सोमवार, 30 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२१० : #आया_सावन_सोमवार #शिव_अभिषेक_करती_बरसात





हिंदू धर्म ने बारह महीनों को किसी न किसी खूबी से नवाजा है परंतु, इसके बावजूद भी कुछ महीने बेहद खास होते जिनकी महिमा विस्तृत तरीके से बखान की हैं । जिसमें 'श्रावण मास' भी एक हैं जिंसके तीसों दिन आदिदेव महादेव को समर्पित है जो औघड़ दानी और आशुतोष कहलाते केवल बेलपत्र चढ़ाने मात्र से प्रसन्न हो जाते और अपने भक्त को मनचाहा वरदान देते इसलिये तो सब इसका इंतजार करते है । इस महीने में पड़ने वाले सोमवार की तो अलग ही विशेषताएं बताई गई हैं जिसकी वजह से भक्तगण इस दिन व्रत-उपवास कर उनका अभिषेक पूजन कर आशीर्वाद ग्रहण करते है । इस महीने प्रकृति भी बारिश की मोतियों जैसी बूंदों से निरंतर शिवजी का अभिषेक करती जिससे प्रसन्न होकर वे संपूर्ण सृष्टि को हरा-भरा और उर्वरा होने का वर देते है ।

जिससे कि वो रोपे ये पौधों व बीजों को पकने व फसलों को नये दानों से भरने का आशीष प्रदान करे जिन्हें खाकर सभी संतुष्ट रहे और अपनी धरती माता के इस अहसान के बदले उसकी सेवा का वर ले जिससे कि किसान भी खुश होकर कृषि करते न कि उदास या परेशान होकर अपनी जमीन बेचने या आत्महत्या को मजबूर हो और दोष ईश्वर को दिया जाये । धीरे-धीरे मगर, एक तबका जो हिंदू धर्म के खिलाफ वो इसकी हर एक परंपरा में ढोंग या दिखावे का नाम देकर उसके विरुद्ध कोई न कोई मुहिम छेड़ देता कभी ईश्वर को लताड़ता तो कभी इसके रीति-रिवाजों पर उंगली उठाता पर, कभी इसकी गहराई में जाकर इसके उद्देश्य को समझने का प्रयास नहीं करता अन्यथा जानता कि हर एक रवायत के पीछे बड़ा ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण, भविष्य के प्रति अनोखी दूरदर्शिता और जनहित में कमाल का नजरिया है ।

शिव उपासना में ऐसी कोई भी सामग्री या वस्तु का उपयोग नहीं किया जाता जो दुर्लभ हो बल्कि, सहज व सरल तरीके से उपलब्ध वस्तुएं उनको समर्पित की जाती हैं । उनमें भी ज्यादातर वे होती जिन्हें लोग जंगली या त्याज्य समझते तो उनके महत्व को उजागर करने भगवान भोलेनाथ की पूजा में इन्ही चीजों का प्रयोग किया जाता फिर चाहे वो बेल पत्र हो या शमी की पत्तियां या फिर अकौआ का फूल या फल या केवल जल चूंकि पहले दूध, घी, शहद, शक्कर सब बड़ी आसानी से ही नहीं बहुल मात्रा में पैदा होता तो लोग वही उनको अर्पित करते थे । समय के साथ चोर बाजारी, घूसखोरी, मिलावट, कृषि के प्रति उदासीनता होने से सभी सामग्रियों के उत्पादन में कमी आई तो लोग इनका इस्तेमाल न करने की सलाह देने लगे जबकि, पंचगव्य का उपयोग केवल उपलब्धता पर निर्भर यदि कमी तो कोई बाध्यता नहीं और यदि संभव तो किया जा सकता अन्यथा केवल श्रद्धा-भक्ति दरकार जिनके बिना महंगी से महंगी और दुर्लभ वस्तु भी बेमोल हैं नहीं तो सिर्फ एक मंत्र भी अनमोल हैं ।

वैसे भी इन दिनों मानसिक या पार्थिव पूजन का विशेष उल्लेख जिसके जरिये हम इस बदलते मौसम के साथ कदमताल कर सके और कमजोर होते अपने शरीर को इस पावन महीने में यम, नियम, संयम के पालन से पुनः नूतन ऊर्जा से भरकर रिचार्ज कर ले जिस तरह रोज दिन में न जाने कितने बार अपने मोबाइल को करते है । सामान्यतः देखा जाता कि जब व्यक्ति खुद किसी कठोर दिनचर्या या अनुशासन को अपने जीवन में स्वयं उतार नहीं पाता तो वो दूसरों को ऐसा करते देख हीन-भावना से भर जाता तब ऐसे में उसके विपरीत बातें कहने लगता जैसा कि आजकल के अधिकांश लोग कर रहे पर, जिनके भीतर पुराने संस्कार गहरे तक जड़ जमाकर बैठे उन्हें इन बातों से तनिक भी फर्क नहीं पड़ता वे यथावत अपनी परंपराओं का विधिवत पालन करते जिसे देख ये इतने तिलमिला जाते कि धर्म के मर्म पर चोट करते जिसे हर हिंदू अपने सहिष्णु स्वभाव के चलते सहता रहता मगर, सिर्फ श्रीकृष्ण की भांति इन शिशुपालों के सिर्फ 100 अपराध तक चुप रहता फिर इनकी ही भाषा में इनके ही तरीके से शब्द बाण चलाकर इनका संहार कर देता हैं । ये राक्षस या अधर्मी लोग भी कुम्भकर्ण की तरह जागते और चालू हो जाते जिनका जवाब यही हैं कि हम अपनी जड़ों से दूर हुये बिना अपना काम करते रहे... ॐ नमः शिवाय...☺ ☺ ☺ !!!

