बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-५९ : #राष्ट्रीय_विज्ञान_दिवस_कैसे_हो_सफ़ल?


आज से ९० वर्ष पूर्व १९२८ में भारतवर्ष की पावन भूमि पर जनम लेने वाले एक वैज्ञानिक प्रोफेसर ‘चंद्रशेखर वेंकट रमन’ ने २८ फरवरी को एक ऐसी अद्भुत खोज को अंजाम दिया जिसकी बदौलत कणों की आणविक और परमाणविक संरचना का पता लगाना आसान हो गया और उनके इस अनुसंधान को रमन इफेक्ट’ या ‘रमन प्रभावके नाम से जाना गया  और उनके इस अभूतपूर्व कार्य के लिये उन्हें 1930 में ‘नोबेल’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया उस समय तक भारत या एशिया के किसी व्यक्ति को भौतिकी का नोबल पुरस्कार नहीं मिला था तो इस तरह उन्होंने अपने ज्ञान का सार्थक उपयोग करते हुये देश का नाम पूरी दुनिया में रोशन कर ये बता दिया कि इस धरती पर सदैव ऐसे परम ज्ञानियों ने जन्म लिया जिन्होंने इसे ‘विश्वगुरु’ का दर्जा दिलवाया फिर चाहे ज्ञान, धर्म, कला, साहित्य, राजनीति, अर्थशास्त्र, या विज्ञान का ही क्षेत्र क्यों न हो यहाँ के लोग कभी पीछे न रहे

इसमें एक गौरतलब बात ये भी हैं कि हमारे यहाँ जितने भी बड़े-बड़े अविष्कार किये गये या जितने भी बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे गये या जितने भी असाध्य कार्य किये गये उन दिनों हमारे यहाँ सुविधायें उतनी अधिक नहीं थी और न ही साधन जुटाना ही इतना आसान था फिर भी लोगों ने जो भी कार्य करने का संकल्प लिया उसे हर हाल में पूर्ण किया क्योंकि उसे करने के लिये उनके मन में अटूट लगन व मजबूत इच्छाशक्ति ही नहीं अपने देश को समृद्ध व् शक्तिशाली बनाने की भावना भी थी इसका परिणाम ये हुआ कि कितनी भी बाधाएं या कठिनाई उनके मार्ग में आई वे पीछे नहीं हटे और न ही उन्होंने अपने लक्ष्य को बदला इसलिये उनकी अनवरत साधना ने उनको उनकी मंजिल तक पहुंचाया और उनकी कहानियों ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित कर कुछ अनोखा और नया करने का जुनून दिया मगर, उन्हीं को जिनके भीतर कुछ कर गुजरने की चाहत थी वरना, कहानियां पढ़ने वाले तो अनेक थे

आज के समय में देखें तो तकनीक की वजह से सब कुछ बेहद आसान फिर भी हमारे यहाँ उतना काम नहीं हो रहा कि ज्यादातर लोग सोशल मीडिया पर फ़िज़ूल की बातों में लगे हुये जो निरर्थक बातों की दिन-रात खाल निकालकर चीर-फाड़ करते रहते और अनमोल समय को बेवजह गंवाते जिसका नतीजा कि जिस वक़्त में कोई जरूरी काम या विशेष अविष्कार किया जा सकता हमारे देश के युवा किसी नायिका के आँख मारने की क्लिप को हजारों दफा देखते  और रातो-रात उसके करोड़ों फालोवर बनकर उसे गूगल पर सर्वाधिक सर्च की जाने वाली हस्ती व उसके विडियो को मोस्ट वायरल विडियो बना देते जो साबित करता कि युवाओं का अधिकांश समय इस प्लेटफार्म पर गुजर रहा ऐसे में दिशा सही हो तो ये निश्चित ही देश को कुछ नूतन खोज देकर उसे विकासशील देशों की दौड़ में आगे कर सकता तब ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ मनाया जाना सार्थक होता और ‘वेंकट रमन’ की आत्मा भी अपने देश के नवजवानों की तरक्की देखकर जरुर कहती... जियो... नॉट... Jio ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२८ फरवरी २०१८


मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-५८ : #आज़ाद_जिये_आज़ाद_मरे_चंद्रशेखर_आज़ाद


२३ जुलाई १९०६ को गुलाम भारत में जरुर जन्मे ‘चंद्रशेखर’ लेकिन, महज़ १४ साल की उम्र में ही उन्होंने अपने नाम के साथ ‘आज़ाद’ जोड़ अपने इरादे ज़ाहिर कर दिये कि भले फिरंगी सरकार ने देश को अपने कब्जे में ले रखा हैं लेकिन, उनका मन उनकी हुकूमत से बाहर हैं जिस पर किसी का भी हुकूम नहीं चलता वहां वे अपनी मनमर्जी के अकेले राजा हैं तो अपनी इस रियासत की बागडोर उन्होंने आखिरी साँस तक अपने ही हाथों में थामे रखी उसी शानो-शौकत से उन्होंने अपना जीवन जिया फिर जब उसे आज के दिन अलविदा भी कहा तो अपनी ही इच्छा से क्योंकि ये संकल्प उन्होंने पहले ही ले लिया था कि कभी ऐसी स्थिति आ ही गयी जब उन्हें महसूस हो कि अंग्रेज उन्हें बंदी बनाना चाहते हैं तो उनके हत्थे चढ़ने से पहले ही वे अपनी आत्मा को देह से मुक्त कर पूर्ण स्वतंत्र हो जायेंगे तो वही किया उन्होंने मगर, अपने आपको उनकी कैद में आना मंजूर नहीं किया

ऐसे जज्बे को सलाम उस सोच और उसे साकार करने के लिये जिस अदम्य इच्छाशक्ति का उन्होंने परिचय दिया उसको भी नमन क्योंकि, आज के समय में तो लोगों के लिए जीवन इतना महत्वपूर्ण कि वो गुलाम बनकर भी जीने को तैयार यहाँ तक कि किसी अदाकारा का तो ये तक बयान आया कि वे यदि ‘सेक्स स्लेव’ बनकर भी जीना पड़े तो भी वे जीवन को ही चुनेंगी याने कि जिल्लत भरी जिंदगी से कोई गुरेज नहीं जबकि, ये ज्यादा पुरानी बात नहीं आज से केवल ११० साल पहले के युवाओं की सोच थी कि देश को आज़ाद करने की खातिर अपना सब कुछ चाहे वो सबसे कीमती चीज़ जान ही क्यों न हो उसे भी गंवा देंगे लेकिन, गुलामों की तरह जिल्लत की जिंदगी का चुनाव कभी नहीं करेंगे तो वे और उनके दोस्त सभी ने मौत को सामने देखकर भी अपने इरादों को हल्का नहीं पड़ने दिया बल्कि मुस्कुराते हुये फांसी के फंदे पर झूल गये ताकि आने वाली पीढियां स्वतंत्र हो सके  

आज के युवाओं में जीवन के प्रति इस तरह की निम्न मानसिकता व सोच के गिरते स्तर को देखते हुये उन वास्तविक नायकों का स्मरण अधिक प्रासंगिक जिन्होंने हर तरह के लालच और हर तरह की सुविधाओं को ठुकराकर यहाँ तक कि जिस ‘आज़ादी’ के लिये वे लड़ रहे या अपनी जान देने को तैयार थे ये भी निश्चित था कि उसे भोग नहीं पायेंगे लेकिन, निःस्वार्थ भाव से अपनी भारतमाता और अपनी जन्मभूमि के प्रति समर्पित पवित्र आत्मायें इस तरह की सोच न रखकर सिर्फ अपने कर्तव्य का निर्वहन करती तो ऐसे ही ‘चंद्रशेखर आज़ाद’ ने भी किये अपनी अंतिम साँस तक अपने वतन के लिये त्याग अपनी धरती माँ की गोद में सो गये आज उनके बलिदान दिवस पर मन से नमन... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ फरवरी २०१८


सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-५७ : #अनुरोध


सोच न,
इतना तू मुझे
कि तेरे बहते अश्क़
मेरी आँखों में उतर आये ।
...
तेरा दर्द
तेरी तकलीफ़
मेरे खून-ए-ज़िगर में
धडकन की तरह समा जाये ।
...
तेरे ख्याल
तेरी आरजूयें
मेरी इन आँखों में
बनकर स्वपन पल जाये ।
...
तेरा अक्स
तेरा हर नक्श
मेरे अपने वजूद में
कतरा-कतरा पिघल जाये ।
...
मैं ना रहूँ मैं
तू भी ना रहे तू
घुल जाये इस तरह
कि दहाई इकाई बन जाये ।
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२६ फरवरी २०१८

रविवार, 25 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-५६ : श्रीदेवी का सदमा


‘सदमा’ फिल्म का आखिरी दृश्य ही जेहन में कौंध रहा बार-बार कि, ‘श्रीदेवी’ हम सबको छोड़कर, हमें भूलकर रेलगाड़ी में बैठकर जा रही और हम विवश देखने मजबूर बिल्कुल उस फिल्म में निभाये ‘कमल हासन’ के किरदार की तरह उनके वियोग से सदमे में हैं... हमारे दौर और पीढ़ी के लोग उस दर्द को महसूस कर पा रहे जिन्होंने उनकी फिल्मों के संग अपने जीवन की बेहतरीन यादों को संजोकर रखा हैं... बस, इतना ही उस पीड़ा को व्यक्त करना संभव नहीं... मुझको यारों माफ़ करना, मैं सदमे में हैं...  

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२५ फरवरी २०१८

शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-५५ : #दर्द-ऐ-दिल_को_देते_सुकूं #रूहानी_गायक_तलत_महमूद


दृश्य – ०१  : कालजयी फिल्म ‘देवदास’ में शीर्षक भूमिका निभाने वाले ‘दिलीप कुमार’ नदी के किनारे एकाकी बैठे पारो को याद करते हुये गा रहे हैं...

मितवा,लागी रे ये कैसी
अनबुझ आग
मितवा, मितवा, मितवा... नही आई
लागी रे ये कैसी
ब्याकुल जियरा ब्याकुल नैना
एक एक चुप में सौ सौ बैना
रह गये आँसू लुट गये रात
मितवा मितवा मितवा...

दृश्य – ०२ : ‘पतिता’ फिल्म में सदाबहार अभिनेता ‘देव आनंद’ अपनी पत्नी बनी अदाकारा ‘उषा किरण’ के सर को अपनी गोद में लेकर सांत्वना देते हुये गा रहे हैं...   
हैं सबसे मधुर वो गीत
जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती हैं ख़ुशी
आंसू भी छलकते आते हैं...  

दृश्य – ०३ : फिल्म ‘बेवफ़ा’ में हर दिल अजीज ‘राज कपूर’ अभिनेत्री ‘नर्गिस’ के घर के बाहर बैठे उसका इंतजार करते हुये गा रहे हैं...

तू आये न आये तेरी ख़ुशी
हम आस लगाये बैठे हैं...

दृश्य – ०४ : फिल्म ‘सुजाता’ में शीर्षक भूमिका निभा रही संजीदा अदाकारा ‘नूतन’ को एक फोन आता हैं और दूसरी तरह संवेदनशील अदाकार ‘सुनील दत्त’ गा रहे हैं...

जलते हैं जिसके लिये तेरी आँखों के दिये
ढूंढ लाया हूँ वही गीत मैं तेरे लिये...

दृश्य – ०५ : फिल्म ‘एक साल’ हिंदी साइन जगत के महान कलाकार दादामुनि ‘अशोक कुमार’ कमरे में अकेले हैं तभी उन्हें अहसास होता हैं कि कमरे में उनकी आत्मा भी हैं जो उन्हें उनकी भूल का अहसास दिलाने ये गीत गा रही हैं...

