रविवार, 24 दिसंबर 2017

सुर-२०१७ : ‘सांता’ कोई और नहीं... छिपा हम सबमें ही कहीं...!!!



‘मीतिका’ के पापा नहीं थे तो वो जब सबके पिता को देखती तो सोच में पड़ जाती कि सिर्फ उसके ही पास ‘पापा’ क्यों नहीं जबकि सबके पास हैं उसे क्या पता कि दुनिया में वो अकेली नहीं जिसको ये दुःख मिला न जाने कितने हैं लेकिन, हम उनको जानते नहीं तो लगता कि हमसे ज्यादा दुखियारा दुनिया में कोई नहीं बड़े-बड़ों को ये गुमान रहता फिर वो तो एक बच्ची थी तो किस तरह न इस गलतफहमी की शिकार होती इसलिये उसके जीवन का सबसे बड़ा दर्द यही था ऐसे में उसकी माँ उसकी कोई भी इच्छा पूरी करने में कोई कसर न छोड़ती थी फिर भी कहीं न कहीं उसे ये लगता कि वो उसको वो खुशियाँ न दे पा रही या उसकी जीवन की उस कमी को नहीं भर पा रही क्योंकि उसके सब कुछ करने उसकी हर छोटी-बड़ी ख्वाहिशों को पूरा करने के बावजूद भी वो इस एक ख्याल से अक्सर उदास रहती उसके मुखड़े से उस रंग को जुदा करने उसने सब जतन किये पर, जितना कोशिश करती वो उसे उतना ही गहरा प्रतीत होता फिर उसने उसे एक दिन ‘सांता’ के बारे में बताया और कहा कि वो उनसे अपने मन की मुराद पूरा करने को कहे इसके लिये वो अपनी मनोकामना एक कागज़ पर लिखकर अपने तकिये के नीचे रख दे तो सुबह उसकी वो आरजू पूर्ण हो जायेगी तो वो हर बरस एक ही ख्वाहिश लिखती और ‘सांता’का इंतजार करती पर, वो पूरी न होती तो ऐसे में जब लगातार पांच साल तक यही हुआ तो उसे गुस्सा आ गया और वो  सोचने लगी कि ये सब झूठ हैं कोई सांता-वांता नहीं होता सब बकवास हैं

ऐसी सोच के साथ एक दिन जब वो क्रिसमस की पूर्व संध्या पर टूटे हुये दिल के साथ पार्क में बैठी दूसरे बच्चों को अपने माता-पिता के साथ हंसते-खिलखिलाते देख रही थी तो बहुत देर से उस फूल से चेहरे वाली बालिका के मुरझाये मुख को देखकर ‘फादर एंटो’ उसके पास आये और उसकी वजह पूछी तब उसने उन्हें सब कुछ बता दिया तो उसकी मासूम उक्ति सुनकर वो मुस्कुराये और फिर बड़े प्यारे से बोले...

