गुरुवार, 31 मई 2018

सुर-२०१८-१५१ : #विश्व_धुम्रपान_निषेध_दिवस_का_संदेश #नशा_नाश_की_जड़_इसके_चक्कर_में_न_पड़




नशा करने के लिये दुनिया में कम नहीं शय मगर, फिर भी लोग व्यसन के चक्कर में ही पड़ते और अपनी ही नहीं साथ-साथ अपनों की जिंदगी में भी जहर घोलते जिसकी शुरुआत यूँ तो बहुत छोटी-छोटी चीजों से होती मगर, पता तब चलता जब वो गंभीर अवस्था में आ जाती ऐसे में ये बेहद जरुरी कि हम प्रारंभ से ही इस पर ध्यान दे जब हम इसकी लत के शिकार होते फिर चाहे वो चाय हो या कोल्ड ड्रिंक या फिर बीयर या सिगरेट और पान-मसाला जिसे अमूमन हम नशे वाले पदार्थों की सूची से बाहर रखते लेकिन, यदि गौर करें तो पायेंगे कि यही तो नशे का वो हल्का-सा खुमार छुपा जो आरंभिक अवस्था में अपने हल्केपन के कारण महसूस नहीं होता फिर जब ये अपना असरदायक नहीं रह जाता तब इससे बड़े नशे की खोज की जाती और पता ही नहीं चलता कि एक छोटी-सी सिगरेट या एक छोटे-से पैग या एक छोटे-से गुटखे ने जिन्न की तरह बाहर निकल विकराल रूप धारण कर क्या कमाल कर दिया कि भारी-भरकम आदमी को धराशायी कर दिया

जिन्हें जब हमने अपने होंठो से लगाया तो सोचा न था कि एक दिन ये अच्छा फील कराने वाला इतना खतरनाक साबित होगा तब तो सिर्फ दोस्तों के कहने या फिर खुद को बड़ा साबित करने या फिर अपने स्टेट्स को मेंटेन करने या अपने गम से उबरने या कभी कमजोर पलों में दूसरों के उकसाने पर यूँ ही जताने कि हम भी कम नहीं एक कश लिया था या एक जाम पिया था पर, कब वो जरूरत बन गया और कब उसने हमारे दिलों-दिमाग ही नहीं हमारे जिस्म को अपने काबू में कर लिया पता ही नहीं चला वो तो जब मुंह से खून आया या फिर कोई दर्द सीने में हुआ या डॉक्टरी जाँच में कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी के होने की पुष्टि हुई तो नशा उडन छू हुआ और सर पकडकर बैठते हुये पूरी फिल्म आँखों के समाने घुमने लगी जैसे कल ही की बात हो जब कॉलेज में अपनी जवानी को सेलिब्रेट करते हुये खुद को अडल्ट बताने सॉफ्ट ड्रिंक की जगह हॉट ड्रिंक हाथ में लिया था तब तो खुद को टॉप ऑफ़ द टॉप फील किया था दुनिया को खुद के चक्कर लगाते पाया था और आज खुद को ही घूमते देख रहे थे

तब किसी का भी टोकना-समझाना कितना बुरा लगता था ऐसे लोगों की परछाई से भी दूर भागते थे आज अंतिम चरण में पहुंचकर लग रहा काश, तब सुनी होती वो बातें, समझा होता जीवन का महत्व तो आज यूँ पछताना नहीं पड़ता मगर, अब इतनी देर हो चुकी कि दिन गिनने के सिवाय कोई रास्ता नहीं मगर, जो वक़्त शेष बचा उसमें इतना ही कर ले कि जो इन बुराइयों में पड़े उनमें से किसी एक की भी जिंदगी अगर बचा ले तो लगेगा कि जीवन व्यर्थ नहीं गया ये दिन आने से पहले ही संभल जाये युवा तो सही वरना, नशे के आगे किसी की चली वो मोहिनी पाश में जकड़ मारकर ही दम लेता विश्व में करोड़ों लोग इसकी चपेट में जिन्हें ये भयावह दृश्य ही सावधान कर सकता यदि अब भी अवहेलना की तो फिर जैसे नशे में गाफ़िल हो होश-हवास खोया वैसे ही दर्द से तड़फकर तकलीफ भी खुद ही झेलना... सोच लो क्या हैं चुनना... जीवन या मौत... फैसला तुमको ही करना... विश्व धुम्रपान निषेध दिवस पर यही आप सबसे हैं कहना... ☺ ☺ ☺ !!!    
      
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
३१ मई २०१८

बुधवार, 30 मई 2018

सुर-२०१८-१५० : #आया_हिंदी_पत्रकारिता_दिवस #साहसी_पत्रकारों_को_मन_से_नमन



30 मई 1826 का दिन भारतीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हैं और जिस वजह से उसे ये ऐतिहासिक गौरव प्राप्त हुआ वो भी कोई मामूली बात नहीं थी । यदि उस दिन 'जुगल किशोर शुक्ल' ने अपनी जिम्मेदारी न समझी होती तो आज हम हिंदी पत्रकारिता और अखबारों से वंचित होते और जिस तरह अंग्रेजी भाषा ने सब जगह अपना कब्जा जमाया हुआ हैं उसी तरह वो आज न्यूज़ पेपर्स में भी छप रही होती तब भला किस तरह दूर-दराज गांव में रहने वाले किस तरह से देश-दुनिया की खबरों से खुद को लाभान्वित कर पाते । उस वक़्त जब ये अखबार निकला तब भी माहौल ऐसा ही था अंग्रेजी अखबारों की संख्या तो बेहद थी लेकिन, हिंदी में कोई भी अखबार न था तब जुगल किशोर शुक्ल ने इस कमी को न केवल महसूस किया बल्कि इसका समाधान निकालने खुद ही आगे आये और फिर जो हुआ वो इतिहास बन गया ।

