साथियों... नमस्कार...
वो ‘धर्म’ जो हम लेकर पैदा नहीं होते न ही जिसकी
वजह से हमारा अस्तित्व टिका हुआ उसे हमारी पैदाइश के बाद इस तरह से हमारी रगों में
भर दिया जाता कि भले ही नसों का सारा खून बह जाये लेकिन उसके विरुद्ध कोई भी बात
या कोई जबरन का आदेश सहन नहीं होता गोया कि जो खुद नहीं उसे बचाना इतना जरूरी हो
जाता कि फिर उसके लिये खुद को या किसी को भी मिटा देना पड़े कोई फर्क नहीं पड़ता कि
इसे भी हमारे यहाँ ‘धर्म’ ही माना जाता और उसे शहीद का दर्जा दिया जाता, वो धर्म
जो अमन, चैन, शांति का संदेश देता उसके लिये संपूर्ण विश्व में गजब की हिंसा का
प्रदर्शन किया जाता ऐसे में लगता कि सृष्टि में एकमात्र मानवीयता का ही धर्म लागू
कर देना चाहिये जिससे कि प्रत्येक इंसान का केवल नाम ही शेष रहे उस नाम के साथ
उसकी जाति या मजहब का कोई भी चिन्ह लगा नहीं होना चाहिये जो झगड़े की वजह बनता...
कुछ वैसा ही नजारा आज देखने में आ रहा जो आज से
सौ-डेढ़ सौ साल पूर्व ही हुआ था अंतर केवल इतना था कि तब इस देश पर अंग्रेजों का
शासन था और वे इस देश की कौमी एकता व गंगा-जमनी तहज़ीब से इस कदर भयभीत थे कि सबसे
पहले उन्होंने इसे ही निशाना बनाते हुये ‘राम-रहीम’ के मन में नफ़रत के बीज बोना
शुरू किये जिसके लिये ‘धर्म’ जैसे संवेदनशील विषय को ही हथियार बनाया गया जो भारत
जैसे देश में साँस जैसा अनिवार्य समझा जाता क्योंकि उनकी रणनीति केवल भाई-भाई में
भेद पैदा कर लड़ाई करवाना मात्र नहीं था बल्कि अपने ‘धर्म’ का प्रचार करना भी था
याने कि केवल ‘फूट डालो राज करो’ की नीति ही नहीं ‘धर्मांतरण’ नाम की बीमारी भी
उनकी ही दी हुई हैं जो डंडे या प्रलोभनों बोले तो साम-दाम-दंड-भेद हर तरह की
कूटनीति के माध्यम से केवल अपना काम निकालना चाहते थे तो उन्होंने धीरे-धीरे हमारी
आपसी ताकत को कम करने भेद-भाव का ज़हर हमारे जेहन में भरा उससे भी काम नहीं चला तो
हमारी धार्मिक भावनाओं के अस्त्र-शस्त्र से हम पर वार किया...
इसे अंजाम देने उन्होंने इस तरह की कारतूसों का
निर्माण करवाया जिनमें वसा के नाम पर गाय-सुवर की चर्बी का इस्तेमाल किया जिसकी
भनक सेना के सिपाहियों को लग ही गयी तो उन्होंने इसका विरोध किया और ये दुस्साहस
दिखाने वाले क्रांतिवीर थे – ‘मंगल पांडे’ जिन्हें हम १८५७ के प्रथम स्वाधीनता
संग्राम का महानायक मानते हैं इनका जन्म 19 जुलाई, 1827 को उत्तर प्रदेश के
फैज़ाबाद ज़िले में हुआ था इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे तथा माता का नाम श्रीमति
अभय रानी था वे कोलकाता के पास बैरकपुर की सैनिक छावनी में "34वीं बंगाल
नेटिव इन्फैंट्री" की पैदल सेना के 1446 नम्बर के सिपाही थे भारत की आज़ादी
की पहली लड़ाई अर्थात 1857 के संग्राम की शुरुआत उन्हीं के विद्रोह से हुई थी इन्होने
ही वो चिंगारी फूंकी जो प्रचंड अग्निशिखा बनाकर इस तरह से प्रज्वलित हुई कि आखिर
में अंग्रेजी शासन की नींव ही हिला दी भले इस पूरे जन अभियान में एक शतक से अधिक
समय लगा लेकिन देशभक्तों ने इस अग्नि को बुझने न दिया बल्कि अपने रक्त आहुति से
इसे अधिक भड़काने का प्रयास किया...
भारतीय इतिहास के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की कहानी
का पहला पन्ना २६ फरवरी १८५७ को लिखा गया जब ‘एनफील्ड पी-53’
बंदूक सिपाहियों को दी गयी जिसकी कारतूस को मुंह से काटकर खोलना पड़ता उसमें भरे
हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस में डालना पड़ता था और यह अफवाह पहले
ही फैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी गयी हैं
जो ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ दोनों ही सिपाहियों की
धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था जिससे उनके धर्म भ्रष्ट होने का खतरा था तो बेरहामपुर
की 19वीं नेटिव इंफ़ैंट्री ने इसे इस्तेमाल करने साफ़ इंकार कर दिया जिसके
परिणामस्वरूप उन सबको बैरकपुर लाकर बेइज़्ज़त किया गया इस घटना से द्रवित ‘मंगल
पाण्डेय’ ने २९ मार्च सन् १८५७ को ‘बैरकपुर’ में अपने साथियों को इसके विरोध के
लिये ललकारते हुये अंग्रेज़ अधिकारी ‘सारजेंट
मेजर ह्यूसन’ पर गोली भी चला दी जो उसे रोकने आगे बढ़ा लेकिन अपने मन की बात को
सुना जिसके कारण उनकी गिरफ्तारी व कोर्ट मार्शल हुआ और छह अप्रैल१८५७ को उन्हें १८
अप्रैल को फांसी की सज़ा सुना दी गयी लेकिन कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के
खिलाफ असंतोष भड़क उठा तो अंग्रेज़ों ने उन्हें आठ अप्रैल को ही फाँसी चढ़ा दिया...
भले ही आज के दिन क्रांति का वो अग्रदूत चला गया
लेकिन अपने पीछे इंकलाब की अखंड ज्योति छोड़ गया जिसने बाद में भगत सिंह जैसे
युवाओं के भीतर भारत माता की आज़ादी के लिये जोश भर दिया और उनकी शहादत को नमन करते
हुये भगत सिंह ने आठ अप्रैल १९२९ को असेंबली में बम फोड़कर उस पावन अग्नि को भड़का
दिया जिसके कारण १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों को ये देश छोड़कर जाना पड़ा... इन वीर
शहीदों की कुर्बानी को हम अपनी आपसी रंजिश से उसी तरह मिटाने का प्रयास न करे जैसे
अंग्रेजों ने ‘धर्म’ को मुद्दा बनाकर किया
था तो उनका अंजाम भी हमने देखा अतः हम अपने इन क्रांतिकारियों के इतिहास से सबक
लेते हुये उसका स्मरण तो करें लेकिन दोहराये नहीं... यही कामना और इसी के साथ
हमारी स्वतंत्रता के पैरोकार को मन से नमन... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०८ अप्रैल २०१७
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