शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

सुर-३०३ : "दो चाँद... देखते एक चाँद... साथ-साथ...!!!"


जोड़ता
दो दिलों को
एक ‘चाँद’
चौथ की रात में
आकर आसमां पर
जन्मों का रिश्ता
करता प्रगाढ़ 
बढ़ एक-एक कला
बढ़ाता दिनों-दिन प्यार
जिससे गहराता बंधन
साल दर साल
जिसे न तोड़ पाता कभी
कैसा भी हो काल
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मित्रों...,
 
भारत देश में जितने लोग, जितनी मान्यतायें... उतने ही रिश्ते, उतनी ही परम्परायें और उनको सबको एक सूत्र में जोड़ने हेतु उतने ही अलग-अलग पर्व जिनसे बढ़ता परस्पर प्यार कहीं और देखा हैं कभी ऐसा रिश्तों को समर्पित कोई त्यौहार पर हमारे यहाँ तो हर तरह के नाते के लिये एक अलग ही तरह का उत्सव होता जो मन को उल्लास से भर देता और जब सब मिलकर उसे मनाते तो बीच के मनमुटाव ही नहीं दूरियां भी स्वतः ही समाप्त हो जाती इन सभी पर्वों को मनाने का उद्देश्य भले कुछ हो लेकिन ये तो तय हैं कि जीवन की एकरसता से आने वाली नीरसता को दूर करने के लिये ये अचूक मंत्र की तरह साबित होते हैं और यदि किसी वजह से लोगों के मध्य को कोई भेदभाव उत्पन्न हो भी गया हो तो वो भी मिट जाता याने कि एक त्यौहार अनेक दर्दों की दवा होता तो आज भी कुछ ऐसा ही दिवस हैं और प्यार से बने प्यारे से रिश्ते को जन्मों-जन्मों तक कायम रखने वाली इस आस्था का नाम हैं ‘करवा चौथ’ जिसका इंतजार पूरे साल हर सौभाग्यवती नारी करती ताकि वो अपनी मन की भावनाओं का प्रदर्शन कर अपने जीवनसाथी के प्रति अपना प्रेम जता सके क्योंकि भले ही हर जोड़ा हर दिन हर पल साथ रहता हैं लेकिन उसके पास हर दिन अपने अहसास को दिखाने का वो उत्साह वो उमंग नहीं होती जो आज के दिन अपने आप ही मन में जाग जाती तभी तो सब मिलकर सुबह से लेकर रात तक जब तक कि आकाश में चाँद नहीं निकल आता हर तरह का त्याग कर अपने अंतर्मन को पवित्र कर फिर उस चाँद के सामने एक दूजे को अपना निर्मल प्रेम समर्पित्त करते इस तरह एक दिन की कड़ी तपस्या दो दिलों को केवल एक जन्म नहीं बल्कि जन्मों-जन्मों तक के लिये एक-दूसरे का बना देती तो आज दो दिलों को एक बनाने वाले इस पर्व की अभी को मंगल कामनायें... :) :) :) !!!
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३० अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

सुर-३०२ : "लघुकथा --- स्पीडब्रेकर...!!!"


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मित्रों...,

तमन्ना’ बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी गुनगुनाते अपने काम कर रही थी पर जैसे ही घड़ी देखी तो जल्दी से तैयार होकर कॉलेज जाने के लिये अपने कमरे से अभी निकली थी कि सामने भाभी मिल गयी और बोली--- ‘अरे, ये तूने कैसी ड्रेस पहनी हैं ?’ उसने खुद पर नजर डालते हुये उत्तर दिया ऐसा तो कुछ भी नहीं जो सब पहनते वही तो हैं... ये कह वो अभी सीढियां उतरी ही थी कि मम्मी बोली---‘ओ बेटी, ये किस तरह के पकड़े पहनते हो तुम सब आजकल हमें तो समझ नहीं आता??’ उसने कुछ कहने की बजाय फटाफट टेबल पर रखा नाश्ता खाया और दरवाजा खोल बाहर निकली कि सामने भाई आता दिखा तो बोला---‘सिस... तुमसे कितनी बार कहा कि कुछ भी उटपटांग पहन कॉलेज न जाया करो पर हो कि तुम समझती ही नहीं’ उसे इग्नोर कर उसने तुरंत अपनी स्कूटी स्टार्ट की और निकल पड़ी कि पीछे से किसी के सीटी बजाने की आवाज़ आई उसने गाड़ी रोक मुड़कर देखा तब तक वो आगे निकल गये थे तो मुंह बिचकाते हुये फिर आगे बढ़ी ही थी कि कुछ दूर चलने पर एक बाइक वाले ने बिल्कुल उसके नजदीक से गाड़ी निकली वो किसी तरह गिरते-गिरते बची और खुद को संभाल ज्यूँ कुछ दूर चली तो लगा जैसे किसी ने उपर से उस पर कुछ फेंका उसने उपर नजर की तो कोई नजर नहीं आया... फिर से अपने आपको संयत कर चलना शुरू ही किया था कि कुछ लड़को का समूह दिखा जो उसे देख कोई फूहड़ सा गीत गाने लगे... उनसे नजर चुरा वो जैसे-तैसे कॉलेज पहुंची पर, तब तक उसका सुबह वाला वो ताज़ा-तरीन खुशहाल मूड एकदम बिगड़ चुका था            
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२९ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