करते रहे ख़िज़ाँ से हम सौदा बहार का
बदला दिया तो क्या ये दिया उनके प्यार का
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया?
दिन में अगर चराग़ जलाये तो क्या किया?

ये तो महज़ चंद तराने ऐसे अनगिनत गीत उस गले से निकले जिसे उनके रूहानी स्वर के लिए जाना जाता हैं याने कि मखमली आवाज़ के मालिक ‘तलत महमूद’...

दिलों को छू ले ऐसी आवाजें तो कई सुनाई देती लेकिन, जो स्पर्श करे आत्मा और देह की सुध-बुध भूलाकर ले जाये किसी दुसरे लोक में जहाँ हो तो सिर्फ़ चैन और सुकूं के साथ खुद के रूह होने का रूहानी अहसास ऐसा तभी संभव जब गाने वाला खुद अल्फाजों को महसूस कर डूबकर इस तरह से अपने कंठ से निकाले कि उनके साथ भीतर का सारा दर्द आँखों के जरिये बह जाये वो तूफ़ान जिसे सीने में छिपाये फिरते हो हम सबसे छिपाकर न बयां ही किया जा सके और न ही जब्त करना ही मुमकिन हो तो ऐसी स्थिति में अंदरूनी तनाव से गुजरता व्यक्ति या तो अवसाद में चला जाता या फिर कोई खतरनाक कदम उठा लेता हैं

लेकिन, जिसे पता हो कि इस वेदना को मुक्त कर के हल्का हुआ जा सकता हैं फिर से नये जोश से भरकर जीवन को उसी तयशुदा बोरिंग ढर्रे पर नूतन ऊर्जा के साथ न केवल सकारात्मक ढंग से बल्कि तनावरहित होकर जिंदादिली से जिया जा सकता हैं वो उस उपाय को ही ढूंढेगा फिर भले उसका रास्ता मयकदे को जाता हो या किसी सूनसान कोने में मगर, जो इस तरह के गलत विकल्पों को न अपनाकर दैविक या आध्यात्मिक मार्ग को चुनते वो खुद एक दिन आत्मा बनकर परमात्मा में मिल जाते मगर, कुछ ऐसे भी होते जिनको इनमें से कोई भी राह न भाती तो उनके लिये फिर समजा सेवा या परहित ही सर्वोत्तम साधन होता उसके बाद भी कुछ ऐसे बच ही जाते जिनको न तो घर और न ही बाहर राहत मिलती

ऐसे लोग हमेशा अपने पास संगीत का ऐसा खजाना रखते जिसको सुनकर पल भर में अपनी सारी तकलीफों को भूल जाते कि ‘म्यूजिक थेरेपी’ भी दर्दे-दिल का एक बेहतर इलाज़ पर, यही भी प्रश्न उठता कि ऐसी कौन-सी वो आवाज़ हैं जिसमें ऐसा शिफ़ा हो कि कर्ण से हृदय में प्रवेश कर सीधे आत्मा में उतर जाये तो एक ही नाम जेहन में आता वो ‘तलत महमूद’ हैं जिनका गाया गर एक नगमा, हर एक गजल, हर एक नज्म और तराना सुनने वाले को किसी दूसरी दुनिया में ले जाती जहाँ उसके इर्द-गिर्द मुश्किलों का नहीं केवल सुकूं का मेला होता हैं यूँ लगता जैसे किसी ने गहरे जख्म पर नर्म रुई का फाहा रखा दिया हो या जैसे किसी ने मन के सूने आंगन में आशा की कोई ज्योत जागृत कर दी हो जिसके उजियारे में सभी समस्याओं का समाधान दिखाई देने लगा हो  