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मनोकामना
जो भी रह जाये अधूरी
लिखकर पर्ची पर
रख दो तकिये के नीचे
तो उस ख्वाहिश को पूरा करने
ईश्वर भेजता कोई दूत
जो इच्छा को बांच
उस पर्ची की जगह रखता
उसका साकार रूप
गर, ऐसा न हुआ हो कभी
आपके साथ तो कोई बात नहीं
आप ही किसी टूटे दिल की
उस आरज़ू को कर देना पूरी
ताकि वो उम्मीद जो जुड़ी
'संता आया खुशी लाया' संग
आप बन सको उस रस्म की ताबीर
बन जाओ पैग़म्बर
उन सभी दुखी आत्माओं के
जो हर बरस बड़ी आस लिये
करती सारी रात इंतज़ार
कि सुबह लायेगी उसका पैगाम ।।
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फिर उन्होंने पूछा कि इससे उसे क्या समझ आया तो उसने गम के बादल को परे ढकेलते हुये सूर्य की भांति चमकते ओजस्वी आभामय अपने मुख से बेहद सयंत स्वर में कहा, फादर मैं यही समझी कि वो जो पार्क के बाहर बैठे और जिनके लिये अंदर आना ही बड़ी चाहत मैं उनके पास जाकर उनको यहाँ लाऊं उनके साथ खेलूं तो मैं भी एक ‘सांता’ बन सकती याने कि वो फ़रिश्ता जिसे हम समझते कि आसमान से उतरकर आयेगा वो तो हमारे बीच ही रहता केवल हम ही उसे देख नहीं पाते या कभी खुद में जगा नहीं पाते पर, आज आपके उपदेश से मेरे अंदर का वो सोया ज्ञान जाग गया तो अब मैं कोशिश करूंगी कि दूसरों की इच्छाओं को पूर्ण करने का लक्ष्य निर्धारित कर अपने जीवन को सफल बनाऊं और इस तरह ये ‘क्रिसमस’ उन सबके साथ मनाऊं जिनके लिये ‘रोटी’ से बढ़कर कोई गिफ्ट नहीं और हम बड़ी-से-बड़ी सौगात को भी तुच्छ समझते कि हमारे पास सब कुछ हैं पर, कुछ लोग ऐसे भी जिनके पास रहने तक का ठिकाना नहीं और न खाने को दाना हैं । वो दौड़कर उन बच्चों के पास गयी उनको अपने पास रखी चॉकलेट्स दी और उनके साथ मिलकर खेलने लगी फिर उसने मुडकर उस जगह देखा जहाँ फादर बैठे थे तो वहां उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया लेकिन, उसने आज जो पाया उसने उसकी जीवन का दर्शन, उसकी सोच, उसके ख्यालात और उद्देश्य सब कुछ एकदम अपने ध्येय पर केन्द्रित कर दिये जिसके लिये वो उस अजनबी दोस्त की शुक्रगुज़ार थी उसे लगा वो कोई और नहीं सचमुच ‘सांता’ था ।  
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२४ दिसंबर २०१७

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

सुर-२०१७ : कहलाये सदी के महानतम गणितज्ञ ‘श्रीनिवास अयंगर रामानुजन’...!!!


विलक्षण प्रतिभा के धनी और किसी विशेष कार्य के लिये जन्मे व्यक्ति अपने छोटे-से जीवन में इस तरह से हर पल का सदुपयोग करते कि जितने दिन भी वे जीते लगता उतने जीवन जी लिये क्योंकि वे अपने एक जन्म में ही इतने सारे काम कर जाते कि उनका गुणगान करते-करते सदियाँ गुजर जाती लेकिन, फिर भी उनके विराट व्यक्तित्व को कभी संपूर्ण रूप से नहीं जान पाती जितना भी उनको जाना जाता उतना ही उनके किरदार का एक नया रंग सामने आता और उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों पर आने वाली पीढियां युगों तक शोध करती रहती ऐसा ही अद्भुत करिश्मा कर दिखाया उस बालक ने भी जो तमिलनाडु के इरोड गांव में २२ दिसम्बर १८८७ को एक अत्यंत साधारण परिवार में जन्मा और अपने उस छोटे से गांव के स्कूल में ही उसने अपनी ईश्वर प्रदत्त असाधारण बुद्धिमता का अभूतपूर्व प्रदर्शन किया

जिसे हम बोलते कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते तो जब वे प्रारम्भिक कक्षा की पढ़ाई कर रहे थे उसी समय उनकी कक्षा में उनके अध्यापक ने विद्यार्थियों को एक कार्य करने को दिया वे बोले कि, “आधा घंटे में एक से सौ तक की सब संख्याओ का जोड़ निकालकर मुझे दिखाइएतो तुरंत सारे बच्चे उस सवाल को हल करने में जुट  गये परंतु, महज़ दस मिनट बीतने से पहले  सात वर्ष का एक विद्यार्थी अपनी कॉपी में उस सवाल को हल कर गुरूजी से उसकी जाँच कराने ले आया जब गुरूजी ने उसे जांचा तो उन्होंने पाया कि उत्तर एकदम सही हैं यह देखकर वे आश्चर्यचकित रह गये क्योंकि इस बालक ने इस सवाल को हल करने में जिस ‘सूत्र’ का प्रयोग किया है वो उसके वश की बात न थी कि  उसका ज्ञान केवल उच्च कक्षा के विद्यार्थी को ही हो सकता है तब अध्यापक ने उस बालक से पूछा- “बेटा, तुमने यह सूत्र कहाँ से सीखा ?” तो बालक ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया- “गुरूजी, मैंने किताब से पढ़कर इसे जाना”