इसका प्रकाशन भी कोई कम जोखिम भरा काम नहीं था क्योंकि, तब एक तो देश में अपनी सरकार न थी दूसरे, कलकत्ता जैसे गैर-हिंदी प्रदेश से इसको निकालना भी एक चुनौती ही थी जिसे जुगल किशोर शुक्ल जी ने अपने मजबूत हौंसलों व बुलंद इरादों के दम पर पूर्ण किया । इसे साप्ताहिक अखबार के रूप में प्रारम्भ किया गया और प्रारंभिक चरण में इसकी 500 प्रतियां ही मुद्रित की गई और इस तरह इस अखबार ने हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी जिसकी वजह से 30 मई को 'हिंदी पत्रकारिता दिवस' के रूप में मनाया जाता हैं । एक वो दौर था जब हिंदी अखबार को छापना जोखिमपूर्ण था और कलकत्ता में हिंदी भाषियों की संख्या कम होने की वजह से एक साल बाद इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया था । आज मगर, इस छोटे-सी पहल ने हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक बहुत विस्तृत मुकाम हासिल कर लिया हैं और अंग्रेजी पत्रकारिता को लगभग हाशिये पर खड़ा कर दिया बिल्कुल उसी तरह से जिस तरह से कभी उसे कोने में रख दिया गया था ।

आंकड़ों के दृष्टिकोण से देखे तो आज हिंदी भाषी प्रकाशनों की पंजीकृत संख्या किसी भी अन्य भारतीय भाषाओं से अधिक हैं । रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स फॉर इंडिया (RNI) की वार्षिक रिपोर्ट (2016-17) के अनुसार पंजीकृत प्रकाशनों की संख्या में इस साल 3.58 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। साथ ही उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जहां सबसे अधिक प्रकाशन पंजीकृत हैं, यानी सूची में यह राज्य सबसे ऊपर है। इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है तथा RNI की रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत में पंजीकृत प्रकाशनों की संख्या लगभग 1,14,820 है। इसके अलावा किसी भी भारतीय भाषा में पंजीकृत समाचार पत्र-पत्रिकाओं की सबसे अधिक संख्या हिंदी भाषा में है और यह संख्या 46,827 है, जबकि हिंदी के अलावा दूसरे नंबर पर आने वाली अंग्रेजी भाषा में प्रकाशनों की संख्या 14,365 है।

ये उपलब्धि स्वयं ही हिंदी पत्रकारिता की सफलता की कहानी कहती हैं जिसने पिछले 92 वर्षों में इस तरह खुद को स्थापित किया कि आज इंटरनेट के बावजूद भी उसका जलवा चरम पर हैं इसके लिए आज उन सभी निष्पक्ष पत्रकारों और प्रकाशकों को हृदयतल से बधाई जिन्होंने अपना जीवन इसके लिये समर्पित कर दिया...  ☺☺☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
३० मई २०१८

मंगलवार, 29 मई 2018

सुर-२०१८-१४९ : #बिन_फांसी_सांस_अटकी



न फंदा
न रस्सी
न कोई बंधन
फिर भी लगता कि
लटके हो जैसे फांसी पर
घुट रहा दम आहिस्ता
वो एक पल जब
खत्म हो जाये सांसें
मिले मुक्ति इस झूलने से
उसके इंतज़ार में
काटते अपना सारा जीवन
वो चंद जो आज़ाद हैं
अपराध कर के भी
मगर, बोझ लदा सीने पर
छिप-छिप कर जीते
हर पल सहमते, कांपते
उस एक खटके से
जिसके बाद फिर
शेष न रहता कुछ भी
कि फांसी पर लटकना ही
महज़ मृत्यु नहीं हैं ।।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२९ मई २०१८

सोमवार, 28 मई 2018

सुर-२०१८-१४८ : #देकर_गये_जो_फ़िल्में_यादगार #नाम_हैं_उनका_निर्देशक_मेहबूब_खान





‘मदर इंडिया’ एकमात्र ऐसी फिल्म जो हिंदी सिनेमा का पर्याय बन चुकी हैं और इसे बनाने वाले निर्देशक ‘मेहबूब खान’ अपनी इस विश्वविख्यात रचना से विश्व-पटल पर अपनी ऐसी अनूठी छाप छोड़कर गये कि आज भी दुनिया में हिंदी फिल्मों की बात चले तो सबसे पहले इस फिल्म का नाम लिया जाता क्योंकि, इस फिल्म ने अपने समय में अभूतपूर्व कीर्तिमान ही नहीं रचे बल्कि, समस्त जगत में अपने प्रस्तुतिकरण से दर्शकों को अचंभित कर दिया और ये बताया कि हिंदी फिल्मों में माँ का किरदार केवल अपने पुत्र को अँधा प्रेम नहीं करता बल्कि जब वक्त आये तो उसकी जान लेने में भी पीछे नहीं हटता यदि उसे ये अहसास हो कि उसका खून गलत हैं और उसने कोई ऐसे कर्म किया जो नाकाबिले माफ़ी हैं तब वो स्वयं ही न्यायालय बन जाती और एक गोली से फैसला लिख देती जिससे खुद उसका सीना भी छलनी होता लेकिन, हर हाल में अपने फर्ज को प्रथम स्थान देती हैं

जब ये फिल्म प्रदर्शित हुई तो इसने अपने देश ही नहीं साथ-साथ विदेशों में भी धूम मचाई और ऑस्कर के लिये तक इसे नामांकन दिया गया हालाँकि इसे वो सम्मान हासिल नहीं हुआ परंतु बावज़ूद इसके वो उसने सबके दिलों को छुआ कि इसमें एक नारी के सभी रूपों को उसकी पूर्ण गरिमा व आत्मसम्मान के साथ दिखाया गया था चाहे वो पत्नी हो या माँ अपनी हर जिम्मेदारी को उसने विपरीत परिस्थितियों में भी पूरी हिम्मत के साथ निभाया और सबसे बड़ी आश्चर्य की बात कि जिस वजह से उस चरित्र को भारतीय नारी के प्रतिनिधित्व के रूप में स्वीकार किया गया उसी वजह से उसे ऑस्कर से वंचित किया गया क्योंकि, जूरी को ये समझ नहीं आया कि नायिका ‘राधा’ अपने पति के चले जाने के बाद ‘सुखीलाला’ द्वारा दिये गये प्रस्ताव को स्वीकार करने की जगह संघर्ष भरी जिंदगी का चुनाव क्यों करती हैं और बस, इस बात से ही उनको ये फिल्म उस काबिल नहीं लगी

