सोमवार, 10 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-१०० : संस्कृति को पुख्ता करती परम्परायें... पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती प्रथायें...!!!

साथियों... नमस्कार...


हर नगर की अपनी कुछ विशेष रवायतें भी होती हैं जो उसे न सिर्फ अपने जिले या प्रदेश में पहचान दिलाती बल्कि उसे विशिष्ट भी बनाती जिसकी वजह से उसे जगह को जाना जाता कुछ ऐसी ही परम्पराओं को संजोने के साथ-साथ उसमे कुछ नवीनता लाने का प्रयास भी किया हैं ‘नरसिंहपुर’ जिले ने जो अपनी पुरातन विरासत के सरंक्षण में तो सदैव तत्पर रहता कि ‘नृसिंह भगवान’ की विशेष अनुकंपा प्राप्त... जिसके कारण यहाँ के रहवासी स्वयं को नरों में सिंह समझते और अपने घर की रियासत के किंग बनकर अपने आस-पास के लोगों से भी मित्रवत व्यवहार करते और धर्म-कर्म तो यहाँ की मिट्टी में रचा-बसा तो खून में समाना कोई अचरज की बात नहीं तभी तो आध्यात्मिकता का जैसा पुट यहाँ दिखाई देता अन्यत्र दुर्लभ हैं माँ नर्मदा की असीम कृपा का पात्र ये नगर अपने आप को प्राकृतिक रूप से भी भाग्यशाली मानता हैं कि हरी-भरी वसुंधरा और कृषि से उसका नाता अभी टूटा नहीं कि यहाँ की माटी तो इतनी उर्वरा कि उसे विश्व की सबसे उपजाऊ मिट्टी होने का गौरव प्राप्त तो यहाँ का किसान उस माटी के दम पर ही अपने आपको राजा समझता जिससे उपजी फ़सल के स्वाद का गुणगान दूर-दूर तक गाया जाता और लोग यहाँ का गुड़ व दाल खरीदने दूर-दराज से आते तो ये तो हुई उसकी बाहरी सुंदरता लेकिन इसके अतिरिक्त उसकी अपनी सभ्यता की जड़ें भी कहीं बहुत गहरी जमी हुई इसलिये कोई भी पर्व या उत्सव हो उसका एक अलग ही रंग यहाँ देखने को मिलता...

यूँ तो साल में चार बार नौ-रात्र आती लेकिन ‘चैत्र’ और ‘शरद’ की ही सार्वजनकि रूप से मनाई जाती जिसमें चैत्र पर उतनी धूमधाम नहीं होती जितनी की शारदीय नवरात्र में देखने आती जब चारों तरफ माँ आदिशक्ति के अनेक स्वरूप विराजमान हो इस धरती को ही देवलोक का आभास देते परंतु इस नवरात्र को बहुत ही ख़ास बनाने का श्रेय जाता हैं ‘सामूहिक जवारे समिति’ को जिसने आज से २१ साल पूर्व इस नगर में के अनोखी परंपरा का सूत्रपात करते हुये घर-घर ररोपे जाने वाले जवारों को सामूहिक रूप से एक स्थान पर स्थापित करने के विचार को मूर्त रूप देने इस समिति का गठन किया और स्थानीय सदर मढिया में उस जगह का चयन करते हुये लोगों से आग्रह किया कि वे सब मिलकर यहाँ अपने जवारे का एक कलश रखे जिसके साथ माँ की एक विशाल मूर्ति की स्थापना भी की जाती और इस तरह से इस रिवाज की शुभ-शुरुआत हुई जो चैत्र नवरात्र के पंचमी से लेकर पूर्णिमा तक रखे जाते और अंतिम दिन माँ जगदंबे की भव्य शोभा यात्रा का जुलूस निकलता जिसमें केवल इस जिले ही नहीं बल्कि आस-पास के ग्राम और नगर से भी आकर लोग सम्मिलित होते और फिर निकलती एक अभूतपूर्व माँ की सवारी जहाँ माँ को पालकी पर बिठाकर भक्त उसे अपने कंधे पर उठा नगर की परिक्रमा करते तो औरतें व कन्यायें जवारों के कलश सर पर उठाती तो माँ के अनन्य सेवक बाना धारण कर नंगे पाँव इस यात्रा में शामिल होते जिसमें सभी लोगों, संगठनों व प्रशासन का सहयोग प्राप्त होता जो मार्ग की सफाई जल छिड़काव तथा जगह-जगह पर जनसमूह के लिये भंडारे व पेय की व्यवस्था करते और इस तरह माँ की इस वैभवशाली श्रद्धा भक्ति से भरपूर यात्रा मुख्य मार्ग से होते हुये अपने गन्तव्य तक पहुँचती और माँ की ममता तो देखिये कि उसके बच्चों के लिये वो झुलसती गर्मी के अहसास को ठंडक में बदलने प्रकृति में परिवर्तन कर देती तो किसी तरह के कष्ट का किसी को कोई अहसास नहीं होता बल्कि बड़े-बड़े त्रिशूल उठाये चलते उपासक भी जब उसे निकालते तो उन्हें किसी तरह की तकलीफ या कोई जख्म नहीं होता...

ये उस परम शक्तिशाली जगत्तारिणी की अनुभूति का प्रत्यक्ष अहसास हैं कि इस लंबी यात्रा में किसी को कोई शारीरिक या मानसिक परेशानी नहीं होती बल्कि ऐसा जन-सहयोग प्राप्त होता कि हर कोई सहायता को तत्पर रहता तो कब ये सवारी अपने लक्ष्य तक पहुँच जाती पता ही नहीं चलता हर साल इसमें लोगों का विश्वास व हुजूम बढ़ता ही जाता और माँ को विदा करते ही लोगों को अगले साल की प्रतीक्षा होने लगती... इस तरह ये नगर अपनी परंपराओं का निर्वहन करते हुये उसे अगली आने वाली पीढ़ी को भी सौंप रहा हैं जो उसका अनुशरण करते हुये चल रही हैं इसमें अब सराफा बाज़ार की भी एक अनूठी रस्म का जुडाव हो गया और वे ‘नाक व कर्ण छेदन संस्कार’ के माध्यम से पूर्णिमा के पूर्व नन्हीं दुर्गा स्वरुप कन्यायों का पूजन कर भोज कराने के अलावा सोने की लौंग व बालियाँ पहनाकर श्रृंगार कर साक्षात् जागृत देवियों को प्रसन्न करते और इस तरह इस आयोजन ने अपने आपको विस्तृत भी कर लिया हैं जिसका सामजिक सरोकार यही हैं कि नई पीढ़ी अपनी सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं को जाने-समझे और उसे आगे ले जाये जिससे कि उसके भीतर के संस्कार उसे कभी भी, कहीं भी, किन्हीं भी हालातों में नैतिक पतन से रोके शायद, यही वजह कि यहाँ के लोगों के बारे में एक कहावत प्रचलित कि, “और कछू न हो, मने नरसिंहपुरिया हो...” याने कि केवल इस नगर का निवासी मात्र होने से ही आपको एक पहचान मिल जाती... तो  ऐसी जमीन से जुडी बस्ती के लोगों का यही के लिये ये गर्व की बात हैं कि ‘सबसे बढ़िया, नरसिंहपुरिया’...!!!                    

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१० अप्रैल २०१७

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