ये बात सुनते ही अध्यापक हैरान रह गये कि इस नन्हे-से बालक ने इस सूत्र का ज्ञान किसी बड़ी कक्षा की पुस्तक को पढ़कर किया है इस एक घटना से ये साबित होता कि उनके लिये ‘गणित’ अन्य सभी बच्चों की तरह कोई हौवा नहीं बल्कि एक खेल था तभी तो जहाँ दूसरे बच्चे उससे घबराते, दूर भागते वो हमेशा उसमें ही लगे रहते जिसका नतीजा कि उन्होंने छोटी-सी उम्र में ही इसका गहन अध्ययन कर बहुत-से सूत्रों को स्वयं से ही समझ लिया और जब वे चाहते अपने हिसाब से उनका प्रयोग कर अपने शिक्षकों को चकित कर देते थे । संख्याओं से उनको विशेष प्रेम था जिसकी वजह से वे ‘मैजिक वर्ग’ बनाते रहते और बड़ी कक्षाओं की किताबें पढ़कर वो ज्ञान हासिल करते जिससे आज के सवाल हल किये जा सके तो उनकी इस लगन ने उनको ‘गणित’ जैसे दुरूह विषय को समझने में बड़ी मदद की और १६ वर्ष की आयु में रामानुजन ने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की जिससे उन्हें छात्रवृति मिलने लगी ।

‘गणित’ के प्रति उनका अनन्य आकर्षण कि वे दूसरे विषयों पर उतना ध्यान नहीं दे पाये जिसकी वजह से वे प्रथम वर्ष की परीक्षा में गणित को छोड़कर सभी विषयों में अनुतीर्ण हो गये तो इस कारण से उन्हें छात्रवृति मिलना बंद हो गयी ऐसे में जबकि घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी तो उनको प्राइवेट परीक्षा देने पड़ी जिसमें वे असफल रहे पर, उन्होंने हार नहीं मानी और घर पर रहकर ही गणित पर मौलिक शोध करने लगे। उन्होंने अपना सारा जीवन गणित को समर्पित कर दिया और मानिसक तनाव व खान-पान की लापरवाही से तपेदिक के शिकार हो गये जिसकी वजह से महज़ ३३ साल की कम उम्र में वे अपनी साधना अधूरी छोड़कर ६ अप्रैल १९२० में वे हमसे दूर चले गये लेकिन, अपने जीवनकाल में लगभग 3,884 प्रमेयों का संकलन किया जिन पर आज भी शोध कार्य चल रहा हैं । उनके इस महानतम योगदान को देखते हुये उनके जन्मदिन को अपने देश में आज ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ के रूप में मनाया जाता हैं ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२२ दिसंबर २०१७

बुधवार, 20 दिसंबर 2017

सुर-२०१७ : हर अभिनेता की बनी पहली पसंद... बहुमुखी प्रतिभा की धनी ‘नलिनी जयवंत’...!!!


हिंदी सिने जगत में जिसे अभिनय का सम्राट ही नहीं अभिनय की चलती-फिरती संस्थान कहा जाता उन ‘ट्रेजेडी किंग’ दिलीप कुमार ने जब ‘नलिनी जयवंत’ के साथ ‘अनोखा प्यार’ व ‘शिकस्त’ में काम किया तो उसे सबसे अधिक प्रभावशाली और संवेदनशील अभिनेत्री का ख़िताब दे दिया जो साबित करता कि वो दौर जबकि फिल्म उद्योग अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहा था तब उसमें दौड़ने का साहस भरने का काम उस वक्त के कलाकारों ने किया जिसमें नायक ही नहीं नायिकाओं का भी भरपूर योगदान हैं वैसे भी किसी फिल्म का पूरा दारोमदार केवल अभिनेता के उपर नहीं होता उसमें अभिनेत्री का भी उतना ही सहयोग होता हैं इसलिये हर कालखंड में हम इन कलाकारों की प्रसिद्ध जोड़ियों के बारे में सुनते जो इस कदर एक-दूसरे के नाम से जुड़ जाती कि एक नाम बन जाती ऐसा ही हुआ जब ‘नलिनी जयवंत’ और उस समय के बड़े महान अदाकार कहे जाने वाले ‘अशोक कुमार’ ने एक साथ ‘समाधि’ और ‘संग्राम’ में काम किया तो इनकी जोड़ी ने रजत परदे पर कमाल कर दिया और इनका नाम ही नहीं इनके दिल भी आपस में जुड़ गये जिसका नतीजा ये निकला कि मौन रहकर भी उन्होंने अपने प्रेम का इजहार यूँ किया कि ‘अशोक’ ने ‘नलिनी’ के घर के सामने ही अपना घर बनाया पर, कभी भी मुंह से कुछ नहीं कहा बस, छत पर जाकर दूरबीन से उनकी एक झलक देखकर उन्हें अपने दिल के करीब महसूस कर सुकून पा लेते थे

‘नलिनी’ की खुबसूरती ने सबको इस तरह से अपनी तरफ आकर्षित किया कि जब उन्होंने वीनस कही जाने वाली सौंदर्य का पैमाना बनी ‘मधुबाला’ के साथ ‘काला पानी’ में स्क्रीन शेयर किया तो सदाबहार ‘देव आनंद’ की उपस्थिति के बावजूद भी उनकी छोटी-सी भूमिका ने न केवल सबका ध्यान अपनी तरफ खिंचा बल्कि ‘मधुबाला’ का सम्मोहिक व्यक्तित्व भी उनके सामने कहीं फीका नजर आया और पूरी फिल्म के बाद लोगों को ‘नजर लागी राजा तोरे बंगले पे...’ और ‘हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये...’ गीतों में उनका सादगी भरी अभिनय याद रह गया इस तरह उन्होंने ‘देव आनंद’ के साथ भी इस तरह से अपनी जोड़ी जमाई कि उनकी साथ आई सभी फ़िल्में ‘मुनीम जी’, ‘काला पानी’ हो या ‘राही’ सबने जुबिली मनाई और इस तरह ‘नलिनी’ नायक के समकक्ष काम करने वाली नायिका बनी जो पर्दे पर जितनी मासूम, सौम्य और भोली-भाली नजर आती वास्तव में उतनी ही बोल्ड और बेबाक थी जिन्हें ‘संग्राम’ फिल्म में बिकनी पहनकर शॉट देने के कारण वे ‘पहली भारतीय पिनअप नायिका’ भी कहलाई याने कि वो खुबसूरत होने के साथ-साथ बिंदास भी थी जिन्हें किरदार के मुताबिक ढलने में कोई परेशानी नहीं होती थी इसलिये फिर चाहे नर्तकी का रोल हो या चुलबुली लड़की या फिर भावुक माँ या प्रेम में डूबी हुई नायिका या संस्कारवान बहु या मेकअप विहीन विधवा सबमें उन्होंने अपनी प्रतिभा से ऐसा जीवंत किया कि वे कोई कहानी नहीं असलियत का नजर आये तभी तो आज भी हम उनको नहीं भूला पाये

जब उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में कदम रखा वे बेहद कमसिन थी और उनकी उम्र केवल चौदह साल थी लेकिन, वे गीत-संगीत और नृत्य हर विधा के साथ अभिनय में भी पारंगत थी कि उन्होंने बचपन से ही इनका विधिवत प्रशिक्षण लिया था और रंगमंच पर अपनी इस कला का प्रदर्शन करती रहती थी तो १८ फरवरी १९२६ को जन्मी ‘नलिनी’ ने जो ‘शोभना समर्थ’ की बहन भी थी ने १९४१ में मात्र १५ साल की नाज़ुक वय में अपनी पहली फिल्म ‘राधिका’ में बतौर नायिका काम किया और १९४३ में ‘वीरेन्द्र देसाई’ से विवाह कर लिया जो निश्चित ही कमउम्र का भावुक फैसला था तो ज्यादा नहीं टिका और तलाक के कगार पर आकर टूट गया इसके बाद उनकी जो दूसरी पारी शुरू हुई उसमें वे अधिक परिपक्व होकर सामने आई यही वजह कि ‘दिलीप कुमार’ जैसे भावप्रणव अभिनेता ने भी उनको ‘सबसे बड़ी अदाकारा’ का दर्जा दिया और इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक लगातार स्स्भी फ़िल्में हिट होती गयी और ४०-५० के दशक में वे अपने दम पर अपनी अलग पहचान कायम करने में कामयाब हुई और उनकी लोकप्रियता का ये आलम था कि उस समय की लडकियाँ उनकी अदाओं, उनके ड्रेस स्टाइल ही नहीं उनकी हेयर स्टाइल की भी नकल करती थी क्योंकि वे इस मामले में भी पहली अभिनेत्री थी जो अपने साथ हेयर ड्रेसर रखती थी और पाने बालों का विशेष रख-रखाव करती थी जिसकी वजह से कॉलेज जू लड़कियाँ उनकी दीवानी थी