उनकी आवाज़ की इसी कशिश के कारण अभिनय सम्राट और ट्रेजेडी किंग कहे जाने वाले ‘दिलीप कुमार’ के अधिकांश गानों के लिये उन्हीं को फिल्म में लिया जाता था जिसकी वजह से लोग उनकी उस आत्मीय आवाज़ को ही दिलीप साहब की वास्तविक आवाज़ समझते थे जिस तरह ‘मुकेश’ की आवाज़ ‘राज कपूर’ की समझी जाती थी उस दौर में एक तरह से इन नायकों के लिये गायक भी व्यक्तिगत रूप से किसी कॉम्बो पैक या किसी कम्प्लीट मूवी पैकेज की तरह निर्धारित होते थे हालाँकि कहानी की जरूरत और किरदार की मांग के अनुसार अन्य गायकों के द्वारा भी गवा लिया जाता था उसके बावजूद भी सुपर सितारा के लिये उनके प्रिय सिंगर को ही अनुबंधित किया जाता था पर, ‘तलत महमूद’ की पुरकशिश गायिकी के कारण उन्हें सभी नायकों के लिये गाने का अवसर मिला और ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ बनकर जैसे उनकी संगीत साधना को पूर्णता प्राप्त हो गयी

आज उसी महान गायक का जन्मदिन हैं तो उन्हें उनके गीतों और अपने शब्दों के द्वारा ये छोटी-सी आदरांजलि... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२४ फरवरी २०१८

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-५४ : #खुबसूरती_ऐसी_मधुबाला_के_पास #देखनेवाला_उसे_भूल_जाये_अपना_काम


हमें काश तुमसे मुहब्बत न होती
कहानी हमारी हक़ीकत न होती...

एक बार ‘आशा भोंसले जी’ ने रेडियो पर अपना एक संस्मरण सुनाते हुये कहा कि, जब भी मैं किसी गीत की रिकॉर्डिंग पर स्टूडियो जाती यदि उस वक़्त मेरे सामने ‘मधुबाला’ बैठी हो तो मैं अपनी पंक्तियाँ भूलकर उन्हें देखने लग जाती थी क्योंकि, जितनी वो खुबसूरत हक़ीकत में थी उसे कैद पर परदे पर दिखा पाना किसी कैमरे के बस की बात न थी वो भले किसी कम सुंदर को अद्वितीय सुंदरी दर्शा दे लेकिन, जो खुद हुस्न का जीता जागता स्वरुप थी उसे देखकर कैमरे की ऑंखें भी चुंधिया जाती थी उनके साथ काम करने वाले तो यह तक कहते हैं कि उनकी त्वचा इस कदर कोमल व मुलायम थी कि स्टूडियो की चकाचौंध रौशनी जब उन पर पड़ती तो वो उसकी ऊष्मा से मानो झुलस-सी जाती थी वो उस चमक को बर्दाश्त न कर पाती और एकदम लाल भभूका हो जाती थी जिस तरह तेज धूप में निकलने पर किसी गोरे चमड़े वाले का हाल हो जाता हैं याने कि बनाने वाले ने उनको बड़ी-ही फुर्सत और तबियत से गढ़ा था बिल्कुल उसी तरह जिस तरह संगतराश ने उनको मुगल-ऐ-आज़म फिल्म के एक दृश्य में मूर्तिवत बनाकर पेश किया था

न दिल तुमको देते, न मजबूर होते
न दुनिया, न दुनिया के दस्तूर होते
क़यामत से पहले क़यामत न होती
हमें काश तुमसे मुहब्बत...

