किया । अपने पूरे फिल्मी कॅरियर में उन्होंने सतत ये प्रयास किया कि वे सिर्फ मनोरंजन के लिये ही फिल्मों का निर्माण न करें बल्कि इस सशक्त माध्यम को जागरूकता फैलाने के लिए प्रयोग में लाये तो इस कारण से उन्होंने जब भी किसी कहानी को फिल्माने के बारे में सोचा उसके संदेशात्मक पक्ष को कभी अनदेखा नहीं किया जिसने उनकी फिल्मों को एक अलग श्रेणी में स्थान दिलवाया जहां पर वे आज भी शीर्ष में विराजमान हैं उन्होंने कभी भी कोई ऐसी फिल्म नहीं बनाई जो समाज को कुछ भी न देती हो तो उस दौर की सभी दुष्प्रथाओं को आप उनकी अलग-अलग फिल्मों में देख सकते हैं । उन्होंने अपनी फिल्मों में अनेक प्रयोग भी किये जिन्हें देखकर लोग चकित रह गये कि जिसकी कल्पना कर पाना भी मुमकिन नहीं उसे उन्होंने पर्दे पर साकार कर दिखाया जिसका जीता-जागता प्रमाण उनकी बनाई दो आंखें बारह हाथ, डॉ कोटनिस की अमर कहानी, पड़ोसी, दहेज, सेहरा, नवरंग, झनक-झनक पायल बाजेपिंजरा जैसी  अनेक फिल्में हैं और अपनी अभूतपूर्व काबिलियत से उन्होंने ऐसे शाहकार रचे जो उनकी पहचान बन गये और उनकी प्रयोगधर्मिता की वजह से उन्होंने उस कालखंड में रंगीन फ़िल्म बनाने के साथ-साथ मूविंग शॉट हेतु ट्रॉली तथा एनीमेशन का उपयोग भी पहली बार अपनी फ़िल्म के लिए किया जिसकी बदौलत हर तरह का सम्मान, पुरस्कार और देश-विदेश में ख्याति प्राप्त की और आज भी उनकी अमर कृतियाँ उनका प्रतिनिधित्व कर रही हैं ।

'डॉ होमी जहांगीर भाभा' कहने को वैज्ञानिक और परमाणुशास्त्री लेकिन, यदि उनका देश के प्रति योगदान देखें तो ज्ञात होता कि निजहित की जगह उन्होंने देशहित को ही सर्वोपरि समझा और किस तरह से वे अपनी असाधारण प्रतिभा का सदुपयोग कर अपने वतन को अपनी आहुति समर्पित कर सके जिससे कि भारत देश आज़ादी के बाद जो विश्व के समक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कमजोर नजर आ रहा अपनी मजबूत पहचान बना सके तो इस हेतु उन्होंने पूरी तरह से खुद को भारत के नवनिर्माण हेतु झोंक दिया जिसका नतीजा कि आज देश में जिस परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की कल्पना उन्होंने की थी आज हम उसको साकार देख पा रहे हैं । उनके मन में अपने देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक क्रांति लाने का जो जुनून था उसी का प्रतिफल है कि आज विश्व के सभी विकसित देशों भारत के नाभिकीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा एवं क्षमता का लोहा माना जाता है जो हमारे लिए गर्व का विषय हैं । डॉ. भाभा ने नाभिकीय विज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट अनुसंधान के लिए एक अलग संस्थान बनाने का विचार बनाया जो सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए वैज्ञानिक चेतना एवं विकास का निर्णायक मोड़ था क्योंकि केवल यही वो क्षेत्र था जहाँ भारत अन्य देशों के मुकाबले कमजोर था उनकी इस चिंता ने उन्हें ऐसा संस्थान बनाने प्रेरित किया जहां भारत के नवयुवक अपनी प्रतिभा का तराशकर ऐसे अविष्कार करे जिनसे इस देश का नाम विश्व मानचित्र पर उभर सके और इसके लिए कार्य का शुभारंभ तो कर दिया पर उसे अंत तक न पहुंचा पाये और बीच सफर में हमें छोड़कर चले गए पर, उनका वो स्वप्न 'भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र' के रूप में हमारे साथ हैं जो हमारे लिये गौरव का विषय हैं क्योंकि इसके दम पर ही हम परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में विश्व को टक्कर दे रहे हैं ।
       