इतनी लोकप्रिय और अपने ही तरह की अलग अभिनेत्री जिसने इतने मापदंड स्थापित किये वही अज के दिन २० दिसंबर २०१० को एकाकी अपने घर में मृत पायी गयी कि पुराने कलाकारों की ये एक ख़ासियत या बोले भोलापन कि वे अपने भविष्य के प्रति आज के हीरो-हीरोइन की तरह बहुत चिंतित या उतने प्रोफेशनल नहीं होते थे जबकि काम के प्रति इनसे अधिक अनुशासित और कर्मठ थे लेकिन, अपनी आमदनी को इस तरह से निवेशित न करते कि बाद में कोई परेशानी न हो यो फिर गुमनामी में अकेले जीवन गुजारते तो ऐसे ही एक दिन वे इस संसार को अलविदा कह गयी और हम उनके गीत गुनगुनाते ही रह गये...

“जीवन के सफ़र में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को
और दे जाते हैं यादें तन्हाई में तड़फाने को...”

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२० दिसंबर २०१७

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

सुर-२०१७ : एक ही माटी से बनी तीन काया... देश की खातिर जिन्होंने आप अपना लुटाया...!!!


बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा
गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा
तख्ता-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।
---‘अशफ़ाक उल्ला खाँ’

ये भी एक संयोग था कि तीन पवित्र आत्माओं ने इस विशालतम दुनिया में आने के लिये एक वतन ही नहीं बल्कि धरा और प्रदेश भी एक ही चुना कुछ समय अंतराल के फ़ासले पर ये एक के बाद एक अपनी जन्मभूमि पर उसी तरह आते रहे जिस तरह पूर्व निर्धारित क्रम से मंच पर अपनी भूमिका निभाने कलाकार एक के बाद एक आते हैं तो इन्होने भी इसी तरह अपने पात्र को अभिनीत करने के लिये अपनी टाइमिंग में कोई गलती नहीं कि और जब कैलंडर के पन्नों ने फड़फड़ा कर बताया कि आज २२ जनवरी, १८९२ हैं तो उत्तरप्रदेश के ख्याति प्राप्त जनपद ‘शाहजहाँपुर’ जिसे ‘शहीदगढ़’ या ‘शहीदों की नगरी’ भी कहते हैं में स्थित गांव 'नबादा' में कौशल्या देवी और ठाकुर जंगी सिंह के यहाँ प्रथम नायक ‘ठाकुर रोशन सिंह’ का जनम हुआ इसी के पांच वर्ष बाद ११ जून, १९९७ को शहीदों की इसी पावन धरती पर पंडित मुरलीधर और श्रीमती मूलमती के घर दूसरे महानायक ‘राम प्रसाद बिस्मिल’ स्क्रिप्ट के अनुसार अपनी पार्ट अदा करने समयानुसार जन्मे तो इस कड़ी को पूरा करने वाले तीसरे और अंतिम नगीने ‘अशफ़ाक उल्ला खान’ भी कहाँ रुकने वाले थे तो ठीक तीन साल बाद जैसे ही सदी के पंचांग में २२ अक्टूबर, १९०० की शुभ घड़ी आई मोहम्मद शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ और  मजहूरुन्निशाँ बेगम के गरीबखाने से रोने की आवाज़ आई जो ये संदेसा लाई कि आज़ादी के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने जिस पूर्णाहुति की आवश्यकता थी वो अब खत्म हुई कि ‘त्रिवेणी’ अब पूर्ण हुई

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे।
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।
---राम प्रसाद 'बिस्मिल'