उन्हें ये पता नहीं कि भारतीय संस्कृति में स्त्री इस तरह अपने फायदे के हिसाब से रिश्ते जोड़ती-तोड़ती नहीं वो अकेले अपने दम पर भी जी सकती हैं चाहे हालात कितने भी विषम क्यों न हो यदि उसका हौंसला, आत्मविश्वास और उसके अपने साथ हो तो फिर वो सबका मुकाबला कर सकती हैं जैसा कि ‘राधा’ ने किया पर, जहाँ रिश्तों से अधिक स्वार्थ को तरजीह दी जाती वहां ये परिकल्पना ग्रहण कर पाना मुश्किल था इसलिये इसे वो पुरस्कार नहीं मिला लेकिन जो मिला वो उससे कहीं अधिक बढ़कर हैं क्योंकि, ये आज तक भी फ़िल्मी इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर विराजमान हैं और इसके नाम से बॉलीवुड को पूरी दुनिया में एक अलग पहचान हासिल हैं तो ऐसे में उस शाहकार को रजत पर्दे पर साकार करने वाले महानतम निर्देशक ‘महबूब खान’ को भूल पाना भी मुमकिन नहीं आज जिनकी पुण्यतिथि हैं और यही नहीं उनकी बने सभी फ़िल्में अपने आप में एक इतिहास समेटे हैं पर, आज बात सिर्फ इसी की और उसे बनाने वाले की आज स्मृति दिवस पर उनको... मन से नमन... !!!
     
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२८ मई २०१८

रविवार, 27 मई 2018

सुर-२०८-१४७ : #प्रेम_न_बने_जुनून



'प्रेम'
बन जाये अगर
जुनून
सामान्य से हो जाये
आसामान्य
तो वो सनकीपन
एक पल में ही बना देता
प्रेमी को खूनी
जरूरी नहीं कि
फिर वो जान ही ले
किसी दूसरे की
कभी-कभी खुद के लिये
तो कभी परायों या
फिर कभी अपनों के सपनों
या राह में आते किसी भी
अंजान के लिये भी
घातक बन जाता ।।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ मई २०१८

शनिवार, 26 मई 2018

सुर-२०१८-१४६ : #सच_के_फ्लेवर



सत्य का स्वाद भी होता हैं
सुनकर अटपटा लगता
मगर, ज़नाब ये भी एक 'सत्य'
कि कई फ्लेवर में मिलता हैं 'सत्य'
मगर, सबसे ज्यादा लोकप्रिय टेस्ट
कड़वा और कसैला ही सुना
जो किसी को पसंद नहीं
फिर भी इसकी डिमांड और सप्लाई
सारी दुनिया में सर्वाधिक
तभी तो हर कोई यही बोलता
मीठा सच तो मिलता गाहे-बगाहे
जिसकी इतना पूछ नहीं
लोग तो सबको यही गिफ्ट करते
आखिर, क्यों होता ये कड़वा?
सोचा बहुत तो यही समझ आया
कि हकीक़त को जब बिना लाग-लपेट
यूँ ही किसी के सामने परोस देते तो
फिर उसमें 'कटुता' समा जाती ।।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२६ मई २०१८

शुक्रवार, 25 मई 2018

सुर-२०१८-१४५ : #सौम्यता_का_मानवीय_रूप #सुनील_दत्त_के_व्यकतित्व_में_आता_नजर



लघु से विराट बनने की यात्रा में ‘सुनील दत्त’ कई पड़ावों से गुजरे और हर एक मोड़ पर अपने व्यक्तित्व में उस अनुभव के अहसास को आत्मसात कर लिया जिसने उनके मुखमंडल पर तेज का ऐसा आभामंडल बना दिया कि सादगी व सरलता के बीच उसमें अहंकार का लेश मात्र भी शामिल न था इसलिये तो सिर्फ रजत पर्दे पर ही नहीं वास्तविक जीवन में भी किरदार बदलते रहे मगर, वो अविचल छवि अपरिवर्तित रही जिसने एक लम्बे समय तक समकालीन युवाओं को प्रभावित किया और मुश्किल घड़ी में उनका मार्गदर्शन भी किया

वे सिर्फ एक सज्जन व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक संवेदनशील कलाकार और निर्देशक भी थे जिन्होंने अपनी उम्र के अनुसार अपने चरित्र का चयन किया और जब लगा कि समाज सेवा का समय हैं तो खुद को उस सांचे में ढालने में भी कसर नहीं छोड़ी कि उनके भीतर गंभीरता इस तरह समाई थी कि किसी भी काम को हल्के में लेना या उसे अधूरा छोड़ना उनकी फितरत में ही शामिल नहीं था तो जो भी कार्य हाथ में लिया उसे पूर्ण कर के ही दम लिया

जिसकी वजह से वो सिर्फ एक अभिनेता, निर्देशक, समाज सेवक, नेता ही नहीं बल्कि, पति व पिता की भूमिका में भी कमतर साबित नहीं हुये अपने जहाँ रजत परदे पर हर एक पात्र को उन्होंने अपने अभिनय से जीवित किया तो वही वास्तविक जीवन में अपनी जिम्मेदारियों को भी उतनी ही सूक्ष्मता से वहन किया जिसकी वजह से उनके जाने के बाद भी उनकी कमी महसूस होती कि ऐसा बहुमुखी अदाकार अपनी तरह का एक ही था

जिसको देखने पर यूँ तो तो वो महान शख्सियत मगर फिर भी एकदम सामान्य बोले तो अपना-सा लगता था जिसकी सौम्य मुस्कराहट पर रगों में उत्तेजना नहीं बल्कि सम्मान का भाव जगता था और उसके नकारात्मक रंग-रूपों में भी कहीं-न-कहीं मानवीयता का पुट समाया था तो वो भी कभी हिंसक या नफरत का सबब नहीं बने चाहे वो डाकू हो या खलनायक का चरित्र उन्होंने उनको भी अपने सहज-सरल व्यक्तित्व के चुम्बकीय प्रभाव से से उतना ही भावपूर्ण बना दिया जितना कि उनका असल चरित्र था

आज उनके पुण्य दिवस पर उनको यही भावों भरी शब्दांजलि... !!!       