उनकी इस अवर्णनीय सुंदरता ने ही उनको सबके दिलों में खुबसूरती की मिसाल के रूप में जीवंत रखा हैं क्योंकि, उनके पहले या बाद में भी कई नायिकायें आई लेकिन, जैसे उनके बाद सुंदरता का पैमाना ही ‘मधुबाला’ बन गया कि हर किसी को उनसे कम या ज्यादा ही आँका गया लेकिन, कोई फिर दूसरी ‘मधुबाला’ न फिर दुबारा फिर इस दुनिया में आई जो इस हद तक सुंदर हो कि देखने वाला उसे देख के अपन काम ही भूल जाये या जिसे देखने के बाद उसे कोई उससे अधिक सुंदर न नजर आये । यही वजहें थी जिसने ‘मधुबाला’ को उनके सौंदर्य से परे देखने न दिया और यदि उनके जीवन को किसी ने अन्य पहलू से देखने की कोशिश भी की तो उनकी अधूरी मुहब्बत के किस्से और उनके टूटे दिल के अनगिनत टुकड़े ही नजर आये कि इस बेपनाह हुस्न की मल्लिका जो खुद तो मुकम्मल थी परंतु, उसकी जिंदगी में मुहब्बत अपने लफ्ज़ की तरह ही आधी-अधूरी रही । जिसमें उनके नाम के साथ यूँ तो कई नाम जुड़ते रहे मगर, जब अभिनय सम्राट ‘दिलीप साहब’ के नाम एक बार उस नाम से मिला तो फिर इश्क़ नाकाम रहा लेकिन, वो दो नाम हमेशा-हमेशा के एक हो गये और आज तलक भी उनको एक-दूसरे के बिना बोले तो कोई कमी-सी लगती हैं ।

हमीं बढ़ गये इश्क़ में हद से आगे
ज़माने ने ठोकर लगायी तो जागे
अगर मर भी जाते तो हैरत न होती
हमें काश तुमसे मोहब्बत...

कभी-कभी हैरत होती कि उपरवाले ने जिसे इतना संपूर्ण बनाया कि कहीं कोई कमी या सुधार की कोई गुंजाईश शेष न रखी उसने उनके हाथ की रेखा बनाते समय क्यों नहीं प्यार की लकीर बनाई या उसकी कुंडली में प्रेम का खाना खाली ही क्यों रखा या उसकी किस्मत लिखते समय उसमें चाहत की कहानी पूरी क्यों नहीं लिखी ? इसका जवाब तो वो उपर बैठा   जादूगर ही जाने हम सब जिसके हाथों की कठपुलती और जिस पर हमारा कोई जोर चलता नहीं हैं । उसने उसकी बाहरी बनावट में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन, हृदय बनाते समय उसमें एक छेद छोड़ दिया जो अंततः असमय उनकी मौत की वजह बना और हमारा दुर्भाग्य कि आज ही के दिन वो बेहद कम उम्र में हम सबसे जुदा हो गयी और उनकी वो खाली जगह आज भी उसी तरह से सूनी आँखें लिये उनकी राह तक रही हैं कि काश, वो लौट आये और इस बार उनकी मुहब्बत ही नहीं जिंदगी भी पूरी हो तो फिर उसे न कहना पड़े कि...

तुम्हीं फूँक देते नशेमन हमारा
मुहब्बत पे एहसान होता तुम्हारा
ज़माने से कोई शिकायत न होती
हमें काश तुमसे मोहब्बत न होती...!!!

‘मुगल-ऐ-आज़म’ फिल्म में उन पर ही फिल्माये गये इस गीत में उनके अंतर की पीड़ा पूरी तरह से ज़ाहिर होती हैं जो अधूरे दिल, अधूरे इश्क़ और अधूरी कहानी को उतनी ही शिद्दत से बयाँ ही नहीं कर रही आज भी अपने मुकम्मल होने का इंतजार कर रही कि काश...
 
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२३ फरवरी २०१८

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-५३ : #जिला_स्तरीय_रोजगार_मेला_एवं_कैरियर_मार्गदर्शन_शिविर #पतंजलि_महिला_योग_समिति_ने_की_सहभागिता




21 एवं 22 फरवरी को हमारे कार्यस्थल स्वामी विवेकानंद शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में उच्च शिक्षा विभाग द्वारा प्रायोजित #जिलास्तरीय_रोजगार_मेला_एवं_कैरियर_मार्गदर्शन_शिविर का आयोजन किया गया जिसका उद्घाटन ‘म.प्र. लोक सेवा आयोग’ के अध्यक्ष ‘डॉ भास्कर चौबे जी’ के करकमलों से हुआ और इसमें #महिला_पतंजलि_योग_समिति की तहसील प्रभारी होने के नाते हमने और हमारी टीम ने भी छात्र-छात्राओं के मार्गदर्शन हेतु एक स्टॉल लगाया ।