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
३० जुलाई २०१८

रविवार, 29 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०९ : #मन_मनचला_माने_न




न जाने
कैसा हैं वो
जिसे 'मन' कहते हैं
किसी मदारी जैसा शायद,
चलाये जो हमको
अपने इशारों पर हमेशा
या चित्रकार-सा
जिसकी इच्छा बिना नहीं
संवर सकता अक्स हमारा कभी
या फिर कोई नजूमी
जिसकी मर्जी से ही चलते
ग्रह-नक्षत्र हमारे
न जाने कौन हैं वो अदृश्य
जो बिना डोर के ही
कठपुतली जैसा हमें नचाता
मालिक नहीं फिर भी वो
अपना हुकुम चलाता
हम गुलाम की तरह बेबस
उसका आदेश मानते
इसे जीतना मुश्किल नहीं
फिर भी हारना चाहते
क्योंकि, अपनी मनमानी का हम
उस पर दोषारोपण कर
खुद पर कोई इल्जाम न चाहते
इसलिये जब न मिले कोई बहाना
या न हो कोई वजह दूसरी
मन को निशाना बना यही कहते,
मन, मनचला माने न...!!!

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२९ जुलाई २०१८

शनिवार, 28 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०८ : #विश्व_प्रकृति_सरंक्षण_दिवस #जीवन_को_बचाने_करता_सचेत



ये चंद दृश्य जिनमें से कुछ धीरे-धीरे लुप्त हो गये तो कुछ होने की कगार पर...

बच्चे तितलियों के पीछे नहीं भागते और न ही पंछियों की तरह ही मैदान में दौड़ते या फिर जुगनुओं को पकड़ते 

पहले पंगतों में पत्तल में भोजन परोसा जाता था और चाट की दुकान वाले भी पत्ते या उससे बने दोने का उपयोग करते थे

घरों में आने वाल सामान कागज से बने पैकेट्स या पूड़े में भरकर आता था और ज्यादा हुआ तो कपड़े की थैलियाँ प्रयोग में आती थी

घरों में एक छोटी-सी बगिया जरूरी होती थी जिसमें जरूरत के फल-फूल-बेल के अलावा तुलसी-नीम व उपयोगी पौधे लगाये जाते और सब्जियां भी उगाई जाती थी    

प्रकृति के बीच रहकर तरह-तरह के पर्व-उत्सव मनाये जाते जैसे आंवला नवमी. वट सावित्री, तुलसी विवाह, हरतालिका तीज, सूर्य पूजा आदि     

सावन आता तो पेड़ों पर झूले लटकाए जाते और तरह-तरह के गीत गाये जाते  

आजकल तो एक ट्रेंड जोरों पर हैं जो भी हिंदू धर्मकी खिंचाई करो और उसके सभी धार्मिक आयोजनों पर प्रश्नचिन्ह लगाओ जिसका सभी तथाकथित बुद्धिजीवी और धर्म विरोधी बड़े जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करते जिनमें से कुछ को तो ये सब कहने या लिखने का बड़ा अमाउंट भी मिलता पर, दूसरे खुद को इनकी श्रेणी में रखने इसी तरह की पोस्ट्स लिखते जिनका एकमात्र मकसद किसी भी तरह से ‘हिंदुओं’ को शर्मिंदा करना ताकि वो अपनी प्रथाओं, अपनी परम्पराओं व अपने रीति-रिवाजों से दूर हो सके जिसमें कुछ अंश तक वे काम्याब भी हो रहे क्योंकि आज की पीढ़ी का ज्ञान उथला व बुनियाद बेहद कमजोर यहाँ तक कि खुद से ही अनभिज्ञ पर, जो इनके शातिरपने को समझ रहे वे न तो इनके बहकावे में आ रहे न ही इनकी साजिशें सफल होने दे रहे बल्कि, जितना हो रहा इन सफेद नकाबपोशों को उजागर कर रहे जिससे कि सनातन धर्म ही नहीं ये पृथ्वी भी बची रहे

अगर आप सोच रहे है कि सनातन हिंदू धर्म ‘पृथ्वी’ व ‘प्रकृति’ को बचाने में सहायक नहीं बल्कि, हिंदू धर्मावलंबियो की कोरी मान्यता हैं तो आप बहुत बड़ी भूल कर रहे क्योंकि, उपर जिन दृश्यों का उल्लेख किया गया वे सब वेद-शास्त्रों में वर्णित परंपराओं के सस्त निर्वहन की वजह से ही प्रचलित रहे परंतु, लोगों को शिक्षित व आधुनिक होते ही अपनी जड़ें व जन्मभूमि ही तुच्छ नजर आने लगती और सभी कर्मकांड खोखले आदर्श या बेवजह समय की बर्बादी लगती जिसका खामियाजा आज हम इस तरह भुगत रहे कि प्रकृति से दूर होकर कृत्रिमता के निकट आते जा रहे और तरह-तरह की बीमारियों का शिकार होकर असमय ही मृत्यु का ग्रास बन रहे जबकि, हमारे पूर्वज इन्हीं जीवन मन्त्रों को अपनाकर शतायु व निरोगी रहते थे वे जानते थे कि उनके पूर्वजों ने जो नियम बनाये वे बेहद सोच समझकर बनाये जिन पर सवाल उठाये बिना उनका पालन करना ही हमारा धर्म है   