आज इन तीनों के पुण्य स्मरण का दिन जिसने अलग-अलग समय में जन्म लेने के बाद भी कहीं न कहीं इन्हें एक कर दिया... कोटि-कोटि नमन इन पुण्यात्माओं को... :) :) :) !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३० अक्टूबर २०१७

रविवार, 29 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-३०० : ‘मन’ या ‘ग्लोब’...!!!



टेबल पर रखे ‘ग्लोब’ को
वो यूँ ही घुमा रही थी
शायद, कुछ न था करने को तो
यूँ ही समय बिता रही थी
कि तभी अचानक
घुमते-घुमते वो थम गया
साथ उसके उसकी नजरें भी
बस, वो जो सामने था
वहीँ उसका ‘मन’ भी पहुंच चुका था
सोचती थी अब तक वो यही कि,
सब कुछ बिसरा दिया हैं
मगर, लग रहा था
मानचित्र की तरह सबकुछ
वहीँ का वहीँ हैं
कुछ भी तो नहीं बदला भीतर
सब जस का तस हैं
पता नहीं था कि,
दिल के नक्शे में भी
सबकुछ यथावत रहता हैं
जैसा एक बार बना दिया जाये
बिल्कुल वैसा ही
कभी-कभी विभाजन हो जाता हैं
मगर, हर एक हिस्सा
अपनी ही जगह पर ज्यों का त्यों
स्थिर और अपरिवर्तित
               
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ अक्टूबर २०१७

शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२९९ : लघुकथा : ‘हेलमेट’ !!!


दादाजी, आप बाहर जा रहे हो हेलमेटतो लगा लो...

बेटा, कहना बेकार हैं कोई फर्क न पड़ेगा तुम्हारे दादाजी को हम तो इतने सालों से कह रहे कभी न सुनी हमारी बात अब तो घर में सबने कहना भी छोड़ दिया ।

क्यों दादाजी, आप क्यों नहीं मानते सबकी बात आपके भले के लिये ही तो कहते सब, बोलिये न, क्यों नहीं पहनते उसे?

दादाजी मुस्कुराये और फिर दादीजी के पास जाकर खड़े होते हुए बोले, कौन कहता मैं 'हेलमेट' नहीं लगाता अपनी माँ के सर पर देखो रोज ही होता...

पापा, वो तो सिंदूर हैं माना वो आपकी लंबी आयु के लिये ही माँ लगाती पर, उससे आपकी रक्षा कैसे होगी यदि कभी कुछ होना ही हुआ तो 'सिंदूर' माथे पर ही सजा रह जायेगा और अनहोनी हो जायेगी ।  

बेटा, यदि कुछ होना ही होगा तो फिर हेलमेटभी न बचा पायेगा नहीं तो इस सिंदूरका विश्वास ही मेरी रक्षा के लिये काफी, ये मेरा संबल जो मुझे ताकत देता जिसे बड़ी आस्था के साथ तुम्हारी माँ रोज लगाती और ये प्रतिदिन मुझमें जीने की उमंग जगाता इसलिये उस हेलमेटकी मुझे कभी जरूरत महसूस नहीं होती...

