शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२५१ : #यूँ_ही_नहीं_कोई_अमृता_प्रीतम_बनता #काँटों_भरी_राह_पर_नंगे_पांव_चलना_पड़ता




अमृता प्रीतम की लेखनी में भरे जज्बात और कसक कहाँ से आये?

‘अमृता प्रीतम’ उस दौर की ‘फेमिना’ है जब ‘फेमिनिज्म’ या ‘स्त्रीवाद’ अपनी जड़ें जमा रहा था तो उसके लिये आवश्यक खाद-पानी जुटाने का काम उन साहसी महिलाओं ने किया जो इस शब्द के मायने भले उस तरह से न समझती हो जिस तरह से आज की तथाकथित ‘फेमिनिस्ट’ आये दिन निकालकर नई पीढ़ी को बरगलाती रहती हैं । खुद घर के कामों और एकरस ज़िंदगी से ऊब चुकी तो उसे दूसरों के मत्थे मढ़कर स्वतंत्र लाइफ जीने को इस तरह की बातें गढ़ती जैसे सारी दुनिया की बोझ उनके सर पर ही डाल दिया गया और स्वयं को गिल्टी न महसूस कर सके तो अन्य महिलाओं को भी अपनी तरह बनाने में लगी रहती हो जो महज़ उनके घर के कामों से मुक्ति पाने के राग के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आता
जबकि, वे चाहे तो अपने प्रयासों से घर व समाज की व्यवस्था बदलकर इस तरह से बना सकती कि सब मिल-जुलकर काम बांटकर कर खुश रह सके पर, इन्हें तो सब कुछ अपने हिसाब से चाहिये जहां न कोई बंधन हो न कोई रीति-रिवाज या कोई भी जबरदस्ती जैसा उनका मन चाहे वो कर सके उनकी इस कोरी सोच को अपने दम पर जीकर दिखाया ‘अमृता’ ने जो इस व्याख्या से नितान्त अपरिचित थी लेकिन, मन व आकांक्षाएं तो सबकी किसी धरातल पर मिलती तो उनके भीतर भी वही सब कुछ भरा पड़ा था अंतर केवल इतना कि सब कह नहीं पाती पर, उनके पास कहने को अपनी अद्भुत काबिलियत व लेखन का वरदान था जिसका उन्होंने भरपूर उपयोग किया

जिसके बूते उन्होंने न केवल अपने मन का जीवन ही जिया बल्कि, उसे खुलकर सबके सामने भी रखा जिसने ये साबित कर दिया कि स्त्री को अगर, अपने हिसाब से जीने की सुविधा मिले तो वो घर व अपने शौक के बीच सामंजस्य बिठाते हुये कठपुतली की तरह सबको साध सकती है क्योंकि, तब उनको मिली स्वतंत्रता उनके भीतर जवाबदारी का अहसास भी भरेगी और तब उन पर कोई दबाब नहीं होगा कि उन्हें घर के काम करना या अपनी इच्छाओं को मारकर सबका ख्याल रखना है वे खुशी-खुशी सब करेंगी क्योंकि, मल्टी टास्किंग की जैसी दक्षता उनके भीतर वैसी कंप्यूटर में भी नहीं कंप्यूटर तो फिर भी मशीन जो उसमें फीड किये गये निर्देशों के अनुसार काम करता पर, वो तो अपने नियम अपनी प्रोग्रामिंग खद लिखेगी और खुद के आदेश पर ‘रोबोट’ बनेगी न कि अपना रिमोट दूसरे को थमाकर बस, सबकी आज्ञा मानेंगी ।

‘अमृता’ ने अपने आस-पास व देश काल की परिस्थितियों को सिर्फ देखा नहीं भोगा इसलिये वो उसे लिख पाई और स्त्री मन होने के कारण स्त्रियों की समस्याओं को भी जानती थी तो उन सबको भी अपने लेखन का हिस्सा बनाया पर, किसी को भी अपने बनाये रास्ते या अपने उसूल अपनाने कहा नहीं केवल, खुद को झोंक दिया पूरी तरह से तो बदले में जो पाया वो हर किसी को नहीं मिलता गहन शोध व चिंतन-मनन से ही उसके नजदीक पहुंचा जा सकता तो उन्होंने अध्ययन भी खूब किया अन्यथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम करना इतना भी आसान नहीं था वो भी तब जब पग-पग पर कांटे उगे हो मगर जो ठान लेता मंज़िल को पाना वो राह में आने वाली मुश्किलों की परवाह कब करता तो उन्होंने भी कठिन घड़ी आने पर ऐसे निर्णय लिए जिसने उन्हें ‘अमृता’ बना दिया

ये सब सोचना या कर पाना उस एक साधारण नारी के लिए असंभव होता जो अक्सर घर की दहलीज पर ठहर जाती या किचन के सामानों के बीच गुम हो जाती और तय ही नहीं कर पाती कि वो आखिर चाहती क्या है ?

यही फर्क है एक आम औरत और ‘अमृता’ में जहां वे सुलझी थी वहीं हम सब उलझी है और जब तक इन उलझनों से न निकले अपने ख्वाब को नहीं पा सकते क्योंकि, ‘अमृता’ बनने की राह बहुत कठिन इश्क़ की तरह ही जो सबके बस की बात नहीं अब तो लोग इश्क़ भी करना नहीं जानते तो फिर भला जीवन जीना क्या जाने और केवल मजे लेने के लिए फेमिना बनने की बोगस लड़ाई लड़ रही जो सोशल मीडिया पर बेकार स्टेट्स लिखकर न जीती जायेगी जंग के सॉरी जीवन के मैदान में उतरना पड़ेगा तब ‘रसीदी टिकट’ जैसा कारनामा होगा अन्यथा इनबॉक्स में ही प्रेमालाप करती रहो और फेसबुक पर लड़ती रहो जिन्होंने ‘फेमिना’ या ‘फेमिनिज्म’ शब्द न सुना, न जाना वे ही उसकी मिसाल बन चुकी है गज़्ज़ब है न... जन्मदिन मुबारक अ-मृता... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
३१ अगस्त २०१८

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२४० : #बरसात_में_मिले_गीतकार_शैलेंद्र #जिनको_गीतों_के_सब_आज_भी_फैन




बरसात में
हमसे मिले तुम सजन
तुमसे मिले हम
बरसात में...