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२५ मई २०१८

गुरुवार, 24 मई 2018

सुर-२०१८-१४४ : #गंगा_दशहरा_ऐसे_मनाओ #प्राकृतिक_धरोहर_मिलकर_बचाओ




‘गंगा’ सिर्फ एक नदी नहीं जीवित इकाई हैं जो हमारी तरह ही सांस लेती और हम सबको अपने अमृत रूपी जल से जीवन का दान देती हैं जिसे हमने पुण्यदायिनी समझ देवी माँ की संज्ञा देकर उच्च सम्मान दिया अपनी श्रद्धा व आस्था से जोड़ा मगर, उसके बाद भी हमने उसे क्या दिया जिसने हमारे लिये अपना सर्वस्व त्याग दिया वो जो स्वर्ग व अपने समस्त सुखों को छोडकर सिर्फ हमारे ही लिये धरती पर चली आई मगर, हमने एक तरफ जहाँ पूजा-अर्चना कर के उनको ईश्वर का स्थान दिया वहीँ दूसरी तरफ उनके आंचल को ही गंदगी से भर दिया और उनके सीने को चीरकर उसमें छिपे खजाने का दोहन किया

जो हमारी स्वार्थान्धता की चरम सीमा को दर्शाता कि हम अपने विनाश के लिये खुद ही गड्ढा खोद रहे और फिर जब बढ़ते तापमान को देखते या मौसम की अनियमितता से परेशान होते तो दूसरों के सर पर दोषारोपण कर अपने आपको पाक-साफ़ बताने का प्रयास करते कि आज उनकी जो सोचनीय दशा उसके जवाबदार हम नहीं क्योंकि, हम तो उसका उपयोग नहीं करते या हम तो वहां नहीं रहते लेकिन, जहाँ हम रहते वहां ही हमने कितना सरंक्षण किया या कितने नये नदी-तालाब या नहरों का निर्माण किया हम तो केवल उपयोग करना जानते मगर, समाप्ति के बाद आगे क्या होगा ये नहीं सोचते न ही हम आगे आने वाली पीढ़ी के बारे में ख्याल करते और न ही हमें इस बात की फ़िक्र कि जो हैं उसे ही सहेज ले हम तो बस ये देखते कि हमारा काम चल रहा तो हमें क्या करना ?

अब लेकिन, जिस तरह से कुदरत में नकारत्मक बदलाव आ रहे और जिस तरह से प्राकृतिक धरोहरें लुप्त होने की अवस्था में पहुँच रही वे हमें संकेत कर रही कि चाहे तो हम अब भी उनको बचा सकते अन्यथा एक दिन सिर्फ किताबों के पन्नों में ही उनका नाम व चित्र शेष रह जायेगा जिसे दिखाकर हम गर्व से कहेंगे कि ये हमारे देश का गौरव हैं पर, होगा जब वही पीढ़ी हमसे सवाल करेगी कि उस वक़्त जब वो खत्म हो रही थी तब हमने क्या किया तो हम निरुत्तर हो जायेंगे इसलिये उस दिन के लिये हमें अपनी गौरवशाली विरासत को बचाना हैं, अपने आपको बचाना हैं और गंगा दशहरा सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं वास्तविक गंगा के साथ मनाना हैं... उसके लिये आज से ही संकल्प कर नदियों को संवारना-सजाना हैं... ☺ ☺ ☺ !!!           

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ मई २०१८

बुधवार, 23 मई 2018

सुर-२०१८-१४३ : #पहाड़_न_जाने_कोई_जेंडर #बच्छेंदरी_पाल_के_आगे_किया_सरेंडर



23 मई 1984 का दिन यूं तो एक आम-सा ही दिन था मगर, दिन के 1 बजकर सात मिनट पर वो ऐतिहासिक दिवस बन गया जिसका उल्लेख आज भी किया जाता और जिसे इतिहास के पन्नों में से हटा पाना नामुमकिन क्योंकि, उस दिन को खास बनाने के लिये एक तीस वर्षीय महिला ने 29028 फीट अर्थात 8848 मीटर की चढ़ाई करके दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर कहलाये जाने वाले दुर्गम ‘माउंट एवरेस्ट’ पर भारतीय विजय पताका फहरा दी और इस तरह इसी चोटी के नेपाली नाम 'सरगमाथा' अर्थात् जिसे ‘स्वर्ग का शीर्ष’ कहा जाता उसके माथे को चूम लिया तो उसने भी बाहें फैलाकर उसे अपने सर पर बैठा लिया ।

ये एक साधारण सी महिला का असाधारण कारनामा था जिसने ये दिखा दिया कि जिन पर्वत या पहाड़ों को स्त्रियों के लिये असाध्य माना जाता या जिस पर चढ़ विजय हासिल करना उनके लिये महज़ कल्पना समझी जाती वो कोई इतना भी मुश्किल कार्य नहीं केवल, मन में ठान लेने की इच्छा हैं फिर जिस ऊंचाई को भी छूना हो वहां न केवल पहुंचा जा सकता बल्कि, कीर्तिमान बनाकर एक मिसाल भी कायम की ज सकती कि पहाड़ या पर्वत या सागर को जेंडर से कोई मतलब नहीं जो भी चाहे उस पर चढ़ सकता वो तो हम ही जो ये बंधन या सीमाएं तय कर देते कि फलाना काम सिर्फ पुरुष ही कर सकते महिलाएं नहीं यदि हम लड़कियों को भी शुरू से ये बताये कि उनके लिये कुछ भी बन पाना या कर पाना असम्भव नहीं और वे उन सभी कार्यक्षेत्रों में अपनी जगह बनाकर उच्चतम मुकाम प्राप्त कर सकती जिन्हें केवल पुरुषों का समझा जाता और फिर वो उसे असंभव नहीं समझेगी ।

