मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

सुर-२०१७ : एक ही माटी से बनी तीन काया... देश की खातिर जिन्होंने आप अपना लुटाया...!!!


बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा
गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा
तख्ता-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।
---‘अशफ़ाक उल्ला खाँ’

ये भी एक संयोग था कि तीन पवित्र आत्माओं ने इस विशालतम दुनिया में आने के लिये एक वतन ही नहीं बल्कि धरा और प्रदेश भी एक ही चुना कुछ समय अंतराल के फ़ासले पर ये एक के बाद एक अपनी जन्मभूमि पर उसी तरह आते रहे जिस तरह पूर्व निर्धारित क्रम से मंच पर अपनी भूमिका निभाने कलाकार एक के बाद एक आते हैं तो इन्होने भी इसी तरह अपने पात्र को अभिनीत करने के लिये अपनी टाइमिंग में कोई गलती नहीं कि और जब कैलंडर के पन्नों ने फड़फड़ा कर बताया कि आज २२ जनवरी, १८९२ हैं तो उत्तरप्रदेश के ख्याति प्राप्त जनपद ‘शाहजहाँपुर’ जिसे ‘शहीदगढ़’ या ‘शहीदों की नगरी’ भी कहते हैं में स्थित गांव 'नबादा' में कौशल्या देवी और ठाकुर जंगी सिंह के यहाँ प्रथम नायक ‘ठाकुर रोशन सिंह’ का जनम हुआ इसी के पांच वर्ष बाद ११ जून, १९९७ को शहीदों की इसी पावन धरती पर पंडित मुरलीधर और श्रीमती मूलमती के घर दूसरे महानायक ‘राम प्रसाद बिस्मिल’ स्क्रिप्ट के अनुसार अपनी पार्ट अदा करने समयानुसार जन्मे तो इस कड़ी को पूरा करने वाले तीसरे और अंतिम नगीने ‘अशफ़ाक उल्ला खान’ भी कहाँ रुकने वाले थे तो ठीक तीन साल बाद जैसे ही सदी के पंचांग में २२ अक्टूबर, १९०० की शुभ घड़ी आई मोहम्मद शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ और  मजहूरुन्निशाँ बेगम के गरीबखाने से रोने की आवाज़ आई जो ये संदेसा लाई कि आज़ादी के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने जिस पूर्णाहुति की आवश्यकता थी वो अब खत्म हुई कि ‘त्रिवेणी’ अब पूर्ण हुई

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे।
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।
---राम प्रसाद 'बिस्मिल'

मातृभूमि पर तो उनका आगमन हो गया लेकिन, जिस लक्ष्य को लेकर ये इस जगह पर आये उसे हासिल करने इनका आपस में मिलना भी जरूरी था तो जिस तरह अब तक ग्रह-नक्षत्रों की मिली-भगत ने इनके जनम के लिये अनुकूल अवसर जुटाये उसी तरह से उन्होंने इनको आपस में मिलवाने के लिये भी माहौल बनाया तो अपने-अपने तरीके से देश की आज़ादी के लिये जुटे ये सिपाही हर हाल में फिरंगियों को अपने देश से बाहर कर अपने देशवासियों को आज़ादी दिलाना चाहते थे तो इनके भीतर देशप्रेम, स्वाभिमान, जुनून, वीरता, जोखिम लेने का साहस और हर हाल में अडिग रहने की दृढ़ता जैसे गुण कूट-कूट कर भरे हुये थे इन विशेषताओं के अलावा एक बात इनमें और कॉमन थी कि सभी के भीतर एक कवि हृदय भी निवास करता था तो इनकी जुबान ही नहीं कलम से भी देशभक्ति के तराने निकलते रहते थे जो इस वक़्त सभी नवजवानों के तन-मन में स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने का जोश भरते और यदि इसके लिये उन्हें अपनी जान भी भारत माता के चरणों में निछावर कर देना पड़े तो हिचकते न थे कि ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं, देखना हैं जोर कितना बाजुए कातिल में हैं’ बोलते ही उनकी रगों में दौड़ता लहू उबाल मारने लगता तब सामने खड़ा दुश्मन और उसकी तलवार से भी उनको डर नहीं लगता कि जान हथेली पर लेकर जब चल पड़े दीवाने तो फिर सामने आये तीर या तलवार कब लगे घबराने यही सोच उनको अपने पथ पर स्थिरता के साथ गतिमान बनाये रखती थी
      
न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना
करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख
अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना
---राम प्रसाद ‘बिस्मिल’

ऐसी सोच रखने वाले ये तीन दिवाने अपनी आँखों में एक ही सपना सजाये थे ‘आज़ादी’ और अपना देश उन्हें अपनी जान से अधिक प्यारा था जिसके लिये ये क्रांतिकारी तो बन गये लेकिन, उस जंग को जारी रखने उनको हथियारों की भी तो आवश्यकता थी जो केवल रुपयों से खरीदे जा सकते थे जिसे पाने ९ अगस्त १९२५ को चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित १० क्रांतिकारियों ने लखनऊ से १४ मील दूर ‘काकोरी’ और ‘आलमनगर’ के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया परंतु, ब्रितानिया हुकूमत ने हरसम्भव कोशिश कर ‘आज़ाद’ को छोड़ बाकी सभी को क्रांतिकारियों को पकड़ लिया ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ (एचएसआरए) के ४५ सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया इस मुकदमें की सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर मिला वकील उन्हें स्वीकार न था और ‘बिस्मिल’ ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील भी बगलें झाँकते नजर आये इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा - "मिस्टर रामप्रसाड ! फ्रॉम भिच यूनीवर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री ऑफ ला ?" (राम प्रसाद ! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली ?) इस पर बिस्मिल ने हँस कर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था - "एक्सक्यूज मी सर ! ए किंग मेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री।" (क्षमा करें महोदय ! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।) उनकी इस सफाई की बहस ने सरकारी तबके में सनसनी फैला दी तो उनकी जगह सरकारी वकील से ही आगे की कार्यवाही कराई गयी जिसके परिणामस्वरूप राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई

आज ही के दिन १९ दिसंबर १९२७ को ये तीनों वीर हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गये उनकी ये शहादत हमें ये याद दिलाती कि जहाँ हम मजहब के नाम पर अलग-अलग खड़े हो देश को दोयम दर्जे पर रख देते वहीँ इन लोगों ने केवल देशप्रेम को ही तरजीह दी और यदि हम सब ऐसा करे तो निश्चित ही देश न केवल प्रगति करेगा बल्कि देश में होने वाले जातीय दंगे भी खत्म हो जायेंगे    

ज़िंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन
वरना, कितने ही यहाँ रोज़ फ़ना होते हैं      
---ठाकुर रोशन सिंह 

‘ठाकुर रोशन सिंह’ अपने सब साथियों में प्रोढ़ थे इसलिए युवक मित्रों की फ़ाँसी उन्हें कचोट रही थी तो अदालत से बाहर निकलने पर उन्होंने साथियों से कहा था "हमने तो ज़िन्दगी का आनंद खूब ले लिया है, मुझे फ़ाँसी हो जाये तो कोई दुःख नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मुझे अफ़सोस हो रहा है, क्योंकि तुमने तो अभी जीवन का कुछ भी नहीं देखा।"

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१९ दिसंबर २०१७

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