रविवार, 30 सितंबर 2018

सुर-२०१८०-२७१ : #कहानी #लिव_इन_वाली_सती_सावित्री




सावित्री... सावित्री... कहाँ हो तुम
बदहवास हालत में घर में घुसते ही लगभग चिल्लाते हुये उसने कहा

यहाँ हूँ रीमा आ जा अपने कमरे से उसने आवाज़ दी,
यार, तुझे कितनी बार कहा कि मुझे सावित्री नहीं ‘सेवी’ बुलाया कर हमेशा भूल जाती है पता नहीं मम्मी-पापा ने दादा-दादी की बात मानकर मेरा नाम ‘सावित्री’ क्यों रख दिया ओल्ड फैशन ही नहीं बकवास मानसिकता से भी जुड़ा हुआ अच्छा, बोल क्या हुआ जो इतनी परेशान ही नहीं रुआंसी भी नजर आ रही है

उसके गले लगते हुये कांपते स्वर में रीमा बोली, “वो नहीं रहा उसका दोस्त अनवर सुबह आया था तो तेरे नाम लिखा उसका अंतिम खत देकर गया” और ये कहकर उसने एक लिफाफा उसे पकड़ा दिया

सावित्री का चेहरा फक्क से सफेद पड़ गया उसने डरते-डरते उसे खोला और उसमें लिखी इबारत को पढ़ने लगी...

मेरी सावित्री,

हालांकि, मैं ये कहने या लिखने का हक़ उसी दिन खो चुका था जब तुमने मुझे छोडकर जाने का निर्णय लिया फिर भी जब से तुम्हें देखा यूँ लगा तुम मेरे ही लिये बनी हो फिर जब तुम्हारा नाम अपने नाम के साथ जोड़ा तो लगा अब ये परफेक्ट हुआ पर, तुम्हारी जिद ही थी कि अभी मैं शादी के बंधन में बंधने और उसकी जिम्मेदारियां उठाने तैयार नहीं हूँ पर, हम लिव-इन में रह सकते है तो मैंने तुम्हारी बात का मान रखा क्योंकि, मुझे यकीन था कि अपनी मुहब्बत से मैं एक दिन जरुर तुम्हें शादी के लिये मना लूँगा मगर, नहीं पता था कि किस्मत में हमारा मिलन लिखा ही नहीं है

तभी तो साल बीता ही नहीं था कि मुझे कैंसर हो गया और जब तुम्हें ये खबर सुनाई तो तुमने मेरा साथ देने की बजाय मुझे छोड़ना बेहतर समझा सही भी है तुम कोई विवाहित पत्नी तो नहीं थी कि मेरे सेवा करना या साथ देना तुम्हारी मजबूरी बनता तुम तो एक आधुनिक, आज़ाद ख्याल बराबरी का दावा रखने वाली आत्मनिर्भर लड़की थी तो तुम्हें लगा कि तुम अपना कीमती समय एक मरते व्यक्ति के साथ बिताने की जगह कैरियर में लगाओगी तो ज्यादा फायदेमंद होगा गलत नहीं थी तुम मेरा फैसला डॉक्टर ने बता दिया था ज्यादा न जी पाउँगा ऐसे में तुम्हें उस वक़्त कंपनी का प्रस्ताव स्वीकार करते हुये मुझे छोड़कर अमरीका जाना ठीक लगा मैं कैसे रोकता कोई अधिकार ही नहीं था

पता सावित्री, मर तो मैं उसी दिन गया था पर, जब तक ऑफिशियली डिक्लेअर नहीं होता तब तक जीना ही था तो जीता रहा मगर, एक लाश की तरह जिसे यमराज घसीटता हुआ चल रहा था पर, साँसें ही न जाने क्यों अटकी थी शायद, इस उम्मीद पर कि मेरी सावित्री मुझे बचा लेगी पर, कब तक...? एक दिन मौत आयेगी ही ये सोचकर तुम्हारे नाम ये पत्र लिखकर छोड़ जा रहा हूँ साथ अपनी वसीयत भी जो कुछ मेरा था सब तुम्हारा है आखिर, तुम्हारे प्यार की वजह से ही तो मुझे वो सब मिला था हमारे नाम हमेशा साथ-साथ लिये जायेंगे यही एकमात्र ख़ुशी है

अलविदा...

तुम्हारा,
‘सत्यवान’  

खत उसके हाथ से छूट गया उसका वो ख्याल कि ‘सती सावित्री’ जैसी कहानियां सुनाकर उसकी दादी-मम्मी ही वैसा आचरण कर सकती मगर, वो तो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ी-लिखी उच्च शिक्षिता ऐसी बचकानी बातों को माने तो फिर पढाई-लिखाई का फायदा ही क्या उस पर, स्त्रीवाद और बराबरी के झंडे को लकर चलने की ख्वाहिश ने हर उस रिवाज को ठोकर मारते हुये आगे बढ़ने की ठान ली जो उसके कदमों में बेड़ियाँ डालकर उसे तरक्की करने से रोकते थे आज जब सब कुछ पास में था तब सच्चे प्रेम की तलाश में भटकती वो आज ही ये जान पाई कि क्यों उसकी दादी ने उसका नाम ‘सावित्री’ रखा था शायद, कुछ तो असर होता है इन पौराणिक नामों में जिसकी तासीर अक्सर, तकदीर बन जाती है

उसी का वो भ्रम जो वो बड़े गर्व से घर में कह करती थी कि, ‘लडकियों को सती सावित्री बनाना बंद करो अब सत्यवान पैदा नहीं होते’ आज शीशे की तरह टूटकर उसके पैरों तले बिछा था जिसकी किरचें उसके ही पाँव में चुभ रही थी  

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
३० सितंबर २०१८

शनिवार, 29 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२७० : #विश्व_हृदय_दिवस_रोज_मनाओ #खुद_को_पूर्ण_स्वस्थ_निरोगी_बनाओ




ज़िन्दगी जिन्दादिली का नाम है
मुर्दा दिल भी क्या ख़ाक जिया करते है 

वाकई, जीवन में जितनी हलचल हो जितनी ज्यादा उच्छल-कूद और उतार-चढ़ाव वो उतनी ऊर्जावान जीवन्त नजर आती जिस दिन शांत होकर थम जाती उस दिन जीवित होते हुये भी इंसान का वजूद मृतवत ही दिखाई देता कि जहाँ इक तरफ मौन व शांति जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करना दर्शाता जिसके लिये साधक अनंत काल तक तपस्या करता हुआ कभी एक टांग पर तो कभी अपनी देह को भूलाकर ध्यानस्थ हो प्रतीक्षा करता तो दूसरी तरफ कार्डियोग्राम पर जब एक सीधी लकीर उभरती तो जीवन को बचने में लगा चिकित्सक ही उस शख्स के न होने की सूचना देता है