हमने महिलाओं के लिये केवल नियम या संस्कार या व्यवहार ही नहीं बल्कि काम करने के स्थान भी निर्धारित कर दिए जिसने उनकी उड़ान को सीमित कर दिया ये तो चंद ऐसी जीवट महिलाओं की असाधारण इच्छाशक्ति का कमाल कि उन्होंने इन प्रतिबंधों ही नहीं उन दहलीजों को भी पार किया जिनके अंदर उनको लड़की होने के नाम पर तमाम हिदायतों के नाम पर कैद कर के रखा गया ऐसी ही एक कर्मठ, जुझारू और साहसिक महिला ‘बछेंद्री पाल’ हैं जिन्होंने इसके पर जाकर छलांग लगाई तो ऐसी उल्लेखनीय सफलता हाथ आई जिसने अनगिनत नारियों को उनकी असीमित कार्यक्षमता का अहसास दिलाया और उन्हें घर की चारदीवारी व रसोईघर से बाहर निकल अपनी बाजुओं के दम पर अपनी पहचान बनाने का हौंसला दिया ।

एवरेस्ट की ऊंचाई पर पहुंचने के एक वर्ष पश्चात् बछेन्द्री पाल ने फिर एक बार पर्वतारोहण का कार्यक्रम बनाया जिसमें उन्होंने अपने पर्वतारोही दल में सिर्फ महिलाओं को ही शामिल किया और उसके बाद 1994 में उन्होंने हरिद्वार से कलकत्ता तक गंगा में राफ्टिंग के महिला दल का नेतृत्व भी किया और लगातार अर्जुन पुरस्कार, पदमश्री और अनगिनत सम्मान पाकर स्त्रियों को प्रेरक बन मार्गदर्शन दिया आज उनके सफ़लता दिवस पर उनको <3 से बधाई... ☺ ☺ ☺ !!!


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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२३ मई २०१८

मंगलवार, 22 मई 2018

सुर-२०१८-१४२ : #विश्व_जैव_विविधता_दिवस_का_संदेश #विविधताओं_में_सुरक्षित_हम_सबका_जीवन



समस्त भूमंडल एक विशाल आवासीय परिसर जिसमें समस्त जीवित प्राणी आपस में मिलकर रहे इसलिये सृष्टिकर्ता ने इस तरह से उनकी रचना की कि वे सब आपस में परस्पर एक-दूसरे से कड़ी के रूप में जुड़े रहे और इनका जीवन आपसी सामंजस्य व परस्पर व्यवहार से चलता रहे ताकि सब एक-दूसरे का महत्व समझे कोई किसी को मारने या नष्ट करने का प्रयास न करे लेकिन, इसे जानने के बाद भी मानव ने प्रकृति की उन सब अमूल्य सौगातों को बड़ी आसानी से मिटा दिया जो उसे अपने अनुकूल प्रतीत नहीं हुई

जिसका खामियाजा हम तरह-तरह के नकारात्मक प्राकृतिक परिवर्तनों से दिन-ब-दिन महसूस कर रहे फिर भी हमारी ढीढता देखो कि जब तक हमें लग रहा कि किसी जीव को मारकर हम जिंदा रह सकते तो अपने प्राणों को बचाने हम उसके प्राण लेने में एक पल भी न हिचकते जिसकी वजह से अनगिनत प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी और न जजाने कितनी समाप्ति की कगार पर खड़ी जिनको बचाने के प्रति हम सचेत हो इसलिये सयुंक्त राष्ट्र संघ ने २२ मई को ‘जैव विविधता दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया

जिससे कि हम हर एक जीव की उपयोगिता को समझे अन्यथा जिसे आज हम गैर-जरुरी या मामूली समझ रहे वही हमारी मौत की वजह बन सकते हैं क्योंकि, हर एक जीव चाहे वो नन्हा-सा एकदम सूक्ष्म हो या फिर चाहे विशालतम सबके अस्तित्व आपस में इस तरह से गुंथे हुये कि किसी के भी बिना अगले पर प्रभाव पड़ सकता वो तो हम ही हैं जो कुदरत के संकेतों को देखकर भी अनदेखा कर रहे जबकि पानी सर के उपर नहीं बल्कि, धरती के बहुत नीचे पहुँच गया और तापमान बढ़ते हुये असहनीय अवस्था में पहुँच गया

फिर भी हम हैं कि प्रकृति से दूर होकर कृत्रिम साधनों में मगन होकर इतने स्वार्थी हो गये कि अपने जीवन के सिवा किसी की फ़िक्र न कर रहे मगर, एक दिन आयेगा जब ये असंतुलन इस सृष्टि के विनाश की वजह बनेगा और तब हमारे पास कोई भी विकल्प शेष न रहेगा कि अपनी कब्र हम खुद ही तो रोज खोद रहे हैं यही नहीं अपनी आने वाली पीढियों के लिये भी आने के सभी मार्ग बंद कर रहे याने कि भोगने की प्रवृति इतनी अधिक बढ़ी हुई कि सब कुछ खुद ही उपयोग कर लेने चाहते चाहे फिर किसी के लिए बचे या नहीं पर, ये भूल रहे कि चाहे कुदरत का खजाना कितना भी भरा हो यदि उसे बढ़ाने या उसके सरंक्षण का प्रयास नहीं किया तो वो एक न एक दिन तो खत्म होगा ही फिर क्या ???                                      
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२२ मई २०१८

सोमवार, 21 मई 2018

सुर-२०१८-१४१ : #मौत_वरदान_भी_होती



आज तक
समझ न आया कि
कहाँ रहते हैं वो लोग ?
जो फिर कहीं के नहीं रहते
शायद, तन्हाई में
खुद से ही बातें करते
या शायद, चिंता की चिता में
रात-दिन सुलगते रहते
या फिर किसी पागलखाने में
रोते और चीखते-चिल्लाते
गोया कि जीते-जी ही
खुद से जुदा होना
तिल-तिल मरने जैसे होता
'मौत' तो वरदान ही होती होगी
ऐसे टूटे-फूटे लोगों के लिए

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२१ मई २०१८

रविवार, 20 मई 2018

सुर-२०१८-१४० : #लघुकथा_कंधे_पर_रखा_रिश्ता




कभी-कभी आप अपनी मित्रों या दोस्तों के उकसाने को भी प्रेम समझ लेते हो पर, जब अहसास होता तो पछताते हो और उससे जान छुड़ाकर भागना चाहते हो लेकिन फंदा अगर कसा हो तो भागना मुश्किल होता ये भूल जाते हो बिल्कुल, ‘सोना हिरणी’ की तरह जो ख़ुशी के अतिरेक में अपने खूंटे से गाफिल होकर अपनी जान गंवा बैठी

