मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११५ : “भारतीय नृत्य : कहीं हो न जाये अदृश्य --- ०२”

साथियों... नमस्कार...

 
कला के माध्यम से मानव अपने मन की अनुभूतियों को प्रकट करता जो वो कह नहीं पाता उसे कभी शब्दों तो कभी लकीरों या कभी चेहरे के हाव-भाव से अभिव्यक्त करता हैं ‘नृत्य’ भी अभिव्यक्ति का एक ऐसा ही माध्यम हैं जो कि कला के अन्य सभी माध्यमों से सबसे अधिक सशक्त व प्रभावशाली हैं क्योंकि इसके द्वारा इंसान को एक साथ गीत, संगीत, वाद्य, लय, ताल का ज्ञान तो होता ही हैं साथ ही साथ इससे तन-मन का व्यायाम भी हो जाता हैं जिससे उसका पूर्णरूपेण विकास होने के साथ-साथ उसके मस्तिष्क व सभी अंगों में में रक्तसंचार का प्रवाह तेज होने से बुद्धि विकसित होती हैं और मुख की आभा भी बढ़ती हैं और केवल इतना ही नहीं होता बल्कि साधना की गहन अवस्था में पहुँचने पर समाधि की स्थिति आ जाती हैं जिससे ये ‘मोक्ष’ प्राप्ति का साधन भी बन जाता हैं याने कि केवल एक नृत्य के अभ्यास मात्र से एक साथ अनेक लाभ मिलते हैं तो इस तरह यह बहुउपयोगी विधा हैं जो आत्मा को परमात्मा तक ले जाने में भी सहायक सिद्ध हो सकती हैं...

तभी कलाओं को ‘साधना’ भी कहा जाता और इनकी शुरुआत करने से पूर्व कला की देवी या देवता की उपासना की जाती और इस साधना में रत रहने वालों को ‘साधक’ की उपाधि दी जाती लेकिन इतनी ऊँचाईयों तक पहुंचने के लिये हद दर्जे के समर्पण की आवश्यकता होती इतना कि खुद को भूलकर सिर्फ और सिर्फ उसे ही याद रखा जाये तो फिर अनवरत अभ्यास से व्यक्ति किसी तपस्वी की तरह अपनी तपस्या के लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता तब कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता... लेकिन ऐसा किसी विरले के साथ ही घटित होता कि हर कोई इस तरह से अंतर में डूबकर साधना में लीन हो विदेह बन अपने आपको उस साधना के लिये समर्पित नहीं कर पाता... यही वजह कि उसे झटपट ‘मेगी’ की तरह तैयार होने वाले डांस फॉर्म पसंद आते जबकि ‘भारतीय नृत्य’ को पकने में बहुत अधिक समय लगता और इतना धैर्य सबके पास कहाँ तभी तो इस इंस्टेंट फ़ास्ट फ़ूड के जमाने में लोगों को सब्र ही कहाँ रहा कि वो किसी एक कला को परफेक्ट बनाने अपने आपको तपस्या की आग में झोंक सके तो उसने शोर्टकट को अपनाया जिसका नतीजा हम सब देख ही रहे कि किस तरह भेलपुरी जैसे नाच हमें देखने पड़ रहे जो कुछ पल भले ही अच्छे लगे लेकिन लम्बे समय तक अपना असर नहीं छोड़ पाते...

‘द्वारिका-महात्म्य’ में तो ये तक कहा गया हैं कि, “जो भी प्रसन्नचित्त होकर श्रद्धा व भक्तिपूर्ण भाव से अपने आप में डूबकर नृत्य करता हैं वह जन्म-जन्मान्तरों के पाप से मुक्त हो जाते हैं” तो इस तरह ये व्यक्ति के अंतर को पवित्र बनाता हैं और वे मनोभाव जिन्हें किसी भी तरह से दर्शा पाना मुमकिन नहीं होता उसे नृत्य के द्वारा बड़ी सहजता से प्रकट कर दिया जाता हैं बोले तो जहाँ गायन और वादन किसी अहसास को हूबहू उसी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर पाता तो फिर नृत्य का सहारा लिया जाता और फिर तो वो जज्बात भी सामने आ जाते जो कहीं भीतर ही दबे रह गये थे तभी तो इसे संप्रेषण के लिये सर्वाधिक अनुकूल विधा माना गया हैं जहाँ मुखाकृति, पैरों की थाप, घुंघरू की आवाज़ मात्र से ही हृदय के उद्गार को बिना बोले ही कह दिया जाता और हमारे लिये तो ये ख़ुशी की बात कि भारतीय नृत्य इतने समर्थ कि हर रस, हर अनुभूति, हर अहसास को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते क्योंकि हमारे यहाँ विविध तरह के नृत्यों का समावेश जिन्हें अलग-अलग श्रेणियों में रखा गया हैं आज यही तक अगली कड़ियों में नृत्य के उन भिन्न प्रकारों पर ही चर्चा की जायेगी... :) :) :) !!!   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२५ अप्रैल २०१७

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