जिसके अंतर्गत हम लोगों ने युवाओं को योग के क्षेत्र में कैरियर बनाने के अलावा स्वरोजगार के विभिन्न विकल्पों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी देकर उनको भविष्य संवारने के लिये कई महत्वपूर्ण सुझाव दिये । इन दो दिनों में हम लोगों ने लगभग 350 छात्र-छात्राओं को परामर्श दिया उसी अवसर के कुछ छायाचित्र... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२२ फरवरी २०१८

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-५२ : #माँ_की_निशानी_भाषा_हमारी_मातृभाषा_दिवस_पर_मिलकर_हैं_बचानी



एक अनजान दुनिया से किसी खाली मेमोरी कार्ड की तरह आता हैं बच्चा जिसके मस्तिष्क की ब्लेंक स्पेस में उसकी जन्मदात्री ही सबसे पहले अपनी जुबान से बोले शब्दों से एक एक बाद एक अनगिनत फ़ाइल का निर्माण करती हैं जिसमें प्रत्येक शब्द उसी भाषा में दर्ज होता हैं जो उसकी माँ बोलती हैं फिर चाहे वो हिंदी हो या अंग्रेजी या फिर सिंधी या पंजाबी या हो गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगु या मलयालम या कोई भी क्षेत्रीय बोली या सांकेतिक भाषा सब माँ के द्वारा ही उसके कार्ड में इनपुट की जाती इस तरह शब्दों व भाषा से उसका प्रथम परिचय उसकी प्रथम शिक्षिका माँ ही कराती और जो भी माँ बोलती वो बोली ‘मातृभाषा’ बन जाती जिसका स्थान कोई भी भाषा नहीं ले सकती क्योंकि ये किसी भी व्यक्ति की पहचान होती हैं जिसे भूला पाना नामुमिकन होता कि ये तो व्यक्ति की रगों में लहू की तरह आजीवन बहती रहती हैं और चूँकि ये माँ के द्वारा बोली जाती इसलिये माँ की तरह व्यक्ति का भविष्य संवारती उसके जीवन को आकार देती कि इसी के माध्यम से वो हर तरह का ज्ञान प्राप्त करता हैं

‘मातृभाषा दिवस’ को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाना ये दर्शाता कि अब बहुत-सी भाषायें विलुप्ति की कगार पर तो उन्हें सहेजा जाये उनके प्रति लोगों में सरंक्षण की भावना पैदा की जाये अन्यथा एक दिन हमारा देश जो बहुभाषी होने के लिये जाना जाता एक दिन अपनी ‘मातृभाषा’ को भूलकर किसी पराई या विदेशी भाषा की फोटोकॉपी मात्र बनकर न रह जाये तो इस दिन पर यही संकल्प ले कि कोस-कोस पर बदलने वाली हमारी बोलियाँ कहीं इतिहास का किस्सा न बन जाये जिसे हम उस भाषा में दोहरा भी न पाये । ‘मातृभाषा’ किसी तरह हमारे अस्तित्व का अभिन्न अंग और हमारी पहचान होती इसे समझने के लिये बचपन में सुनी ‘तेनालीराम’ की एक कहानी याद आ रही...
                 
