बुधवार, 7 मार्च 2018

सुर-२०१८-६६ : #फेक_फेमिनिज़्म_०३ #देशी_वाद्य_पर_विदेशी_राग_गाती_स्त्री



फेमिनिज्म’, ‘फेमिनिस्ट’ और ‘फेमिना’ ये शब्द भी विदेशी हैं और ये मुहीम भी विदेश से ही आयातित हैं क्योंकि, ये माना जाता कि समस्त दुनिया में रहने वाली स्त्रियों की समस्यायें भी तो एक हैं ऐसा कहने वाले लेकिन, इसके साथ एक तथ्य जोड़ना भूल गये कि भले पूरे जहान की औरतें एक समान हैं मगर, उसके बावजूद भी एक सत्य ये भी हैं कि हर एक मुल्क की सभ्यता-संस्कृति और रहन-सहन अलग-अलग हैं इस वजह से उनकी मूलभूत आवश्यकतायें जहाँ बाहरी रूप से देखने में एक समान नजर आती वहीँ आंतरिक पड़ताल करने पर ज्ञात होता कि उनकी समस्यायें भिन्न हैं

बहुत-से मुल्कों में स्त्री शिक्षा या भ्रूण हत्या या बाल विवाह या संतान में भेदभाव जैसी कुरीतियाँ पहले से ही नहीं हैं न ही अन्य जो हमारे यहाँ अंधविश्वास या धर्म के नाम पर नजर आती इस तरह से देखा जाये तो उन मुल्कों की लड़ाई के विषय अलहदा हैं अतः वे इसे अपने तरीके से परिभाषित करते तो ऐसे में जरूरी कि हमारे यहाँ भी इसकी भारतीयकरण किया जाये विशेष रूप से भारतीय महिलाओं की परिस्थितिनुसार उनकी जरूरतें स्पष्ट की जाये न कि जो मुद्दे या जो अभियान किसी अन्य देश में शुरू हो उसे बिना समझे-बुझे या उसकी आवश्यकता को जाने हमारे यहाँ उसका ढोल पिटा जाये

जैसा कि अधिकांश अभियानों में देखने में आता कि एक ‘हैश टैग’ कहीं चालू हुआ हमारी महिलाओं ने उस पर विचार-विमर्श किया बिना ही खुद को आधुनिक दर्शाते हुये उसको तुरंत फॉलो किया । सोशल मीडिया और इंटरनेट के जमाने में एक लम्बे समय से यही देखने में आ रहा कि जितने भी स्त्री संबंधी ‘हॉट टॉपिक’ या ‘मुद्दे’ चर्चा में रहे वे इसी तरह से किसी एक देश में शुरू हुये और फिर अधाधुंध उनको वायरल कर सुपर हिट बना दिया गया । ऐसा होने से वो ‘अभियान’ भले ही ‘ट्रेंड’ करके नंबर वन पर आ गया हो लेकिन, उससे किसी तरह का समाधान सामने आता हुआ तो दिखाई नहीं ही दिया जो दर्शाता कि वो हमारे यहाँ के माहौल एवं परिवेश के अनुकूल नहीं थे फिर भला किस तरह उनसे हमें लाभ होता ।

वैश्विकरण और बाजारवाद ने भी इन सब मसलों पर बढ़िया तड़का लगाया तो फिर इनसे बचना कठिन ही रहा तो क्या जरूरी नहीं कि हम ये सोचे कि इस तरह के जितने भी ‘हैश टैग कैम्पेन’ चलाये गये उनसे हमने हासिल क्या किया । इनकी शुरुआत ही इतने आकर्षक व् सम्मोहक तरीके से हुई कि इनके मोहजाल से बचना मुश्किल रहा लेकिन, वो शिक्षा ही किस काम की जो सोचने-समझने की शक्ति ही छीन ले और हम महज़ फ़ॉलोवर बनकर रह जाये । पाश्चात्य आधुनिकीकरण ने सबको इस तरह से अपने मोहपाश में बाँधा कि सही-गलत का भेद भूलकर हर कोई उनका मुरीद बन उनका ही गुणगान करता नजर आता तो फिर इस तरह के किसी भी अभियान से वो खुद को किस तरह बचा सकता हैं ।

आज जहाँ देखो देश तो अपना ही हैं लेकिन, यहाँ की औरतें भारतीय कम विदेशी अधिक नजर आती क्योंकि, उन्होंने उन मुल्कों और उनमें रहने वाली ‘फेमिनाओं’ से ये नहीं सीखा कि आधुनिकता को तो अपनाना हैं मगर, सिर्फ विचारों में न कि मात्र पहनावे या बाहरी रूप-रंग या प्रदर्शन में यदि इस बात को सब समझ ले तो अपनी भारतीयता और अपनी सभ्यता-संस्कृति को खोये बिना वे ‘नारीवाद’ के उद्देश्य को प्राप्त कर सकेंगी अन्यथा अपनी डफली, विदेशी राग़ में हम नकल ही नजर आयेंगे... जबकि, दूसरे देशों को देखो तो उनका रहन-सहन या पहनावा या खान-पान उनका अपना ही होता केवल, विचारों में ‘फेमिनिज्म’ झलकता यही तो हमें भी करना हैं... भारतीय देह में ‘फेमिना’ की आत्मा को बसाना ताकि हमारी सदियों पुरानी पहचान विश्व में कायम रह सके गुम न हो जाये ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०७ मार्च २०१८

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