सोमवार, 17 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-१०७ : पाकिस्तान में मानवतावादी होने की सज़ा ‘मौत’...!!!

साथियों... नमस्कार...

‘इस्लाम’ क्या कोई लाक्षागृह हैं जो किसी भी चिंगारी या आग से जल जायेगा?
‘मजहब’ कट्टरता की हदों से पार चला जाये तो क्या उसमें बदलाव होना चाहिये या नहीं?
‘जिंदा इंसान’ की जगह ‘अदृश्य भगवान्’ की रक्षा से अंत में शेष क्या रहेगा?
‘भीड़’ कब तक भेड़ बनकर कुरीतियों के अंधे कुयें में खुद को गिराती रहेगी?
‘धर्म’ क्या वो हैं जो कुछ किताबों में दर्ज या वो जो व्यक्ति खुद के आंकलन से धारण करे?
‘ईशनिंदा’ से क्या ‘पैगंबर’ की छवि खराब हो जाती हैं ?
‘कुरान’ की आयतों का हवाला देकर ‘अमानवीयता कब तक की जायेगी?
‘अल्लाहताला’ ने किसे ये लाइसेंस दिया कि वो उसके न मानने वालों को मार-काट दे?
‘जीवन’ देना नहीं आता तो लेना कहाँ से सीखा? क्या मदरसे से??
‘इंसानियत’ के नाते किसी दूसरे धर्म की बात करना भी क्या गुनाह हैं वो भी इतना बड़ा कि जान ही ले ली जाये?
‘इस्लामोफोबिया’ का इलाज़ ढूढने का वक़्त आ गया या अभी और जानें लेना बाकी हैं?


ये वो चंद सवाल हैं... जो पाकिस्तान के ‘अब्दुल वली खान विश्वविद्यालय’ से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे २३ वर्षीय जागरूक और सक्रिय छात्र बनाम ख़ुद को मानवतावादी कहने वाले मशाल खान ‘The Humanist’ की बर्बर हत्या और उसके विडियो को देखने के बाद से जेहन में कुलबुला रहे हैं...

क्या कुसूर था उसका जो इसे इतनी निर्ममता से मारा गया ???

सिर्फ यही कि उसने अपने दिलों-दिमाग का इस्तेमाल किया लकीर का फकीर नहीं बना और न ही आपके द्वारा लादे गये धर्म को जबरन ढोने को तैयार हुआ तो आपके पास सिवाय इसके कोई विकल्प न बचा कि आप इस ‘मशाल’ को बुझा दो जो अँधेरे में रोशनी फैलाकर उन लोगों को जगा रही हैं जिन्हें आपने मजहबी आयतों की लोरियां सुनाकर सदियों से नींद की आगोश में सुला रखा हैं और यदि वो इसमें कामयाब हो जाता तो पूरी दुनिया में जो आपने ‘इस्लामोफोबिया’ नाम की बीमारी पैदा की हैं उसका समाधान हो जाता तो आपने उस इलाज़ को ही खत्म कर दिया वो आवाज़ जो गूंगे-बहरों को राह दिखा रही थी उसे घोंटकर हलक में ही दबा दिया कि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी वैसे भी आपको इसके अलवा आता क्या हैं आपने ‘मलाला युसुफजई’ के साथ भी तो यही किया था मगर, वो खुशकिस्मत थी कि आपकी गोली से बच गयी और दूसरे मुल्क ने उसे सरंक्षण देकर अपना बना लिया और वो ‘तस्लीम नसरीन’ वो भी तो आज तक दर-बदर भटक रही क्योंकि वो भी आपके हाथों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं हुई आखिर क्यों होती उन सबके पास अपनी जागृत इंद्रियां अपने विचार और एक आग थी जिससे वो सिर्फ़ अपने वतन ही नहीं बल्कि समूचे विश्व को नूतन ज्ञान की रौशनी से जगमग कर देना चाहते थे पर, आप को तो किसी तरह का परिवर्तन या मजहब से कोई छेड़छाड़ पसंद नहीं आखिर ‘कुरान’ और ‘शरीयत’ में लिखी बातें महज़ शब्द नहीं आदेश हैं जिनके पालन का ठेका आपने ले रखा हैं तो कोई भी इसके विरुद्ध कुछ कहे या लिखे आप सीधे उसकी जुबान या हाथ ही नहीं काटते बल्कि पूरी क्रूरता के साथ इस तरह से उसका वजूद मिटा देते हैं कि ये देखकर ‘इंसानियत’ भी तड़फ उठती हैं कि अच्छा हुआ जो वो ‘इंसान’ न हुई वरना, अब तक आप उसके भी चीथड़े उड़ा देते वो संभव नहीं तो इस तरह आप अपनी भड़ास उस इंसान पर निकाल लेते हैं जिसके भीतर आपको वो नजर आती हैं....