पापा का ये अटूट विश्वास देख फिर उसकी कुछ कहने की हिम्मत न हुई... वो उन दोनों के आपसी प्रेम की मजबूती देखकर अपने रिश्ते के बारे में सोचने लगा जहाँ ऐसा कोई भी जज्बा नहीं जो उसमें जीने की उमंग जगाये कि उसकी आधुनिक बीबी तो अपने सुख की खातिर उसे और उसके मासूम बच्चे को छोड़कर चली गयी पीछे रह गयी तो वही सिंदूर की डिबिया जिसे देखकर उसे पिता जीते और वो खुद को बेजान महसूस करता आज उसे सिंदूरकी ताकत का वास्तविक अहसास हुआ ।   

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२८ अक्टूबर २०१७

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२९८ : नौजवानों को देशभक्ति सिखाती... ‘जतीन्द्रनाथ दास’ की क़ुरबानी...!!!



गुलामी में बीते बरसों की तुलना में आज़ादी के साल कम हैं लेकिन, इतने ही अल्प समय में जिस तरह से नौजवानों की सोच और जिंदगी जीने का रवैया बदला वो विचारणीय हैं कभी इस देश में ऐसे भी लोग हुये जिन्हें जन्म के साथ ही जन्मभूमि के प्रति अपने फर्ज़ का भी अहसास हो गया कि जिस वातावरण में उन्होंने जनम लिया हैं वो कतई फ़िज़ूल में जाया करने के लिए नहीं हैं तो एक-एक पल का इस तरह से सदुपयोग किया कि जिस उम्र में अभी हमारे यहाँ जवानों को अपने लक्ष्य तक का अहसास नहीं होता उस उम्र में तो वे मातृभूमि के चरणों में अपने प्राणों की क़ुरबानी देकर दुबारा इस भूमि में आने का संकल्प लिये अपने जीवन का सफ़र खत्म करके चले भी गये और उनकी जीवन गाथा को पढ़ा तो ज्ञात होता कि उनका लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा इस तरह से हुई कि उनके मन में देशभक्ति की भावना स्वतः ही उत्पन्न हुई न कि उन्हें इस तरह का स्वछंद माहौल मिला कि वो अपने सिवाय किसी के बारे में सोचे ही न तो ऐसे शहीदों की फेहरिश्त बहुत लम्बी जिन्होंने बहुत छोटा जीवन जिया लेकिन काम बहुत बड़े किये जिनमें एक बड़ा नाम ‘शहीद जतीन्द्रनाथ दास’ का हैं जिन्होंने आज ही के दिन 27 अक्टूबर, 1904 को इस भारत देश की बंगभूमि में एक अत्यंत साधारण परिवार में जनम लिया लेकिन, बचपन से ही देश के हालातों व स्वतंत्रता संग्राम ने उनको इस तरह अपनी तरफ आकर्षित किया कि फिर मन किसी दूसरी तरफ न रमा और जब ‘महात्मा गाँधी’ ने ‘असहयोग आन्दोलन’ की शुरुआत की तो उन्होंने अपनी नाज़ुक उम्र नहीं बल्कि वक्त की नजाकत को समझा जिसे उनकी जरूरत थी और वे इसमें शामिल हो गये इस तरह से उनकी क्रांतिकारी यात्रा का शुभारंभ हुआ जिसमें आगे बेहद खतरनाक मोड़ आये लेकिन उन्होंने तो अपने सर पर कफ़न बांधकर इस राह को चुना था तो फिर पीछे न मुड़े यहाँ तक कि वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने बड़ी कम उम्र में बम बनाना भी सीख लिया था जो उनकी सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती हैं कि उनके बनाये बमों का ही प्रयोग ‘भगत सिंह’ और ‘बटुकेश्वर दत्त’ ने 8 अप्रैल, 1929 को ‘केन्द्रीय असेम्बली’ को उड़ाने के लिये किया था