सुर-३०१ : "चिंतन --- 'न' बोलना नहीं... काम करना नहीं...!!!"


जुबां की बात
कभी-कभी चेहरे से
सामंजस्य नहीं बिठाती 
पर, जो केवल शब्द सुनते
चेहरे को नहीं पढ़ते 
रह जाते ठगे
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मित्रों...,

बहु... मैं मंदिर जा रही हूँ तुम खाना बनाकर रख लेना आज तो चाचा-चाची भी आने वाले हैं तो कुछ विशेष पका लेना मैं भी बस जल्दी से आकर कुछ मीठा बना दूंगी ऐसा कह उधर से बहु की आवाज़ में बड़ा सा ‘हाँ’ सुन निश्चिंत होकर रत्ना जी घर से बाहर निकल गयी और जब वे एक घंटे बाद लौटी तो  देखा कि सब कुछ ज्यों का त्यों था बहु ने तो लगता किचन में आकर झाँका तक नहीं था वे उसको पुकारती हुई उसके कमरे तक पहुंची तो देखा कि वो तो मजे से मोबाइल पर किसी से बतिया रही थी जैसे ही सास को आते देखा तो फोन बंद कर बोली, अरे मम्मीजी अभी मेरी सहेली का फोन आया उसका एक्सीडेंट हो गया तो मुझे तुरंत उसे देखने हॉस्पिटल जाना ऐसा कह वो उनके जवाब का इंतजार किये बिना तुरंत चली गई तभी दरवाजे की घंटी बजी और सामने देखा तो मेहमान आ चुके थे तो वे जल्दी से उनका स्वागत करने द्वार पर पहुंची पर, मन खिन्न हो चुका था तो लाख मुस्कुराने की कोशिशों के बावज़ूद भी उसका कुछ प्रभाव चेहरे पर आ गया था फिर उन्हें डायनिंग रूम में बिठा बात करने लगी लेकिन मन में तो वही सब चल रहा था कि अब सब कुछ जल्दी-जल्दी कैसे होगा ये बहु भी न साफ़-साफ मना नहीं करती लेकिन काम भी नहीं करती हर बार कामों से बचने का कुछ नया बहाना होता इसके पास और उनके पास सिवाय उस स्थिति से समझौता करने कोई ओर विकल्प नहीं होता क्योंकि वे वाद-विवाद में पड़ना पसंद नहीं करती उन्हें तो शांति से रहना पसंद हैं और घर में कलह हो ये उन्हें किसी भी तरह बर्दाश्त नहीं और उनके इसी सीधेपन का फायदा उनकी बहु उठाती थी इसके अलावा वे अपने इकलौते बेटे को खोना भी तो नहीं चाहती थी जिसने सबकी मर्जी के खिलाफ जाकर अपनी मर्जी से बहु को चुना था

