आज़ादी की खातिर देश के जितने भी वीर पुत्र और पुत्रियों
ने अपना बलिदान दिया उसमें से सबको ये पता था कि वो इसका उपभोग नहीं कर पायेंगे
फिर भी उन्होंने बिना किसी भी हिचकिचाहट या स्व-चिंतन के चाहे फांसी का फंदा हो या
दुश्मन की गोली अपने बढ़े कदमों को पीछे न हटाया क्योंकि, उनका एकमात्र लक्ष्य अपनी
भारतमाता को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद करना था । जिसके लिये भले ही समय कितना भी लग जाये लेकिन,
ये तय था कि सतत प्रयासों और अनवरत प्रहारों से कभी-न-कभी जंजीरें कमजोर होकर
टूटेगी तो ऐसे में यदि अपने हौंसलों को ढीला पड़ने दिया या वार को बंद किया तो कहीं
ऐसा न हो कि यही हमारी नियति बन जाये लोगों को ऐसे ही जीने की आदत पड़ जाये तो एक
के बाद एक लगातार क्रांतिवीर इस पुनीत यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देते रहे और
आख़िरकार वो दिन आ ही गया जब जंजीरें खुल गयी ।
अफ़सोस कि जिस अखंड भारत को कायम रखने उन्होंने
अपनी जान की बाजी लगा दी अंततः वो जब एक बार बंटा तो फिर बंटता ही गया कि इस देश
के स्वार्थी बेटे इतने अधिक जिन्होंने देश की खातिर कुछ भी न किया मगर, एक कृतध्न
पुत्र की तरह अपना हिस्सा मांगने में पीछे न हटे और अब तलक भी नाज़ायज वारिस की तरह
देश को अपनी पुश्तैनी जायदाद समझ जब-तब एक टुकड़े की मांग दोहराते रहते । वो नक्शा जिसे अविभाजित रखने के लिये ये
क्रांतिकारी फांसी के फंदे पर झूल गये आज यदि उसे देख ले तो जरुर सोचेंगे कि यदि ऐसा
पता होता तो फिर भला वे क्यों मौत को चुनते जब तक सांसें चलती जीते रहते परंतु,
उनका खून या उनकी सोच आज के लोगों की तरह आत्मकेंद्रित नहीं थी इसलिये उन्होंने
संपूर्ण देश और देशवासियों के लिये सोचा जिसका नतीजा कि देर से ही सही स्वदेश स्वतंत्र
हुआ ।
आज तो व्यक्ति पहले अपना फायदा देखता यदि लगे कि
इस काम में उसका कोई हित नहीं तो तुरंत पीछे हट जाता जबकि, आज़ादी मिले कोई बहुत
अधिक समय नहीं बीता जबकि, परतंत्रता के कठिन दीर्घ दिनों में जो भाईचारा या
आत्मीयता थी अपनों-परायों के मध्य वो अब एक परिवार के सदस्यों में भी दिखाई नहीं
देती कि आज़ादी ने लोगों की सोच के दायरे को संकुचित कर दिया और उनके भीतर के सद्भावों
व सद्गुणों को भी सीमित कर दिया ।
ऐसे में स्वार्थ भरे इस माहौल में जब किसी वीरपुत्र का बलिदान दिवस आता तो जेहन
में कहीं ये ख्याल भी उभर आता कि कैसे रहे होंगे वो लोग जिन्होंने उस चीज़ के लिये
अपना जीवन कुर्बान कर दिया जिसके बारे में उन्हें ये पता था कि शायद, वे उसे जी भी
न पाये मगर, किसी भी हाल में उन्होंने खुद को रुकने दिया जो ठान लिया सो ठान लिया
फिर कदम आगे ही आगे बढाये... जिससे हम ‘आज़ादी’ की साँस ले पाये... आओ इन वीरों के
बलिदान दिवस पर श्रद्धा से सर नवाये... उनकी बहादुरी के गीत गाये... मेरा रंग दे
बसंती चोला... ☺ ☺ ☺
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२३ मार्च २०१८
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