हमारे ऋषि-मुनियों ने बिना किस उपकरण के जो खोजें की वो लोग आज विज्ञान की मदद से भी नहीं कर पा रहे और जो अत्याधुनिक तकनीकों से जो नतीजे समाने आ भी रहे तो पता चलता कि वे तो पहले से ही हमारे ग्रन्थों में मौजूद है ये और बात कि उन्हीं किताबों को जलाने की कोशिशें की जा रहे पर, उन्होंने स्वस्थ दीर्घायु जीवन के लिये जो भी लिखा वो उनके गहन शोध का नतीजा है जिसे उन्होंने प्रकृति की प्रयोगशाला में स्वयं पर परिक्षण कर के जाना इसलिये उस पर शंका करना अपने ही पूर्वजों पर ऊँगली उठाना हैं उन्होंने प्रकृति व मनुष्य के सह-जीवन को लंबे समय तक अनवरत चलाने के लिये छोटे-छोटे पर्वों की परंपरा बनाई और आप देखेंगे कि जितने भी व्रत-उत्सव सबमें मानव को कुदरत से जोड़ा है ताकि, धर्म के भय से ही सही वो इसका सरंक्षण करे जब तक इंसान उसका अनुशरण कर रहे तब तक ही वे बचेंगे नहीं तो एक दिन डायनासोर की तरह विलुप्त प्राणियों की सूची में अपना नाम लिखवा लेंगे क्योंकि, बिना प्रकृति जीवन संभव ही नहीं     

अपने ऑफिस या घर की आलीशान बिल्डिंग के ए.सी. रूम में बैठकर महंगे से महंगे गेजेट्स पर तड़ातड उँगलियाँ चलाते हाथ कितने आलसी हो चुके हमें अंदाजा ही नहीं और इसकी वजह से हम कितने कृत्रिम बन गये अहसास नहीं पहले, कच्चे घर, आंगन उसमें पेड, हैण्डपंप या कुआं और तरह-तरह के तीज-त्यौहार तन-मन को ऊर्जावान ही नहीं बनाते बल्कि, हमें कुदरत से भी जोडकर रखते पहले घरों में गौरैया के आने-जाने खिड़कियाँ खुली रहती और आंगन में तुलसी का बिरबा घर की शोभा ही नहीं बढ़ता हमें अनेक बीमारियों से भी दूर रखता था पर, अब तो न आंगन बचा, न गौरैया, न ही तुलसी के लिये कोई कोना फिर भी हिन्दू धर्म बुरा है जिसने प्रकृति सरंक्षण का सबक सदियों पहले ही सीख लिया और हम आज ‘विश्व प्रकृति सरंक्षण दिवस’ मनाकर भी ये समझ नहीं पा रहे । ऐसी अनगिनत दूरदर्शिता भरी बातें, जीवन के रहस्यमय सिद्धांत पुरातन ग्रंथों में लिखी जो न जाने कितने सालों बाद हमें कोई बतायेगा तब हम उसे मानेंगे क्योंकि, वेद-पुराण-उपनिषद तो सब बेकार हैं उनको तो जला देना चाहिये जो विदेशी बताये वही सोलह आने खरा है जबकि, यदि हम उसी तरह से जीते आते तो इस दिवस की कोई आवश्यकता ही नहीं होती ।

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२९ जुलाई २०१८

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०७ : #प्रकृति_हर_शय_गुरु #बस_ध्यान_से_सिखाना_करें_शुरू




‘एकलव्य’ की कहानी हम सबने सुनी जिसने अपने गुरु की मूर्ति बनाकर उससे ही धनुर्विद्या सीख ली और ये सिद्ध किया कि यदि कुछ सीखने की सच्ची लगन मन में हो तो फिर मिटटी के बुत से भी सीखा जा सकता है कबीर, तुलसी, सूरदास, मीराबाई जिन्हें आज सर्वश्रेष्ठ शिक्षक माना जाता वे स्वयं किसी विद्यालय में जाकर नहीं पढ़े न ही किसी गुरुकुल में जाकर किसी गुरु से विधिवत शिक्षा ली पर, वे आने वाली पीढियों को इतना कुछ देकर गये जिसकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी चाहे सदी कोई भी हो, चाहे सोच में कितना भी बदलाव क्यों न आ जाये क्योंकि, इन्होने अपने आस-पास के परिवेश, प्राकृतिक वातावरण हर एक चीज़ से कोई न कोई सबक लिया और उन्हें ही अपने काव्य या कथ्य का विषय बनाकर जगत को अनमोल संदेश देकर गये यहाँ तक कि उन्होंने तो इसे कहीं लिखा भी नहीं दूसरों ने उनके बोलों का संकलन कर उसे सहेजकर हमें दिया

ऐसे में ये समझ आता कि ज्ञान तो किसी न किसी रूप में हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा जरूरत केवल उसको पहचानने और ग्रहण करने की है पर, हम ही इतने गाफ़िल की यत्र-तत्र-सर्वत्र सहजता से उपलब्ध इन अनमोल शिक्षाओं को नजरअंदाज करते और जो किताबों से हासिल होता उसे ही मान्यता देते है क्योंकि, उसके अनुसार हमें रोजगार या जीवन चलाने के लिये कोई न कोई नौकरी प्राप्त होती जो हमारे जीवन का आधार है ऐसे में हमारी प्राथमिकतायें बदल जाती और जिस चीज़ से हमें कोई लाभ नहीं या जिसे सीखने से हमें अपने कैरियर में किसी तरह का कोई फायदा समझ नहीं आता उसे हम सीखना ही नहीं चाहते जबकि, जीवन का वास्तविक ज्ञान हमें इन्हीं सबके बीच मिलता न कि पाठ्यपुस्तकों में वे तो महज हमें विषय आधारित ज्ञान देती जो व्यवहारिक रूप में उतना उपयोगी नहीं होता जितना कि व्यवसायिक रूप से होता है  
 