१९४८ का दौर देश आज़ाद ही हुआ था और फिल्मों में भी नये-नये प्रयोग हो रहे थे नवयुवक राज कपूर अपनी नई कहानी ‘बरसात’ के निर्देशन की तैयारी में जुटे थे जिसमें उनके साथ काम करने वाली पूरी टीम ही लगभग उनकी ही तरह जोश व उमंग से भरी युवाशक्ति का संगम उस वक़्त तो किसी को ये इल्म नहीं था कि वे जो काम करने जा रहे हैं उसके जरिये फ़िल्मी दुनिया में ब्लाक बस्टर जैसी कोई धमाका मूवी की शुरुआत होगी जो बॉक्स ऑफिस के आंकडें ही नहीं फिल्म मेकिंग के भी सभी प्रचलित ट्रेंड बदलने वाली हैं उनकी उस टीम में केवल एक शख्स की कमी थी जिसका कविता पाठ सुनकर उन्होंने कभी उन्हें अपने लिये गीत लिखने का ऑफर दिया था परंतु, उस वक़्त तो उनके मन में मनोरंजन की इस दुनिया के प्रति न ही कोई आकर्षण और न ही कोई सम्मान था तो उसे ठुकरा दिया लेकिन, उनका तो जन्म ही इस जगत में अपने गीतों के जरिये सबके दिलों में अपनी एक अलग जगह बनाने और अपने नाम का परचम सारी दुनिया पर लहराने के लिये हुआ था तो थोड़ी देर लगी पर, एक दिन वे भरी बरसात में खुद चलकर ‘राज कपूर’ के पास आये और उस प्रस्ताव को स्वीकार किया उनकी इस यादगार मुलाकात ने उनके सृजनात्मक मस्तिष्क में कुछ ऐसा समां बाँधा कि एक गीत ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम...’ का मुखड़ा तो वहीँ बन गया और १९४९ में जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो क्या हुआ किसी को बताने की जरूरत नहीं उसके गाने आज भी लोगों की जुबान पर जब-तब आ ही जाते है इसके साथ ही शैलेंद्र ‘राज कपूर’ की कंपनी के स्थायी गीतकार बन गये और उन्होंने एक से बढ़कर एक गीतों की झड़ी लगा दी जिसमें जीवन के हर रंग देखने मिलते है

आवारा हूँ, आवारा हूँ
या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ
आवारा हूँ, आवारा हूँ...

इसके बाद आई १९५१ में ‘आवारा’ जिसने देश ही नहीं विदेश में भी धमाल मचा दिया और ‘शैलेंद्र’ ने हर तरह के मिज़ाज के गीत लिखकर ये साबित कर दिया कि ‘राज कपूर’ ने उन पर विश्वास कर गलत नहीं किया और उनकी वास्तविक जगह यही है तो फिर जो सिलसिला शुरू हुआ उसने लगातार उनको ऊंचे पायदान पर पहुंचाते हुये अंततः शीर्ष पर स्थापित कर दिया आखिरकार उनके तरानों में साहित्य जो बसा था और उनकी कविताई में गहन जीवन दर्शन के साथ-साथ मानवीय मनोविज्ञान भी समाया था तो उन्हें सुनना एक अलग ही तरह की अनुभूति देता चाहे फिर वो ‘राज कपूर’ के लिये लिखे गये उनके गाने हो या किसी भी अन्य कलाकार या नायिका पर पिक्चराइज उनके शब्द सीधे दिल में उतरते थे जो कहानी की सिचुएशन के साथ-साथ उसी तरह की अवस्था से गुजरते किसी भी श्रोता की मानसिक अवस्था से इस तरह से फीट बैठते कि उसे अपने ही भीतर के उमड़ते-घुमड़ते भावों का सटीक अहसास होता तभी तो वो गीत उसके अपने जीवन का भी हिस्सा बन जाते फिर जब भी वो बजे तो सुनने वाले अपने आप उस समय में पहुँच जाये ऐसी ख़ासियत जिसकी भी कलम को हासिल वो अमर हो जाता जिस तरह से ‘शैलेंद्र’ अपने गीतों में जिंदा हैं और हमेशा रहेंगे जब तक लोगों के अंतर में उनको महसूस कर पाने की संवेदना शेष हैं         

छोटी सी ये ज़िंदगानी रे
चार दिन की जवानी तेरी
हाय रे हाय
ग़म की कहानी तेरी....

वाकई, जीवन छोटा हैं मगर, यदि उसमें ‘शैलेंद्र’ के गीत आपके साथ हैं तो अकेलेपन का दर्द कभी नहीं सालेगा और हर दिल यही कहेगा... मैंने दिल तुझको दिया... जन्मदिन मुबारक हो हर दिल अजीज जन मन के गीतकार शैलेंद्र... हर कोई हैं जिनका फैन... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
३० अगस्त २०१८

बुधवार, 29 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३९ : #खेलोगे_कूदोगे_बनोगे_नवाब #जमाना_अब_बदल_गया_जनाब




खेल के मैदान में जिस तरह से युवा पीढ़ी की नई नस्ल कीर्तिमान रच रही और देश का ही नहीं अपने परिवार का भी मान-सम्मान बढ़ा रही वो काबिले तारीफ़ हैं इन सबने अपने हौंसलों व विश्व पटल पर अपनी जोरदार आमद से पुरानी कहावत पूरी तरह से बदल दी है जो कहती थी कि, ‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब... खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब’ इन्होने तो खेल-कूद कर ही नवाबों से ऊंची शान हासिल कर ली हैं अपनी शानदार जीत से ये साबित भी कर दिया कि सिर्फ, पढ़ाई-लिखाई ही नहीं खेल-कूद में भी कमाया जा सकता नाम वो भी ऐसा कि अपने देश ही नहीं विदेशों में धूम मच जाये और जब उनके इस अद्भुत कारनामे से तिरंगा ऊंचाइयां छुये और बैकग्राउंड में राष्ट्रगान की धून बजे तो सबके सर गर्व से ऊंचे व सीना फ़ख्र से चौड़ा हो जाये कि ये खिलाड़ी उनका अपना, उनके अपने देश का हैं

शायद, ही अब कोई ऐसा खेल बाक़ी हो जिसमें हमारे यहाँ से कोई न कोई अपने आपको निखार न रहा हो यदि कोई शेष हैं भी तो जल्द ही उन पर फ़तेह हासिल कर ली जायेगी क्योंकि, ये जो न्यू जनरेशन है ये समझ गयी कि पढ़ना-लिखना भले जरूरी हैं पर, इतना भी नहीं कि उसके लिये अपने खेल के हुनर को दबा लिया जाये जैसा कि इससे पहले किया जाता रहा जिसकी वजह से बहुत लोगों ने इस डर से कि वो खराब की श्रेणी में न आ जाये चुपचाप नवाबों वाली लाइन का चुनाव कर लिया । फिर भी स्मार्ट लोगों के इस युग में इस तरह की बातें तब कोरी कहावत बनकर रह गयी जब उन्होंने देखा कि स्पोर्ट्स के क्षेत्र में आने वाले अधिकांश खिलाड़ी पढ़ाई में भले पिछड़ गये मगर, खेल में न सिर्फ अव्वल बल्कि, नाम, शोहरत, कमाई में भी शीर्ष स्थान पर जिसने उन्हें एक बार फिर से सोचने पर मजबूर किया जिसका नतीजा कि उन्हें अपना भविष्य साफ़ नजर आ गया ।

