शुक्रवार, 30 जून 2017

सुर-२०१७-१८० : “लीक से हटकर...” !!!


मुश्किल था बहुत
ये तय कर पाना कि
जो राह चुनी मैंने
वो सबसे जुदा हैं तो
किस तरह से
इस पर चलना हो सकेगा
रजामंद नहीं था कोई
कि एक राजकुमार
सन्यासी का चोला धारण कर
हर सुख और ऐशो-आराम त्याग दे
फिर भी जाना तो था ही
तो रुकता किस तरह
निकल पड़ा उस
काली अंधियारी रात में
सबको सोता छोड़
कि लीक से हटकर काम करना
सदैव कठिन होता
लेकिन जिसने ठान लिया
फिर उसको कुछ भी कभी
असंभव नहीं लगता ।।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३० जून २०१७

गुरुवार, 29 जून 2017

सुर-२०१७-१७९ : साहित्यिक आत्मावलोकन : “मैं क्यों लिखता / लिखती हूँ???”


ये एक ऐसा प्रश्न जो किसी कंकर की भांति हमारे जेहन के शांत समंदर में विचारों की लहरें उत्पन्न कर अनेक नवीन प्रश्नों को भी जन्म देता और हमें सोचने बोले तो खुद का आत्मावलोकन करने विवश करता कि हम सब जो नित्य इस पटल पर या डायरी में या कहीं पर भी पद्य / गद्य  सृजन कर रहे हैं तो आखिर उसका प्रयोजन क्या हैं ? क्या ये स्वांत सुखाय हैं या परिजन हिताय ?? क्या ये देश-समाज में कोई परिवर्तन लाने में सहायक सिद्ध होगा या इनबॉक्स और सोशल मीडिया या फिर किताब के पन्नों पर ही सड़ता रह जायेगा ???

वाकई जब तक हमें अपने लिखने का कारण न पता हो वो लेखन भले ही रुचिकर हो या चार लोगों को भी भाता हो लेकिन अपने गंतव्य को नहीं पा सकता क्योंकि उसे रचते समय ये विचार नहीं किया गया कि इससे क्या बदलाव या प्रभाव पड़ सकता जिस तरह कि 'ऋषि वाल्मीकि' ने 'रामायण' तो 'वेद व्यास' ने 'महाभारत' और 'तुलसीदास' ने 'श्रीरामचरितमानस' रचते समय आने वाले कल को बीते कल की धरोहर सौंपने के साथ-साथ ये भी ध्यान रखा कि इन कथाओं से लोग संस्कार, आदर्श, चरित्र, नैतिकता, धर्म और अधर्म को जान खुद में परिवर्तन कर एक नया कीर्तिमान स्थापित कर सके तभी वे महाग्रंथ भले ही धर्मग्रंथ की तरह पूजे जाते हो मगर, वास्तव में काव्य एवं ज्ञान का अद्भुत भंडार हैं जिनसे हमें जीवन के अनेकानेक सबक प्राप्त होते हैं ।

इसी तरह 'कौटिल्य' का 'अर्थशास्त्र' हो या फिर 'विष्णु शर्मा' रचित 'पंचतंत्र' या फिर 'महात्मा गांधीजी' द्वारा लिखित उनकी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' या 'श्री जवाहरलाल नेहरू जी' की लिखी 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' या 'डॉ. भीमराव आंबेडकर' की 'संविधान' पर लिखी गयी पुस्तक हो ये सब एक तरह के आध्यात्मिक, राजनैतिक और ऐतिहासिक दस्तावेज हैं जिनसे हमें महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल होती तो इस तरह का लेखन जब भी किया जाता वो शाश्वत होता युगों-युगों तक पढ़ा जाता ।

