शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

सुर-२९६ : "हो रही माँ हम सबसे जुदा... भींगी आखों से करते विदा...!!!


विदा की घड़ी
जब-जब भी आती
नयनों में आंसू लाती
चाहे फिर करना हो
नवरात्र व्यतीत होने पर
देवी प्रतिमा का विसर्जन
मन तो हो जाता अमन
करना चाहता बार-बार दर्शन
कर भावों का समर्पण
मांगता फिर आने का वचन
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मित्रों...,
 
सूने लगे रहे सब गली-चौराहे खामोश हो गयी दिन-रात आती देवी गीतों की सारी आवाजें बुझ गयी जगमगाती तरह-तरह की सारी रोशनियाँ... नजर नहीं आती कहीं कोई भी झांकी जिनमें विराजी थी माँ दुर्गा की सुंदर-सुंदर छवियाँ जिन्हें देख-देखकर पता ही नहीं चला कि कब ये नौ दिन बीत गये पर, आज जब नगर की सारी सडकों को पानी से धूला हुआ और उन पर गर्द की जगह गुलाल बिखरी दिखी और जगह-जगह गाड़ियों पर सवार देवी माँ की मूर्तियों को बड़ी श्रद्धा भक्ति से ले जाते भक्तगणों का रेला नजर आया तो कदम भी अपने आप ठिठक गये और मूरत को देखते-देखते ही आँखों में आसूं भी आ गये तो उस विदाई की इस बेला में आना स्वाभाविक भी हैं क्योंकि कहने को भले ही ये माटी की बनी मूर्तियाँ हैं लेकिन मन का लगाव तो इनसे उसी तरह हो जाता जैसे कि किसी भी नजदीकी अपने प्यारे के साथ रहकर महसूस होता और जब उसके जाने का समय आता तो मन व आँखें दोनों भींग जाते हम इसे किसी तरह सहन कर आगे भले ही बढ़ जाते लेकिन उस पल तो खुद पर काबू करना कठिन लगता जब वो हमसे दूर जाते और इसका दर्द का अहसास उतना ही गहरा होता जितना कि उससे हमारा प्यार यही तो हमारे संवेदनशील होने का प्रमाण हैं

जगत्जननी माँ तो वैसे भी हम सबको प्रिय हैं जिसने हम सबका जन्म हुआ फिर उनका जाना क्यों न दिल को ग़मगीन करें और हमारे यहाँ तो ये मान्यता भी हैं कि ये धरती माँ का मायका हैं जहाँ वो अपने परिजनों के बीच रहने और उनका दुःख-सुख बाँटने आती हैं तो फिर उनका जाना भी बेटी की विदाई की तरह दुखदायी होता और हर कोई चाहता कि वे जाते-जाते उनसे फिर आने का वादा कर ले ताकि वो उसके भरोसे जुदाई के दिनों को बिता सके तो इस तरह अगले साल पुनः आने का वचन लेने पर ही मन को शांति मिलती और शुरू हो जाता इंतजार अगले साल का जो पुनः उन्हें हम सबके बीच लायेगा... हर असहनीय वियोग के कठिन दौर को इसी आस पर ही तो हम व्यतीत कर पाते हैं तो आज उनको इस उम्मीद पर कहते हैं बाय... बाय... :) :) :) !!!    
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२३ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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