वो एक अदद दिल और तार्किक दिमाग रखता था जो आपको नागवार गुज़रा कि इस आधार पर वो मानवतावाद का पैरोकार बन खुद को मानवतावादी कहने लगा और उन सब सदियों पुरानी सांकेतिक बातों को तर्क से काटने लगा जिनसे आपकी दुकानें चलती और रियाया आपको अपना खुदा मानती तो ऐसे में जो भी ‘धर्म’ के उपर ‘वैज्ञानिक तर्क’ को तरजीह देगा उसका यहीं अंजाम होगा ये कोई नई बात नहीं उसे भी इल्म था लेकिन फिर भी अपने ‘मशाल’ नाम को उसने ‘फुस्सी बम’ न बनाने दिया और इन सब मजहबी रवायतों या कुरीतियों को तर्कपूर्ण दलील से खारिज़ किया जिनका आपके पास जवाब नहीं क्योंकि आप तो केवल अपने रहनुमाओं के रिमोट कण्ट्रोल से चलने वाले रोबोट जिनकी रगों में बचपन से अफीम के तरह ‘धार्मिकता’ भर दी गयी जिसके आप इस हद तक कायल कि कोई यदि ‘अल्लाह’ को वल्लाह’ भी कह दे तो उसका मुंह तोड़ देते हो किसी गाने या किसी चुटकुले या कार्टून/व्यंग्य में भी कहीं उसका जिक्र तक हो तो आप उस लेखक, उस चित्रकार, उस कार्टूनिस्ट या उस पत्रकार का नामोंनिशान तक बचने नहीं देते कि आखिर उसने किस तरह से ये हिम्मत दिखाई ये जो आपने ‘मजहबी’ घुटन भरा माहौल बनाया हुआ हैं इसी की वजह से कभी-कभी कोई पाक़ रूह जिस्म का सहारा पाकर ताजा हवा के झोंके की तरह अपनी जान पर खेलकर आपको उस दमघोंटू माहौल से निकालने की कोशिश करती जिसे आप उसकी हिमाकत समझ उसे नेस्तनाबूद कर देते हो कि अँधेरे आपको रास आ चुके किसी ‘मशाल’ की आपको कोई जरूरत नहीं जो आप से अलहदा जेहनियत रखता हो ‘कार्ल मार्क्स’ या ‘चे ग्वेरा’ को पढ़ता हो ऐसे लोग आपको खतरे की लाल बत्ती दिखाई देते जिसे आप बेरहमी के साथ पत्थरों से संगसार कर देते आप हमेशा बड़ी ही बर्बरता / क्रूरता / निर्ममता / अमानवीयता / हैवानियत के साथ ही ऐसी जाग्रत देहों को मिटाते ताकि कोई दूसरा उसकी जगह न ले सके...