‘वेद व्यास’ जिन्होंने ‘महाभारत’ जैसा विशालतम ग्रंथ लिखा उन्होंने भी प्रकृति से ही सारा ज्ञान प्राप्त किया यही वजह कि पहले गुरुकुल या आश्रम हरे-भरे और खुले प्राकृतिक स्थलों में बनाये जाते थे जहाँ इन्सान पक्षी, जानवर, वनस्पति सबके बीच रहकर सहज तरीके से जो सीखते वो महंगी से महंगी पुस्तकों या आधुनिकतम उपकरणों से सजी प्रयोगशाला में रहकर भी पाया नहीं जा सकता है वेद-शास्त्र ये कहते है कि समस्त प्रकार का ज्ञान वायुमंडल में सूक्ष्म अदृश्य तरंगों के रूप में विद्यमान है और जब हम कुदरत से जुड़ते तो वो सांसों के जरिये हमारे भीतर उतर जाता जिससे हमारे आंतरिक ज्ञान चक्षु खुल जाते और वो रहस्य जिन्हें सुलझाना नामुमकिन बड़ी सरलता से हमें उनका जवाब मिल जाता जिसे पाने के लिये आँखें खोलने नहीं बंद करने की आवश्यकता क्योंकि, वो हमारे भीतर ही मौजूद है आखिर, हम प्रकृति से भिन्न थोड़े उसके ही तो अंग है उसी जल, वायु, आकाश, धरती, अग्नि से ही तो हमारा भी निर्माण हुआ है


आषाढ़ की काली अंधियारी रात में पूर्ण चंद्रमा की उदयकालीन तिथि को ‘गुरु पूर्णिमा’ कहा जाता जो अपने गुरुओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का दिन है और इसमें निहित गूढ़ संदेश यही हैं कि, गुरु भी चाँद की तरह उदित होकर हमारे जीवन के अज्ञान रूपी अंधकार को हर लेते जिससे हमें साफ़-साफ़ दिखाई देने लगता ऐसे गुरुदेव को सादर नमन... जिनके बिना न खुलते हमारे बंद नयन... ☺ ☺ ☺ !!!

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ जुलाई २०१८

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

सुर-२०१८-206 : #कारगिल_विजय_दिवस



चोटी पर चढ़
दुश्मन जा बैठा था
ललकार रहा
मौत को अपनी वो
दुर्गम पहाड़ी
तापमान भी बेहद कम
मुश्किल घड़ी
हैरान सैनिक सभी
क्या करें
क्या नहीं, प्रश्न बड़ा
नजर उठाई तो
सामने शत्रु सीना तान खड़ा  
रणनीति बनाई
भारतीय सेना ने विकट
दूर लगती थी जो
वो मंजिल आई निकट
जंग चली जरुर
लंबी बहुत, घर से दूर
हौंसलों से मगर
हर एक जवान था भरपूर   
वीरता से दिया
दुश्मन को नीचे मार गिरा
‘ऑपरेशन विजय’
लंबे संघर्ष से खत्म हुआ
कारगिल की चोटी   
तिरंगे से सुशोभित हुई
तिथि २६ जुलाई
गौरव गाथा की साक्षी बनी
जिस दिन हमने
‘कारगिल विजय दिवस’ मनाया
आज फिर वो
गौरव का दिवस हैं आया  
देकर बलिदान
चले गये जो हमको छोड़
आज उन सबको  
याद करते हम हाथ जोड़
श्रद्धा भरे सुमन
बलिदानियों को अर्पित करते
हर भारतवासी को
दिल से इस दिन की बधाई देते   

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२६ जुलाई २०१८

बुधवार, 25 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०५ : #लघुकथा_फूलन_देवी_ नहीं





कॉलेज के पहले दिन लौटते ही 'गार्गी' ने अपनी मां से कहा, "मम्मा, आपने इतने देवी-देवताओं के बारे में बताया पर, 'फूलन देवी' के विषय में तो कुछ नहीं बताया कि ये कौन-सी देवी हैं"?

क्यों क्या हुआ कॉलेज से आते ही ये सवाल? माँ ने सवाल के जवाब में प्रतिप्रश्न किया

अरे मां, आज पहला दिन था तो क्लास में मैडम इंट्रोडक्शन ले रही थी और उन्होंने हम सबसे सवाल किया कि आपका आइडियल कौन हैं तब एक लड़की ने उसका नाम लिया लेकिन, मैंने तो ये नाम कभी नहीं सुना बोलो न कौन है ये?

बेटी, ये एक डाकू हैं और मुझे नहीं पता कि एक महिला डाकू के नाम के साथ ये सम्मानित संबोधन किसने जोड़ा पर, इतना जरूर पता कि वो अपना बदला लेने के लिये डाकू बनी और कई निर्दोष लोगों को भी मौत के घाट उतारा वो तो इस देश की घटिया राजनीति जिसने उसको मौत की सजा देने की बजाय संसद में पहुंचा दिया जहां तक मैं जानती हूं उसने ऐसा एक भी काम नहीं किया न ही उसका चरित्र उच्च और न ही उसमें ऐसा कोई भी सद्गुण जिससे उसे ‘देवी’ का दर्जा दिया जाये ।

माँ अपने ही वाल्मिकी की कहानी सुनाई थी जो एक डाकू थे पर, बाद में महर्षि बने तो क्या फिर एक महिला डाकू से ‘देवी’ नहीं बन सकती ?

