गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११७ : “भारतीय नृत्य : कहीं हो न जाये अदृश्य --- ०४”

साथियों... नमस्कार...

 
जब भी कोई ख़ुशी की बात हो या आनंद का कोई उत्सव लोग अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर करने के लिये नाचते-गाते और इस तरह अनायास ही ‘नृत्य’ और ‘संगीत’ उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा जिसका इतिहास उतना ही पुराना जितना इस दुनिया का अस्तित्व में आना और ये तो ऐसा भाव कि जिसे हम केवल इंसान ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी, प्रकृति के सभी पेड़-पौधे और यहाँ तक कि पूरी कायनात की हर एक शय धरती, आकाश और अंतरिक्ष में स्थित ग्रह-नक्षत्र भी अपनी धूरी पर नाचते जो स्वयमेव ही ये दर्शाता कि व्यक्ति बिना सीखे भी सहज-सरल ढंग से हाथ-पैरों व अंग-संचालन के माध्यम से नृत्य कर सकता क्योंकि ये तो मन का एक ऐसा आंतरिक अहसास जिसे कि चेहरे के हाव-भाव एवं मुखाकृति के द्वारा दर्शाया जाता फिर उसमें किसी नियम या सिद्धांत की भी कोई आवश्यकता नहीं होती और इस तरह से नृत्य की जो शैली प्रदर्शित होती उसे ‘लोक-नृत्य’ कहा जाता कि यह तो जन-जन का अपना नाच जिसे वो अपने ही ढंग से करता और हर राज्य या प्रांत ही नहीं बल्कि हर एक हिस्से का अपना ही एक अलग लोक-नृत्य होता जिसे ज्यादातर समूह में किया जाता कि ये समाज के एक बड़े वर्ग की जिंदगी को प्रभावित करता अतः इसे सामूहिक रूप से किया जाता और जितने ज्यादा लोगों का जमावड़ा होता आनंद उतना ही बढ़ जाता क्योंकि शास्त्रीय नृत्य की तरह इसमें किसी ख़ास पद्धति का पालन करने की जगह स्वाभाविकता को अपनाया जाता और जैसा मन चाहता उसी तरीके से अपनी अनुभूति को प्रकट किया जाता लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं कि लय-ताल या गीत-संगीत के तालमेल का ध्यान नहीं रखा जाता क्योंकि नृत्य कोई भी उसे एक लय में करने से उसकी प्रस्तुति आकर्षक ही नहीं प्रभावशाली भी बन जाती तो लोक-नृत्य में भी समूह का पद-संचालन और मुद्रायें एक समान होती केवल उसे इतनी छूट होती कि वो उसे अपने ढंग से भी कर सकता जबकि शास्त्रीय नृत्य के बंधे-बंधाये नियम व निश्चित क्रम होते जिनमें परिवर्तन करने या उनको तोड़ने से वो बेताल हो जाता जबकि लोक-नृत्य में ऐसी कोई बंदिश नहीं ये तो लोक या जनता का अपना नाच...

हम देश के किसी भी एक राज्य के सभी इलाकों का ही भ्रमण करे तो हम पाते हैं कि सबका अपना अलग लोकनृत्य हैं जो एक-दूसरे से भिन्न भी हैं और एक विशेष संप्रदाय या जाति के लोग मिलकर इसे करते जैसे कि मछुआरे अपनी ख़ुशी को कोली नृत्य या कोलयाचा के द्वारा प्रदर्शित करते तो ग्वाले या दूध बेचने वाले अहीर नृत्य कर उत्सव मनाते और इस तरह से यदि हम लोकनृत्य को समझने का प्रयास करे तो पाते कि ये भी अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं जो कि मुख्यतः चार होती हैं---

१.    वृत्तिमूलक इसमें ऐसे लोक नृत्यों को रखा जाता जो व्यक्ति के कर्म या वृत्ति से जुड़े होते जैसे कि जुताई, बुआई, मछली पकड़ना और शिकार आदि और इस तरह के नाच में लोग अपने काम के साथ-साथ इसे करते... अर्थात ये इनके व्यवसाय या इनकी गतिविधि को अंजाम देते समय या उनके पूर्ण हो जाने की ख़ुशी में किया जाता

२.    धार्मिक या आध्यात्मिक लोक नृत्यों के अंतर्गत इस तरह की शैलियों को रखा जाता जो कि किसी भी पर्व-त्योहार या उत्सव के आयोजन में किया जाता जैसे कि महारास, राम-लीला, गरबा, नटपूजा, नौराता, गणगौर आदि जिन्हें लोग तीज-त्यौहार के अवसर पर करते

३.     आनुष्ठानिक लोक नृत्य को सामान्यतः किसी विशेष अनुष्ठान के आयोअजं पर किया जाता जैसे कि तांत्रिक अनुष्ठान द्वारा प्रसन्न कर देवी या दानव-प्रेतात्मा के कोप से मुक्ति के लिये या फिर किसी मानता के पूर्ण होने पर अपनी ख़ुशी का इज़हार करने के लिये  

४.    सामाजिक लोक नृत्य सम्पूर्ण समाज को समाहित करता अतः इसके अंतर्गत हर वर्ग के द्वारा किया जाने लोक नृत्यों को सामाजिक मान्यता प्राप्त और इसमें सभी तरह के नृत्यों को शामिल किया गया हैं जैसे कि भांगड़ा, गिद्दा, लावणी, भोरताल, भवई, बिहू, कुम्मी, देवरत्तनम, थबल छोंगबा, जात्रा, चेरा, नाटी, गरबा. घुरई, झमाकड़ा, सिंघी छम, रउफ, घूमर, पण्डवानी आदि

इस तरह हम देखते कि नृत्य तो भारतीय जीवन का अंग जिसकी वजह से तमाम अभावों के बाद भी व्यक्ति आनंदित नजर आता कि इन नृत्यों से उसे ऐसी सकारात्मक ऊर्जा मिलती जो उसके जीवन की कमियों को भर देती उसके अंदर आनंद की तरगें हिलोरें लेने लगती जिससे मन के अवसाद या अन्य विकार भी पल में दूर हो जाते तो इस तरह से नृत्य मनुष्य को निरोगी बनाने में भी सहायक साबित होता... :) :) :) !!!   
      
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ अप्रैल २०१७

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