इसके अलावा यदि हम साहित्यिक क्षेत्र में नजर डाले तो 'कालिदास', 'सूरदास', 'कबीर', 'रसख़ान', 'अमीर खुसरो', 'रविंद्रनाथ टैगोर',  'बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय',  'जयशंकर प्रसाद', 'हरिशंकर परसाई', 'महादेवी वर्मा', 'भगवती चरण वर्मा', 'अमृता प्रीतम', 'आचार्य चतुरसेन', 'डॉ शिवमंगल सिंह सुमन', 'मैथिलीशरण गुप्त', 'मुक्तिबोध', 'अज्ञेय', 'निराला', 'डॉ हरिवंशराय बच्चन', 'सुमित्रानन्दन पंत', 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'नरेंद्र कोहली' आदि ये फेहरिश्त तो बहुत लंबी हैं और ये सिर्फ़ नाम नहीं बल्कि लेखन के सशक्त अमिट हस्ताक्षर हैं जिन्होंने न सिर्फ साहित्य को समृद्ध किया बल्कि अपनी कलम से एक नूतन क्रांति की मशाल भी जलाई जो अब तक उसी तरह अपनी रौशनी से नये आने वालों को राह दिखा रही हैं ।

ये जो चंद नाम हैं अपनी-अपनी विधा व अलग शैली के पुरोधा हैं जिन्होंने अपने शब्दों से ही कभी हथियार का काम लिया तो कभी उनको पारसमणि सदृश बना पाठक को अकिंचन से कुंदन बना दिया याने कि अक्षरों में ही ऐसा जादू कि पढ़ने वाला उससे प्रभावित हो सकारात्मक रूप से परिवर्तित हो गया ।

ऐसे में ये मंथन जरूरी कि हम इनके बीच कहाँ हैं ???

हर एक रचनाकार के लिये ये जरूरी कि वो स्वयं का आकलन करें अपने लेखन को सार्थकता की कसौटी पर कसकर उसका मूल्यांकन करें कि जो भी उसने लिखा क्या वो जनहित में अपना योगदान देगा या फिर यूँ ही अनगिनत तथाकथित कुकुरमुत्ते की तरह दिनों-दिन उग रहे रचनाकारों के बीच केवल एक संख्या में बढ़ोतरी करेगा । जब तक वो अपनी कलम से उद्देश्यपूर्ण लोकहिताय सृजन न करें तो वो सिर्फ़ आत्मसंतुष्टि या खानापूर्ति हेतु किया गया लेखन कहलायेगा जिसका फिर प्रकाशन करना या करवाना महज़ कागजों की बर्बादी कहलायेगा इस वजह से हमने भी पिछले साल से कुछ भी प्रकाशन हेतु नहीं दिया क्योंकि काफी दिनों से ऐसा कुछ लिखा नहीं जिससे किसी का भला हो तो इस तरह के लेखन हेतु सोशल मीडिया पर्याप्त जो हमारे भीतर के भावों को प्रकट करने मंच मुहैया कराता ।

हो सकता इन्हीं माध्यमों में लिखते-लिखते हमारी कलम और सोच में परिपक्वता आ जाये और हम कोई विलक्षण सृजन कर पाये अतः लिखना छोड़ना तो कोई विकल्प नहीं बल्कि खुद में सुधार लाना अच्छे साहित्यकारों को पढ़ना जरूर हमें कोई दिशा दे सकता हैं तो सभी लोग लिखते रहे उससे ज्यादा पढ़ते रहे और हाँ प्रतिदिन कुछ समय निकाल ये जरूर सोचे कि उनका सृजन सार्थक हैं या निरर्थक या व्यर्थ या फिर खुदगर्ज । इतना ही कर लिया तो निश्चित ही किसी दिन भटकते-भटकते ही सही ठिकाना मिल जायेगा क्योंकि न लिखने से कोई हल न मिलेगा लेकिन लिखना जरूर यदि आपके भीतर ललक और जज्बा हैं तो एक दिन अपनी मंज़िल तलाश लेगा फिर भी यदि लगता कि हम उतना बेहतर या अच्छा या नया नहीं लिख पा रहे जो हमसे पूर्व के लेखक लिख चुके तो निसंदेह फिर उनको ही साँझा करें ।

