सोमवार, 5 मार्च 2018

सुर-२०१८-६४ : #फेक_फेमिनिज़्म_०१ #भटकता_स्त्री_सशक्तिकरण



'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाने का जो औचित्य था कि महिलाओं को दोयम दर्जे में न रखकर समानता का अधिकार हासिल हो क्योंकि, सिर्फ भारत ही नहीं विश्व के सभी मुल्कों में औरत की दशा कम या ज्यादा लगभग एक सी ही हैं । उसे अपने हक के लिये लड़ना पड़ता हैं जबकि पुरुषों को ये जन्म से ही हासिल होते और घरों का माहौल भी ऐसा कि लड़कियों को पैदाइश के साथ घुंटी में ही संस्कार व लड़की होकर पैदा होने संबंधी ज्ञान सिर्फ परिवार ही नहीं समाज के द्वारा भी मुफ्त में बांटा जाता और तमाम पाबंदियां जेहन में भर दी जाती जबकि लड़कों के लिये हर तरफ से खुली छूट के उदाहरण गिनाए जाते हैं । ऐसे माहौल में पल-बढ़कर जब लड़की बड़ी होती तो उसके लिए घर की चारदीवारी ही नहीं बल्कि किचन का छोटा-सा क्षेत्र ही उसकी दुनिया निर्धारित कर दी जाती ये कहकर कि आप तो पूरे घर की रानी हो भले आपको कोई भी निर्णय लेने का हक न हो

उसके जेहन में ये बात बिठा दी जाती कि पुरुषों के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता जिसकी चाबी ‘रसोईघर’ तो वो ताउम्र वहीं खटती रहती उसे याद भी न रहता कि कब उसने गर्म खाना खाया या खुद का ख्याल रखा क्योंकि उसे तो यही सिखाया गया कि उसका काम सबका पेट भरकर फिर बचा-खुचा खाना हैं न कि सबसे पहले भोग लगाना तो वो इसी को अपने जीवन की सबसे बडी खुशी समझ अपने आप से बेखबर दूसरों के लिए ही जीती रहती । सिर्फ अपने घर ही नहीं ससुराल जाकर भी उसके कर्तव्यों में कमी नहीं आती उल्टे दायित्वों की फेहरिश्त और लम्बी हो जाती जिसमें सबके प्रति उसके कर्तव्यों का तो उल्लेख होता लेकिन, दूसरों का उसके प्रति या स्वयं उसका अपने लिए क्या सही या गलत उसका कहीं जरा उल्लेख तक नहीं होता क्योंकि उसका तो जन्म ही दूसरों के लिए हुआ वो देवी, अन्नपूर्णा, बहु, मां, भाभी हैं जिसका मर्द के बगैर कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं तो नाम भी उनके बिना अधूरा होता हैं तो इसे ही सच मानकर वो दुख-तकलीफ, बीमारियों को सहन करते हुए चुपचाप एक दिन मर जाती मगर, उफ़ नहीं करती हैं ।

ये तस्वीर का वो पहलू जिसे बदलने के लिए ही ‘स्त्रीवाद’ या ‘महिला दिवस’ या ‘स्त्री सशक्तिकरण’ जैसे आंदोलनों की आवश्यकता पड़ी लेकिन, जिस तरह से कुछ महिलाओं ने इसके वास्तविक अर्थ को न समझकर केवल पुरुषों को नीचा दिखाना या पितृसत्ता को गरियाना या फिर पुरुषों जैसी जीवन शैली को अपनाना ही ग्रहण कर लिया तो ‘फेक फेमिनिज़्म’ ने वास्तविक स्त्रीवाद की जगह लेकर उसको मजाक का विषय बना दिया हैं इसलिये आये दिन बेकार का कोई अभियान या गैर-जरूरी कोई मुहिम स्त्रीवाद के सच्चे मायनों को इतना धुंधला देती कि महिलाएं खुद इन सब बकवासों को ही असल सशक्तिकरण समझ इसकी पैरोकार बन जाती क्योंकि सच कहें तो वो खुद भी नहीं जानती कि फेमिनिज़्म का अर्थ क्या हैं उसे तो मर्द ही किसी भी बेकार के मुद्दों में उलझाकर कल भी मजे कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं

ऐसे में ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ भी महज एक दिन का आयोजन बन अपने उद्देश्य से भटक रहे तो ऐसे में जरुरी कि महिलाएं इस पर गहन विचार करें कि उसे वास्तव में क्या चाहिए न कि गलत की प्रचारक बन अपना मख़ौल उडवाये जैसा कि आये दिन देखने में आ रहा इसलिये इस महिला दिवस आज से लेकर 8 मार्च तक उन्हीं विषयों या मुद्दों पर ध्यानाकर्षित करने एक श्रृंखला #फेक_फेमिनिज़्म_भटकता_स्त्री_सशक्तिकरण नाम से शुरू कर रही हूं इस उम्मीद के साथ कि महिलाएं इसके शब्दों की चीर-फाड़ न कर मर्म को समझ खुद को सही मार्ग व अपनी लड़ाई को सही दिशा देगी अन्यथा ज्यादा कुछ न बदलेगा केवल आधुनिक कपड़ों या नौकरी या आर्थिक आज़ादी या सिगरेट-शराब पकड़े महिलाओं की तस्वीरों के जबकि भीतर खोखलापन बढ़ता ही जायेगा

प्रकृति ने ही जब स्त्री पुरूष को असमान बनाया तो सिर्फ बाहरी समानता हासिल कर वो अपने स्त्रीत्व, मातृत्व व गरिमा को खोकर विपरीत लिंग के सिवाय कुछ भी न शेष रहेगी नारी अस्मिता कोई शर्म की नहीं गर्व की बात जिसे सहेजकर ही वो अपना मुकाम ही नहीँ अपने अधिकार भी पा सकती इसलिये जरूरी कि वो समझे कि what is real feminism ?

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०५ मार्च २०१८

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