बेटी, जरुर बन सकती हैं यदि वो पहले से ही वैसी होती जिस तरह कि ‘वाल्मिकी’ प्रारंभ से ही थे और एक घटना से उनका मानस परिवर्तन हुआ तो फिर वे पुर्णतः बदल गये और सत्य की तरफ ऐसे उन्मुख हुये कि कोई उन्हें अपने पथ से डिगा न सका अपने जीवन से उन्होंने एक मिसाल कायम की ये बताया कि हम जन्म से भले कुछ हो पर, ठान ले तो अपना भविष्य संवार सकते हैं । ‘फूलन’ अपने साथ हुये अत्याचार का प्रतिकार लेने डाकू बनी जिसके बाद उसे अपनी राह बदल देनी थी लेकिन, नहीं उसने निरपराधों पर उसी तरह जुल्म ढाये जैसा उसके साथ हुआ और जब अपनी जान का खतरा लगा तो आत्मसमर्पण कर दिया  

मां लेकिन, आप ही तो कहती हो न कि अन्याय के खिलाफ शस्त्र उठाना सही है फिर वो गलत क्यों?

यदि इस नजरिये से देखे तो सभी आतंकवादी, अत्याचारी, अपराधी देवी-देवता की श्रेणी में आ जायेंगे और इस आधार पर तो हमें ‘इंदिरा गाँधी’ और ‘राजीव गाँधी’ के हत्यारों को भी फांसी न चढ़ाकर उनकी पूजा करनी चाहिये बेटी, ‘देवी’ या ‘देवता’ बनना इतना आसान नहीं उसके लिये अपने निज स्वार्थ व सुखों सहित सर्वस्व त्याग अपने आपको देश व जनहित में समर्पित करना पड़ता हैं और फूलन इस कसौटी पर जरा-सी भी खरी नहीं उतरती हैं ।

मम्मा, फिर उस लड़की ने उसे क्यों अपना आदर्श माना?

हो सकता उसे सही जानकारी न हो या फिर उसकी नजरों में यही अच्छाई का पैमाना हो पर, तुम न भूलना कभी ये बात कि, जैसे हमारे आदर्श होंगे वैसा हमारा चरित्र बनेगा आजकल लोगों के आइडियल ऐसे ही लोग इसलिये तो अपराध बढ़ रहे हैं पहले लोग स्वामी विवेकानंद, भगत सिंह, राजा राम मोहन रॉय, रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्या बाई, जीजा बाई, पन्ना धाय, दमयंती, सावित्री, मैत्रेयी आदि को अपना रोल मॉडल समझते तो वैसे ही सच्चरित्र बनते थे पर, आज डाकू को फिर तुम्ही बताओ अपराध कैसे रुकेंगे भला?

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२५ जुलाई २०१८

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०४ : #देश_के_प्रति_मन_में_छिपा_ऐसा_लगाव #जिसने_बना_दिया_उनको_मनोज_से_भारत_कुमार




है प्रीत जहाँ की रीत सदा
मैं गीत वहाँ के गाता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ...

२४ जुलाई १९३७ को एक ब्राह्मण परिवार में ‘हरिकृष्ण गिरी गोस्वामी’ को जन्म पाकिस्तान के अबोटाबाद में हुआ और जन्म के दस साल बाद ही देश आज़ाद हुआ जिसकी वजह से उन्हें अपनी जन्मभूमि को छोड़कर दिल्ली आना पड़ा वहीँ पर १९४९ में उन्होंने अभिनय सम्राट ‘दिलीप कुमार’ की एक फिल्म ‘शबनम’ देखी जिसके बाद वो उनके किरदार व अभिनय से इस कदर प्रभावित हुये कि उन्होंने भी फिल्मों को अपना कैरियर बनाने का ठान लिया जिसके लिये अपने नाम को उसी पात्र के नाम पर रखा जो कि ‘शबनम’ फिल्म में ‘दिलीप साहब’ का था याने कि ‘मनोज कुमार’ और इस तरह से उनके फ़िल्मी पेशे की शुरुआत भी फिल्मों के जरिये ही हुई १९५७ में ‘फैशन’ फिल्म के माध्यम से वे दर्शकों से रूबरू हुये जो यूँ तो अधिक सफल नहीं हुई परंतु, इसके बाद ही १९६० में उन्हें ‘कांच की गुड़िया’ में नायक की भूमिका निभाने का अवसर मिला जिससे उन्हें एक पहचान हासिल हुई

फिर भी ये वो पहचान नहीं थी जिसकी उन्हें तमन्ना थी तो १९६५ में आया वो उल्लेखनीय कालखंड जिसमें ‘भगत सिंह’ के ऐतिहासिक चरित्र को निभाकर वे फ़िल्मी दुनिया के इतिहास में सदा-सदा के लिये अमर हो गये और उनके द्वारा लिखित व अभिनीत इस फिल्म ने नये कीर्तिमान स्थापित किये और इसे देखकर पूर्व प्रधानमंत्री ‘लाल बहादुर शास्त्री’ ने उनको ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे पर एक संदेशप्रद फिल्म बनाने की पेशकश दी तो उनकी बात को सम्मान देते हुये उन्होंने ‘उपकार’ जैसी फिल्म बनाई जिसमें उन्होंने ‘जवान’ व् ‘किसान’ दोनों की भूमिका ही नहीं निभाई बल्कि, निर्देशन की बागडोर भी संभाली जिसका नतीजा कि उन्हें ‘बेस्ट डायरेक्टर’ का फिल्मफेयर अवार्ड हासिल हुआ इस फिल्म में उनके पात्र का नाम ‘भारत’ था तो यहीं से उनके चाहने वाले उन्हें ‘मनोज कुमार’ की जगह ‘भारत कुमार’ पुकारने लगे और उन्होंने भी अपनी लीक को कायम रखते हुये आगे भी इस तरह की देशभक्ति से ओत-प्रोत अर्थपूर्ण फिल्मों का निर्माण जारी रखा