कुछ ऐसा ही हुआ ‘रचित’ के साथ जिसने कॉलेज में दोस्तों के साथ होने वाली बातों से ‘अणिमा’ को अपना परफेक्ट मैच समझ उससे शादी कर ली मगर, जब ‘छवि’ को देखा तो लगा कि उसका सच्चा प्यार वो नहीं ये हैं तो अपनी सीमा को भूलकर चाँद को छूना चाहा और मुंह के बल गिरा

क्योंकि, वो ये भूल गया था कि उसके कंधे पर रखे रिश्ते के दूसरे छोर की गिरह किसी से बंधी हैं जिसे वो आसानी से तोड़ लेगा उसको ये गुमान था परंतु, ये गलतफहमी उसका भ्रम साबित हुई कि बीच में आये खिंचाव से खूंटे को ये इल्म हो गया कि उससे बंधा साथी उससे छूटकर जाना चाहता हैं तो उसने अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी

हमेशा खूंटे को कमजोर समझना सही नहीं होता वक़्त के साथ उसकी पकड़ मजबूत होती जाती हैं क्योंकि, जिम्मेदारियों की बढ़ती परतें उसे गहरा कर देती हैं ‘अणिमा’ अकेली नहीं थी उसके बच्चे, मायका और ससुराल वाले सब उसकी तरफ थे तो ‘रचित’ का तो ये अंजाम होना ही था ।       

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२० मई २०१८

शनिवार, 19 मई 2018

सुर-२०१८-१३९ : #नॉन_डिस्पोजेबल_दिल



कभी बातों के
हवाईजहाज में बैठा
एकदम आसमान में चढ़ा देते हो तो
दूसरे ही पल पलकों को झटक
सीधे जमीन पर गिरा देते हो
कभी एक बार भी ये नहीं सोचते कि
मैं कोई कागज़ का राकेट नहीं
जो तुम बचपन में उड़ाते थे
और जिसकी आदत अब भी तुम्हें लगी हुई हैं
शायद, किसी ने तुम्हें खिलौनों और दिल में
फर्क करना नहीं सिखाया
वरना, आज जान पाते कि जिसे तुमने
तोड़-मरोड़कर फेक दिया
वो कोई डिस्पोजेबल कप नहीं
कि यूज़ एंड थ्रो कर दो
बल्कि, धड़कता हुआ दिल था
जो डिस्पोजेबल की ही तरह कभी
रीसायकल नहीं होता ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१९ मई २०१८

शुक्रवार, 18 मई 2018

सुर-२०१८-१३८ : #विश्व_संग्रहालय_दिवस_याद_दिलाता #भूली_बिसरी_ऐतिहासिक_कहानियां_हमें_सुनाता



संग्रहालय न होते अगर तो हम उन वस्तुओं को किस तरह से देख पाते जिनका जिक्र हम किताबों में पढ़ते हैं या जिनको हमने पुरानी तस्वीरों में कहीं देखा हैं ये संग्रहालयों का ही योगदान कि आज हम अपने इतिहास की दुर्लभतम चीजों को देख पा रहे हैं और आगे भी हमारी अनेकों पीढियां इनको देखकर पिछली सदी को समझ सकेगी हमारे देखते-देखते ही सदी बदल गयी परंतु, गुजरी सदी अपने पीछे अनगिनत निशानियाँ छोड़ गयी जिनको म्यूजियम में रखकर सदा-सदा के लिये अमर कर दिया गया तो जब भी नई सदी ये जानना चाहेगी कि उससे पहले लोग किस तरह से जीते या किस तरह के यंत्रों का इस्तेमाल करते थे तो अधिक मुश्किल न होगा क्योंकि, अब तो तकनीक की वजह से बहुत कुछ संग्रह कर के कम से कम जगह में रख पाना संभव हुआ जो पहले कठिन था क्योंकि, अब तो बहुत-से जरुरी डाक्यूमेंट्स को बहुत बड़ी मात्रा में डिजिटली स्टोर किया जा सकता हैं

प्रत्येक देश, प्रत्येक प्रांत, प्रत्येक नगर की अपनी थोड़ी-बहुत सांस्कृतिक विरासत होती जिसे संजोकर ही लंबे समय तक जीवंत रखा जाता और यदि ऐसा न किया जाता तो हमें ये किस तरह पता चलता कि किस जगह, किस समय, किस तरह की प्राचीन शैलियाँ प्रचलित थी चाहे वो बोलचाल हो या पुस्तकें या फिर बर्तन, कपड़े और फिर चाहे वो उसकी स्थानीय धरोहर हो इनसे ही उसे समझने में आसानी होती हैं ये तो हुई उन वस्तुओं के संग्रह की बात जिनका संबंध इतिहास से होता इसके अतिरिक्त बहुत-से लोगों के पास भी कुछ न कुछ ऐसा होता जो अनमोल हैं तो उनके परिवारवाले भी उसे धरोहर के रूप में सुरक्षित रख देते जिससे कि उनके खानदान की विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को अपने वैभवशाली इतिहास से परिचित करवा सके और यही वजह कि लोगों के भीतर दुर्लभ चीजों को सहेजने की प्रवृति उत्पन्न हुई जिसने संग्रहालय को जन्म दिया

‘अंतर्राष्ट्रीय संग्रहालय दिवस’ का यही उद्देश्य कि हम जो अपने आप में खोये मशीन बनने में जुटे वे थोडा-सा समय निकालकर आज के दिन और यदि आज संभव न हो तो कभी-न-कभी इन स्थानों का भ्रमण करें और अपने देश, अपनी मातृभूमि, जन्मभूमि के उस गौरवशाली इतिहास को जाने जिसने हमें विश्व पटल पर मान-सम्मान के साथ स्थापित किया और जिसकी वजह से हम अपने देश पर गर्व करते इसलिये आज के दिन सरकार म्युजियम में घूमना-फिरना निःशुल्क रखती ताकि आधिक-से-अधिक संख्या में लोग वहां जाये और इस दिन को संग्रहालय में मनाये... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१८ मई २०१८

