गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

सुर-२०१९-११५ : #धार्मिक_समन्वय_एवं_शांति_हेतु #आओ_इंसानियत_को_बनाये_सेतु



सबसे पहले तो हम ये समझने का प्रयास करते है कि इस विषय की आवश्यकता क्यों है?

जब तक हम इस प्रश्न का जवाब नहीं ढूंढेंगे तब तक हम धार्मिक समन्वय की स्थापना हेतु समाधानों पर भी विचार नहीं कर पायेंगे क्योंकि, ‘ग्लोबलाइजेशन’ के इस दौर में अब सम्पूर्ण विश्व एक विशाल परिवार है और आज हम जिस ‘ग्लोबलाइजेशन’ या ‘वैश्वीकरण’ की बात करते है हमारे शास्त्रों में इस अवधारणा को पहले से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के नाम से वर्णित किया गया है अर्थात हम इस समस्त भूमंडल या वसुंधरा को बिना किसी सरहद या देश की सीमाओं से परे एक ‘कुटुंब या परिवार’ मानते है और इस नाते से हम सब ‘विश्व बंधुत्व’ की डोर से आपस में बंधे हुये है जिस तरह से एक फैमिली में अलग-अलग विचारधारा के लोग एक साथ मिलकर रहते उसी प्रकार इस संसार में भी अलग-अलग धमों को मानने वाले रहते है और यह इसकी खुबसूरती जो विविधता में एकता को दर्शाती है इसे हम यूँ भी कह सकते कि जिस तरह एक बगिया में भांति-भांति के पुष्प उसकी शोभा बढ़ाते ठीक उसी प्रकार से भिन्न-भिन्न मतान्तर के लोगों से संसार की कुटिया भी महकती है इसमें समस्या तब आती कब कोई एक ‘धर्म’ या ‘मज़हब’ कट्टरपंथी का लबादा ओढ़कर खुद को सर्वश्रेष्ठ या सुपीरियर समझने लगता है और यही नहीं वो अपनी इस कट्टर सोच को दूसरों पर लादने हिंसा पर भी उतारू हो जाता है जिसके अनगिनत उदाहरण हम लगभग सारे विश्व में देख चुके है फिर भी खासतौर पर उसका जिक्र करना चाहूंगी जो ताजा-तरीन हादसा श्रीलंका के कोलम्बो में ईस्टर संडे के पवित्र दिन पर ईसा मसीह की रक्तरंजित मूर्ति की तस्वीर के रूप में हमें देखने को मिला इस दर्दनाक हादसे के निशान अभी ताजा है कई ताबूतों को हमने कल सामूहिक रूप से उठते देखा इसने घटना न जाने कितने लोगों को मौत की आगोश में सुला दिया और सबसे हैरतअंगेज बात कि दूसरों को जान से मार डालने के लिये अपनी जान देने तक से कुछ लोगों परहेज नहीं है इसका मतलब कि जितना हम सोच रहे बात उससे भी बहुत आगे बढ़ चुकी है क्योंकि, अभी तक तो ‘धर्मांतरण’ जैसी खबरें ही सुनने में आती थी पर, जब उनकी बात इतने भर से नहीं बनी तो अब ये इतने घृणित स्तर तक उतर आये कि दूसरे धर्म के अनुयायियों की जान लेने लगे फिर भले ऐसा करते समय खुद की ही जान क्यों न चली जाये जो कि बेहद चिंताजनक स्थिति है     
ऐसी विकट परिस्थितियों में ‘धार्मिक समन्वय एवं शांति के लिये व्यवहारिक सुझावों’ की सख्त जरूरत स्वतः ही महसूस होती है जिन्हें अपने व्यवहार में उतारकर मतभेद या उस घटिया सोच पर पाबंदी लगाईं जा सके जो अपने सिवा किसी को भी पनपने नहीं देना चाहती है इस हेतु मेरी तरफ से चंद सुझाव या परामर्श जो मुझे उपयुक्त लगते इस प्रकार है...