उन खिलाडियों की इस काम्याबी से उन्हें अहसास हो गया कि केवल आज्ञाकारी बनकर इन्हीं पंक्तियों को दोहराने और माता-पिता की ख़ुशी के लिये इस पर अमल करने से अच्छे-खासे कैरियर का खात्मा हो सकता है तो उन्होंने अपने भीतर की आवाज़ सुनकर क्लास रूम की जगह खेल के मैदान की तरफ कदम बढ़ा दिया जिसने उन्हें एजुकेशन में भले, निचले पायदान पर जगह दी हो लेकिन, नंबर वन स्पोर्ट पर्सन बना दिया तब उनके पेरेंट्स ने भी माना कि फैसला सही था । इसलिये अब तो अधिकांश माता-पिता स्वयं अपने बच्चों को बचपन से किसी न किसी खेल के प्रति जागरूक कर उसमें एक्सपर्ट बना रहे जिसके लिये बाकायदा उन्हें हर तरह का अच्छे-से-अच्छा प्रशिक्षण विशेषज्ञों से दिलवा रहे चाहे लड़की हो या लड़का बिना भेदभाव के इस फ़ील्ड में आने प्रेरित कर रहे जिससे स्पोर्ट भी एक भरोसेमंद कैरियर विकल्प के रूप में उभरा है ।

देश के राष्ट्रीय खेल हाकी के जादूगर ‘मेजर ध्यानचंद’ जिन्होंने गुलाम भारत में तीन बार ‘गोल्ड मेडल’ जीतकर ये मुकाम हासिल किया कि उनका जन्मदिन २९ अगस्त ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा इन सभी स्थापित या उभरते खिलाडियों के लिये न केवल प्रेरणा के स्त्रोत रहे बल्कि है । क्योंकि, उन्होंने तो प्रतिकूल परिस्थितियों में वो कर दिखाया जो ये सब अनुकूल स्थितियों में भी मुश्किल से कर पा रहे फिर भी जो लौ उन्होंने जलाई वो आज निश्चित तौर पर न केवल चिंगारी बल्कि, दूसरे शब्दों में कहे तो मशाल बन चुकी है । जिसे गर्व से हाथ में लेकर ये उस आग़ को उन सबके भीतर जला देना चाहते जिनमें कहीं न कहीं शोला बनकर भड़कने की जरा-सी भी संभावना छिपी हुई है जिससे कि उनके पेरेंट्स भी उन्हें ये न कहे कि, ‘खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे खराब’ बल्कि, कहे कि ‘पढ़ने-लिखने में करो कमाल, खेल-कूद में भी मचाओ धमाल’ तभी तो ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ सार्थक होगा... इसी के साथ सबको इस दिवस की शुभकामनायें व मेजर ध्यानचंद की जयंती की भी बधाइयाँ... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२९ अगस्त २०१८

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३८ : #जब_न_मिले_घर_में_सनेह #तब_कहाँ_जाकर_ढूंढें_दिल_का_चैन



आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।।

तुलसी दास जी कहते हैं कि जिस स्थान पर लोग आपके जाने से प्रसन्न न होवें और जहाँ लोगो कि आँखों में आपके लिए प्रेम अथवा स्नेह ना हो ऐसे स्थान पर भले ही धन की कितनी भी वर्षा ही क्यूँ ना हो रही हो आपको वहां नहीं जाना चाहिए ।

यदि वो अपना ही घर हो तब क्या करना चाहिए?

इस प्रश्न से उलझ रही थी आज अपने ही घर के दरवाजे पर खड़ी ‘इशिता’ जिसका आना न तो उसके पति और न ही उसके ससुराल में ही किसी को पसंद था क्योंकि, वो उन्हें उनके खानदान का वारिस देने में असमर्थ थी तो आये दिन ताने सुनाये जाते या उसके पति ‘मिहिर’ की दूसरी शादी की धमकी दी जाती ऐसे में उसे समझ में न आता कि वो क्या करे जबकि, उसने और मिहिर ने अपनी मर्जी से लव मैरिज की जिसकी वजह से उसे अपने परिवार से नाता तोड़ना पड़ा और जिसकी खातिर उसने ये सब किया आज वही पराया बन गया कभी जो उसके अपने परिवारों वाले से ज्यादा उसका सगा था तभी तो वो उन्हें छोड़ इसके साथ चली आई थी

शुरुआत में तो सब ठीक रहा उसके ससुराल वालों ने भी उसे थोड़े ना-नुकूर के बाद अपना लिया चाहे वो उसकी नौकरी की वजह से हो या अपने बेटे पर, जब उन्हें पता चला कि वो माँ नहीं बन सकती तो यही अपनापन न जाने कहाँ चला गया धीरे-धीरे मुखोटों का उतरना चालू हुआ तो भी उसने झेल लिया पर, जिस दिन ‘मिहिर’ ने उसकी जगह अपने घरवालों का साथ दिया तो वो सह न पाई फिर तो जब वो उसके प्यार का दामन छोड़कर पूरी तरह उनके पाले में चला गया तब उसे अहसास हुआ कि वो अकेली रह गयी है
      
यूँ तो उसके पास उसकी आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता भी थी मगर, अपनों के बिना सब बेमानी थे क्योंकि, अकेले तो उसे नींद तक नहीं आती फिर किसी स्वादिष्ट पकवान में स्वाद या किसी मनमोहक दृश्य में उसे किस तरह से आनंद आता इसलिये वो मन मारकर ये सब सह रही थी फिर भी रोज-रोज ये सब अब बर्दाश्त के बाहर होने लगा था ऐसे में आज ऑफिस से घर आकर बंद दरवाजे पर खड़ी उसे समझ न आ रहा था कि वो अपना घर और अपनों को छोड़कर किधर जाये क्या जो बचपन में किताबों में पढ़ा उस पर अमल करे और जिस घर में उसके आने से कोई खुश नहीं या किसी की आँखों में स्नेह नहीं उसे सदा-सदा के लिये छोड़ दे या फिर ख़ामोश यही पड़ी रहे

तभी अंतरात्मा में कोई किरण कौंधी जिसकी रोशनी में उसे वो वाक्य नजर आया जो कभी उसने अपनी डायरी के पन्नों में लिखा था हालाँकि, वो मायके में ही रह गयी पर, इबारत दिल में छप गयी थी शायद, तभी तो साफ़-साफ़ पढ़ पाई वो “जीवन में जब मजबूरी या आत्म-सम्मान में से किसी को चुनना हो तो फैसले की इस घड़ी में आत्म-सम्मान को ही प्राथमिकता देनी चाहिये” तो फिर उसने आगे बढ़े कदमों को पीछे मोड़ लिया

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२८ अगस्त २०१८

सोमवार, 27 अगस्त 2018

सुर-२०१८-३३७ : #कजलियां_नहीं_महज़_एक_देशज_पर्व #बुजुर्गों_की_वैज्ञानिक_सोच_जिस_पर_करो_गर्व




भारतीय सस्कृति और इसकी परम्परायें भले ही लोगों को आज अपनी संकीर्ण या अति-शिक्षित व आधुनिक मानसिकता की वजह से पुरातन व अनुपयोगी ही नहीं सिरे से ख़ारिज कर खत्म कर देने लायक लगती इसलिये जैसे ही हिंदू तीज-त्यौहार आता सब एक सिरे से सियार की तरह रेंकने लगते और तरह-तरह की खामियां निकाल तार्किकता की कसौटी पर उन्हें परखने लगते पर, ये भूल जाते कि हमारे ऋषि-मुनि व बुजुर्ग भले ही पढ़े-लिखे कम हो या बाहरी ज्ञान कम हो लेकिन, अनुभव में वो बेहद पके हुये उन्होंने अपना जीवन प्रकृति की प्रयोगशाला में गुज़ारा जहाँ नित नये-नये परीक्षण व होते बदलावों को बड़े नजदीक से न केवल देखा बल्कि, उनको समझने का प्रयास किया जिसके आधार पर फिर कोई निष्कर्ष निकाला और उसे आगे की पीढ़ी तक हस्तांतरित करने के लिये इसे किसी रीति-रिवाज या परंपरा में बदल दिया ताकि, ये आगे और आगे निर्बाध बढ़ती जाये