गुरुवार, 17 मई 2018

सुर-२०१८-१३७ : #पूरी_दुनिया_बन_गयी_एक_परिवार #दूरसंचार_का_मिला_जब_हमको_साथ




किस्सा – ०१ : ‘रीना’ की नई-नई जॉब लगी थी और कंपनी की तरफ से उसे विदेश जाने का ऑफर मिला जबकि, वो रहने वाली थी एक छोटे-से गाँव की तो परिवार को चिंता होना लाज़िमी था क्योंकि, पढ़ाई या नौकरी के लिये बाहर रहने तक उनको कोई दिक्कत नहीं थी कि दूर ही सही अपने देश में तो थी पर, परिवार वालों की इस अनुमति को उसने कुछ ज्यादा ही हल्के में ले लिया और जब कंपनी ने उसे बाहर जाने का ऑफर दिया तो उसे तुरंत लपक लिया लेकिन, अपने परिवार वालों की परेशानी ने उसे चिंता में डाल दिया जिसका हल मिला उसे दूरसंचार में जिसके माध्यम से उसने अपने परिजनों को अपने साथ ‘मेसेंजर्स ग्रुप’ में ही नहीं ‘विडियो चैट’ करना भी सीखा दिया तो बस, जब उनका मन करता वो उसे कॉल कर के न केवल बात कर लेते बल्कि, उसे देख भी लेते जिससे उनकी मन की चिंता काफी हद तक कम हो जाती और दूरी का अहसास भी नहीं होता था

किस्सा – ०२ : ‘मिहिर’ को मॉडलिंग और फैशन इंडस्ट्री में बड़ा इंटरेस्ट था लेकिन, वो जिस शहर में रहता था वहां ये सुविधा नहीं थी कि, वो इसके बारे में अधिक जानकरी ले सकता लेकिन, ‘इंटरनेट’ ने उसकी इस समस्या का समाधान कर दिया और उसने उसके माध्यम से न केवल ऑनलाइन कोर्स किया बल्कि, अट्रेक्टिव पोर्टफोलियो भी डिजाईन करवा लिया जिसके जरिये मॉडलिंग के छोटे-मोटे ऑफर्स भी प्राप्त कर लिये तो उसकी इस छोटी-छोटी उपलब्धियों ने उसे एक दिन एक बड़े मॉडलिंग कांटेस्ट का हिस्सा बनाकर बड़ा प्लेटफार्म दिलवा दिया और इस तरह उसे अपनी मजिल मिल गयी ।

किस्सा- - ०३ : ‘शिल्पी’ बहुत अच्छी कविता व कहनियाँ लिखती थी लेकिन, समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह उसे छपवाये और साहित्य की दुनिया में एक सितारे की तरह जगमगाये तो यूँ ही ‘सोशल मीडिया’ में लिखना शुरू किया जिसका नतीजा कि लोगों ने उसके लिखे को बेहद पसंद किया और फिर क्या वहीँ से उसे कई जगह अपनी कविताओं व कहानियों को छपवाने के लिये प्रकाशक भी मिल गये तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा कि आख़िरकार, घर बैठे-बैठे ही उसने वो मुकाम हासिल कर लिया जिसके बारे में वो सोचा करती थी और एक दिन वो भी आया जब उसे साहित्य का बड़ा सम्मान ही नहीं बल्कि, उस क्षेत्र में एक पहचान व नाम भी मिला तो बड़े-बड़े मंचों ने भी उसे आमंत्रित करना प्रारंभ कर दिया और इस तरह देश के एक कोने में रहने वाली गुमनाम लड़की आज सम्मानित लेखिका के रूप में जानी जाती थी जिसके लाखों फालोवर्स व प्रसंशक थे ।        

किस्सा – ०४ : ‘चिया’ की माँ हमेशा चिंतित रहती थी कि उनकी आठ बरस की बिटिया इतना अच्छा नाचती व गाती हैं लेकिन, फिर भी वो उसे किस तरह से देश व दुनिया के सामने लाये कि उसकी अद्भुत प्रतिभा से सब परिचित हो सके ऐसे में एक दिन उन्हें ‘यू-ट्यूब’ के बारे में पता चला तो उन्होंने उसके विडियो बनाकर उस पर पोस्ट कर दिया और फिर क्या देखते-देखते ही वो इतने वायरल हुये कि उसे फिल्म इंडस्ट्री तक से गाने के लिये प्रस्ताव मिला और उसके नृत्य ने उसे देश के बड़े डांस शो में विनर का ख़िताब दिलवाया तो ‘चिया’ ने भी अपने हुनर को निखारने के लिये बाहर जाने का निश्चय किया और इस तरह उसकी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा को वो दिशा मिली जिसकी वो हकदार थी

किस्सा – ०५ : ‘सोना’ बचपन से ही पढ़ाई में बेहद अच्छी थी लेकिन, इसके बावजूद भी उसकी बुद्धिमता का सही प्रयोग नहीं हो पा रहा था कि परिवार में कोई अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था उस पर उसके पिता कृषक थे तो उनका रुझान गाँव व खेती में ही अधिक रहता उनके लिये तो इतना ही पर्याप्त था कि उनकी बेटी को अक्षर ज्ञान हो जाये ज्यादा अपेक्षायें नहीं थी ऐसे में ‘सोना’ को जब एग्जाम में टॉप करने पर वाई-फाई युक्त लैपटॉप और उसके साथ ही फॉरेन एजुकेशन के लिये एग्जामिनेशन का अवसर भी तो उसने उसे न गंवाते हुये उसका भरपूर उपयोग किया जिसने उसे विदेश की यूनिवर्सिटी में अपने देश का परचम लहराने का स्वर्णिम मौका दिया और इस तरह वो अपना अन्तरिक्ष वैज्ञानिक बनने का ख्वाब पूरा कर पाई जो उसने ‘कल्पना चावला’ की जीवनी पढ़ने के बाद देखना शुरू किया था