एक दिन की बात है कि ‘राजा कृष्णदेव राय’ के दरबार में एक बहुत विद्वान ब्राह्मण आया उसने महाराज को अपना परिचय देने के बाद कहा- राजन! मैंने सुना है कि आपके पास एक से एक विद्वान दरबारी हैं। आपने ठीक सुना है ब्रह्मादेव, महाराज ने खुशी से ‘तेनालीराम’ की ओर देखकर गर्व करने वाले लहेजे में कहा, हमें अपने दरबारियों की बुद्धिमता पर गर्व है।

तब उस ब्राह्मण ने कहा, तो क्या कोई बता सकता है कि मेरी ‘मातृभाषा’ क्या है? यह कहकर उस ब्राह्मण ने धारा प्रवाह बोलना आरंभ किया। पहले ‘तेलुगू’ में बोला, फिर ‘तमिल’ में, ‘कन्नड़’, ‘मराठी’, ‘मलयालम’ और ‘मराठी’ भाषा में भी उसने धाराप्रवाह व्याख्यान दिया। वह जब भी जो भाषा बोलता लगता था कि वही उसकी ‘मातृभाषा’ है, क्योंकि हर भाषा पर उसका पूरा अधिकार था। अपनी बात पूरी करने के बाद वह बोला- राजन क्या आप या आपका कोई दरबारी बता सकता है कि मेरी ‘मातृभाषा’ क्या है? सभी दरबारी चुप। कोई समझ न पाया। महाराज ने तेनालीराम की ओर देखा, तब वे अपने स्थान से उठे और बोले महाराज मेरी प्रार्थना है कि इन विद्वान अतिथि को कुछ दिन अतिथि गृह में ठहराएं। मुझे इनकी सेवा का अवसर प्रदान करें। ऐसा ही किया गया। तेनालीराम उसी दिन से उनकी सेवा में लग गए।

एक दिन जब अतिथि एक वृक्ष के नीचे आसन पर बैठे थे कि पांव छूने के बहाने ‘तेनालीराम’ ने उनके पांव में कांटा चुभा दिया। पंडितजी दर्द से छटपटाए और ‘तमिल भाषा’ में अम्मा-अम्मा करने लगे। ‘तेनालीराम’ ने वैद्य को बुलाकर तत्काल उनका उपचार कराया। दूसरे दिन विद्वान सभा में आए और बोले- महाराज आज चौथा दिन है, क्या मेरे प्रश्न का उत्तर मिलेगा। महाराज ‘कृष्णदेव राय’ ने ‘तेनालीराम’ की ओर देखा तो वे उठकर बोले- महाराज इनकी ‘मातृभाषा’ तमिल है। वाह-वाह, ‘तेनालीराम’ के कुछ कहने के पहले ही अतिथि बोल पड़े- आपने बिल्कुल सही बताया, लेकिन आपको ये कैसे पता चला?

सम्मानित अतिथि आपके पांव में जब मैंने कल कांटा चुभाया था, तब आप तमिल भाषा में अम्मा-अम्मा पुकार रहे थे। इसी से मैंने अनुमान लगाया कि आपकी ‘मातृभाषा’ तमिल है, क्योंकि जब व्यक्ति किसी दुख तकलीफ या संकट में होता है, तब आडंबर छोड़कर अपने वास्तविक रूप में आ जाता है और अपनी स्वाभाविक भाषा यानी अपनी मातृभाषा में अपनी मां और परमात्मा को याद करता है। यही जानने के लिए मैंने जानबूझकर आपके पांव में कांटा चुभाया था, इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं। आप धन्य हैं ‘तेनालीराम’ आप वास्तव में विद्वान और तीव्र बुद्धि वाले हैं। महाराज मैं ‘तेनालीराम’ के उत्तर से संतुष्ट हूं।

वाकई कोई भी मुसीबत की घड़ी हो या संकट के कोई कठिन पल हमारे मुंह पर माँ का नाम ही नहीं ‘मातृभाषा’ भी स्वतः ही आ जाती ऐसी माँ के समान हमारी पीड़ा को हरने वाली ‘मातृभाषा’ को नमन और इस दिवस को सार्थक बनाने हमारी पहल हो कि हम अपनी गुम होती जा रही भाषाओँ को बचाये, उनको पुनः उनके खोये स्थान पर स्थापित कराये... इसी शपथ के साथ हम ये दिन मनाये... सबको ‘अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ की अनंत शुभकामनायें... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२१ फरवरी २०१८