उनकी इस कला ने उनको क्रांतिकारियों के मध्य तेजी से लोकप्रिय बनाया क्योंकि सबको ये हुनर नहीं आता था और उनकी काबिलियत ने उन्हें ‘सुभाषचंद बोस’ का सहयोगी ही नहीं ‘भगत सिंह’ का मित्र भी बनाया और उनकी इन विध्वंशक गतिविधियों ने 14 जून, 1929 को को उनको फिरंगी सरकार का कैदी बना दिया और उन पर 'लाहौर षड़यंत्र केस' में मुकदमा चला और जेल में क्रान्तिकारियों के साथ राजबन्दियों के समान व्यवहार न होने के कारण जब क्रान्तिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन आरम्भ कर दिया तो जतीन्द्र भी इसमें शामिल हो गये जो उनकी मौत की वजह बना और वे छोटी उम्र में ही चले गये लेकिन उनकी इस शहादत को हम भूल नहीं सकते उनको कोटि-कोटि नमन... :) :) :) !!!
    
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ अक्टूबर २०१७

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२९७ : कलम ने जिसकी निडर पत्रकारिता की परिभाषा गढ़ी... वो हैं ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ !!!



अंग्रेजों ने ‘भारत’ को गुलाम तो बनाया ही साथ ही ये भी प्रयास किया कि यहाँ के लोग उनकी खिलाफ़त न कर सके और एकजुट होकर उनके विरुद्ध उठ न खड़े हो तो ऐसी स्थिति में यदि कोई भी आवाज़ उठाता या दूसरे लोगों को जगाने का प्रयास करता तो उसे सदा-सदा के लिये खामोश कर दिया जाता लेकिन ये तो भारत माता के सपूत थे जो अपनी जान की बाजी खेलकर भी उस जंग को जीतना चाहते थे जिसका लाभ भी उन्हें न मिलना था पर, मन में कहीं न कहीं ये सोच थी कि भले हम जीवित न रहे लेकिन हमारी आने वाली पीढियां, हमारी संतति को इस तरह के माहौल में अपना जीवन न गंवाना पड़े तो उन अनदेखी संतानों के लिये उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी जो आज उनको ही न तो याद करते और न ही उनके प्रति मन में किसी तरह का कृतज्ञता का ही भाव रखते उन्हें तो अहसास होता कि उन्हें आजादी तश्तरी में सजी हुई मिली तो ये किसी का अहसान नहीं उनकी किस्मत हैं कि उन्होंने स्वतंत्र भारत में जनम लिया तभी तो २०० सालों की परतंत्रता में बिताये गये अपने ही पूर्वजों के उन कठिनाई भरे दिनों को मात्र ७० सालों में ही यूँ बिसरा दिया जैसे कि वो वाकी इतिहास में वर्णित कोई कपोल कल्पना हो बल्कि आजकल तो उन ऐतिहासिक तथ्यों को भी अपनी तरह से तोड़-मरोड़कर पेश करने का नया प्रचलन शुरू हो गया जो इतना भ्रामक हैं कि आने वाली पीढ़ी को तो ये सब मिथ्या प्रतीत होने लगेगा कि एक तो वैसे ही उनकी इसमें कोई रूचि नहीं दूसरे उनको अपने आप से फुर्सत नहीं तो ऐसे में इन असली नायकों की गाथाओं को पुनः स्मरण करना अत्यंत आवश्यक व प्रासंगिक हो चुका हैं

‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ एक ऐसा ही नाम जिन्होंने आज ही के दिन २६ अक्टूबर १८९० को प्रयाग (वर्तमान में इलाहाबाद) में जन्म लिया उस कालखंड में जो इतिहास में काले अध्यायों के रूप में दर्ज हैं लेकिन उसके बावजूद भी उन्होंने अपने आपको कमजोर न पड़ने दिया और न ही कभी फिरंगियों से डरे क्योंकि वे अपनी काबिलियत व क्षमताओं को जानते थे और उनके दम पर ही उन्होंने अपने आपको उन विपरीत परिस्थितियों में भी कभी डिगने न दिया अपनी अथक मेहनत व अपूर्व लगन से उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण तो जरुर कर ली लेकिन आजीवन विद्यार्थी ही बने रहे और जब भी जहाँ भी जो कुछ भी सीखने को मिला कभी पीछे न हटे और मन में अपनी मातृभूमि के प्रति कुछ करने का भाव था तो सरकारी नौकरी मिलने के बाद भी सरकार का उनके प्रति दासों वाला वो रवैया उन्हें बर्दाश्त न हुआ और उन्होंने उस नौकरी को छोड़कर शिक्षा के क्षेत्र में अपनी सेवा देना शुरू कर दिया लेकिन रुझान पत्रकारिता में अधिक था तो पहले ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ के सानिध्य में ‘सरस्वती’ में लेखन कार्य किया और फिर ‘अभ्युदय’ से जुड़ गये और अंतत उस जगह पहुंचे जिसकी वजह से उन्हें जाना जाता याने कि ‘प्रताप’ के संपादक के तौर पर और इस अख़बार ने उनको वो प्रतिष्ठा दिलवाई जिसने उनको शीर्ष पर स्थापित कर दिया