उन्होंने जैसे-तैसे उस दिन सारा काम निपटाया पर, जब सबके जाने के बाद जब एकांत में बैठी तो उन्हें याद आया कि बहुत से लोगों में उन्होंने ये आदत देखी जो किसी भी काम के लिये कभी इंकार नहीं करते पर, जो उनको दायित्व या कार्य सौंपा गया वे उसे कभी नहीं करते जिसका खामियाजा अक्सर बहुत बुरी तरह उन्हें भुगतना पड़ा हैं समझ नहीं आता कि साफ़-साफ़ मना करने में इनका जाता क्या हैं कम से कम इससे सामने वाला खुद को तैयार तो कर सकता हैं इसकी वजह से सिर्फ काम का ही हर्जाना नहीं होता बल्कि कितनी सारी अप्रिय परिस्थितियों से तालमेल बिठाना पड़ता साथ-साथ असहज मनोस्थिति को भी झेलना पड़ता जो कि इस वजह से उत्पन्न हो जाती और फिर इसमें सामंजस्य बनाते हुये ही आगे बढ़ना पड़ता अरे, न बोलना इतना कठिन नहीं जितना कि इन सब मुसीबतों से पार पाना उफ़... किस तरह की फ़ितरत होती इन लोगों की जो कभी तो अपनी छवि को साफ़-सुथरा रखने के लिये इस तरह की हरकत करते तो कभी उनकी आदत उन्हें ऐसा करने मजबूर करती और कुछ लोग तो ऐसे भी होते जो दूसरों को महज परेशान करने भी इस तरह का व्यवहार करते जिसके कारण सामने वाले को जो भुगतना पड़ता उससे इन्हें कोई सरोकार नहीं बल्कि ये तो जुबान पर ‘हाँ’ दिल में ‘ना’ और व्यवहार में ‘बेफिक्री’ रखते और उनके इस दोगले चरित्र से किसी का कितना भी नुकसान हो उन्हें क्या पिछली बार ही तो उनकी देवरानी ने कहा था, दीदी आप बिल्कुल भी फ़िक्र नहीं करना हम वहां आकर आपके साथ दीपावली की साफ़-सफाई और मिठाई बनाने का सारा काम संभाल लेंगे इसलिये अभी तो आप आराम करो बस, बच्चों की छुट्टी शुरू होते ही अगले ही दिन हम वहां आ जायेंगे तो वे एकदम निष्फिक्र हो गयी लेकिन ये क्या देवरानी न तो आई न ही खबर भिजवाई उन्होंने फोन किया तो पता चला कि उनका तो अचानक ही कोई दूसरा कार्यक्रम बन गया और वे अपने मायके चली गयी सुनकर उनके पैरों तले धरती खिसक गयी उस वक़्त भी जैसे-तैसे उन्होंने सब काम निपटाया पर, आज भी इस तरह के लोगों से उनका सामना होता रहता और वे सोचती कि वो भी ऐसी क्यों नहीं बन जाती पर, कमबख्त स्वभाव बदलता नहीं काश... वे ऐसे लोगों को समझा पाये कि ये कितना घातक हैं तो उनका चिंतन सार्थक बन जाये... :) :) :) !!!              
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२८ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

सुर-३०० : "महर्षि वाल्मिकी संत महान... देकर गये रामायण का ज्ञान...!!!"


कोई भी काम
कभी न जाता निष्काम
जब बसे हो मन में ‘राम’
तो संवर जाते बुरे भाग
बन जाते सभी बिगड़े काज
बुरे लोग भी बनते अच्छे इंसान
देते दुनिया को सदज्ञान  
देती संदेश यही हम सबको
‘ऋषि वाल्मिकी’ की कथा महान  
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मित्रों...,

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान ।
निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान ।।

ये पंक्तियाँ कवि हृदय को अभिव्यक्त करने में पुर्णतः समर्थ हैं क्योंकि एक संवेदनशील भावुक मन ही पीड़ा को उतनी ही शिद्दत से महसूस कर अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सकता हैं... महर्षि वाल्मीकिजिन्हें हम रामायणके रचयिता के रूप में जानते हैं, कोई जन्मजात कवि नहीं थे बल्कि इन्होने तो सृष्टि की सर्वप्रथम कविता को जन्म देकर आदिकविका गौरव हासिल किया... और जिस वेदनामय दृश्य ने उन्हें इतना पीड़ित कर दिया कि अनायास ही उनके मुख से कविता का जन्म हुआ, वो एक तीर चुभे क्रोंच पक्षीका मरणासन्न अवस्था में अपने प्रिय से बिछड़ने के असीम दर्द का था... जिसने उनके संत हृदय को भी हिला दिया और उन्हें इतना गुस्सा आया कि उन्होंने सारी व्याध जाति को ये कहकर श्रापित कर दिया---