मगर, जैसे ही आगे की जनरेशन ने अपनी आँखों पर पश्चिम सभ्यता का ब्लू चश्मा लगाया उसे अपनी ही जड़े कमजोर नजर आने लगी, जबकि उन्हीं दूसरे देशों से सीखते तो समझते कि सभी अपनी प्राचीनतम धरोहरों को बचाने सतत प्रयासरत रहते और अपनी मातृभूमि पर शर्म नहीं गर्व करते जबकि, यहाँ तो आये दिन जिसे देखो उसे ही अपने देश पर लज्जा आती तब इन कुतर्की दिमागों में कहीं ये ख्याल नहीं आता कि देश कोई व्यक्ति या जीता-जागता इंसान नहीं बल्कि, एक ऐसा भूखंड जो हमारे अस्तित्व से मिलकर बना और हमारे कर्मों से ही जाना जाता जैसा हम करेगे वैसा ही उसका स्वरुप दिखाई देगा ऐसे में उसको गाली देना या बुरा कहना वास्तव में अपने आप को ही गलत कहना हैं हमने विकास के चरणों में अपनी उन सभी कुरीतियों व प्रथाओं को त्याग दिया जो वर्तमान में अर्थहीन थी मगर, जिनके पीछे गहन शोध व वैज्ञानिकता छिपी उन आंचलिक या राष्ट्रीय पर्वों से मुंह मोड़ना हमारी अज्ञानता कहलायेगी

जब आज से दस-बीस साल बाद कोई हमें ये बतायेगा कि हमने अपने इन रीति-रिवाजों को छोड़ दिया इसलिये ये पतन हो रहा तो हम वापस घुमकर लौटेंगे मगर, हो सकता तब तक उसे पुनर्जीवित करना संभव न हो तो जो शेष उसका सम्मान करें उसे दिल से अपनाये, मनाये जैसे कि आज भी बुन्देलखण्ड क्षेत्र का एक ऐसा ही स्थानीय पर्व ‘कजलियाँ या भुजरियाँ’ हैं जिसकी शुरुआत नागपंचमी के दूसरे दिन से होती जब लोग अपने खेतों से टोकरी में लाई मिट्टी में गेहूं बो देते और रक्षाबंधन तक उन्हें दूध, खाद व पानी देकर बड़े जतन से उनकी देखभाल करते उन्हें सूर्य की तेज रौशनी से दूर घर के भीतर रखते और रक्षाबंधन के दूसरे दिन गेहूं के इन नन्हे-नन्हे रोपों जिन्हें ‘कजलियां’ कहते के कोमल पत्‍ते तोडकर पहले देवताओं को समर्पित कर फिर छोटे उन्हें अपने हाथों में लकर सयानों के सामने प्रस्तुत करते तो वे बड़े दुलार से उन्हें उनके कानों के ऊपर लगा देते फिर उनके चरण छूकर आशीष और शगुन पाते यहाँ तक कि इसके आदान-प्रदान से आपसी मन-मुटाव व दुश्मनी भी खत्म की जा सकती हमारे पूर्वज बड़े समझदार थे इसलिये उन्होंने ये रिवाज बनाया जिससे कि यदि कभी रिश्तों में गिला-शिकवा आ भी जाये तो इस तरह के मिलन समारोहों के आयोजनों से उसे मिटाया जा सके और यदि किसी के घर में गमी हो तो इस दिन उसके घर जाकर उसके दुःख में सहभागी बन सके ऐसा लोकाचार या सौहार्द्र क्या पश्चिमी सभ्यता में सम्भव हैं ?

इसके अलावा इसके पीछे एक सुस्पष्ट वैज्ञानिक सोच जिसके जरिये इनके पकने पर ये अनुमान लगाया जाता कि इस बार फसल कैसी होगी क्योंकि, इनके द्वारा आगामी फसल के पूर्व बीजों का परीक्षण भी कर लिया जाता जिस तरह से ये पैदा होती उन्हें देखकर ये पता चलता कि किस घर के बीज स्वस्थ व रोगमुक्त हैं तो वे इसकी अदला-बदली कर अच्छी फसल प्राप्त कर लेते पर, हम तो तकनीकी युग में ये मानने लगे कि हमारे बुजुर्गों को तो अकल ही नहीं थी न जाने क्या-क्या त्यौहार बना दिये, न जाने कैसी-कैसी रस्में हमारे सर पर लादकर चले गये तो बस, अपने घटिया दिमाग से इनको समाप्त करने तरह-तरह के कुतर्क रचते रहते ऐसे में जो नासमझ वो इनके झांसे में आ जाते तो नुकसान तो देश का ही होता यदि हम अपने बुजुर्गों की बताई राह पर चले तो कोई नहीं जो हमें नीचा दिखा सके या हम पर शासन कर सके मगर, इसके लिये पहले विदेशी चश्मा आँख से उतारना पड़ेगा तब हम समझ पायेंगे कि देश कोई दुश्मन नहीं जिसके सर पर ठीकरा फोड़ मुक्त हो जाओ ये हमारा ही प्रतिबिंब जो जैसे हम होंगे वैसा ही उसका अक्स दिखाई देगा इसलिये खुद को बदलो, खुद को सुधारो देश स्वतः ही बदलेगा, सुधरेगा     

इस उम्मीद के साथ कि हम अपनी परम्पराओं का सम्मान करना सीखेंगे सबको कजलिया की शुभकामनायें और ईश्वर से ये प्रार्थना की आप सब कजलिया की तरह खुश और धन धान्य से भरपूर रहे... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ अगस्त २०१८

रविवार, 26 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३६ : #एक_रक्षासूत्र_उनके_भी_नाम #जिनसे_सुरक्षित_हमारी_जान





भारतीय संस्कृति में ‘रक्षासूत्र’ का विशेष महत्व हैं जिसे हर तरह के अनुष्ठान व धार्मिक आयोजन पर सुरक्षा दृष्टि के निमित्त बांधा जाता हैं कहने को तो ये महज़ कच्चे धागे की बनी डोरी होती लेकिन, आस्था के जिन धागों से इनका निर्माण होता उनकी वजह से इनकी मजबूती इतनी कि ये भारी-भरकम रिश्तों को आसानी से लंबे समय तक जोड़े रखती इसलिये किसी भी तरह के मंगलकारी कार्यों का श्रीगणेश इसके द्वारा ही किया जाता है

यूँ तो हम इसे कभी-भी किसी को बांध सकते लेकिन, रक्षाबंधन का पर्व तो ख़ास तौर से इसी उद्देश्य के लिये मनाया जाता जो कि कहने को तो भाई-बहिन के पवित्र रिश्ते को समर्पित है मगर, इसके पीछे रक्षा की जो कामना जुड़ी वो हम किसी के प्रति भी रख सकते जिसे हम सुरक्षित रखना चाहते या जिसकी वजह से हम सुरक्षित रहते तो ऐसे में उसके प्रति अपने मनोभावों को प्रदर्शित करने के लिये हम इसे जरिया बना सकते हैं