कोई भी विषय हो या मुद्दा वे कभी डरते नहीं थे और बड़े निर्भीक होकर अपनी बात रखते थे जिसके कारण उनके  आलेखों को पाठक बड़ी रूचि लेकर पढ़ते थे और साहित्य प्रेम ने उनको कथा लिखने भी प्रेरित किया तो उन्होंने उस विधा पर भी अपनी कलम चलाई जिसने उनकी लोकप्रियता में इजाफा किया यही वजह कि भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल भी ‘प्रताप’ से जुड़ना गौरव की बात समझते थे क्योंकि ‘विद्यार्थी जी’ के क्रांतिकारी विचार उनको अपने से ही लगते थे और शायद, यही कारण कि उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में उनका समाचार पत्र ‘प्रताप’ भी अहम साबित हुआ जिसने मुखरता के साथ अपनी बात कही और इस बेबाकी से अंग्रेज सरकार उनसे डरती थी परंतु दुर्भाग्यवश हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों में 25 मार्च 1931 को उनकी जान चली गयी ये वही साल जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को भी इसी महीने में दो दिन पूर्व असमी फांसी दी गयी थी अब केवल उनकी स्मृति ही शेष हैं जो बताती कि उस समय किस तरह के जुझारू लोग हुए जो आज दुर्लभ कि अब तो पत्रकारिता बिकी हुई हैं               
       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२६ अक्टूबर २०१७

बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२९६ : रिश्ते रूहानी... होते आसमानी...!!!



हाइकूकी माध्यम से एक प्राकृतिक प्रेम-कहानी को शब्दों में पिरोने की कोशिश की हैं... 
ये प्रेमी-प्रेमिका आपके जाने-पहचाने हैं... 

चलिये फिर भी आपकी जानकारी के लिये इनके नाम बता ही देती हूँ---

प्रेमी  ---- ‘चाँद
प्रेमिका --- ‘चांदनी



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उसने कहा
मुझे चाँद चाहिए
मैं चाँद बना ।।
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वो हैं चांदनी
मैं उसका चंद्रमा
आधे-अधूरे ।।
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रात में आता
गुप-चुप मिलता
आसमां तले ।।
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वो ओढ़े आती
सितारों की चूनर
लजाती हुई ।।
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प्यार हमारा
धीरे-धीरे बढ़ता
पूर्ण हो जाता ।।
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प्यार हमारा
धीरे-धीरे घटता
लुप्त हो जाता ।।
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प्यार हमारा
कभी खत्म ना होता
घटे या बढे ।।
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ग्रहण लगा
दुनिया ने डराया
पीछे ना हटा ।।
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शापित हुआ
ये दुःख भी झेला
पर ना डिगा ।।
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१०.
प्रीत हमारी
थी सबसे निराली
अमर हुई ।।
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आज भी इनका प्रेम अमर हैं और सबके लिये प्रेरणास्त्रोत कि किस तरह से ये दोनों सदियों से एक-दूसरे का साथ निभा रहे हैं... <3 !!!
       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२५ अक्टूबर २०१७