यदि हम साहित्यिक दुनिया में कहीं नहीं भी हैं तो अब भी समय कि यदि हमने लेखन को ही अपना कर्मक्षेत्र माना तो कुछ ऐसा लिखे कि वो इतिहास भले न बने पर, जनमानस में गहरे पैठ जाये कि नाम लेते ही कृति आँखों में उभर जाये जैसे कि 'धर्मवीर भारती' की 'गुनाहों का देवता' महज़ रूमानी उपन्यास लेकिन आज भी उसका जलवा बरकरार इसी तरह 'चंद्रधर शर्मा गुलेरी' के बारे में कहा जाता कि उन्होंने सिर्फ़ तीन कहानियाँ लिखी लेकिन अपना नाम अमर कर गये उनकी लिखी 'उसने कहा था' एक कालजयी रचना जो अब तक भी पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती कहने का मतलब कि भले कम लिखो या जरूरी नहीं कि वो देश या समाज में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन लाये लेकिन ऐसा हो कि वो पढ़ने वालों के दिल-दिमाग पर ऐसा छाये कि फिर पाठक उसे कभी भूल न पाये तो समझो आपकी कलम अपना लक्ष्य पा गयी ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ जून २०१७

बुधवार, 28 जून 2017

सुर-२०१७-१७८ : काव्यकथा : “खुबसूरती नहीं, योग्यता मेरी पहचान...!!!”


न जाने क्यूँ ?

‘बीमा कंपनी’ का काम
मुझे सुहाता न था
रोज-रोज लोगों से मिलना
उन्हें ‘पालिसी’ के बारे में बताना
‘प्लान’ के लिये राजी करना
याने कि एक ही बात को
बार-बार और लगातार दोहराना
मुझे पसंद न था

या तो मैं एक बहु थी
या फिर मैं एक छोटे शहर में रहती थी
पता नहीं क्या इसकी वजह थी?
लेकिन, अब मुझे ये काम नहीं करना
ये मैंने सोच लिया था

दूसरे दिन जाकर,
अपनी कंपनी के मैनेजर से बोली,
“श्रीमान मुझे माफ़ कीजिये
और इस नौकरी से मुक्त कर दीजिये”

सुनकर मेरी ये बात
मैनेजर कुछ मुस्कुराया
और फिर मुझे यूँ समझाया-
“आप तो इतनी प्यारी
इतनी मासूम नजर आती हो
अपने रूप-सौंदर्य ही क्या
मीठी बातों से भी सामने वाले पर
एक सम्मोहन करती हो
तो फिर क्यों इस छोड़ना चाहती हो?”

सुनकर उनकी ये बात,
मन जो कुछ धुंध थी वो भी
एकाएक छंट गयी
सारी तस्वीर जेहन में साफ हो गयी
कि क्यों मेरे बार-बार मना करने पर भी
अच्छा परिणाम न देने पर भी
उन्होंने मुझे अब तक निकाला नहीं
तब तिमिलाकर मैं उठी और हाथ जोड़कर बोली,
“मैं ये काम अपनी खुबसूरती या  
लुभावनी बातों से नहीं
कंपनी की शर्तों और स्कीम के अनुसार
जैसा बताया गया करती थी
तब आपकी इस सोच से परिचित न थी
इसलिये नौकरी छोड़ने से पहले बता देती हूँ
खुबसूरती नहीं योग्यता मेरी पहचान हैं
ये महज़ दिखावा नहीं मेरा स्वाभिमान हैं”
   
जानती थी कि नारी की सुंदरता
उसकी अदाओं और मनमोहक बातों से
अपने उत्पाद बेचने वाले व्यापारी
इन बातों का मर्म न समझेंगे कभी मगर,
ख़ुशी थी कि मैं उस अभियान का हिस्सा नहीं

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ जून २०१७

मंगलवार, 27 जून 2017

सुर-२०१७-१७७ : प्रेम करते दो, फिर निर्णय एक का क्यों ???