इस तरह संघर्षों की लहरों पर थपेड़े खाता दहाड़ें मारता हुआ उछलता-गिरता सांसों की तरंग पर हिलोरें मारता हुआ अहसास जहाँ जीवन का प्रतीक वहीँ सपाट-नीरस, कांतिहीन सांसों को बोझ समझकर ढोता हुआ जीवित व्यक्ति भी मृतक समान और सीधी रेखा मृत्यु का संकेत फिर भी न जाने क्यों अक्सर, इंसान जीवन में आने वाले दुखों व तकलीफों से घबरा जाता उसकी भीतर जीने का जज्बा खत्म हो जाता तो ऐसे में वो उस वरदान स्वरुप अनमोल जीवन को अपने ही हाथों स्वयं मिटा देता जबकि, थोड़ा-सा सब्र कर लेता या खुद को इतना मजबूत बना लेता कि इस तरह के हालातों को सम्भालना उसे इतना कठिन नहीं लगता तो बात बन सकती थी

ये जीवन सिर्फ़ सांसों से ही नहीं हृदय की धड़कन से भी संचालित होता तो फिर हमें इन दोनों की ही फ़िक्र करना चाहिये न मगर, हम क्या करते जीभ के आगे मजबूर होकर सब कुछ उलुल-जुलूल खाते जाते जिसका खामियाजा आगे चलकर कमजोर सांसों व कमजोर हृदय के रूप में भुगतना पड़ता फिर भी समझ न आता और हम एंजियोप्लास्टी, बायपास सर्जरी न जाने कितने उपकरणों की मदद से प्राकृतिक दिल को कृत्रिम बनाकर जिये जाते फिर भी अपनी हरकतों से बाज न आते जबकि, ये इतना भी कठिन भी नहीं पर, अपने आलस-प्रमाद की वजह से हम लापरवाही पर लापरवाही करते जाते है  

आज के समय में हृदय के लिये केवल, गलत खान-पान ही नहीं मोबाइल टावर, स्मार्ट फोन्स, लैपटॉप जैसे अत्याधुनिक गेजेट्स भी है जिनसे निकलने वाली तरंगें हमें असमय ही रोगी बना देती पर, हम न तो अपनी जीभ और न ही अपने मोह पर ही काबू रख पाते इसलिये इनके शिकार होते फिर सब कुछ जानने का क्या फायदा जब हम उसका लाभ ही न उठाते आज भी किसी से पूछो तो वो न जाने हृदय को स्वस्थ रखने के कितने नुस्खे बता देगा पर, खुद ही उनको न आजमाता होगा क्या सुबह जल्दी उठाना, टहलना, व्यायाम करना या सात्विक भोजन ग्रहण करना इतना कठिन है कि हम ये जानते-बुझते भी कि जो फ़ास्ट फ़ूड हम खा रहे वो हमारी सेहत के लिये हानिकारक हम फिर भी खाते, योगासन या प्राणायाम हमारी आयु को बढ़ा सकते हमारे जीवन के लिये लाभदायक फिर भी हम नहीं करते है क्यों???   

हृदय की रक्षा करना मोबाइल चलाने जितना ही सरल बल्कि, मोबाइल पर भी उसके लिये अनगिनत टिप्स उपलब्ध है पर, उनको पढ़ना जितना सरल अमल में लाना उतना ही कठिन इसलिये इस तरह के दिवस का आयोजन करना पड़ रहा अन्यथा हमारे ऋषि-मुनियों ने तो हजारों बरस पूर्व ही स्वस्थ, निरोगी दीर्घायु जीवन के अनेक सूत्र दे दिये पर, हम तो पाश्चात्य सभ्यता के भोगी बन रहे तो योगी बनकर किस तरह जी सकते इसलिये एक-दो दिन इस तरह के दिवस मनाकर स्वस्थ होने का भ्रम पाल लेते ब्रम्ह को समझने की जेहमत कौन उठाये तो एक दिन के विश्व हृदय दिवस की सबको हार्दिक शुभकामनायें... ☺ ☺ ☺ !!!
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२९ सितंबर २०१८

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६९ : #इश्क़_करो_देश_से_अपने #भगत_सिंह_ये_गये_कह_के




मेरे जज्बातों से इस कदर वाकिफ है मेरी कलम,
मैँ 'इश्क' लिखना चाहूँ तब भी 'इन्कलाब' लिख जाता है...

ख़ुशी होती हैं जब आज के युवाओं को ‘भगत सिंह’ का नाम लेती देखती हूँ और उनकी जयंती पर वे बड़े उत्साह से विविध आयोजन भी करते है तो लगता है कि नाउम्मीदी के बीच आशा की ये किरणें है जब तक तब तक मायूस होने की कोई आवश्यकता नहीं है

क्योंकि, देश की आज़ादी के लिये अपनी जिंदगी और जवानी को यूँ हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ा देना आसान नहीं होता वो भी तब जबकि, विकल्पों की कमी आपके पास भी नहीं हो ऐसे में यदि आप अपनी इच्छा से ‘मौत’ को चुनते तो ये आपकी देश के प्रति वफादारी ही नहीं आपकी मानसिक परिपक्वता और निर्णय लेने की क्षमता को दर्शाता है

यूँ तो किसी वजह से क्षणिक जज्बा तो सबके भीतर ही जगता लेकिन, उसको दिशा व मंजिल देना सबके बूते की बात नहीं यदि ऐसा नहीं होता तो उस दौर में जबकि, देश की जनसंख्या या नौजवानों की संख्या कम नहीं थी और पूरे वातावरण में चारों तरफ विवशता, मजबूरी, गुलामी के ही दृश्य बिखरे पड़े थे तब भी चंद नहीं अनगिनत उभरकर सामने आ सकते थे

फिर भी जो सामने आये उन्होंने दूसरों को भी राह दिखाई कि ये जन्म, ये जीवन सिर्फ अपने जीने के लिये नहीं है वो भी तब जबकि, अपने ही परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़े हो तो ऐसी हवा में सांस लेना भी अन्याय है इसलिये भले, जान चली जाये या भले ही हम आज़ादी का सुख नहीं ले पायें फिर भी लड़ना और लड़ते-लड़ते शहीद हो जाना ही धर्म है

यही तो ‘भगवान् श्रीकृष्ण’ ने भी ‘श्रीमद्भाग्वाद्गीता’ में कहा था कि मूक-बेबस अत्याचार को सहन करते हुये लम्बा जीवन जीने से अपने हक के लिये लड़ते हुये कम उम्र में मरना श्रेयस्कर है तो क्यों न फिरंगियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई जाये दुश्मनों को उनके ही घर में जाकर ललकारा जाये और ये बताया जाये कि अब जो पीढ़ी उनके सामने है वो चुपचाप तमाशा नहीं देखेगी सरकार को अपनी पावन भूमि छोड़ने को मजबूर कर देगी

यदि भारतमाता का एक लाल कम भी हो गया तो गम नहीं अपनी आज़ादी को पाने अपने देश पर मर मिट जाने वालों की कमी नहीं इतनी बड़ी फ़ौज हम तैयार कर जायेंगे जो जंगे आज़ादी को हमारे मिटने के बाद भी जारी रखेगी तो अपने इस सपने को पूरा करने उन्होंने ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा ही नहीं दिया उन्हें बताया कि ये उम्र इश्क़ करने की जरुर हैं पर, किसी हसीना से नहीं बल्कि अपनी भारतमाता से जिसके बिना हम नहीं

वैसे भी वो जीवन जो दूसरों के काँधे पर गुज़ारा जाये जनाजे के समान है अपने दम पर अपनी ज़िन्दगी अपने कंधे पर ही जीना जीवन को वास्तविक मायने देता है...         

जिन्दगी तो अपने दम पे जीती जाती है,
दुसरो के कांधो पे तो जनाजे उठा करते है
 
आज उस साहसी, पराक्रमी, वीर सपूत की जयंती पर सदर नमन जिसने सच कहा था कि, मुझे समाप्त किया जा सकता है मेरे विचारों को नहीं वो मेरे मरने के बाद भी अगली पीढ़ी को प्रेरणा देते रहेंगे तो वही हो रहा है... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२८ सितंबर २०१८

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६८ : #कोई_सपना_जो_रहा_अधुरा #विश्व_पर्यटन_दिवस_याद_दिलाता




ओ मन...
बन बंजारा
लाद चाहतों की गठरी
साथ रख अपने
हौंसलों और धैर्य का असबाब
चलता चल हर डगर
साँसों के साथ चलता रहे सफर
फिर कहाँ मिलेंगे ये पल
फिर कहाँ साथ रहेगा यौवन
क्या पता कब थम जाये
किस स्टेशन पर खड़ा हो जाये
रेलगाड़ी-सा चलता जीवन
उससे पहले ही तू तय कर ले
अपनी मंजिल का पथ
कब रुका है किसी के लिए भी
समय का घूमता पहिया
कब पकड़ सका है कोई भी
उम्र की बढती रफ्तार
क्या पता कब, कहाँ आ जाये
मुश्किलों का फरमान
क्या जाने कब कहाँ किस मोड़ पर
मौत कर रही हो इंतज़ार
भरोसा नहीं किसी भी क्षण का यहाँ
इतनी अविश्वसनीयता के बीच
न जाने किस निश्चिंतता में तू बैठा है
अपने विश्व भ्रमण सपने को तूने
किस आशा पर भविष्य में रख छोड़ा है
न हो मुमकिन गर, जाना तो भी
एक कदम तो आगे बढ़ा
रास्ता खुद-ब-खुद चलकर आयेगा
तेरे हिम्मती कदमों के तले
कोशिशों की पतंग को ऊँचा तो उड़ा
कटने के डर से न पीछे भाग
सबको न मिलता यहाँ
कुदरत के हाथों बना ये जहान
देख फिर से ‘विश्व पर्यटन दिवस’ आया
धुंधला ही सही मगर उसने
तेर वो पुराना ख्व़ाब याद दिलाया
जो देखा था कभी तूने
पढ़ा था जब देश का इतिहास
सोचा था एक दिन जरुर
उन किलों, उन खंडहरों, उन स्थलों
हर एक उस जगह पर जायेगा
उस धरती पर अपना सर झुकायेगा
गिरा जहाँ शहीदों का रक्त
जहाँ देशभक्तों ने लगाई जान की बाजी
इससे पहले कि देर हो जाये
आ चल अपने देश को जी-भर देख आये
न जाने फिर कैसा हो इसका अक्स
न जाने फिर ये कितने टुकड़ों में बंट जाये
न जाने कैसे हो इसके नैन-नक्श
अखंड भारत तो रहा नहीं
कहीं खंड-खंड होकर खंडित ही न हो जाये
आ देश को जोड़ने का संकल्प ले
चल उठ भारत भ्रमण करें    

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ सितंबर २०१८

बुधवार, 26 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६७ : #विधवा_विवाह_नारी_शिक्षा_के_पैरोकार #ईश्वरचंद_विद्यासागर_लाये_समाज_में_बदलाव


  
मर्द को दर्द नहीं होता...

ये महज़ एक फ़िल्मी संवाद जिसमें सच्चाई तभी ठीक जब बात तकलीफों या मुश्किल हालातों में न घबराने की हो लेकिन, हकीकत में या असल ज़िन्दगी में तो वही मर्द जिसको दर्द होता जो दूसरों की तकलीफ़ से पिघल जाता, किसी को परेशानी में देखें तो अपना दर्द भूलकर उसकी मदद को आगे आता न कि अपने मर्द होने के झूठे गुमान को जीते हुये केवल औरतों पर अपने हाथ आज़मा खुद को मर्द कहता है

कुछ ऐसा ही महसूस होता जब ‘ईश्वरचंद विद्यासागर’ जैसी शख्सियतों के बारे में पढ़ते या सुनते जिन्होंने औरतों के हक के लिये कानून तक में बदलाव ला दिया और समाज की अनेक कुरीतियों को मिटाकर उसे स्त्रियों के लिये सुविधाजनक बनाने में मदद की यहाँ तक कि अक्सर, उनके हक की लड़ाई लड़ने के लिये अपने उस अहसास तक को भूला दिया जिसके आधार पर इसे पुरुष प्रधान समाज का दर्जा दिया जाता है

उनका तो ये ही मानना था कि स्त्री हो या पुरुष दोनों एक समान अतः उनको बराबरी का दर्जा ही नहीं एक समान अधिकार भी हासिल हो क्योंकि, भेदभाव के अतिरेक से औरतों की शख्सियत न केवल खत्म होती जा रही बल्कि, उसकी वैयक्तिक पहचान पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा समाज में उसे केवल आदमी की परछाई की तरह ही अभिव्यक्त किया जा रहा और घरों में भी उनके साथ उसी तरह से व्यवहार किया जा रहा जो किसी भी राष्ट्र की उन्नति में बाधक है

इसलिये जब उन्होंने अपने आस-पास इस तरह की स्थितियां देखी जिसमें नारी जाति को घुट-घुटकर जीते, अपने अरमानों को मारते व बाल-विवाह के द्वारा उनके जीवन को असमय ही बलिदान होते और विधवा होने पर उनके साथ अछूतों की तरह व्यवहार होते देखा यहाँ तक कि उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता तो ये सब देखकर उनसे रहा न गया और उसके खिलाफ लगातार बुलंद तरीके से आवाज़ उठाई

जिसका नतीजा कि पुनर्विवाह एक्ट लागू हुआ जिसे उचित सिद्ध करने उन्होंने अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा से किया जो उनकी कथनी व करनी की समानता को दर्शाता है यही नहीं बच्चियों की शिक्षा हेतु उन्होंने विद्यालयों का स्वयं निर्माण किया व सरकार को भी इसके लिये प्रेरित किया समाज सेवा व परहित का गुण उनके भीतर जन्मजात ही था तो वे इसका कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे

अपनी आजीविका से प्राप्त आय का भी पूरा उपभोग खुद के लिये न कर केवल जरूरत लायक ही अपने परिवार पर खर्च करते बाकी जरुरतमंदों को दे दिया करते थे उनकी अपार मेधाशक्ति उनको लेखन के प्रति भी आकर्षित करती तो उन्होंने उस क्षेत्र में भी काम किया और बांग्ला भाषा के लिये भी काम किया उसे न्य स्वरुप प्रदान किया इस तरह उन्होंने अपनी जन्मभूमि अपने प्यारे वतन के पुनर्निर्माण में अपनी तरह से पूरा सहयोग किया जिसकी वजह से उन्हें आधुनिक बंगाल का जनक भी कहा जाता है

इन्होने अपने जीवन दर्शन व स्त्री हक के लिये सामाजिक सुधारों से ये साबित किया कि नर व नारी एक-दूसरे के पूरक है कोई किसी से कम न ज्यादा और दोनों मिलकर ही राष्ट्र निर्माण व विकास में योगदान कर सकते इस तरह उन्होंने आज के फेमिनाओं को ये सबक सौ साल पहले ही दे दिया कि स्त्री के लिये जब पुरुष लड़ता और पुरुष के लिये स्त्री कुछ भी करने को तैयार रहती तो दोनों के समन्वय से ही घर-परिवार व देश विकास के पथ पर आगे बढ़ता कोई अकेला ये काम नहीं कर सकता मिलकर ही ये सम्भव है

इसलिए किसी को कमतर या नीचा बताने से बात न बनेगी एक साथ हाथ में हाथ लेकर खड़े होने व चलने से ही देश बदलेगा और उसे बदलकर दिखाया भी उन्होंने जो फेमिनिज्म की सही व्याख्या करता कि इसका मतलब पुरुषों को आरोपी नहीं बनाना बल्कि, उसके समकक्ष आने के लिये उसके सहारे को स्वीकारना है जिससे वो कमजोर नहीं बल्कि अधिक ताकतवर बनेगी क्योंकि, शक्ति का प्रतीक तो वही है जिसे पाकर वह भी शक्तिशाली बनता है     

आज जयंती पर ऐसे समाज सुधारक, विद्वान, बहुमुखी प्रतिभाशाली, तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी ‘ईश्वरचंद विद्यासागर’ को शत-शत नमन... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२६ सितंबर २०१८

मंगलवार, 25 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६६ : #हुई_पितृपक्ष_की_शुरुआत #अपने_पूर्वजों_को_हम_करें_याद




इस पावन पुनीत धरती पर जन्म लेना ही नहीं मरना भी गौरव की बात होती क्योंकि, यहां मरकर भी पुनः वापस आने की एक ऐसी अवधारणा जिसकी वजह से पुनर्जन्म ही नहीं जन्मों-जन्मों तक अपने आधे-अधूरे कामों को पूरा किया जा सकता है देह से नाता टूटकर भी आत्मा में वो विचार अंश शेष रह जाता जो किसी कारणवश संपन्न नहीं हो पाता तो वही बार-बार उसी जगह बुलाता जहाँ उसे पूरा किया जाना है

कुछ जो अधूरा पीछे छूट जाता उसको पूर्णता प्रदान करने मानव फिर-फिर शरीर का चोला धारण कर अपनी जड़ों में लौटता उस माटी को चूमता जिसके ऋण से वो उऋण नहीं हो पाया था कभी जिसका पिता था अब उसका ही पुत्र बनकर पुनः उसी घर मे वापस आ जाता या फिर कोई संस्कार जो उसके निमित्त हो न सका पूरा उसको पूर्ण करवाकर आवागमन के इस चक्कर से छूटकर सदा-सदा के लिए मुक्त भी हो जाता है

ऐसी आत्माएं कम ही होती जो सारे बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष चाहती अधिकतर तो अपने इंद्रियों के वशीभूत होकर इसी भूमि की मिट्टी, वायु, आकाश, अग्नि व जल में अनगिनत बार अपना वजूद खोकर उतनी ही बार फिर इन्हीं पंचतत्वों से निराकार से साकार रूप में आना चाहते आखिर, उस स्वाद को किस तरह से बिसरा दे जिसने उनकी इंद्रियों को हर स्वाद से परिचित करवाया फिर भी अभागा मन कभी भी संतुष्ट न हो पाया था

इसकी वजह ये शायद कि, संतुष्टि तो मोह-माया से विलग होकर परमात्मा में विलीन होने का सूचक जबकि, मन को तो अब भी कोई प्यास जिसकी आस में जहाज के पंछी सम वो उन गलियों में बारंबार आना चाहता है यही मांगता अपने प्रभु से कि चाहे ईट-पत्थर बन दे या फिर चाहे पेड़-पौधे या पंछी, जानवर या वापस इंसान पर जन्मभूमि यही हो और वतन भी यही हो क्योंकि, इस जगत में कहीं नहीं ऐसी आस्था, न ऐसे संस्कार जहां जीते-जी ही नहीं मृत्यु के बाद भी स्मरण किया जाता है

जब तक वापिस देह का दान नहीं मिल जाता आत्मरूप में भी वो यहीं विचरण करना चाहता और जब कोई अपना उसे याद करता या उसके लिए तर्पण करता और भोग रखता वो काग बनकर उसके घर आता है पितृपक्ष के ये पंद्रह दिन वास्तव में अपने उन्हीं पुरखों को समर्पित जो हमसे बिछड़कर इहलोक से परलोक गमन कर चुके इन दिनों वे यमपाश से मोहलत पाकर नीचे आ जाते अपने परिजनों को देखकर उनका दिया प्रसाद ग्रहण कर उन्हें आशीष देकर पुनः चले जाते है

इस पक्ष में पूरी सोलह तिथियाँ होती तो सभी तिथिवार अपने पूर्वजों के लिये श्राद्ध का आयोजन करते जिसकी शुरुआत आज से हो चुकी और स्वर्ग से दिव्यात्मायें धरती पर आ गई है बस, उनको ससम्मान उच्चारते ही उनके अदृश्य अहसास, उनके वरदहस्त को आप अपनी छलछलाती आंखों में स्वतः ही महसूस करोगे उन्हें छप्पन भोग नहीं बस, आपका श्रद्धायुक्त श्राद्ध चाहिए जिसके लिये किसी दिखावे या आडम्बर की नहीं केवल, अंतर से महसूस करने जरूरत है ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२५ सितंबर २०१८

सोमवार, 24 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६५ : #उड़ने_दो_उम्मीदों_की_तितलियाँ #करने_दो_मन_बगिया_में_अठखेलियाँ




मन की कोमल धरा पर पड़ती है जब चाहतों की रिमझिम बूंदें तो अनायास ही वहां ख्वाबों-ख्यालों की एक नन्ही-सी बगिया महकने लगती जिसमें फिर अनेक ख्वाहिशें भी तितली की तरह मंडराने लगती पर, हम ही अक्सर, उनकी परवाज को बांध देते, रोक देते उनकी उड़ान को कभी अपने परिवार की सीमाओं तो कभी समाज की बंदिशों की वजह से और पता ही न चलता कि उस घुटन में वो कब खामोश दम तोड़ देती हैं

आखिर, सबको तो ऐसा माहौल मिलता नहीं कि वो जो चाहे वो हासिल कर ले या समाज की उनको परवाह न हो अमूमन तो ऐसे लोगों का ही प्रतिशत अधिक जिनको समझौते करते हुये ही अपना जीवन गुज़ारना पड़ता तो फिर किस तरह से वे तितली जैसी नाज़ुक उम्मीदों को स्वतंत्र विचरण की अनुमति दे सकते इसलिये उनको पाबंदियों की बेड़ियों से जकड़ देते जिसका नतीजा कि वे केवल अरमान ही नहीं मरते साथ उनके जीवन की कोई उमंग भी दम तोड़ देती है

इस तरह से जीते-जीते वे खुद भी नहीं जान पाते कि कब उनके भीतर की पूरी बगिया ही नहीं बल्कि, जीवन का वो रस ही सूखा जाता जिसके होने से जिंदगी में सरसता का बोध होता और इस तरह अनजाने ही वे नीरस बन जाते इतने कि उनके आस-पास भी नकारात्मकता का एक ऐसा मंडल निर्मित हो जाता जिसके नजदीक आने वाला भी उसके प्रभाव में आकर स्वतः ही निराशावादी ही जाता है

बचपन से ही उनको लगातार इस तरह से रोक-टोक के माहौल में रखा जाता कि यदि उनको आगे चलकर किसी तरह से आज़ादी मिल भी जाये तो पांव नहीं उठते या आत्मविश्वास ही इतना कम हो चुका होता कि जो कुछ संभव भी होता वे उसको भी नहीं आज़ामना चाहते बस, खुद को हालातों के हवाले कर चुपचाप जिये जाते जबकि, यदि चाहते तो जब पहली बार अपने ही हाथों मारा था अपनी इच्छा को उस समय भी विकल्प तलाशा होता तो शायद, मिल जाता कोई ऐसा अवसर कि उम्मीद की कली मुरझाने की जगह खिल ही जाती

ये भी किया जा सकता था कि भले, उस वक़्त अपने अरमान को पूरा कर पाना नामुमकिन था तब भी उसको मारने या मरने देने की जगह अनुकूल अवसर का इंतजार किया जा सकता था तो जिस तरह जीने के लिये मानव संघर्ष करता उसी तरह उनको भी हालात के हवाले कर देने से वे भी अगर, शक्तिशाली होती तो न सिर्फ़ जीवित रहती बल्कि, संभावना शेष रहती तो कभी गुल खिला ही देती     

केवल इतना ही काफी नहीं कि हम अपनी तमन्नाओं को इतनी अधिक वरीयता दे कि उसके सामने किसी को भी तवज्जो न दे जैसा कि आजकल ज्यादातर देखने में आता कि बच्चे हर हाल में अपनी मनमानी करना चाहते फिर चाहे पालक को कितना भी परेशान क्यों न होना पड़े अतः इसके साथ ही ये भी जरूरी कि हमारा विवेक इतना जागृत हो कि हम अपनी कामनाओं को समझ सके क्या वे सचमुच ही हमारे भावी जीवन के लिये हितकारी है

ऐसा कोई नहीं जिसके मन में किसी भी प्रकार की कोई भी इच्छा न हो लेकिन, अगर हमको अच्छा-बुरा, सही-गलत का भेद ही न मालूम हो तो फिर उनको सहेजना है या फिर मरने देना है इसका निर्णय कठिन होगा इसलिये ही तो पहले बच्चों के लालन-पालन में अनुशासन का भी ध्यान रखा जाता था जो आजकल लुप्तप्राय है आज तो सबको अपना जीवन ही इतना कीमती लगता कि ‘माय लाइफ, माय चॉइस’ ही उनका जीवन मंत्र होता तो ऐसे में बस, किसी भी तरह बच्चे से पीछा छुड़ाने उसकी हर बात को मान लिया जाता है

इस तरह के बच्चों के के शब्दकोश में ‘धैर्य’, ‘समझौता’, ‘स्नेह’, ‘सांझेदारी’, ‘परस्पर मेलजोल’, ‘सहायता’ जैसे शब्द होते ही नहीं जिनकी तादाद बढ़ती जा रही ये केवल अपने लिये और अपनी वासनाओं के लिये जीते है... इनकी ख्वाहिशों को यही नाम दिया जायेगा क्योंकि, इनके लिये अपनी इच्छापूर्ति ही सर्वोपरि तो ख्वाहिशों की तितली को उड़ने देने की सलाह उनके लिये ही जो जानते कि उनके मन में ‘शुभकामना’ है ‘दुर्भावना’ या ‘वासना’ नहीं तब भले समय लगे लेकिन, वे अवश्य ही पूरी होती हैं  
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ सितंबर २०१८

रविवार, 23 सितंबर 2018

सुर-२६४ : #अनंत_चतुर्दशी_का_आना #सर्वप्रिय_श्रीगणेश_का_जाना





जीवन में हर्षोउल्लास के पल यूँ तो सबके लिये अलग-अलग समय पर आते ही रहते और वो अपने परिजनों के साथ मिलकर उसका आनंद उठाता लेकिन, पर्व-उत्सव ऐसे अवसर जिसमें देश के सभी लोग आपस में मिलकर सार्वजनिक रूप से खुशियाँ मनाते है इससे संपूर्ण वातावरण में जो ऊर्जावान सकारात्मक तरंगें उत्पन्न होती वे इसमें शामिल परिचितों व अजनबियों को भी एक-दूसरे से इस तरह से जोड़ देती कि उनमें परस्पर भाईचारा निर्मित हो जाता है

शायद, यही सोचकर हमारे पूर्वजों ने ऐसे रीति-रिवाज बनाये कि जीवन की एकरसता व भागदौड़ से उबकर हम नीरसता का अनुभव करे तो इस तरह के सयुंक्त आयोजन हम सबको थोड़ी देर को ही सही हर तरह के तनावों से मुक्त कर सके फिर इनके माध्यम से हम अपनी रूटीन दिनचर्या के लिये पर्याप्त ऊर्जा प्राप्त करें जिससे कि नवीन उत्साह के साथ उस जीवन शैली में लौट सके और जब हम इनके पीछे छिपी इस सौहार्द्रता को महसूसते तो हमारा मन अपने आप ही कोमल भावों से भर जाता है

इस मानस परिवर्तन से सिर्फ अपने लिये ही नहीं बल्कि, समस्त जगत के प्रति करुणा का अहसास जागृत होता तभी तो हमारे यहाँ रोज अपनी नियमित प्रार्थना में समस्त विश्व की कल्याण की कामना की जाती जो विश्व बंधुत्व की अवधारणा को पोषित करती है । आज गणेशोत्सव के दस दिवसीय आयोजन के समापन की घड़ी ‘अनंत चतुर्दशी’ के आने से जगह-जगह दिखाई दे रहे होम-विसर्जन व भंडारे के मनोहारी दृश्यों ने कुछ ऐसा ही उत्सवी माहौल रच दिया जो देश व सामाजिक सरसता के लिये मंगलकारी है ।

जहाँ गणेश मंडल के सदस्य हर जात-पात के लोगों को एक-साथ समान सम्मान के साथ प्रसाद वितरित कर खुद को कृतार्थ महसूस कर रहे जिसे उनके मुखमण्डल पर झलकते संतोष से समझा जा सकता हैं । हमारे देश की इन गौरवशाली परम्पराओं ने ही हमको युगों-युगों से जीवंत किया हुआ है और आने वाली सदियों तक इस दुनिया में हमारा अस्तित्व कायम रहेगा अगर, हम इसी तरह मिल-जुलकर सबके साथ इन परम्पराओं का पालन करेंगे ।  
      
एक तरफ जहाँ हम सबके प्यारे श्रीगणेश की विदाई से मन का कोई कोना उदास है वहीँ दूसरी तरफ उनके फिर अगले बरस आने के वादे से ख़ुशी से झूम भी रहा है ऐसे सुख-दुःख के संगम के प्रतीक अनंत चतुर्दशी की सबको मंगल कामनायें... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२३ सितंबर २०१८

शनिवार, 22 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६३ : #पहन_किरदारों_के_विविध_मुखौटे #अभिनय_से_जीवंत_करती_उन्हें_दुर्गा_खोटे




आज अधिकतर युवाओं का स्वप्न बॉलीवुड में जाकर अपना भाग्य आजमाना होता है लेकिन, ये तब की बात है जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत मूक फिल्मों से हुई थी और दादा साहब फाल्के जी को अपनी कहानी में नायिका के पात्र के लिये कोई महिला नहीं मिली क्योंकि, तब तो इस कार्य को हेय दृष्टि से देखा जाता था और इसमें काम करने के लिये तवायफ़ तक तैयार नहीं थी तो अभिनेत्री की जगह पुरुष से ही उस महिला पात्र की भूमिका अभिनीत करवाई गयी

उसके बाद समय चक्र घूमा तो न केवल फिल्मों ने बोलना शुरू किया बल्कि, अच्छे-अच्छे परिवार की पढ़ी-लिखी लडकियों ने भी इस क्षेत्र में कार्य करना अपना गुडलक समझा इस तरह हिंदी फ़िल्मी दुनिया अपने पैरों में खड़ी होने लगी जिसको इस स्थिति तक लाने में एक नहीं अनेक व्यक्तियों का हाथ हैं उनमें से एक नाम प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी, ममतामयी कोमल हृदय की मलिका और देवीय सौन्दर्य की आभा से जगमगाती संवेदनशील अभिनेत्री ‘दुर्गा खोटे’ भी थी

जिन्होने षोडशी नायिका से लेकर उम्रदराज परदादी तक का सफर तय किया और फिल्म इतिहास में मील का पत्थर बन गयी जिनको देखकर न जाने कितनी लडकियों ने न सिर्फ अपने मन में हिरोइन बनने का सपना देखा बल्कि, उसे सच भी कर दिखाया इस तरह ‘दुर्गा खोटे’ के रूप में हम सबको ऐसी अभिनेत्री मिली जो न कल पढ़ी-लिखी थी बल्कि, एक संभ्रांत परिवार में पली-बढ़ी भी थी

इसलिये वो अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति भी सचेत थी तभी तो विवाह के बाद अपने आपको एक कुशल गृहिणी के रूप में परिणित करने के बाद भी अपने आपको या अपने अंदर छिपी अभिनय की प्रतिभा को छिपाकर नहीं रखा और जब उनको अपनी सहेली ‘शिवानी’ से एक फिल्म ‘ट्रैप्ड’ का प्रस्ताव मिला तो उन्होंने उसे अस्वीकार नहीं किया और अपने परिवार वालों की सहमती से उस फिल्म में काम किया हालाँकि, फिल्म प्रदर्शित होते ही फ्लॉप हो गयी पर, वे निराश नहीं हुई

इसकी वजह ये थी कि उनके परिवार वाले उनके साथ थे तो उन्होंने उनको संभाल लिया जो साबित करता कि यदि परिवार वाले अपनी सन्तान पर भरोसा करें और उसको उनका मनमाफिक काम करने दे तो फिर वे उनसे छिपकर कोई कदम नहीं उठाते और यदि असफल भी हो तो घबराकर आत्महत्या जैसा घातक कदम नहीं उठाते और न ही अवसाद में ही फंसते तो यही हुआ उनके साथ पहली फिल्म की असफलता में परिवारवालों का साथ मिलने से हौंसला टुटा नहीं इसलिए दुबारा जोखिम लेने का साहस करते हुए वी. शांताराम की हिंदी व मराठी में बनने वाली मूवी ‘अयोध्या चा राजा’ में काम किया जिसके दोनों संस्करण सुपर हिट रहे

उसके बाद आई उनकी ‘माया मछिन्द्र’ जिसकी अपार सफलता ने उनको एक स्टार का दर्जा दिला दिया और फिर जो सिलसिला शुरू हुआ तो थमा नहीं एक-के-बाद एक लगातार अनेक फ़िल्में, अनेक भूमिकाएं उन्होंने अपने जीवंत अभिनय से यादगार बना दी जिसमें उनके परिवार वालों का सहयोग भी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने उसकी फिल्मों के फ्लॉप होने पर जहाँ उनको सहारा दिया तो उसके हिट होने पर उसकी खुशियों में हिस्सेदार भी बने अन्यथा दो बच्चों की माँ होकर वे किस तरह से उसे जमाने में ये सब कर पाती जबकि, महिलाओं के लिए विवाह के पश्चात् घर से बाहर निकलना तक नामुमकिन था

उन्होंने फिल्म जैसे कार्यक्षेत्र को चुनकर उसमें अपना ऐसा मुकाम बनाया कि आज भी कोई उन्हें भूल नहीं सकता चाहे फिर वो उन्हें ‘मुगल-ए-आज़म’ की ‘जोधाबाई’ के रूप में याद रखे या फिर ‘बॉबी’ की ‘मिसेज़ ब्रैगैन्ज़ा’, ‘साहेब बहादुर’, ‘सागर’, ‘झुक गया आसमान’ फिल्म की दादी के रूप में या फिर नायिका के रूप में उनकी मोहक ममतामयी मुस्कान और प्रेम से छलकती आँखों को भूला पाना असंभव है

उन्होंने सिर्फ अभिनय ही नहीं किया बल्कि, पहली महिला निर्देशिका होने का गौरव भी हासिल किया और उस जमाने में जबकि, फ़िल्मी कलाकार किसी कंपनी से जुडकर उसके कर्मचारी के रूप में मेहनताना पाते हुये काम करते थे उन्होंने अनुबंध में बंधकर काम करने की जगह खुद को फ्रीलांस कलाकार के रूप में स्थापित किया और अपनी आत्मकथा ‘मी दुर्गा खोटे’ के द्वारा अपनी संघर्ष यात्रा की रोमांचक कहानी भी अपने चाहने वालों के साथ सांझा की जो उनकी बहुमुखी प्रतिभा और उनके भीतर की अद्भुत कार्य कुशलता व प्रबंधन क्षमता को दर्शाती है

उनकी अदाकारी को सराहते हुये भारत सरकार ने उनको पद्मश्री एवं दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके उन सभी किरदारों के स्मरण द्वारा उनको ये आदरांजलि... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२२ सितंबर २०१८

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६२ : #शान्ति_गंवाकर_शान्ति_तलाशते #बड़े_नादान_हम_सब_भीतर_न_झांकते




अरे, प्रियम कहाँ भागा जा रहा जरा शांति से दो घड़ी बैठकर नाश्ता-पानी कर ले फिर जा जहां जाना है

मम्मा, यहां मरने को फुर्सत नहीं और आप हो कि दो घड़ी शांति से बैठकर बैठकर खाने की बात कर रही हो वहां क्लासेस शुरू हो गयी होंगी सब दोस्त बाहर इंतज़ार कर रहे बाई मैं चला...

मां उसके जाने के बाद सोफे पर बैठकर सोचने लगी प्रियम के पैदा होने के बाद से उसके कॉलेज जाने तक उसका जीवन जिस तरह बदला उसे समय ही नहीं मिला कि खुद के बारे में सोचे सारा दिन बस, उसके ही काम करती रहती यदि थोड़ी फुर्सत मिलती तो महसूस करती कि वो इतनी थकी हुई है कि कुछ मन का काम करने की बजाय आराम के दो पल की अधिक आवश्यकता है

तभी गाड़ी की आवाज़ आई तो वो समझ गयी कि प्रियम के पापा आ गए लंच करने तो जल्दी से उठकर किचन की तरफ भागी उधर से उसके पति मयंक उसे आवाज़ देते भीतर आये, प्रिया जल्दी से खाना लगा दो तो वो किचन से हाथ पोछती बाहर आई और उनको खाना परोसने लगी उनके जाने के बाद सोचा कि जरा आराम कर लूं तो बगल वाली मिसेज शर्मा आ गयी फिर पठान चला कब शाम हो गयी और वो फिर डिनर की तैयारी में जुट गई

वो अभी डाइनिंग टेबल पर से डिनर के बाद की प्लेट्स हटा ही रही थी कि प्रियम आ गया तो उसने कहा, चल जल्दी से फ्रेश होकर आ जब तक मैं खाना गर्म कर देती हूं तो उसने सीढियां चढ़ते हुए कहा, मम्मा बाहर से खाकर आ रहा हूँ अब नींद आ रही तो सिर्फ सोना चाहता हूं गुड नाईट ये कहकर वो ऊपर अपने कमरे की तरफ चला गया

उधर प्रिया अकेली खुद से बातें करने लगी उफ, जिसे देखो वही व्यस्त सब बस, दौड़े चले जा रहे जाने कहाँ किसी के पास दो घड़ी का समय नहीं कि शांति से बैठकर कुछ विचार कर सके उसके खुद के माता-पिता का भी यही हाल रहा माताजी सारा दिन घर मे खटती पिताजी दफ्तर और ओवर टाइम में ताकि, हम पांचों भाई-बहनों को अच्छी ज़िंदगी दे सके इस चिंता के मारे वो दोनों कभी शांति से सो भी न सके और फिर क्या हुआ वही चक्कर चल रहा केवल पात्र बदल गये है

हम सब भी उसी तरह जीवन को बेहतर बनाने की चाह में कोल्हू के बैल की तरह भागे चले जा रहे ऐसे में उसे अपने पिता के अंतिम शब्द बहुत याद आते जो उन्होंने उससे कहे थे, “बेटी, मैं सोचता था कि एक दिन सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा तब मैं शांति से मर सकूंगा मगर, मुझे क्या मालूम था कि तब कैंसर मेरा इंतजार कर रहा होगा और मैं दर्द सहन करते हुये मौत को पुकारूँगा ऐसे में आज अहसास हुआ कि शांति तो हमेशा से मेरे भीतर थी वो तो मैं ही उसे अनदेखा कर भागा जा रहा था आज जब सब कुछ मिल गया सब बच्चे भी अपनी-अपनी लाइफ में सेटल हो गये तो मैने सोचा अब मैं और तेरी मां शान्ति से रहेंगे पर, शांति क्या कोई चिराग़ में छिपा जिन है जो हमारा इंतज़ार करे कि हम जब चाहे उसे पुकारे वो प्रकट हो जाये ये तो आत्मा की तरह हमारे अंदर बसी हुई जब हम उसकी लगातार उपेक्षा करते तो फिर वो अंदर ही घुटकर मर जाती है इसलिये जब वक़्त मिले उसके साथ व्यतीत करो उससे बात करो नहीं तो फिर वही होगा कि जो पास है उसकी कदर नहीं कि जीवन इस आस में गंवा दिया कि जब सब कुछ पा लेंगे आराम से शांति से उसका उपभोग करेंगे मतलब जो शांति हमारे पास थी उसको अनदेखा कर हम बेचैनी में जीवन काटते रहे और फिर उसकी खोज में निकल पड़े और अब मरते हुए भी सोच रहे कि शांति से स्वर्ग में रहेंगे इसलिये तुम ऐसा न करना अपने बच्चों को सीखाना कि शांति को त्यागकर शांति की तलाश न करे”

मगर, वो क्या सीखा पाती किसी को जबकि, उसके पति भी वैसे ही आम सोच वाले इंसान निकले जो शांति के इंतजार में शांति को ही इंतजार करवा रहे थे कि जब सब कुछ सेट हो जायेगा मनमाफ़िक तब वो उसके साथ दिन गुजारेंगे तो शांति कब तक इंतजार करेगी उनका चली जायेगी वहां जहाँ कोई उसकी बाट जोह रहा होगा फिर जब उसे पुकारेंगे, ढूँढेगे तो वो वापस न आयेगी काश, वो समझा पाती किसी को ये कि सब यही गलती कर रहे है जो चीज उनके पास उसकी अनदेखी कर उसे ही तलाश रहे है तभी तो साल-दर-साल २१ सितंबर को ‘विश्व शांति दिवस’ मना रहे है क्योंकि, उसके घर में नहीं पूरी दुनिया में ही सब यही कर रहे है

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२१ सितंबर २०१८

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६१ : #असम_की_गुमनाम_वीरांगना #स्वतंत्रता_सेनानी_कनकलता_बरुआ




खतरे में हो देश अरे तब लड़ना सिर्फ धरम है
मरना है क्या चीज़ आदमी लेता नया जनम है

यूँ तो ये पंक्तियाँ बहुत बाद में लिखी गयी लेकिन, गीतों के चितेरे कहे जाने वाले गोपाल दास ‘नीरज’ ने इन्हें लिखने के लिये जिनसे प्रेरणा ले होगी वे निश्चित ही अपनी देश की आन-बान-शान पर प्राण उत्सर्ग करने वाले भारत माता के लाल और लाड़लीयां ही रहीं होगी जिन्होंने जब देखा कि हमारे वतन पर संकट के बादल लहरा रहे हैं देश को फिरंगियों ने अपने अधिकार में लेकर सभी को अपना गुलाम समझ रखा हैं तब इस अहसास के जागते ही स्वाधीनता का एक ऐतिहासिक संग्राम छेड़ गया जिसके कई बरस गुजर जाने और अनगिनत वीरों व वीरांगनाओं की शहादत के बाद १५ अगस्त १९४७ में जाकर हमने आज़ाद भारत में सांस ली थी

इस पर भी वे जिन्होंने इसके लिये अपनी जान गंवा दी उनमें से चंद ही ने उस स्वप्न को साकार होते देखा बाकी तो क्रांति की आग में अपना आप जलाकर फिर जन्म लेकर फिर से देश पर कुर्बान होने की चाह लेकर आते-जाते रहे जब तक कि अपनी मातृभूमि से उन ब्रिटिश शासकों को खदेड़ नहीं दिया था इनमें से केवल कुछ ही ऐसे नाम जो हम सबके होंठो पर रहते और उँगलियों पर हम उन्हें ही गिनते लेकिन, उनका क्या जिन्होंने अपना जीवन जिस देश की खातिर दिया उस देश के इतिहास में भी उनको जगह न मिली या जिनकी जयंती-पुण्यतिथि कब आई कब गई हमें पता ही नहीं चलता है

माना कि उन्हें इसकी चाह नहीं थी कि उनके जाने के बाद उनके नाम का जयकारा गूंजे या उनकी स्मृति में औपचारिकता का निर्वहन किया जाये फिर भी कुछ ऐसा भी नाम उन बड़े-बड़े नामों के बीच छिपे हुये नजर आते जिन्होंने उनकी प्रेरणा से ही ऐसा साहसिक कदम उठाया कि वो उम्र जिसमें नौजवान या युवती अपने भावी जीवन के स्वप्न देखते इनकी आँखों में अपने देश की आज़ादी का सपना समा गया था इसलिये फिर वे किसी जुल्मों-सितम से किस तरह घबराते वे आग बढ़कर सीने पर गोली खाई पर, न ही अपना और न ही अपने देश का सर झुकने दिया ऐसी ही गुमनामी की अँधेरी गलियों में अपने आपको भारत माता के चरणों में समर्पित करने वाली एक आभामय रौशनी की किरण ‘कनकलता बरुआ’ के रूप में नजर आती जो महज़ १८ साल की कमसिन वय में जंगे आज़ादी के शहीद होकर असम की ‘रानी लक्ष्मीबाई’ बन गयी थी   

८ अगस्त १९४२, मुंबई अधिवेशन में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित हुआ और उसके बाद देश के कोने-कोने में आग की तरफ फैल गया जिसके बाद असम में भी कई शीर्ष क्रांतिकारियों को ब्रिटिश सेना ने जेल में डाल दिया जिसके कारण सरकार के विरोध स्वरुप २० सितंबर १९४२, के दिन तेजपुर से ८२ मील दूर ‘गहपुर थाने’ पर तिरंगा फहराने का निर्णय लिया गया इसके बाद क्रांतिकारियों का एक दल ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हुये निकल पड़ा अपने गंतव्य की तरफ जिसमें सबसे आगे तिरंगा थामे चल रही थी १८ साल की नाजुक ‘कनकलता बरुआ’ जिसके परिजन उसके विवाह की तैयारियों में जुटे थे मगर, उसने तो देश को अपना सर्वस्व मान लिया था तो कैसे उनकी बातों में आती इसलिये लेकर भारतीय तिरंगा और अपनी जान हाथ में सबके साथ वो निकल पड़ी थी

जहाँ थाने के प्रभारी ने उनका रास्ता रोका तो ‘कनक’ ने कहा, “हम केवल थाने पर तिरंगा फहराना चाहते हैं और उसके बाद चले जायेंगे” मगर, प्रभारी न माना उसने उनको गोलियों से भूनने की धमकी दी पर, हौंसलों से बुलंद इरादे कब टले तो न मानी उनकी बात आगे बढ़ चले उन्हें कब परवाह थी मरने की तो ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ और करेंगे या मरेंगे कहते हुये वे आगे बढ़ते गये तब हारकर पुलिस ने गोलियां चला दी जिसमें सबसे पहली गोली उस सुकुमार बाला के सीने पर लगी पर, इतने पर भी उसका तिरंगे वाला हाथ उपर ही रहा जिसने बाकियों को भी जोश दिलाया गोलों खाकर लोग गिरते रहे झंडा पकड़कर अगले आगे बढ़ते रहे अंततः सफल हुये उनकी इस वीरता ने ही उन्हें ‘असम की लक्ष्मीबाई’ बना दिया था

आज उनके उस बलिदान दिवस पर उनको नम आँखों से शत-शत नमन... वंदे मातरम... जय हिंद... जय भारत... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२० सितंबर २०१८

बुधवार, 19 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६० : #सरंक्षण (किसका ज्यादा जरूरी है???)




गंगा के पाट की तरह
सिकुड़ती जा रही है मानवीयता
लुप्तप्राय होने की कगार पर
जैसे सरस्वती की तरह
दिखाई देती संवेदना भी कम
यमुना की तरह दूषित होती जा रही
मन की भावनाएँ भी सारी
कौन बचायेगा इन्हें?
करेगा सफाई इनकी कौन??
तारेगा कौन इन्हें
जो तारती थी सबको कभी
नदियां तो हो ही जायेंगी साफ कभी
मानसिकता जो गंदी हो गई
उनका उद्धार होगा कैसे???

इस कलियुग में
प्रकृति को बचाने से भी
ज्यादा जरूरी है...
विलुप्त होती जा रही
मानवीय संवेदनाओं का सरंक्षण ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१९ सितंबर २०१८