  १.    सबसे #पहली बात कि हम हर एक ‘व्यक्ति’ को इंसान / मानव समझे न कि उसे धर्म के चश्मे से देखें – पता नहीं ये हमारी सामाजिक व्यवस्था का दोष है या हमारी सोच कि हम जिस किसी से भी मिलते उसे जात-पात या धर्म नुमाईंदे के तौर पर देखते और इस नजरिये को जल्द-से-जल्द बदलने की जरूरत क्योंकि, हर व्यक्ति की रगों में दौड़ने वाले खून का रंग एक और जब हमें रक्त की आवश्यकता होती तो हम बिना उसका धर्म या जाति जाने बगैर उसे ग्रहण करते फिर जब हम किसी से मिलते तो उसे उसके धर्म के लेबल के हिसाब से क्यों पहचानते है उसे केवल इंसान या मानव क्यों नहीं समझते जिस दिन हमारी ये निम्न सोच बदल जायेगी तब देखना धार्मिक समन्वय की विचारधारा खुद-ब-खुद पनप जायेगी केवल मन की धरा पर उसका बीजारोपण करने की जरूरत है

  २.   #दूसरी अहम बात कि हम हर एक व्यक्ति की धार्मिक भावना का सम्मान करे उस पर अपनी आस्था न लादे – क्योंकि, ‘धर्म या ‘जात’ कोई पैरहन या कपड़े नहीं जो पुराने उतरकर नये पहन लिये जाये या फिर किसी को जबरदस्ती अपने वस्त्र पहना दिये जाये जैसा कि धर्मान्तरण के माध्यम से किया जाता जो साबित करता कि हम सबको एक ही रंग में रंगना चाहते जबकि, इन्द्रधनुषी रंगों से आसमान सुंदर लगता और अलग-अलग धर्मों से जमीन की सुन्दरता है । ऐसे में हमें हर एक व्यक्ति वो जिस भी धर्म या मान्यता में विश्वास करता हो उसका सम्मान करना चाहिये उस पर अपनी आस्था या धर्म थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिये क्योंकि, ‘धर्म’ व ‘जात’ वो जन्म के साथ ही लेकर पैदा होता जिसे बदल देने से उसका बाहरी स्वरुप भले अलग नजर आने लगे लेकिन, उसका मूल स्वभाव उसकी आंतरिक श्रद्धा तो बदलने से रही वो उसकी स्वाभाविक वृति है जो कभी नहीं बदलती । अपने प्रतीक चिन्ह या नया नाम दे देने से आपको भले ये लगे कि वो अब आपके जैसा बन गया मगर, वास्तव में कुछ नहीं बदलता तो इस तरह कुचेष्टा गलत अतः इसे रोकने का प्रयास करना चाहिये हर व्यक्ति को उसके निजधर्म के साथ स्वीकार करना चाहिये उसे बदलने की जो घटिया मानसिकता है वास्तव में वही धार्मिक समन्वय व शान्ति के मार्ग में बाधा है ।         

  ३.    #तीसरी बात कि अपने धर्म को ठीक तरह से जाने - अपने धर्म ग्रंथों को अपनी बुद्धि विवेक से समझे न कि दूसरों की गलत व्याख्या से अर्थ का अनर्थ समझे और विनाश की राह पर चले जैसा कि आजकल देखने में आ रहा है कुछ विशेष धर्म के लोग खुद को सुपीरियर मानकर दूसरे धर्म के अनुयायियों को ‘काफ़िर’ की संज्ञा दे देते और ये कहते कि इन्हें जीने का कोई हक नहीं बल्कि, इनको मारना तो खुदा की इबादत है । अर्थात ये खून-खराबे या हिंसा को धर्म के नाम पर जायज ठहराते तो सुनने वाले भी इसे दीन की सेवा समझ इसमें जुट जाते जिसके लिये वे जान देने या लेने जैसे जोखिम कदम उठाने को भी खुदा की राह में लिया गया फैसला समझते जबकि, यदि वे स्वयं अपने धर्म को जाने, अपने धर्म ग्रंथों का स्वयं अध्ययन करें और जो समझ में न आये उसे किसी सद्गुरु या अपने माता-पिता से क्लियर करें पर, कभी-भी किसी भी हाल में उनकी बात न माने जो अपने मिशन को सफल बनाने आपको अपना हथियार बनाकर इस्तेमाल करना चाहते है । उनके पास गये यदि तो वे आपको वही बतायेंगे जिससे उनका टारगेट पूरा हो और आप आतंकवादी या मानव बम में तब्दील होकर विधर्मियों को मारने पर उतर आओ वे इतनी नफ़रत आपके भीतर भर देंगे कि दूसरा आपको दुश्मन और उसकी जान लेना भी सबाब का काम लगेगा लेकिन, यदि आपने अपना धर्म खुद तलाशा और समझा तो आप एक ऐसी रूह में परिवर्तित हो जाओगे जिसे सभी जीवात्माओं में परम पिता परमात्मा नजर आयेगा फिर आप एक ऐसे इंसान होगे जो किसी आदमी तो क्या चींटी तक को भी कष्ट पहुँचाने की कल्पना मात्र से द्रवित हो जायेगा । जबकि, दूसरों के कहे अनुसार धर्म को समझा तो हिंसक हो जाओगे बन्दुक उठाकर दूसरों को मारने लगोगे जैसा कि ज्यादातर हमलों के पीछे की वजह जानने पर सामने आया पर, यह उपाय अमल में लाकर ‘आतंकी’ से ‘रूहानी’ बन जाओगे सनके प्यारे कहलाओगे ।