प्रेमी :
आय लव यू

प्रेमिका :
आय लव यू टू

चाहे प्रेमी इज़हार करे या प्रेमिका लेकिन ये तो तय हैं कि दोनों के ऐसा कहने के बाद ही वो ‘प्यार’ संपूर्ण होता हैं याने कि किसी एक के कहने या सोचने मात्र से कुछ नहीं होता जब तक कि दूसरा उस प्रेम निवेदन पर अपनी स्वीकृति की मोहर नहीं लगाता लेकिन जब किसी भी वजह से इसी प्रेम को खत्म करने का निर्णय लिया जाता तो अमूमन वो इकतरफा ही होता जिसमें अगले की मंजूरी की आवश्यकता न के बराबर रह जाती क्योंकि जिसे इस संबंध को आगे निभाने में किसी तरह की समस्या आती या किसी भी अन्य वजह से वो अब इस सिलसिले को जारी नहीं रखना चाहता तो उस स्थिति में कभी तो कहकर तो कभी किसी संदेश के माध्यम से और कभी-कभी तो बेरुखी से इसे ज़ाहिर किया जाता तब वो ये नहीं समझता कि जिस तरह दो के इकरार करने से ही ‘प्यार’ पूर्ण हुआ था तब केवल किसी एक के फैसले से वो समाप्त किस तरह हो सकता ? क्या अगले की इच्छा अब कोई  मायने नहीं रखती या सिर्फ़ अपने स्वार्थ से मतलब दूसरे की जान जाये या दुखों का पहाड़ टूटे हमें क्या ???

ऐसे अनगिनत प्रश्न उभरते जब किसी भी दो जीवन का फ़ैसला केवल किसी एक के द्वारा लिया जाता जिसमें इजहारे इश्क़ के समय तो सामने वाले का मंतव्य सर्वोपरि होता लेकिन रिश्ता तोड़ते समय अकेले एक के ही निर्णय को तवज्जो दी जाती चाहे फिर पृथक हुआ हिस्सा चीखता-चिल्लाता रहे या सवाल पर सवाल करते रहे लेकिन उससे विलग होने वाले धड़े को कोई फर्क नहीं पड़ता और न ही उसकी तड़फ या दर्द से ही उसके दिल में कोई तकलीफ़ होती जबकि उसके पहले तक तो किसी एक के सांस लेने या न लेने तक से दूसरे की जान पर बन आती थी तो फिर अलगाव के फैसले से एकदम से ऐसा क्या हो जाता कि कभी जिसकी आँखों में आंसूओं की नमी की कल्पना मात्र से दिल दहल जाता था अब उसकी तकलीफ़, उसके जार-जार रोने का भी कोई असर नहीं होता तो ऐसे में यही ख्याल आता कि सच क्या था वो जो इसके पहले महसूस किया या फिर जो अब सहना पड़ रहा और यदि वो सच था तो फिर ये झूठ होगा और यदि ये सच हैं तो फिर वो झूठ होगा मगर, अफ़सोस कि दोनों ही ‘सत्य’ लेकिन समझ नहीं आता कि किस तरह समय के रुख ने उनके अर्थ बदल दिये ऐसे में जो बेहद संवेदनशील और भावुक वे इस तरह की पीड़ादायक परिस्थितियों से सामंजस्य नहीं बिठा पाते और या तो पागल या मनोरोगी या फिर आत्महत्या का शिकार हो जाते क्योंकि एकाकी हो जाने के बाद वो अकेले-अकेले ही उन बीते दिनों की बातों को याद करते रहते और खुद से ही सवाल करते रहते कि उनके मन में जो भी प्रश्न उमड़ते-घुमड़ते उनका वाज़िब जवाब देने के लिये वो शख्स हाज़िर नहीं होता जिसके पास ये होते और यदि ऐसे में उस दुखी हृदय को समझने या समझाने वाला कोई हितैषी या शुभचिंतक भी साथ न हो तो फिर उसका संभल पाना लगभग नामुमकिन होता

