स्त्रियों के पिछड़ेपन का दोष अमूमन ‘पुरुषसत्ता’
को दिया जाता जिसके लिये उन धर्मग्रंथों या ऐतिहासिक तथ्यों का हवाला दिया जाता
जिसे लिखने वाला वास्तव में एक ‘आदम’ माना जाता हैं । जिसने ‘हव्वा’ को परंपराओं व रीति-रिवाजों के
नाम पर तमाम तरह की पाबंदियों में बाँध उसके विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया और
उसने भी सदियों तक बिना किसी सवाल के उसे ईश्वर का हुकुम माना आँख मूंदकर उसका
अनुशरण किया ।
लेकिन, जिस तरह ‘आदमी’ के पास अपना बुद्धि-विवेक
व अन्य ज्ञानेन्द्रियां हैं उसी प्रकार ‘औरत’ के पास भी हैं तो आखिर, किस तरह से
और कब तलक वो उन नियमों का पालन करती जो केवल उसके अकेले के लिये थे । इसलिये जिस दिन उसकी आँखें खुली उसने सवाल करना
शुरू कर दिये जिनके जवाब उनके पास तो थे नहीं जिनसे पूछा गया क्योंकि, लिखने वाले
तो बहुत पहले चले गये ।
ऐसे में उन्होंने किन परिस्थितियों या कालखंड के
अनुसार इन्हें लिखा इसका आंकलन अतीत की खोजबीन के अनुसार किया गया जिसमें ये पाया
गया कि चूँकि वो दौर पुरुषों के वर्चस्व का था । इसलिये उन्होंने जैसा चाहा वैसा संविधान बनाया
खुद के लिये अलग और स्त्रियों के लिये अलग परंतु, इसके एक दूसरे पहलू को कम ही
देखने का प्रयास किया गया कि यदि ऐसा लिखा गया तो उसकी वजह क्या थी ?
सिर्फ नारियों का दमन या शोषण जबकि, उन्होंने ही
‘औरत’ व ‘आदमी’ को रथ के दो पहिये माना तो फिर एक को कमजोर तो दूसरे को बलवान कहने
का क्या मतलब ? वहीँ इतिहास से ये भी ज्ञात होता कि इस देश में ‘मातृसत्ता’ भी
स्थापित थी फिर ऐसा क्या हुआ होगा जो स्त्रियों को घर की चारदीवारी व दहलीज में ही
सीमित नहीं किया गया बल्कि पर्दे के भीतर भी रखा गया याने कि उसके आत्मविश्वास को
धीरे-धीरे इस हद तक तोड़ा गया कि घर की देहरी लांघने के लिये भी उसके अंदर साहस शेष
नहीं रह गया ।
बहुत गहराई से सोचे तो लगता कि इसमें कहीं न
कहीं इस देश में दूसरे देश से आने वाले आक्रमणकारी भी एक वजह थे जिनकी नजरें औरतों
पर रहती थी ।
फिर भी ऐसे समय में पुरुष ही थे जिन्होंने आगे आकर औरतों को सती प्रथा, बाल-विवाह
और अशिक्षा जैसे कुप्रथाओं से बचाया और उनके हक़ के लिये लड़ाई भी लड़ी । जो ये साबित करता कि स्त्री-पुरुष दोनों दो आँख
के समान जो एक-दूजे के इशारे पर संचालित होते और उनके मध्य संतुलन भी बनाते एक
रोये तो दुसरे की भी आँखों में नमी तैर जाती और जीवन में ख़ुशी का कोई मौका आये तो
फिर ये दोनों हंसती भी साथ-साथ याने हर सुख-दुःख में शामिल ।
यही तो हैं ‘सच्चा नारीवाद’ जिसमें कोई किसी पर
अत्याचार नहीं करता बल्कि हाथ पकड़कर साथ-साथ चलते कि यदि कभी कोई गिरे तो दूसरा
उसे संभाल ले... इसलिये इसे केवल ‘महिला’ नहीं ‘स्त्री-पुरुष दिवस’ भी कहा जाये तो
गलत न होगा कि दुनिया में केवल स्त्रियाँ ही हो या केवल पुरुष ही हो दोनों ही
स्थितियों में वो दुनिया अधूरी होगी संपूर्णता तो ‘दोनों’ में ही हैं... इसलिये इस
दिन की दोनों को सम्मिलित बधाईयाँ...☺ ☺ ☺ !!!
_____________________________________________________
© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०८ मार्च २०१८
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें