बुधवार, 9 मार्च 2016

सुर-४३४ : "चिंतन --- सब हैं तमाशबीन... ढ़ोने अपनी सलीब...!!!"

दोस्तों...

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‘रितिका’ बहुत ज्यादा परेशां थी कि वो लाख कोशिशों के बावजूद भी अपने पिता को बचा न सकी जबकि उनकी बीमारी एवं इलाज दोनों ही उसे पता थे और वो सोच रही थी इस बार घर जाते ही सबसे पहले वो यही काम करेगी जिससे कि उसके पिताजी पहली की तरह स्वस्थ हो सके लेकिन वो सोचती ही रही जबकि करनी अपना काम करती रही... ऐसे में उनका यूँ उसकी अनुपस्थिति में अपने रोग से हारकर जाना उसे बेहद पीड़ा दे रहा था कि तभी उसकी माँ ने उसे एक किताब थमाई जिसमें सामने खुले पन्ने पर उसकी नजर गयी तो ये पंक्तियाँ लिखी थी---

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जब राजमहल से
निकले राजकुमार सिद्धार्थ
सोती यशोधरा को छोड़
तो बन गयी बैरन कायनात भी
न हुई कदमों की आहट
न ही कपड़ों की सरसराहट
न ही मन में ही हल्की भी छटपटाहट
फिर किस तरह जान पाती
अर्धांगिनी उनका गमन
गर, होता जरा-सा भी अहसास
तो जिस तरह सीता चल दी
छोड़कर महलों का सुख वैभव
अपने प्रियतम के पीछे
क्या वो भी न चली जाती
पर, ऐसा होता तो क्या होता ???

न पाते सिद्धार्थ
जीवन रहस्यों का मर्म
न मिलता उन्हें परम तत्व
न बन पाते वो 'गौतम बुद्ध'
न ही बनता 'बौद्ध धर्म'
कि माया और तपस्या साथ-साथ
न रह सकते कभी
शायद, जानकर ये रहस्य ही
परम धाम को जाते हुये बुद्ध ने
दी थी सख़्त चेतावनी कि
स्त्रियों का प्रवेश वर्जित रखना सदा
वरना, गर हजार वर्ष
चलने वाला होगा ये मत तो
सिर्फ पांच सौ बरस ही चल पायेगा
फिर भी न माना किसी ने
तो हुआ वही जिसका संदेह था ।

वो आहट जिसे
सुन न सकी थी सोती यशोधरा
तो गंवा बैठी जीवन धन
उसे योग निंद्रा में सुन लिया था
ध्यानमग्न बुद्ध ने तो भी
न बच सका साधना से बनाया धर्म
कि आहट हो या न हो
होनी को नहीं सकता कोई भी रोक
भले ही खुद को समझाने
कहते रहे हमेशा कि यदि सुनी होती
जरा सी भी आहट तो
जो कुछ भी हुआ उसे होने न देते ।।
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वो जो अभी कुछ देर पहले बेहद बेचैन और खुद को गुनाहगार समझ कोस रही थी अब एकाएक जो कुछ भी हुआ उसके लिये अपने आपको दोष देने की बजाय उसकी ठोस वजह जान कुछ तो अपराध बोध के बोझ से हल्का महसूस करने लगी और अपने पिता को अंतिम विदाई देते समय अब उसके हृदय में विषाद की जगह इसे नियति का निर्णय मान दर्द का आवेग कुछ कम तो जरुर महसूस हो रहा था... :( :( :( !!!!
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०९ मार्च २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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