  ४.    #चौथा सुझाव कि ‘इंसानियत’ या ‘मानवता’ को ही मूल धर्म समझे – इस सृष्टि में ‘इंसानियत’ या ‘मानवता’ ही एकमात्र ऐसा धर्म जो दुनिया के समस्त मानवों को एकजुट करने की ताकत रखता है और यही वजह कि जब कोई निर्दोष-मासूम धर्म के नाम पर मारा जाता तो हर आँख नम होती भले उससे हमारा कोई परिचय या रिश्ता न हो क्योंकि, ‘आत्मा’ या ‘सोल’ या ‘रूह’ जिसे कहते एक ऐसा तत्व जो सबके भीतर समाया जिसकी कोई जाति या धर्म नहीं होता और जब हम आत्मदृष्टि से किसी को देखते तो वो अपना-सा लगता है । यही वजह कि हम सभी इंसानों से एक आत्मिक रिश्ता महसूस करते यही तो ‘इंसानियत’ है यदि हम सब इसे अपना ले तो किसी में कोई भेदभाव न रहे और धार्मिक समन्वय भी कायम हो जाये, मगर अफ़सोस कि ये सब जानते हुये भी हम इंसानों को अलग-अलग दबड़ों में देखने के आदि हो चुके इसलिये ‘इंसानियत’ दोयम दर्जे पर है और ‘धर्म’ ने प्रथम स्थान पर कब्जा जमाया हुआ है जबकि, ‘संप्रदाय’ व्यक्तिगत व ‘मानवता’ सार्वजनिक धर्म होना चाहिये ।

  ५.    #अंतिम सुझाव खुद को सर्वश्रेष्ठ न समझे – अब वापस उसी बिंदु पर लौटते जिससे इस विषय की शुरुआत की थी कि अपने को सुपीरियर समझने की भूल ही इस समस्या के मूल में है उसकी शर्ट मेरी शर्ट से ज्यादा सफेद की सोच ने पूरी दुनिया में धार्मिक उन्माद या आतंकवाद फैला रखा है इसलिये हम धार्मिक स्तर पर सबको सम या बराबर देखने का दृष्टिकोण विकसित करने की जरुर जिससे इस भीषण समस्या का न केवल अंत हो जायेगा बल्कि, सब धर्मों के लोग आपस में घुल-मिलकर रहते हुये ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की उस प्राचीन मान्यता को फिर विश्वस्तर पर स्थापित कर मानवता की अखंड ज्योत जलाकर दुनिया को मिटने से बचा सकेंगे आखिरकार, अनेकता में एकता ही हमारी विशेषता जो है ।     

अंत में किसी की लिखी ये पंक्तियाँ याद आ रही है जो इस विषय पर एकदम सटीक बैठती है...

मैंने गीता और कुरान को
कभी लड़ते नहीं देखा
और जो लड़ते है
उन्हें इसे कभी पढ़ते नहीं देखा

इसी के साथ मैं ये आह्वान भी करती हूँ कि आओ हम ‘मानवता’ के पथ पर चलकर सर्वधर्म के बीच बढ़ती वैमनस्यता को समाप्त करने का बीड़ा उठाये अब इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
अप्रैल २५, २०१९

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