हमारे अपनों के अलावा वो सभी शय जो हमारी रक्षा करती और जिनकी मौज़ूदगी के कारण हमारा जीवन सुरक्षित रहता हम चाहे तो आज के दिन उन सबको भी एक-एक रक्षासूत्र बांधकर इस पर्व को अधिक सार्थक बना सकते है जिनमें पेड़-पौधे सबसे पहले नंबर पर आते हैं क्योंकि, ये वो जिनके होने से हम है और आज इनका जीवन ही संकट में है तो समझो हम ही असुरक्षित तो फिर क्यों न हम इस तरह से एक-दूसरे को सुरक्षित करे ।

‘रक्षाबंधन’ का त्यौहार सिर्फ़ भाई-बहिन ही नहीं उस हर रिश्ते, उस हर शय के नाम जिनके होने से कायम हमारी जान... इसके के साथ सबको इस दिन की शुभकामनायें... मनाये इसे मिलकर सबके साथ... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२६ अगस्त २०१८


शनिवार, 25 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३५ : #भाभी_का_दर्द_जब_ननद_समझती #तब_उसकी_वो_प्रिय_सहेली_है_बनती




हेलो, भाभी मैं तो ट्रेन में बैठ गयी और रात तक पहुंच भी जाऊंगी कल अपने भाई को राखी बांधने अब आप बताओ आपकी तैयारी हुई या नहीं अपने मायके जाने की ख़ुशी में चहकती हुई ‘शिवानी’ ने मोबाइल पर वीडियो कॉल कर अपनी भाभी को चिढ़ाते हुये कहा तो उसकी भाभी ने भी झट उसे अपनी पैकिंग का नजारा दिखा दिया और दोनों खिलखिलाने लगी ।

फोन रखने के बाद ‘मेघा’ यादों में खो गयी जब वो शादी होकर इस घर आई थी तब उसकी ननद ‘शिवानी’ कॉलेज आई ही थी और वो कॉलेज की पढ़ाई खत्म कर गृहस्थी में प्रवेश कर रही थी । दोनों में उम्र का फासला ज्यादा नहीं था पर, नजदीकियां भी नहीं थी आखिर, ननद-भौजाई का रिश्ता वैसे भी कुछ खास आशाजनक होता नहीं तो उसे भी कोई उम्मीद नहीं थी । अगले दिन ही उसे रसोई में मीठा बनाने की रस्म के लिये भेजा गया तो उसे समझ नहीं आया कि वो किस तरह शुरुआत करे तब ‘शिवानी’ सामने आई और बोली, भाभी घबराओ नहीं मैं हूँ न इन तीन मैजिकल वर्ड्स ने मानो जादू कर दिया आत्मविश्वास लौट आया फिर उसने कहा, भाभी ये देखो यू-ट्यूब इसमें सब कुछ है जो भी बनाना है बताओ निकालती उसकी रेसिपी तब मैंने कहा, बस तुम देखती जाओ कोई गलती हो तो बताना इस तरह उस दिन इस रस्म ने इस रिश्ते में भी मिठास भर दी ।

फिर एक दिन मैं सरदर्द से परेशान थी और उस दिन मेहमान आये तो काम भी अधिक था ऐसे में फिर वो न जाने कैसे मेरी तकलीफ समझ गयी और चट-पट साथी हाथ बढ़ाना वाले भाव से मेरे साथ काम में जुट गयी । उसकी इस बात ने दूरियों को कुछ और कम कर दिया फिर भी रिश्ते में औपचारिकताएं कायम थी जो उस दिन टूट गयी जब शादी के बाद पहला रक्षाबंधन आया तो अचानक सासू मां ने फैसला सुना दिया कि अमरीका से बड़ी दीदी आ रही जो शादी के वक़्त नहीं आ पाई थी इसलिये मैं नहीं जा सकती उस समय मैं कुछ बोली नहीं, पर आंखों पर कहाँ नियंत्रण छलक गयी और आंसुओ को पोछने वही सामने आई बोली, मम्मी भाभी को जाने दो जैसे दीदी अपने भाई को राखी बांधने मायके आ रही वैसे ही भाभी का भी हक़ है रही बड़ी दीदी की बात तो यदि उन्हें मिलना है तो वो भाभी के आने तक रुके उस दिन हम भाभी-ननद से सहेलियां बन गये और आज तक वो दोस्ती बदस्तूर कायम है ।

यहाँ तक कि वो अपने घरवालों के उतने करीब नहीं जितने मेरे है और अपने जीवन की हर बात वो मुझसे शेयर करती यहाँ तक कि कॉलेज में जब उसे प्यार हुआ तो उसने सबसे पहले मुझे ही बताया फिर उसकी शादी की जिम्मेदारी मैंने अपने उपर लेते हुये उसका रिश्ता करवाया था ऐसी न जाने कितनी अनगिनत यादें हैं जो हम दोनों को इस तरह जोड़ती जैसे दो सहेलियों को आपसी बातें एक अटूट बंधन में बाँध देती जिन्हें दोहराकर वे वापस उस दौर में पहुँच जाती जब उन्होंने वे दिन गुज़ारे थे अपनी और शिवानी की ऐसी अनेक स्मृतियाँ उसके जेहन में तैरती चली गयी और वो मुस्कुरा उठी कि कभी उसने ननद-भाभी के रिश्ते के बारे में कितना गलत सुनकर एक धारणा बना ली थी अच्छा हुआ वो निर्मूल सिद्ध हुई यदि वो उस पर ही विश्वास करती तो इतनी प्यारी सहेली को खो देती   

सच, दोस्ती जैसा नाता कोई नहीं और जब वो ननद-भाभी के बीच हो तो फिर उनके बीच के सारे रिश्ते भी मधुर बन जाते और ऐसे में पराये घर आने पर भी एक लड़की को अजनबीपन का अहसास नहीं होता क्योंकि, दो लडकियाँ जिस तरह से सहेलियां बनकर आपस में अपने सुख-दुःख सांझा कर सकती उस तरह से ननद-भाभी के रूप में नहीं और वो ख़ुशकिस्मत कि उसे ‘शिवानी’ जैसी दोस्त मिली जिसने उसके लिये ससुराल को घर बना दिया काश, ऐसी ननद सबको मिले उसके मुस्कुराते हुये बुदबुदाते लबों ने एक दुआ हवा में उछाल दी