मा निषाद प्रतिष्ठाँ त्वमगभ:शाश्वती: समा: यत्क्रौँमिथुनादेकमवधी:काममोहितम्`"

[भावार्थ : हे निषाद , तुमने काममोहित मैथूनरत क्रौंच-युग्म से एक का वध कर डाला , जाओ तुम अनंत समय तक प्रतिष्ठा-सौख्य आदि से क्षीण रहोगे ।]

यदि हम इनके अतीत में जाते हैं तो पाते हैं कि यही कोमल हृदय साधु उसके पूर्व एक दुष्ट डाकु रत्नाकरथे, जो लोगों को लुट पीटकर अपना जीवन-यापन करते थे फिर उनके जीवन में ऐसा क्या हुआ कि उनके भीतर इतना बड़ा चमत्कारी परिवर्तन आया, शायद आप सबने भी वो कहानी सुनी हो कि जब वो दस्यु थे उस वक़्त उनकी भेंट नारदजीसे हो गयी और वो अपने पेशे की वजह से उन्हें भी लुटना चाहते थे, पर नारदजी के ये पुछने पर कि वो ऐसा घृणित काम क्यों करते हैं तो उन्होंने बड़ी सहजता में जवाब तो दे दिया कि अपने परिवार को पालने के लिये तो जब जवाब  में नारदजी ने कहा कि अपने परिजनों से ये पूछकर आये कि वो सिर्फ उनकी कमाई के हिस्सेदार हैं या उनके पाप और पुण्य के भी, और हुआ वही जो होना था सभी ने इंकार कर दिया तब उनके अंतरचक्षु खुल गये और वो नारदजी द्वारा दिया गया रामनाम मन्त्र को भूल गलती से मरा’... ‘मराजपते हुयें एक बड़े तपस्वीबन गये और फिर ईश्वर कृपा से संत हुए, आदिकवि बने, रामायण लिखी, सीता जी को वनवास के समय अपने यहाँ रखा, लव-कुश को शिक्षित किया.. तो उनकी साधारण से असाधारण बनने की कहानी बेहद प्रेरक और मार्गदर्शक हैं, जिसे पढ़कर हम सब भी जीवन के किसी भी सोपान में जागृत हो ख़ुद के साथ-साथ औरों का भी जीवन संवार सकते हैं

आज उन्ही रत्नाकर डाकू’, ‘महर्षि वाल्मीकि’ ‘आदिकविऔर रामायण के रचनाकार की जयंती पर उनको कोटि-कोटि प्रणाम... :) :) :) !!! 
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२७ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

सुर-२९९ : "आई शरद पूर्णिमा की रात... लाई अमृतमयी सौगात...!!!"


बस,
एक बार
आती वो रात
सोलह कला पूरण
आसमान पर जगमगाता
सबका प्यारा ‘चाँद’
करते ‘श्रीकृष्ण’ महारास
छलकाता चंद्रमा का प्याला
अमृतमयी प्रेम हाला
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मित्रों...,

‘चाँद’ एक हैं लेकिन उससे जुड़ी कहानियां अनेक हैं जिससे उसकी महत्ता का पता चलता कि वो सिर्फ़ एक ग्रह नहीं बल्कि हर धर्म, हर मजहब के लिये विशेष मायने रखता और हर रात हम सबके लिये जाग पहरेदारी करता इस तरह वो अनजाने में भूले-भटकों को राह दिखाता तो साथ ही किसी रोते बच्चे को भी बहलाता और कभी-कभी तो किसी प्रियतम का महबूब बन सारी रात उसके साथ जागता और इस तरह से हर किसी का वो साथी बन सिर्फ उसकी खुशियों ही नहीं उसके दुखों को बांटता और समूचे ब्रम्हांड में रहने वाले अलग-अलग धर्म के लोगों को एकता के सूत्र में बांधने का काम भी करता जिससे कि दूर-दराज में रहने वाले लोग उसके माध्यम से अपने बिछड़े हुये साथियों को संदेश भेजते तो कभी उसे आईना बना अपनी छवि देखते तो कभी उसमें किसी अपने का दीदार करते और बस ये सिलसिला चलता ही रहता कि अनवरत अथक वो हर रात अपनी जिम्मेदारी निभाता भले ही कभी घटता तो कभी बढ़ता लेकिन काम पूरे करता इसलिये तो सबको उसका इंतज़ार रहता कि वो आये तो बात बन जाये उस पर जब आती ‘शरद पूर्णिमा’ की रात तो फिर जागते सब उसके साथ सारी रात कि वो सबके लिये लेकर आता अमृत की अनुपम सौगात जिसे पीकर उनका स्वास्थ्य निरोगी बनता और नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मकता में परिवर्तित होकर उनके उत्साह में भी वर्धन करती जिससे स्वतः ही उसकी आयु बढ़ जाती और फिर ये तो हर बरस होता ये और बात हैं कि अब लोगों के पास उसे देखने का उसके साथ बतियाने का या उसके साथ बिताने का समय न हो लेकिन वो तो निःस्वार्थ अपना काम करता