‘प्रेम’ की ये सबसे जटिल और असहनीय अवस्था होती और जिस किसी को भी इन्हें एकाकी झेलना पड़ता वही जान सकता कि इन आत्मघाती हालातों से किस तरह वे खुद को बचाये कि वेदना की इस घड़ी में जिसने हमेशा साथ देने का वादा किया था वही इनका जिम्मेदार भी तो ऐसे में जबकि जिसने आपको सुख ही सुख देने का वचन दिया हो वही दुःख ही दुःख दे तो फिर शिकवा और शिकायत किससे करे ? सिवाय इसके कुछ भी शेष नहीं कि खुद ही खुद से बात करें और खुद ही जवाब भी दे... दीवारों से सर टकराते फिरे... या दर्द के इन तूफानों को पार कर इतना मजबूत बने कि फिर कोई दुबारा ऐसा न कर सके... :) :) :) !!!                     
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२८ जून २०१७

सोमवार, 26 जून 2017

सुर-२०१७-१७६ : अंतर्राष्ट्रीय नशा निरोधक दिवस का ऐलान... नशामुक्त बने देश, हो जागरूक हर नवजवान...!!!


२६ जून का महत्व इसलिये भी बढ़ जाता हैं कि इस दिन को 'अंतर्राष्ट्रीय नशा निरोधक दिवस' घोषित किया गया हैं जिससे कि वो युवा पीढ़ी और प्रत्येक देश के भावी कर्णधार जिन पर कि अपने देश का भविष्य निर्भर करता अपने कर्तव्य को समझे और अपने जीवन को नशे की आदत के गुलाम बनकर न बर्बाद कर दे जिस तरह से ये समस्त विश्व के युवाओं को अपने शिंकजे में ले रहा वो बेहद चिंताजनक क्योंकि यही तो सितारे जिन्हें आने वाले समय में चाँद बनकर आसमान पर चमकना हैं लेकिन वे तो नशे की गिरफ़्त में धरती पर पड़े धूल चाट रहे जबकि कहाँ तो उन्हें अपने इस दुश्मन का बेड़ा गर्क करना चाहिये था और कहाँ वे खुद ही सबसे बेख़बर न जाने किस दुनिया की सैर कर रहे ये जाने बिना कि इस वक़्त इस देश को उनकी कितनी जरूरत पर, उन्हें तो इंद्रिय सुख के आगे कुछ भी नजर न आता एक कश, एक जाम और एक सुई के आगे वे अपना सारा जीवन और जवानी बर्बाद करने तैयार उसकी इस व्यापक घेराबंदी को देखते हुए ही इस दिन को विश्वस्तर पर मनाया जाने लगा कि वे जो खुद नासमझ बने उन्हें ये अहसास दिलाया जाये कि 'नशा' महज़ 'नाश' जो कभी किसी का भला नहीं कर सकता और जिसे वे शुरुआत में तो शौक के तौर पर अपनाते वही उनके घर पर शोक की वजह बन जाता ।

‘नशे’ की ये आदत कब जानलेवा बन जाती ये उनको ही समझ नहीं आता कि सिर्फ़ मजाक-मजाक और जिज्ञासा से शुरू हुआ सिलसिला एक दिन ‘लत’ बन जाता फिर जिसके आगे न तो कुछ समझ आता और न ही वो स्थिति ही बचती कि समझकर खुद को संभाल सके तो अंतत वही अंत होता जो सबका एक दिन होना ही पर, जिस तरह से होता वो अत्यंत दुखदायी जो उससे जुड़े हर रिश्ते को गम के सागर में डूबा देता फिर भी दूसरों का ये अंजाम देखकर भी कोई भी नशे का अभ्यस्त इससे सबक नहीं लेता । दिनों-दिन जिस तरह से इस आंकड़े में बढ़ोतरी हो रही ये बेहद चिंताजनक कि इसके शिकार सर्वाधिक कमउम्र अल्प-व्यस्क होते जो अपना भला-बुरा नहीं समझते केवल दिखावे की दौड़ में खुद को दूसरों की तरह दर्शाने किसी भी हद तक जाने तैयार होते फिर चाहे वो ‘नशा’ किसी व्यसन का हो या फिर किसी से आगे बढ़ने का या किसी को नीचा दिखाने का या फिर ब्रांडेड कपड़े या लेटेस्ट गेजेट्स खरीदने का वो उसमें इस तरह से लिप्त कि उसे ही नहीं खबर कि वो ‘नशे में हैं’ । आप चाहे जिस तरफ नजर डाले आपको ऐसे अनगिनत नवजवान ‘नशेलची’ दिखाई दे जायेंगे जिनको किसी न किसी तरह का नशा जिसमें कोई भी शय शामिल हो सकती जरूरी नहीं कि वो मादक पदार्थ ही हो अब तो तकनीकी युग में इस नशे के प्रकारों में भी लगातार इज़ाफा हो रहा जिसमें तन-मन-धन से ये युवा वर्ग अपने आपको खपा रहे और वो ऊर्जा या ज्ञान जिसे देश के विकास में लगाना चाहिये उसे धुयें और जाम में उड़ा रहे हैं ।