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२५ अगस्त २०१८

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३४ : #बारिश_का_ज़ादू




झर रही
बूंदें जो आसमां से
अमृत हैं वो
सिक्के की तरह
धरा की गुल्लक में इनको
बंद कर के रख लो
बना सकते नहीं
बादल और बरसात कभी
न सूरज, न चाँद
फिर करते किस बात का घमंड
क्यों मिटाते कुदरत का चमन
जिसे रचने की कूवत नहीं
पानी ये वो जीवन हैं
बूंद-बूंद इसकी सहेज लो
वर्षा के पानी का सरंक्षण करो
गंवाओ न ये मोती व्यर्थ
कल इसे ही ढूंढने में होगा कष्ट
रब ने ये खज़ाना लुटाया
रोपो पौधे नये-नये
जिनमें ये सब जायेंगे रखे
सूद की तरह फिर मिलेंगे कल
वृक्ष जब एफ.डी. की तरह पक जायेंगे
उनकी शाखाओं से हम
एक का दस पायेंगे
मौसम अनुकूल आया हैं
मरते हुयों ने जीवन पाया हैं
देखो, बारिश का जादू
सब पर छाया हैं ।।
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ अगस्त २०१८

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३२ : #आरती_साहा_ने किया_ऐसा_काम #भारतीय_महिलाओं_की_बनी_आन_बान_शान




इतिहास रचने में भारतीय नारियों ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी जब भी उन्हें किसी ऐसे क्षेत्र में अपना हूनर दिखाने का मौका मिला जो उनके लिये प्रतिबंधित या वर्जित माना गया हो तब उन्होंने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी उसमें अपने आपको न केवल सिद्ध किया बल्कि, शीर्ष स्थान भी हासिल किया जो दर्शाता कि उनके भीतर कुछ भी करने की लगन या हिम्मत उतनी ही होती जितनी कि पुरुषों में मगर, उनका पालन-पोषण या शिक्षा उस तरह से नहीं होती तो वे अपनी काबिलियत को घर की चारदीवारी या गृहस्थी के कामों में ही सीमित कर लेती मगर, जब भी किसी माता-पिता ने अपनी बेटी पर विश्वास किया और उसे अपने फन को निखारने के लिये सभी सुविधायें मुहैया कराई व उसे दिखाने के लिये अवसर उपलब्ध करवाये तो फिर उसने भी उनके भरोसे को टूटने नहीं दिया

कुछ ऐसा ही करिश्मा कर दिखाया था आज से लगभग ७८ साल पूर्व २४ सितंबर १९४० को एक बंगाली हिंदू परिवार में जन्मी ‘आरती साहा गुप्ता’ ने यूँ तो उनके पिता ‘पंचगोपाल साहा’ सेना में एक साधारण कर्मचारी थे और जब वो केवल २ वेश की नन्ही बच्ची थी उनकी माँ उन्हें अपने पिता की गोद में छोड़कर उनसे बहुत दूर चली गयी ऐसे में पिता ने न केवल माँ का फर्ज़ निभाया बल्कि, पिता की भूमिका में खुद को पारंपरिक बेड़ियों में बांधने की जगह लड़कों की तरह बिंदास उसको पाला-पोसा और चाचा ने उंगली पकडकर उसे हुगली नदी में तैरना सिखाया जिसकी चंचल लहरों में खेलकर उसने अपने भीतर की जलपरी को महसूस किया तो उसके पिता ने भी उसकी काबिलियत को पहचान अपनी बेटी को ‘हटखोला स्वीमिंग’ क्लब में भर्ती करा दिया

जिसकी वजह से सन १९४६ में मात्र पाँच वर्ष की आयु में ‘आरती साहा’ ने ‘शैलेन्द्र मेमोरियल स्वीमिंग’ प्रतियोगिता में 110 स्वर्ण गगन के फ्रीस्टाइल में अपने जीवन का पहला स्विमिंग ‘स्वर्ण पदक’ जीतकर ये साबित कर दिया कि उनका जन्म तो तैराक बनने के लिये ही हुआ है उसके बाद उन्होंने लगातार अलग-अलग स्पर्धा में प्रतिभागिता करते हुये कोई न कोई स्थान हासिल किया जिसे देखकर उसके पिता ने उसकी नन्ही-नन्ही आँखों में ‘इंग्लिश चैनल’ तैरकर पार करने का ऐसा सपना बोया कि जवान होकर उसे ही पुष्पित-पल्लवित करने के लिये तैयारियां शुरू कर दी जिसमें कुछ आर्थिक कठिनाइयाँ आई तो सभी ने उनकी सहायता और जो कमी थी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु जी ने भी उनकी हरसम्भव मदद का वादा किया

इस तरह २९ सितम्बर १९५९ को उन्होंने अपने असाध्य लक्ष्य को प्राप्त करने केप ग्रिस नेज़, फ्रांस से अपनी यात्रा शुरू की और ४२ मील की कठिनाइयों भरी दूरी को तैरते हुए १६ घंटे, २० मिनट में पार कर इंग्लैंड के तट पर पहुंच अपने भारत का झंडा फहराकर उन्होंने इतिहास रच दिया वो प्रथम भारतीय महिला बनी जिन्होंने महज़ १९ साल की उम्र में ये अभूतपूर्व कारनामा कर दिखाया जिसके लिये उन्हें १९६० में ‘पद्मश्री’ से भी सम्मानित किया जिसे पाने वाली भी वे पहली महिला खिलाडी थी उनकी इस उपलब्धि को सरकार ने डाक टिकट में छापकर सदा-सदा के लिये अमिट बना दिया और अपने इस असाधारण कार्य से उन्होंने महिला सशक्तिकरण की मिसाल भी कायम की जिससे प्रेरणा पाकर अन्य महिलायें भी इस क्षेत्र में आई और ये हमारा दुर्भाग्य कि आज ही के दिन २३ अगस्त १९९४ को पीलियाग्रस्त होने के कारण वे हमें अल्पायु में ही छोड़कर चली गयी लेकिन, आज भी उनकी ये कहानी हर भारतीय महिला को गर्व से भर देती है

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२३ अगस्त २०१८

बुधवार, 22 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३२ : #कैसे_कहूँ_ईद_मुबारक #बन_आई_बकरे_की_जान_पर




ईश्वर ने जानवरों को मूक बनाया तो इसका मतलब ये नहीं कि उन्हें भावनारहित और हर दर्द, हर पीड़ा से प्रूफ भी बनाया उनके भीतर हर एक संवेदना या अहसास उसी तरह होते जैसे कि हमारे अंदर और उनके अंग या तंत्र भी याने कि हर एक शारीरिक सिस्टम भी सब कुछ हमारी तरह ही होता इसलिये वो भी हमारी तरह चलते-फिरते, दौड़ते-भागते, खाते-पीते केवल, हमारी तरह ऐसा खतरनाक मस्तिष्क नहीं उनको दिया जिसके चलते हम शातिर या धूर्त बन जाते और उन निरीह, कमजोर व अबोले चोपायों को अपनी जागीर समझ जैसा चाहे वैसा अत्याचार करते भले, देश में उनके लिये कानून है पर, इसी देश में कसाई खाने भी तो है जहाँ इन भोलेभाले मासूम जानवरों को बड़ी निर्दयता से मारा जाता किसलिये ?

सिर्फ़, अपनी चटोरी जीभ के लिये जिसे हम दूसरी तरह से भी संतुष्ट कर सकते है लेकिन, हमने तो आदिम युग में मजबूरी में जो एक बार कोई शिकार कर खा क्या लिया हमने ये जान लिया कि हम इनका भक्षण कर सकते तो बस, उस दिन से ये सिलसिला शुरू हुआ जो आज तक जारी जबकि, हम सभ्य हो चुके और उनके बारे में सभी तरह की जानकरियां प्राप्त कर चुके पर, हमारी जीभ को तो ऐसा खून लगा कि एक के बाद एक सब को आज़माकर देख लिया तब भी लालसा खत्म न हुई बल्कि, हमने तो अपनी भूख को कायम रखने तरह-तरह के शोध व दावे प्रस्तुत तक कर दिये कि फलां बीमारी या कमी के लिये किस जानवर के किस अंग का उपयोग करना हैं यदि किसी ने हमें टोका या इसे गलत बताया तो अपने कुतर्कों से उसे ही धराशायी कर दिया याने कि अपने चालाक दिमाग का हमने भरपूर प्रयोग कर ये सिद्ध कर ही दिया कि मांसाहार श्रेष्ठ है ताकि, अगली दफा कोई हमें टोके नहीं, न ही हम पर जीव हत्या का आरोप लगाये क्योंकि, पेट भरना किसी भी कानून में जुर्म नहीं तो फिर उसे भरने किसी की जान लेना गलत क्यों ? 

कहने का तात्पर्य कि जो हमसे सवाल करे हम उस पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते और जो इतने पर भी अगला हमको अहिंसा या शांति का संदेश दे तो फिर ‘मज़हब’ की आड़ लगा देते जिसका कोई तोड़ नहीं और जिसके आगे हर तीर-तलवार और हर हथियार बेकार बोले तो अपनी मनमानी करने के लिये हमारे पास सारे अस्त्र-शस्त्र है यदि वाकई हमने शास्त्र पढ़े व समझे होते तो जानते कि उनमें लिखी बातों का हम वही अर्थ निकालते है जो हम चाहते न कि वो जो उसमें लिखा होता किसलिये ? क्योंकि, यहाँ सब अपनी मान्यता को सही मानते तो उसे स्थापित करने बार-बार दोहराते ताकि, कोई उसे पढ़ने की जेहमत न करे और हम जो कहे उसी ही अंतिम सत्य मान ले यदि ऐसे नहीं होता तो ‘बकरीद’ पर बेबस बकरे की कुर्बानी को सही ठहराने वाले इस सम्बन्ध में ‘क़ुरआन’ में जो कहा गया है कि- 'न उनके (अर्थात् क़ुर्बानी के जानवर के) ग़ोश्त अल्लाह को पहुँचते हैं, न ख़ून, मगर, अल्लाह के पास तुम्हारा तक़बा (मानसिक पवित्रता) पहुँचता है’ उसके वास्तविक मायने समझते ।

जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि अल्लाह के पास केवल इन्सान के दिल की कैफ़ियत पहुँचती  है जो निसंदेह करुणामय नहीं होगी यदि होती तो एक निर्दोष मूक जानवर को जिबह करने की बजाय मन की सफ़ाई करते उसमें ऐसी पाक भावनायें भरते जिससे समाज व देश को तरक्की की राह पर आगे ले जाया जा सके न कि धर्मग्रंथों में लिखी इबारतों की गलत व्याख्या कर मानवता के खिलाफ जंग छेड़ी जाये कहने का तात्पर्य केवल इतना कि जब इंसान स्वयं ही अल्लाह का नेक बंदा बन जायेगा तो वो कुर्बानी में किसी की जान न लेकर अपने अंतर्मन की पवित्र भावनायें समर्पित करेगा और इंसानियत को बचाने अपना आप कुर्बान करने की तमन्ना करेगा पर, यहाँ तो मांस सेवन को जायज ठहराने न केवल उसे धार्मिक उत्सव का रूप दे दिया गया बल्कि, उसके लिये कुरआन की आयतों को भी अपनी तरह से बदल दिया गया आज के दिन न जाने बकरों पर क्या गुजरती होगी ???

मुझे पता आप में से अधिकांश कहेंगे, उसे तो पैदा ही इसलिये किया गया तो उसे कुछ भी महसूस क्यों होगा भला ? क्या वाकई भगवान् ने जानवर खाने के लिये बनाये ? क्या उनका कोई अन्य प्रयोजन नहीं ? क्या ये सच नहीं कि हम बेहद लालची जिसने जानवर ही नहीं कुदरत की हर सक शय को अपनी संपत्ति समझकर उसे बर्बाद कर दिया ? अब इस वजह से जब खुद मौत की कगार पर पहुंच रहे तब भी उसे भी नहीं देख रहे कि किस तरह प्रकृति से खिलवाड़ करने का भुगतमान हमें आपदाओं को भोगकर देना पड़ता क्या लगता आपको कयामत इससे कुछ अलग होगी ?

ये उसका ट्रेलर है जनाब, अब भी संभल जाइये वरना, प्रकृति के आगे किसी की नहीं चलती वो जब बिगड़ती तो फिर समूल नष्ट करती बद्दुआ सिर्फ हमें ही नहीं इन मूक पशुओं को भी देना आता है जिनकी प्रभु डायरेक्ट सुनता । पृथ्वी अत्याचारों से मजबूर होकर ‘गाय’ का रूप धारण कर ही अपनी पुकार लेकर जाती तब हम मूक होकर उसके द्वारा बिना हलाल किये ही मारे जाते जिसका सेवन गिद्ध भी नहीं करते सड़-सड़कर जान गंवाते है ।    

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२२ अगस्त २०१८

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३१ : #कोमल_या_कमज़ोर_नहीं_हूँ #आत्मविश्वास_के_कणों_से_मैं_भी_बनी_हूँ




मनउड़ता-फ़िरता
ना जाने कहाँ-कहाँ
मगर, सोंचू तो लगता हैं कि
कितनी बेबस हूँ मैं यहाँ
यूँ तो कहने को,
मेरा अपना ही हैं ये सारा जहाँ
लेकिन, लब खोलना भी गुनाह हो
जिस जगह पर तो,
क्या कर सकती हूँ मैं वहाँ???
..... 
सुन सकती हूँ
चिड़ियों की चहचहाहट
देख सकती हूँ
पंक्षियों की उन्मुक्त उड़ान
लेकिन, चाहकर भी
बयाँ नहीं कर सकती
अपने दिल के ज़ज्बात
भर नहीं सकती ऊंची उड़ान
बस, एक परकटी चिड़िया हूँ मैं यहाँ ।
.....
घुंघरुओं की आवाज़
पांव मेरे थिरका देती
गीतों की स्वर लहरियां
लबों को थरथरा देती
लेकिन, कोशिश करने पर भी
कुछ कर पाने की चाह
अभिव्यक्त नही कर सकती
पग-पग पर बदिशें जो हैं यहाँ ।
..... 
पर्वतों पर चढ़ना
ऊंचाई से कूदना
हरी दूब पर लेटना
आसमान को छूना
पेड़ों की छाँव में सोना
सूरज से आँख मिलाना
पेड़ की डाल पर झुलना
बेखौफ़ सडकों पर घूमना
वो सब कुछ जिसकी मनाही हैं
मैं कर के देखना चाहती हूँ,
लेकिन, बस सोच सकती
कि कुछ भी करना तो मना हैं यहाँ ।
..... 
जब भी डालती हूँ मैं
ख़ुद पर एक नज़र तो लगता हैं कि
आज भी वैसी ही बेबश, लाचार और मजबूर हूँ
मगर, हिम्मत को तोलूं अपनी तो
खुद को कमजोर नहीं पाती हूँ
इसलिये अब इस दुनिया में
अपनी पहचान हासिल करना चाहती हूँ
अपने सब आधिकार पाना चाहती हूँ
जानती हूँ कि बड़ी देर इसमें लगेगी मगर,
मैं नाकाम हो सकती हूँ,
लेकिन, अब भी नाउम्मीद नहीं हूँ
क्योंकि, जिनसे निर्मित हुआ नर-पिशाच
आत्मविश्वास के उन्हीं कणों से मैं भी तो बनी हूँ 
महज़, कोमल या कमजोर नहीं हूँ ।।
..... 
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२१ अगस्त २०१८