जिसमें ‘क्रांति’, ‘पूरब और पश्चिम’, रोटी, कपड़ा और मकान’, ‘क्लर्क’ आदि प्रमुख हैं उनकी अपनी अदाओं ने भी उन्हें दर्शकों के बीह लोकप्रिय बनाया जिसकी नकल आज भी कई कलाकारों के द्वारा की जाती हैं और उन्होंने अपनी महेनत लगन से वो मुकाम हासिल किया कि उन्हें एक विशेष दर्जे में रखा जाता हैं तथा अपने काम के लिये उन्होंने भारत सरकार से पद्मश्री अवार्ड ही नहीं ‘दादा साहब फाल्के’ सम्मान’ भी प्राप्त किया जो उनके उत्कृष्ट सृजन को दर्शाता हैं आज उनके जन्मदिन पर उनको बहुत-बहुत बधाई... जिनके गीतों बिन अधूरे हमारे राष्ट्रीय पर्व और जिनकी फिल्मों में हमने देशभक्ति की एक अलहदा झलकी पाई... ☺ ☺ ☺ !!!
_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ जुलाई २०१८


सोमवार, 23 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०३ : #बाल_गंगाधर_तिलक_और_चंद्रशेखर_आज़ाद #आओ_मनाये_दोनों_का_जन्मदिन_एक_साथ




इतिहास ही नहीं कैलंडर में भी आज की तारीख का विशेष महत्व हैं क्योंकि, ये वो दिन जब देश के दो महान क्रांतिकारियों का जन्मदिन एक साथ आता हैं और ये दोनों भारतीय इतिहास के इतने महत्वपूर्ण नाम हैं कि इनको भूला पाना नामुमकिन हैं इन्होने तो देश की खातिर अपना तन-मन-धन सब कुछ ही निछावर कर दिया बिना ये सोचे-समझे कि जिस स्वतंत्रता के लिये वे अपने प्राणों का उत्सर्ग कर रहे कल उसका उपभोग वे ही नहीं कर पायेंगे लेकिन, उनका ध्येय तो एकमात्र अपनी भारतमाता और अपनी जन्मभूमि को फिरंगियों के शासन से छुडाना था उनके इस लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में बहुत सारी बाधायें थी फिर भी वे घबराये नहीं अपने अलग-अलग मार्ग से चलकर वो अपनी मजिल तक पहुँचने का प्रयास करते रहे और ये उनके सतत प्रयासों का ही परिणाम था कि अंग्रेज देश छोड़कर जाने को विवश हुये और हमने आज़ादी पाई मगर, जिन्होंने इसे पाने अपनी जिंदगी गंवा दी उनको हम सबने बड़ी जल्दी भूला दिया

देश को स्वाधीन हुये महज़ ७० साल ही बीते जबकि, गुलामी में रहते हुये हमने इससे अधिक बरस बिताये लेकिन, जैसे ही पराधीनता की बेड़ियाँ कटी हमने आज़ाद भारत में आँखें खोली तो समझने लगे कि सदियों से ही ये सब कुछ ऐसा ही था इतिहास में जब इनके किस्से पढ़े तो उसे भी शायद, कहानी ही समझ लिया अन्यथा ये कैसे हो सकता कि फ़िल्मी कलाकारों की आत्मकथा तो लोगों को मुंह-जुबानी याद लेकिन, जब स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों का नाम पूछो तो बगलें झाँकने लगते या वहीं गिने-चुने नाम दोहरा देते उस पर भी उनकी आपबीती से तो नितांत अपरिचित ही समझ आते हैं माना कि बदलते परिवेश में हम अधिक व्यस्त व् सुविधाभोगी हैं और जिस माहौल में हम जन्में हमें मजबूरियों का वो दौर नहीं देखना पड़ा लेकिन, इसका ये मतलब कतई नहीं कि जो हमसे पूर्व जन्मे या जिन्होंने गुलामी की हवा में साँस ली और हमें आज़ाद भारत का तोहफा दिया हम उनके प्रति कृतध्न हो जाये ये सोचे कि वो उनकी और ये हमारी किस्मत का फेर जो हमको विपरीत परिवेश मिला

हमारा भी तो ये फर्ज़ बनता कि वे जो विरासत हमें सौंपकर गये हम उसकी रक्षा करें उसे आगे बढ़ाये और समृद्ध करें ताकि आगे आने वाली पीढियां हमें स्वार्थी न समझे जिन्होंने हर सुख-सुविधा और प्राकृतिक संसाधनों का स्वयं ही उपभोग कर लिया दूसरों के लिये कुछ भी न छोड़ा एक वो लोग भी थे हमसे पहले वाली पीढ़ी के जिन्होंने हम जैसों के लिये अपनी जान की कुर्बानी दे दी और हमें तो ये भी नहीं करना केवल जो वो हमें सौंपकर गये उसका ही सरंक्षण करना हैं यही इन वीरगति प्राप्त हमारे सच्चे नायकों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी जिसे समर्पित करने हमें संकल्पवान होना होगा और देश व देश के अपने भाई-बहनों के लिये देश की संपति की रक्षा करनी होगी आज ‘बाल गंगाधर तिलक’ व ‘चंद्रशेखर आज़ाद’ की जयंती पर हम यही विचार करें कि अब जबकि हमें अपने जान पर नहीं खेलना बस, देश को कुछ देना हैं तो वो क्या हो सकता जिससे कि देश उन्नति पथ पर आगे बढ़े क्योंकि, देश का विकास सिर्फ़ सरकार की जिम्मेदारी नहीं उसमें कण मात्र ही सही हम सबका भी योगदान जरुरी हैं