आप जो खुद को खुदा के बंदे कहते लेकिन उनकी कही गयी बातों की अपने ही ढंग से व्याख्या कर किसी और के नजरिये से उसे देखने को ‘अधर्म’ समझते ‘लाहोल विला कुव्वत’ कह कान पकड़ लेते जैसे उसने आपको कोई ‘पोर्न’ दिखा दी जबकि ‘पोर्न’ देखते समय आप रगों में दौड़ती-फिरती अपनी तथाकथित कट्टरता को नजरअंदाज़ कर देते याने कि दोगलापन आपके भीतर हैं जिसे आपने छद्म आवरण से छिपा रखा हैं और जो इस नकाब को हटाकर आपका असली चेहरा दुनिया के सामने लाने की गुस्ताखी करता उसकी नाफरमाबरदारी को आप हर्गिज़-हर्गिज़ बर्दाश्त नहीं करते आख़िर मज़हब को बचाने का सारा ठेका आपने ही तो ले रखा अल्लाह मियां आपको ही तो धर्म रक्षक नियुक्त कर गये...
                           
मुझे गर्व हैं कि,
मैं हिंदू हूँ
मैं भारतीय हूँ
उस देश में रहती हूँ
जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर
वे लोग भी, जो कुछ भी नहीं
हिंदू देवी-देवताओं से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक
हर किसी को गरियाते हैं
जब किसी ‘पहलू खान’ की जान कोई ले ले तो
अपने हिंदू होने पर शर्मिंदा होते हैं      
कि मेरा धर्म उदार हैं
मेरा देश ‘वासुदेव कुटुम्बकम’ का मानता हैं
वो सबको साथ लेकर चलता हैं
हर किसी को रहने व जीने को ‘स्पेस’ देता हैं
और वही जब उसे गाली दे
‘भारत माता की जय न बोले’
‘वंदे मातरम’ न गाये
यहाँ तक कि उसके टुकड़े-टुकड़े होने की बातें कहे
उसकी बेटी भी गर, कहे कि वो उसके शहीद की बेटी नहीं
तब भी खामोश रहता हैं बल्कि
उसने चाहने वालों को दर्द हो और वो भी
उसकी माँ-बहन एक करने की धमकी दे तो भी
अपने ही सीने पर उनको झेलता हैं
और आप का मुल्क जनाब,
एक ‘मशाल’ से डर जाता हैं वो भी तब जबकि
वो आपके ही मजहब, आपके ही वतन का
आपका मज़हब किसी को बोलने तो क्या सुनने की भी इजाज़त नहीं देता
कोई यदि आयतों के वास्तविक मायने समझाये तो
उसके खिलाफ कभी फतवा तो कभी देश निकाला और
कभी हिंसक बनकर उसकी जान ले लेता हैं 

जब ‘भारत में ‘पहलू खान’ की भी इसी तरह निर्ममता से हत्या की गयी तो मुझे ख़ुशी हुई कि हमारे लोगों ने उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई हमारे प्रधानमंत्री, सरकार को कोसा क्योंकि हमारा धर्म इतना संवेदनशील कि वो ‘दानव’ नहीं ‘मानव’ बनाता हैं इसलिये तो कोई उसके लिये द्रवित होकर अपने हिंदू होने पर शर्मिंदा होता हैं जबकि मैं नहीं शर्मिंदा कि इस धर्म की वजह से ही हमारे भीतर ये इंसानियत की हम सबको इंसान समझते...

‘पकिस्तान’ में एक भी ‘इस्लाम’ मानने वाला इंसान नहीं जो लिखे कि मुझे शर्म हैं कि मैं मुसलमान हूँ मैं पाकिस्तानी हूँ... मुझे पता हैं कि वहां ऐसा कोई नहीं कहेगा बल्कि मौलवियों ने तो उसकी मृत देह को दफनाने से ही मना कर दिया जबकि हमारे यहाँ आतंकवादी को भी उसके परिजन ले जाकर उसका अंतिम संस्कार करते... Because It happens only in India.  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१७ अप्रैल २०१७

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