ये तो महज़ चंद काल्पनिक किस्से लेकिन, हकीकत में इससे ज्यादा चमत्कार दूरसंचार के द्वारा नित किये जा रहे जिसने अपनी सूक्ष्म तरंगों से संपूर्ण ब्रम्हांड को एक सूत्र में पिरो दिया और लोगों को इतने निकट ला दिया कि अब कोई भी दूरी महसूस नहीं होती और कल तक जो स्वपन था उसे इसने हकीकत में बदल दिया हैं कि तकनीक का साथ पाकर दूरसंचार के माध्यम भी तेजी से विकसित हो रहे और पारंपरिक पुरातन यंत्रों की जगह आधुनिकतम गेजेट्स से कम्युनिकेशन किया जा रहा जिसने असंभव को संभव बना दिया... अब तो आवाज़ सुनने के साथ-साथ व्यक्ति को देखना एक अलग ही सुकून देता उस पर इतनी सारी सुविधायें व् जानकारियां भी उपलब्ध कि कुछ स्वप्न नहीं रहा ‘विश्व दूरसंचार दिवस’ यही याद दिलाता कि दूरियां नजदीक बन गयी... मिला गजब तकनीक का साथ हैं... ☺ ☺ ☺ !!!             

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१७ मई २०१८

बुधवार, 16 मई 2018

सुर-२०१८-१३६ : #मनुहार_मान_लो_प्रिये



न जाओ,
न जाओ...
छोड़कर प्रिये,
तड़पकर बोली उर्मिला
सुन उसकी ये बात
सुमित्रानंदन ने ये कहा,
प्रिये, न जाऊं वनवास भाई संग
रुक जाऊं यही तुम्हारे पास
मुश्किल तो नहीं मगर,
तुम्हारे मेरे जीवन में आने से पूर्व ही
बड़े भाई को दे चुका वचन
सदा साथ रहने का
वो मिथ्या हो जायेगा तो
बोलो, क्या तुम्हें रास आयेगा?
गर्दन झुकाकर किया इंकार
फिर किया अनुरोध
इतना तो मानेंगे न प्राणनाथ कि
चाँद में हम देखेंगे एक-दूजे को
हवा संग भेजेंगे संदेश
अंतर्मन से ही करेंगे हर बात
जरूर, मुझे स्वीकार हैं
हंसकर लक्ष्मण ने दिया जवाब
सुनकर उनका ये वार्तालाप
मुस्कुरा उठा आसमान में खिला चाँद
अब वो बनकर प्रेमदूत
जोड़ेगा बिछड़े दिलों के तार
पहुंचायेगा मन का हाल ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१६ मई २०१८

मंगलवार, 15 मई 2018

सुर-२०१८-१३५ : #विश्व_परिवार_दिवस_यूँ_मनाओ #एकल_छोड़_संयुक्त_परिवार_बनाओ




विलायती संस्कृति में व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता और खुद की ही खुशी, खुद के ही जीवन को महत्व देता जिसकी वजह से वहां न तो सयुंक्त परिवार जैसा कोई विचार और न ही रिश्तों-नातों का अहसास बस, स्वयं की खुशी सर्वोपरि जिसके लिये यदि बरसों पुराने बंधन को तोड़कर नया कोई रिलेशन बनाना हो तो एक पल का समय न लगता जबकि, भारत में परिवार व रिश्तों को प्राथमिकता दी जाती जिसके लिये समझौता कर के भी उसे बचाने की कोशिश की जाती न कि, महज़ मौज-मजे के लिये किसी से प्रेम संबंध बनाये जाते जैसा कि पाश्चात्य कल्चर में देखने आते वे लोग तो अपने बच्चों की खुशी की खातिर तक अपनी इच्छाओं का त्याग करते जिसका आनंद व महत्व उन्हें समय आने पर समझ आता ।

जैसे-जैसे हम विदेशी सभ्यता के उपरी आवरण से अपने आप को ढंककर आधुनिक बनते जा रहे वैसे ही भीतरी तौर पर संकुचित होते जा रहे और आर्थिक स्वतंत्रता हासिल होते ही हमें अपने जीवन में अपनों का ही हस्तक्षेप नागवार गुजर रहा जिसके कारण हम उनसे केवल तन ही नहीं मन की भी दूरियां बना रहे जिसका परिणाम कि कभी जहाँ हम बीसियों सदस्यों से भरपूर बड़े घर में भी मिलकर रहते थे अब वहीं विशालतम आवास में भी महज़ दो-चार सदस्य वो भी खुद में सिमटे इस तरह से रहते कि आपस में रिश्तेदार नहीं बल्कि औपचारिकता का निर्वहन करते अजनबी नजर आते ऐसे में थोड़ा रुककर सोचने की जरूरत कि आखिर हम कहाँ जा रहे और वो सब कुछ हासिल कर के भी क्या मिलेगा जबकि हम अकेले ही रह जायेंगे क्योंकि, ख़ुशी या सफलता भी तभी आनंद देती जब उनको बाँटने वाला कोई साथ में होता हैं     

परिवार विघटन की वजह से ही कई सारी अपराधिक घटनायें भी घटित हो रही क्योंकि पहले घर में बुजुर्ग होते तो वे न केवल घर के सदस्यों को संबल देते बल्कि सहारा भी बनते और बच्चे उनके सानिध्य में रहकर पिछली परम्पराओं से परिचित होते इस तरह प्राचीन और आधुनिकता के बीच वे सेतु बनते लेकिन, अब तो मोबाइल या गेजेट्स ही ये भूमिका निभा रहे तो फिर बच्चों का मशीन बनना कोई गलत नहीं जो बाद में उन्हीं माता-पिता से बेदिली से अलग हो जाते जिन्होंने उन्हें ये सब सुख-सुविधाएँ दी क्योंकि, अपने काम की वजह से वे उन्हें जज्बात देना भूल गये तो फिर भला जज्बाती रिश्ता किस तरह बनता इसलिए अब भी समय कि हम थोड़ा विचार करें कि हमें ये दिवस मनाना या सयुंक्त परिवार फिर से बनाना... यही इस दिवस की सार्थकता होगी... बधाई... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१५ मई २०१८