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२३ जुलाई २०१८

रविवार, 22 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०२ : #सबसे_प्यारा_तिरंगा #जिसमे_हर_एक_मन_रंगा




जिसकी खातिर
देश का हर एक वासी
दे सकता जान
लहराने जिसको सबसे उपर
भारतीय खिलाड़ी
परदेस में लगा देते प्राण
देखकर जिसको
तन-मन में आ जाता सबके
जोश का उफान
बाँध सर पर जिसको
समर में खड़ा हर एक सिपाही
दुश्मन को देता मार
लपेट जिसको तन पर अपने
अलविदा कहना चाहे
सरहद पर तैनात वीर जवान
चूमकर जिसको
हंसते-हंसते फांसी चढ़ गये
अनगिनत नवजवान
ऐसे तिरंगे पर...
हम सब क्यों न हो कुर्बान
क्यों न करे प्यार
यही तो हैं हमारी पहचान
आन-बान-शान
ऐ तिरंगे तुझे सलाम
----------------------------●●●

२२  जुलाई हम सबके बेहद गौरव की बात हैं क्योंकि, आज ही के दिन हम सबका प्यारा ‘तिरंगा’ हमारा राष्ट्रीय ध्वज और अखिल विश्व में हमारी पहचान बना सभी को ‘झंडा अंगीकरण दिवस’ की बहुत-बहुत शुभकामनायें... ☺ ☺ ☺ !!!

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२२ जुलाई २०१८

शनिवार, 21 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०१ : #जिसके_गीतों_बिन_नीरस_जिंदगी #वो_हैं_सर्वाधिक_लोकप्रिय_गीतकार_आनंद_बक्षी




तेरे मेरे बीच में कैसा हैं ये बंधन अंजाना
मैंने नहीं जाना तूने नहीं जाना...

एफ.एम. पर जैसे ही ये गीत बजा ‘रूहानी’ उस कालखंड में पहुँच गयी जब ये फिल्म रिलीज हुई थी उस वक़्त वो अपनी उम्र के उसी साल में तो थी जिसके बारे में इस फिल्म के ही एक गीत में ‘आनंद बक्षी साहब’ ने लिखा था ‘सोलह बरस की बाली उमर को सलाम... ऐ प्यार तेरी पहली नजर को सलाम’ और उन नजरों का सलाम आँखों ही आँखों में दोनों ने कुबूल किया और सबसे छिपकर अनकहा इश्क़ दोनों के दिलों में पलने लगा था जिसका इज़हार लबों से होना बाकी था तो कॉलेज के वार्षिकोत्सव में उसने अपने गाये गीत के जरिये इशारा किया जो अभी भी उसके कानों में गूंज रहा था...

दिल क्या करें जब किसी से किसी को प्यार हो जाये
जाने कहाँ कब किसी से किसी को प्यार हो जाये...

उस दिन उसका दिल इतनी जोर से धड़का था कि उसे लगा सारा कॉलेज ही उसकी धड़कन सुन रहा हैं तो शर्म के मारे उसकी पलकें ही उपर न उठी और वो अपने दिल की बात बयाँ भी न कर सकी वो कोई आज का दौर तो था नहीं कि मोबाइल या इमेल पर तुरंत जो मन चाहा टाइप कर दिया या जहाँ जी चाहा जिसके भी साथ चले गये तब तो एक-दूसरे की एक झलक देखने तक को निगाहें तरसती थी ऐसे में तन्हाई का सहारा गीत ही थे तो उन्हें बजा लेती...

अंखियों को रहने दे अंखियों के आस-पास
दूर से दिल की बुझती रहें प्यास...

वो अँखियाँ भी कितनी देर पास रहती केवल तब तक जब तक कॉलेज में हो उसमें भी कितनी मुश्किलें लडकों से बात करना भी कोई इतना आसान थोड़े न था उन दिनों न ही बॉय फ्रेंड्स का चलन या लडकों का घर आना ही आम बात तो किसी भी एक झलक या मुलाकात को रब की इनायत समझा जाता था जो कभी अचानक किसी के घर या मार्किट या फिर सिनेमा हाल में हो जाये आमने-सामने की उस पहली मुलाकात के तो दोनों ख्वाब ही देखते रहे और गुनगुनाते रहे...

आज उनसे पहली मुलाकात होगी
फ्री आमने-सामने बात होगी
फिर होगा क्या, क्या पता क्या खबर...

वो मुलाकात तो कभी हुई ही नहीं मगर, खुशबू से भरा एक गुलाबी खत किताब में रखकर  जरुर उसके नाम आया जिसे पढ़कर उसका मन मयूर की तरह झूम उठा और उस दिन सारे घर में इधर-से उधर डोलते हुये उसके होंठों पर यही तराना था...

आपका ख़त मिला आपका शुक्रिया
आपने याद मुझको किया
शुक्रिया... शुक्रिया...    

अपने पागल मन की बेताबी को वो समझ नहीं पाती किस तरह से खुद को समझाये कैसे मन को संभाले कि उसके हाव-भाव या किसी बात से भी किसी को ये अहसास न हो कि उसे प्रेम का रोग लग चुका हैं आखिर क्यों वो प्रेम के चक्कर में फंस गयी यही सोचती रहती...

किस लिये मैं ने प्यार किया
दिल को यूँ ही बेक़रार किया
शाम सवेरे तेरी राह देखी
रात दिन इंतज़ार किया... 