मातृभूमि पर तो उनका आगमन हो गया लेकिन, जिस लक्ष्य को लेकर ये इस जगह पर आये उसे हासिल करने इनका आपस में मिलना भी जरूरी था तो जिस तरह अब तक ग्रह-नक्षत्रों की मिली-भगत ने इनके जनम के लिये अनुकूल अवसर जुटाये उसी तरह से उन्होंने इनको आपस में मिलवाने के लिये भी माहौल बनाया तो अपने-अपने तरीके से देश की आज़ादी के लिये जुटे ये सिपाही हर हाल में फिरंगियों को अपने देश से बाहर कर अपने देशवासियों को आज़ादी दिलाना चाहते थे तो इनके भीतर देशप्रेम, स्वाभिमान, जुनून, वीरता, जोखिम लेने का साहस और हर हाल में अडिग रहने की दृढ़ता जैसे गुण कूट-कूट कर भरे हुये थे इन विशेषताओं के अलावा एक बात इनमें और कॉमन थी कि सभी के भीतर एक कवि हृदय भी निवास करता था तो इनकी जुबान ही नहीं कलम से भी देशभक्ति के तराने निकलते रहते थे जो इस वक़्त सभी नवजवानों के तन-मन में स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने का जोश भरते और यदि इसके लिये उन्हें अपनी जान भी भारत माता के चरणों में निछावर कर देना पड़े तो हिचकते न थे कि ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं, देखना हैं जोर कितना बाजुए कातिल में हैं’ बोलते ही उनकी रगों में दौड़ता लहू उबाल मारने लगता तब सामने खड़ा दुश्मन और उसकी तलवार से भी उनको डर नहीं लगता कि जान हथेली पर लेकर जब चल पड़े दीवाने तो फिर सामने आये तीर या तलवार कब लगे घबराने यही सोच उनको अपने पथ पर स्थिरता के साथ गतिमान बनाये रखती थी
      
न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना
करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख
अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना
---राम प्रसाद ‘बिस्मिल’

ऐसी सोच रखने वाले ये तीन दिवाने अपनी आँखों में एक ही सपना सजाये थे ‘आज़ादी’ और अपना देश उन्हें अपनी जान से अधिक प्यारा था जिसके लिये ये क्रांतिकारी तो बन गये लेकिन, उस जंग को जारी रखने उनको हथियारों की भी तो आवश्यकता थी जो केवल रुपयों से खरीदे जा सकते थे जिसे पाने ९ अगस्त १९२५ को चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित १० क्रांतिकारियों ने लखनऊ से १४ मील दूर ‘काकोरी’ और ‘आलमनगर’ के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया परंतु, ब्रितानिया हुकूमत ने हरसम्भव कोशिश कर ‘आज़ाद’ को छोड़ बाकी सभी को क्रांतिकारियों को पकड़ लिया ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ (एचएसआरए) के ४५ सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया इस मुकदमें की सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर मिला वकील उन्हें स्वीकार न था और ‘बिस्मिल’ ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील भी बगलें झाँकते नजर आये इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा - "मिस्टर रामप्रसाड ! फ्रॉम भिच यूनीवर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री ऑफ ला ?" (राम प्रसाद ! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली ?) इस पर बिस्मिल ने हँस कर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था - "एक्सक्यूज मी सर ! ए किंग मेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री।" (क्षमा करें महोदय ! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।) उनकी इस सफाई की बहस ने सरकारी तबके में सनसनी फैला दी तो उनकी जगह सरकारी वकील से ही आगे की कार्यवाही कराई गयी जिसके परिणामस्वरूप राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई

आज ही के दिन १९ दिसंबर १९२७ को ये तीनों वीर हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गये उनकी ये शहादत हमें ये याद दिलाती कि जहाँ हम मजहब के नाम पर अलग-अलग खड़े हो देश को दोयम दर्जे पर रख देते वहीँ इन लोगों ने केवल देशप्रेम को ही तरजीह दी और यदि हम सब ऐसा करे तो निश्चित ही देश न केवल प्रगति करेगा बल्कि देश में होने वाले जातीय दंगे भी खत्म हो जायेंगे    

ज़िंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन
वरना, कितने ही यहाँ रोज़ फ़ना होते हैं      
---ठाकुर रोशन सिंह 

‘ठाकुर रोशन सिंह’ अपने सब साथियों में प्रोढ़ थे इसलिए युवक मित्रों की फ़ाँसी उन्हें कचोट रही थी तो अदालत से बाहर निकलने पर उन्होंने साथियों से कहा था "हमने तो ज़िन्दगी का आनंद खूब ले लिया है, मुझे फ़ाँसी हो जाये तो कोई दुःख नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मुझे अफ़सोस हो रहा है, क्योंकि तुमने तो अभी जीवन का कुछ भी नहीं देखा।"

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१९ दिसंबर २०१७

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

सुर-२०१७: देश का संविधान... राजनितिक फ़ायदे का संशोधन...!!!