अब तो देश के अति-शिक्षित वर्ग को एक नये ‘उन्माद’ ने अपने जाल में फंसाया हैं जिसकी वजह से यूँ लगता कि बहुत जल्द ही देश में ‘गृह-युद्ध’ की स्थिति बन सकती क्योंकि ‘इंटरनेट’ व ‘सोशल मीडिया’ जैसे साधनों ने उनको अपने इस नशे के भंवर में अपने जैसे दूसरे पढ़े-लिखे युवाओं को भी बड़ी आसानी से फंसाने के सहज-सरल माध्यम प्रदान कर दिये हैं जिनका उपयोग कर के अब वे दूर-दराज के इलाकों तक इसका प्रचार कर अन्य मजहब के लोगों की संवेदनशील भावनाओं को भड़का रहे । जी हाँ सही समझे ये नया नशा ‘मज़हबी नफ़रत फ़ैलाने का हैं’ जिसमें किसी एक धर्म को मानने वाले किसी दूसरे संप्रदाय के अनुयायी लोगों की दुखती रग पर हाथ रखते और जब वो तिलमिला कर उनकी किसी कमजोर कड़ी पर वार करता तो फिर वे दुगुने जोश में आकर कोई नया शिगुफ़ा छोड़ते और इस तरह से ‘सोशल मीडिया’ पर इनका आरोप-प्रत्यारोप का दौर चालू हो जाता जो ये साबित करता कि ये भी एक तरह का नशा ही हैं । किसी भी देश में विशेष रूप से जब वो धर्म-निरपेक्ष व सर्वधर्म समभाव पर विश्वास करने वाला हो इस तरह का ‘नशा’ सिर्फ किसी विशेष व्यक्ति या समूह ही नहीं बल्कि पूरी की पूरी कौम को ही नष्ट करने वाला परमाणु हथियार सिद्ध हो सकता तो जरूरी कि सबसे पहले इसकी रोक-थाम की व्यापक व्यवस्था की जाये अन्यथा परिणाम की हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि इस तरह के नशे का इलाज़ लगभग असंभव केवल सोच व दृष्टिकोण से ही इसे बदला जा सकता जो हर कोई नहीं कर सकता वो तो भीतर से ही पैदा होना चाहिये क्योंकि हर घर व स्कूल में बच्चों को बचपन से ही हर धर्म का सम्मान करना सिखाया जाता फिर भी न जाने कहाँ से वो ये सीख जाता तो इसका मतलब गड़बड़ कहीं आंतरिक ही हैं फिर बाहरी उपचार से कुछ भी न होगा ।

आज ‘अंतर्राष्ट्रीय नशा निरोधक दिवस’ पर यही कहना हैं कि ‘नशा’ चाहे जो भी हो बुरा हैं उससे निज़ात पाना ही एकमात्र उपाय जिसके लिये जागरूकता जरूरी और यही इस दिवस का उद्देश्य भी तो हम सबको अपने-अपने नशे को पहचानकर उससे मुक्ति पानी होगी तभी इस दिवस की सार्थकता होगी... :) :) :) !!!
       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२६ जून २०१७