तो आज फिर अपने प्याले में भरकर ले आया वो अमृत की हाला चखने जिसको आपको रखना पड़ेगा बनाकर खीर से भरा अपना प्याला तभी तो मिलेगा सुधा रस का स्वाद जिसे आपके उस प्याले में भर देगा वो आपके लिये और हो सके तो आज की रात कुछ देर बिता लेना उसकी छाँव तले तो नहा जाओगे उसकी निरोगी किरणों से और कोशिश करना कि उस रौशनी में एक सुई में पिरो लेना धागा तो बढ़ जायेगी आँखों की रौशनी भी... साल में बस एक बार ही तो आती ये रात बना लो इसे यादगार... :) :) :) !!!           
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२६ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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रविवार, 25 अक्तूबर 2015

सुर-२९८ : "काव्यकथा --- प्रेम क्या होता हैं???"


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मित्रों...,

‘कुनिका’ सुबह का अख़बार पढ़ रही थी कि अचानक उसकी नजर एक खबर पर गयी जिसमें लिखा था ‘अपने प्यार को पाने के लिए एक लड़के ने शादी के मंडप पर जाकर दुल्हन की हत्या की’ तो उसे बहुत बुरा लगा और उसके जेहन में ख्याल आया कि क्या ये सचमुच प्रेम हैं???

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बैठ अँधेरे में
तन्हां शमां जलाकर
सोच रही थी कि
आखिर, 'प्रेम' होता क्या हैं ???

जिसके लिये
हर कोई दीवाना होता हैं
जिसे पाने की
हसरत हर कोई रखता हैं
जिसके ख्वाब
हर एक दिल देखता हैं

सदियां बीत गई
न जाने कितने लोग बावले हुये
राज़ ये पाने के लिये
मुहब्बत मिटने के लिये हैं
या मिटाने के लिये

अभी ख्यालों की
दुनिया में खोई ही थी कि
तभी इक परवाना उड़ता हुआ आया
शमां के उपर लगा मंडराने
ये जानकर भी कि उसकी आग में
जलकर ख़ाक हो जायेगा
उसका वजूद राख हो जायेगा

मगर, वो खुद को मिटाकर भी
इश्क़ की आग में जलता हैं
बड़ी ख़ामोशी से मुहब्बत की मिसाल देता हैं
ये वो शय हैं जिसमें अपना आप
जलाना पड़ता हैं
ख़ुद को भस्मीभूत कर के
‘प्रेम’ में समाना होता हैं
अपना अस्तित्व भूला
किसी का हो जाना पड़ता हैं

इतनी शिद्दत हो पाने कि
तब प्यार अमर होता हैं
आत्मा का आत्मा से मिलन होता हैं
प्यार का ये आत्मिक स्वरूप ही तो
सच्चा वाला प्यार होता हैं ।।
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‘प्रेम’ के असली मायने जान वो समझ गयी कि जो भी इस तरह की हरकत करते हैं दरअसल वे इसे समझते ही नहीं केवल देह के रासायनिक परिवर्तन को ही ‘प्यार’ का नाम दे देते हैं इन्हें पता नहीं कि प्रेम में समर्पण ही काम करता हैं... उसे हर हाल में पाने की इच्छा तो महज मनोविकार हैं जिससे किसी का भी हित नहीं हो सकता उसने तुरंत इस घटना से उपजे अपने विचारों का आलेख लिख कर अख़बार को पोस्ट कर दिया   
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२५ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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