ऐसी अनगिनत उदाहरण जो ये साबित करते कि देश के नाम पर वोट लेने वाले नेता पद और सत्ता पाते ही राष्ट्र को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति और जागीर समझने लगते हैं और किसी विरासत की तरह अपनी संतानों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे सौंपते रहते जब तक कि जनता ही उसे वहां से धकेल न दे ऐसा ही कुछ गुमान किसी विशेष दल और देश के शीर्ष पद पर काबिज किसी विशेष परिवार के सदस्यों को भी हो गया तो न उन्होंने केवल उसे ‘आपातकाल’ का तोहफ़ा दिया बल्कि अपनी मनमर्जी करने के लिये जिस तरह भी चाहा उस तरह से नचाया राजनीति ही एकमात्र ऐसा खेल जहाँ लंबे समय तक काम करते-करते ‘जम्बूरा’ खुद को ही ‘मदारी’ समझने लगता फिर वो जिसके इशारे पर गद्दी हासिल करता उसे ही अपनी उँगलियों की गति पर थिरकने मजबूर कर देता तो ऐसे ही न जाने कितने वाकयों से हम आये दिन दो-चार होने के बाद भी अपनी स्मृति की कमजोरी की वजह से उन गलतियों को भूल पुनः ऐसे ही किसी शातिर नेता की कलाबाजियों से प्रभावित होकर उसके जाल में फंस जाते तो फिर जैसा वो चाहता वैसा ही करते जाते और इस तरह से साल-दर-साल ये सिलसिला चलता रहता

जनता-जनार्दन होने के बावज़ूद भी हम खुद ही तो देश संभाल नहीं सकते तो इस जिम्मेदारी को किसी को सौंप उसके अधीन होकर अपना जीवन अपने ढंग से जीना चाहते कि देशप्रेम तो हमारे मन में होता लेकिन, इतना भी नहीं कि उसकी खातिर खुद को ही निछावर कर दे तो अपना मत देकर हम अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन कर देते और जिसे हम अपना सर्वेसर्वा चुनते वो मद में आकर कभी-कभी तानाशाह बन देश ही नहीं उसके ‘संविधान’ को भी अपने राजनैतिक फायदे हेतु संशोधित करता रहता फिर चाहे उसका खामियाज़ा आने वाली पीढियां भुगतती रही वे तात्कालिक लाभ को प्राथमिकता देते ऐसा ही कुछ बड़ा ऐतिहासिक निर्णय लिया उस समय की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री माननीय श्रीमती ‘इंदिरा गाँधी जी’ ने जिन्होंने केवल संविधान ही नहीं बल्कि उसकी आत्मा कहे जाने वाली ‘प्रस्तावना’ को ही बदल दिया और संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी’ ‘धर्मनिरपेक्षएवं एकता और अखंडताआदि शब्द जोड़े गए जिन्होंने उसे विस्तृत तो किया लेकिन कहीं न कहीं बवाल भी खड़े किये कि वैमनस्य की खाई बढ़ाने में इनका बड़ा योगदान हैं और हर बड़े विवाद के मूल में यही शब्द पाये जाते हैं ।     

संविधान के 42वें संशोधन (1976) द्वारा संशोधित यह उद्देशिका अब कुछ इस तरह है:

"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की और एकता अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प हो कर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० "मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं"

आज ही के दिन १८ दिसंबर १९७६ को संविधान की प्रस्तावना या उद्देशिका या आमुख में "सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य" के स्‍थान पर "सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य" शब्‍द जोड़े गये साथ ही "राष्ट्र की एकता"  के स्‍थान पर "राष्ट्र की एकता और अखण्डता" किया गया जो ये दर्शाता कि इसे बदलने में केवल व्यक्तिगत हित को ही साधा गया और इन शब्दों को इतना अधिक भुनाया गया कि उनके अर्थ सार्थक होने की जगह निरर्थक प्रतीत होने लगे यहाँ तक कि आज भी ये एक झटके में देश की शांति व्यवस्था को युद्ध के मैदान में तब्दील करने में सक्षम हैं  

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१८ दिसंबर २०१७