सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

सुर-२८५ : "पितृमोक्ष अमावस्या आई... पितरों के विदा की घड़ी आई...!!!"



आ... आ... आ... कागा...
पितरों का भोग ले जा कागा...!!!

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मित्रों...,

ये दृश्य सिर्फ इस भारत भूमि पर ही देखने को मिलता हैं जहाँ किसी के सदा के लिए दुनिया छोड़कर जाने के बाद, उसकी आत्मा के परमात्मा में विलीन हो जाने के बाद भी हर बरस उसकी याद में एक पूरे पखवाड़े हमारे ‘पूर्वजों’ के उस अदृश्य अस्तित्व का मेला लगता हैं... जब हम सभी ये मानते हैं कि हमारे परिवार के सभी बड़े-बुज़ुर्ग जो स्वर्गवासी हो गये हैं, वो इन दिनों सूक्ष्म रूप में ‘काक’ का भेष बनाकर इस पृथ्वी पर आते है और हम उनके निमित्त श्रद्धा से जो भी भोग लगाते हैं वे उसे बड़े प्रेम से ग्रहण करते हैं... आजकल भले ही नई पीढ़ी की सोच बदली हैं और वो इन रीति-रिवाज़ों को नहीं मानता बल्कि वो तो अपने जीते-जागते माता-पिता को भी नहीं पूछता पर हमारी इन परम्पराओं और संस्कृति ने ही हमें अब तक अक्षुण रखा हैं... यही वो हमारी अनगिनत छोटी-बड़ी गौरवशाली विरासत हैं जिसके कारण हम गर्व से कहते हैं कि ‘कुछ बात हैं कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, बरसों रहा हैं दुश्मन दौर-ए-जहाँ हमारा’... ये ‘श्राद्ध पक्ष’ हमारी आत्मिक श्रद्धा के पवित्र दिवस हैं जो हमें अपनी जड़ों से परिचित करवाते हैं और अपने अतीत में झाँकने का एक अवसर भी प्रदान करते हैं... इसलिए इनका आगमन और विसर्जन का ये अंतराल एक अद्भुत आंतरिक सुकून की अनुभूति से भरा अहसास होता हैं जब हम अपने पूर्वजों की तस्वीरों में अपना अक्स देख लेते हैं बीते समय को फ़िर जी लेते हैं... :) :) :) !!!
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१२ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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