इंतजार भी ऐसा कि उसके अंत का कोई पता नहीं होगा भी या नहीं और जो होगा तो सुखद या दुखद उसके दिन-रात इस तरह बैचेनी से कटने लगे यूँ तो ‘दो लफ्जों की हैं दिल की कहानी या हैं मुहब्बत, या हैं जवानी’ और उसकी कहानी में तो दोनों ही शामिल थे फिर भी कहानी आधी-अधूरी थी भले ही उन दिनों ‘प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, जो डरते हैं वो प्यार करते नहीं’ जैसे गाने भी बजते थे पर, सिर्फ फिल्मों में ये संभव था असल जिंदगी में तो कशमकश ही भरी थी वो तो मीरा की तरह सुध-बुध भूलकर गाती ‘छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलायके’ और सारा दिन यही सोचती...

जाने क्यों लोग मुहब्बत किया करते हैं
दिल के बदले दर्द-ए-दिल लिया करते हैं...

दर्दे दिल, दर्दे जिगर दिल में जगाकर वो भी तो बेकरार होगा तभी तो उसको भी वैसा ही महूसस होता यही सब बातें कर वो अपने मन को बहलाती कि वो अकेली ही परेशां नहीं हैं वो भी इस वक़्त उसकी तरह लेटा हुआ यही ख्वाब देख रहा हैं...

झिलमिल सितारों का आँगन होगा
रिमझिम बरसता सावन होगा
ऐसा सुंदर सपना अपना जीवन होगा...

अकेले-अकेले बहुत सारे सपनें देख डाले थे उसने बिन ये जाने कि वो भी उसकी ही तरह दीवाना हुआ या नहीं उसे तो बस ये पता था कि, ‘प्यार दीवाना होता हैं, मस्ताना होता हैं, हर ख़ुशी से हर गम से अंजाना होता हैं...’ तो बस, अपने दर्द से अंजान बनकर वो अपने अंतर्मन में बसी उसकी छवि से कहती ‘मैं तेरे इश्क़ में मर न जाऊं कहीं, तू मुझे आजमाने की कोशिश न कर...’ और फिर उसे पता चला कि वो नौकरी करने दूसरे शहर चला गया तो जब याद में बेहद बेसब्री हो जाती तो रेडियो में गाना लगाकर जोर-जोर से गाती...

याद आ रही हैं, तेरी याद आ रही हैं
याद आने से तेरे जाने से जान जा रही हैं...

वो पलकें बिछाये उसका इंतजार करने लगी मगर, सालों-साल बीत गये वो नहीं आया और यदि आया भी होगा तो उसे पता न चला होगा क्योंकि, कोई जरिया तो था नहीं जिससे पता चलता सहेलियाँ भी धीरे-धीरे शादी के बाद उसे छोड़कर चली गयी तो कैसे पता चलता फिर और उसके आने का तो सवाल नहीं ऐसे में उसने ये स्वीकार करना पड़ा...

ये जीवन है
इस जीवन का
यही है, यही है, यही है रंग रूप
यही है, यही है, यही है रंग रूप
थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ
यही है, यही है, यही है छाँव धूप
ये जीवन है...

और ‘जिंदगी’ के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते...’ तो उसकी उम्मीद ही छोड़ दी अब तो ‘लंबी जुदाई चार दिनों दा प्यार ओ रब्बा बड़ी लंबी जुदाई...’ जैसे दर्द भरे गीत उसकी तन्हाई के साथी बन गये आज जब ‘आनंद बख्शी साहब’ के जन्मदिन पर उनके लिखे गीत बजे तो मानो उन दिनों की फिल्म उसके समाने घुम गयी और उसने मन ही मन उनको धन्यवाद दिया जिनके गीत उसके जीवन का अहम हिस्सा बने उसके सुख-दुःख के साथी और यदि ये न होते तो वो किस तरह एकाकी जीवन बिताती क्योंकि, यही तो हैं जिन्होंने उसको कभी तन्हा न होने दिया और फिर वो बजते गीत के बोलों को गाने लगी...

आएगी आएगी आएगी किसी को हमारी याद आएगी
मेरा मन कहता है प्यासे जीवन में कभी कोई बदली छाएगी... ☺ ☺ ☺ !!!
  
_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२१ जुलाई २०१८

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०० : #जाने_कहाँ_गये_वो_दिन




इकन्नी, दुअन्नी
चवन्नी, अठन्नी
कलदार-से वो दिन
डायनासोर की तरह लुप्त हुये
जीवाश्म भी शेष नहीं
जिनके डी. एन. ए. से दोबारा
बना सके अतीत के सिक्के
वो तो बस, बंद हैं
यादों के लॉकर में उनके
जिनकी उम्र के दिन को भी अब
उल्टी गिनती शुरू हो चुकी
कभी खतों-किताबों में ही शायद,
जिक्र मिले उनका
मगर, ख्याल आता तभी
वो भी तो पहुंच चुके हैं अब तक
विलुप्ति की कगार पर
मोबाइल और गेजेट्स के जमाने में
अहसास विहीन किस्से दर्ज हैं
और, आज का सब कुछ कल
इतिहास बनने को अग्रसर
तब कोई अगली पीढ़ी लिखेगी
अपने दौर की मधुर यादें
हर युग में ये शब्द बने रहेंगे अर्थवान
कहेगा फिर कोई
बहुत याद आते हैं वो दिन
कि गुजरा कल तो
स्मृति का हिस्सा होता हैं
जिसमें दर्ज कोई किस्सा होता हैं
और जिसको भूलना नामुमकिन होता हैं ।।

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२० जुलाई २०१८