सोमवार, 20 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३० : #सावन_का_आखिरी_सोमवार #शिव_का_करो_मनोयोग_से_ध्यान




देखते-देखते समय बीत गया और सावन का चौथा व आखिरी सोमवार आ गया शिव की भक्ति में लीन भक्तों का सेवा भाव भी चरम पर आ गया । आदिनाथ भोले तो है ही इतने कृपालु जो सावन ही नहीं प्रति पल भक्तों पर अनवरत अपने आशीष की वर्षा करते भले हम उन्हें भूल जाये पर वे न कभी हमें भूलते । हम जो भी दुख या तकलीफ पाते उसकी वजह हम ही होते न कि ईश्वर हमें कोई दंड देता जैसा कि लोग कहते क्योंकि, उन्होंने तो कहा ही है कि ये संसार कर्म प्रधान जिसमें हमें वही वापस मिलता जो हमने दिया याने कि हमारे ही कर्म फलीभूत होकर हमारे अंचल में आते जिसे फैलाकर हम भगवान से दुआ मांगते ।

इसलिये हमें हर क्षण सजग होकर अपने प्रत्यर्क कार्य करना चाहिये मनसा, वाचा कर्मणा केवल कथन नहीं अपनी करनी में उतारना चाहिये । जिस वक्त हमारे तन-मन में एका हो जाता हमारे भीतर की सुप्त शक्तियां जागृत हो जाती । इसके लिये ये पावन चातुर्मास मानो वो चाबी जो खुल जा सिम-सिम की तरह प्रकृति के अनबुझ रहस्यों की कंदरा पर लगे ताले एक झटके-से ख़ोल देती । हमारी देह ही वो गुफा जिसके भीतर हम प्रवेश नहीं करना चाहते क्योंकि, इसमें जाने का रास्ता आंख बंद करने से खुलता और हम जो बाहरी दृश्यों में भरमा चुके उस सहज रास्ते पर चलना नहीं चाहते जबकि, दुनिया के टेढ़े-मेढ़े दुर्गम पथ पर मजे से चलते रहते । हमारे मन की इस चंचल प्रवृति के कारण ही बरसात के इन चार महीनों को एकांत वास के लिए चुना गया ताकि, हम सब तरफ से ध्यान हटाकर अपने भीतर उतर सके जहां सारा ज्ञान भरा पड़ा ।

कस्तूरी मृग की तरह हम आजीवन भटकते रहते उसकी तलाश में जो हमारे ही अंदर छिपा हुआ बस, हमें ही नहीं पता जब सारे जहां में उसे खोजकर थक-हारकर बैठते और आंख बंद करते तो आश्चर्य से भर जाते कि अरे, जिस शांति को ढूंढते उम्र गुजरी वो तो हमारे अंदर ही कुंडली मारकर बैठी थी । जीवन की विडंबना ही यही कि जो पास उसकी फिक्र नहीं और जो असंभव उसे पाने दुनिया भर की खाक छानते फिरते और एक दिन खाक में मिल जाते । काश, पंचतत्वों से बने शरीर को पुनः इनमें मिलने से पहले ही हम इसकी तासीर को समझ ले और करोड़ों के तन को कौड़ियों में न गंवाये शिव को देखो हमेशा ध्यान में मग्न यही कहते परम आनंद पाना है तो आंख खोलो नहीं बंद करो और फिर सदा खुश रहो नहीं तो आंख खोलकर प्रतिस्पर्धा में लगे रहो और बैचेन रहो । शिव-शंकर जटा-जूट बेल-पत्र पाकर पहाड़ में मगन खुश रहते और हम तमाम सुख-सुविधाओं के साथ महल में भी दुखी तो फिर सोचना क्या जब जीने का सहज ढंग पता जिसे अपनाकर कुछ भी न असंभव न जानने को शेष बचा... महादेव की बड़ी कृपा... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२० अगस्त २०१८

रविवार, 19 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२१९ : #लघुकथा_पत्नी_बनने_की_कोशिश_मत_करो




रोहित, ये क्या तुमने गीला टॉवल बिस्तर पर ही डाल दिया तुमसे कितनी बार कहा कि मुझे ये पसंद नहीं अभी की अभी इसे उठाओ और बाहर बॉलकोनी में डालकर आओ जैसे ही कनिका ने बिस्तर पर गीला तौलिया देखा एकदम से प्रेसर कुकर की तरह फट पड़ी

क्रिया की प्रतिक्रिया ये हुई कि रोहित ने भी उसी तरह पलटवार करते हुए शब्दों की गोलियां तड़तड़ा दाग दी, मिस कनिका आप शायद भूल रही हैं कि हम लिव-इन में रहते है तो प्लीज़ मेरी पत्नी बनने की कोशिश मत करो यदि यही सब सुनना-झेलना होता तो मैं शादी कर लेता आधा बिस्तर तुम्हारा तो आधा मेरा भी है और गौर से देखो मैंने टॉवल अपने साइड ही डाला है ये कहते हुए वो तेजी से कमरे से बाहर चला गया और वो खामोश बंद दरवाजा देखती रही ।

After 2 Years...

कनिका की शादी हो चुकी है और उसी दृश्य की पुनरावृत्ति होती है अंतर केवल इतना है कि, इस बार वो बकायदा सप्तपदी और पूरे रीति-रिवाज के बाद मुकुल की बनी ऑफिसियल बीबी है फिर भी जवाब वही लौटकर आता है ।

इसका मतलब सात फेरे, मंगलसूत्र, सिंदूर के बाद भी स्थिति वही है तो क्या अब भी वो पत्नी नहीं है सिर्फ बनने की कोशिश कर रही है इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं सब अपने-अपने घरों में ये सुन चुप रहती पर, कब तक?

अगले दिन उसने अपनी फ्रेंड्स के साथ मूवी देखने जाने का प्लान बनाया पर, जैसे ही मुकुल को बताया वो बिगड़ पड़ा कि आज उसने अपने बॉस को खाने पर इनवाइट किया ऐसे में वो कहीं घूमने कैसे जा सकती है तो अचानक उसके मुंह से निकल पड़ा ज्यादा पति बनने की कोशिश मत करो और ये कहकर वो तेज गति से कमरे से बाहर निकल गयी मुकुल मुंह फाड़े खड़ा हुआ बंद दरवाजा देखता रहा ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१९ अगस्त २०१८