बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

सुर-३०१ : "चिंतन --- 'न' बोलना नहीं... काम करना नहीं...!!!"


जुबां की बात
कभी-कभी चेहरे से
सामंजस्य नहीं बिठाती 
पर, जो केवल शब्द सुनते
चेहरे को नहीं पढ़ते 
रह जाते ठगे
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मित्रों...,

बहु... मैं मंदिर जा रही हूँ तुम खाना बनाकर रख लेना आज तो चाचा-चाची भी आने वाले हैं तो कुछ विशेष पका लेना मैं भी बस जल्दी से आकर कुछ मीठा बना दूंगी ऐसा कह उधर से बहु की आवाज़ में बड़ा सा ‘हाँ’ सुन निश्चिंत होकर रत्ना जी घर से बाहर निकल गयी और जब वे एक घंटे बाद लौटी तो  देखा कि सब कुछ ज्यों का त्यों था बहु ने तो लगता किचन में आकर झाँका तक नहीं था वे उसको पुकारती हुई उसके कमरे तक पहुंची तो देखा कि वो तो मजे से मोबाइल पर किसी से बतिया रही थी जैसे ही सास को आते देखा तो फोन बंद कर बोली, अरे मम्मीजी अभी मेरी सहेली का फोन आया उसका एक्सीडेंट हो गया तो मुझे तुरंत उसे देखने हॉस्पिटल जाना ऐसा कह वो उनके जवाब का इंतजार किये बिना तुरंत चली गई तभी दरवाजे की घंटी बजी और सामने देखा तो मेहमान आ चुके थे तो वे जल्दी से उनका स्वागत करने द्वार पर पहुंची पर, मन खिन्न हो चुका था तो लाख मुस्कुराने की कोशिशों के बावज़ूद भी उसका कुछ प्रभाव चेहरे पर आ गया था फिर उन्हें डायनिंग रूम में बिठा बात करने लगी लेकिन मन में तो वही सब चल रहा था कि अब सब कुछ जल्दी-जल्दी कैसे होगा ये बहु भी न साफ़-साफ मना नहीं करती लेकिन काम भी नहीं करती हर बार कामों से बचने का कुछ नया बहाना होता इसके पास और उनके पास सिवाय उस स्थिति से समझौता करने कोई ओर विकल्प नहीं होता क्योंकि वे वाद-विवाद में पड़ना पसंद नहीं करती उन्हें तो शांति से रहना पसंद हैं और घर में कलह हो ये उन्हें किसी भी तरह बर्दाश्त नहीं और उनके इसी सीधेपन का फायदा उनकी बहु उठाती थी इसके अलावा वे अपने इकलौते बेटे को खोना भी तो नहीं चाहती थी जिसने सबकी मर्जी के खिलाफ जाकर अपनी मर्जी से बहु को चुना था

उन्होंने जैसे-तैसे उस दिन सारा काम निपटाया पर, जब सबके जाने के बाद जब एकांत में बैठी तो उन्हें याद आया कि बहुत से लोगों में उन्होंने ये आदत देखी जो किसी भी काम के लिये कभी इंकार नहीं करते पर, जो उनको दायित्व या कार्य सौंपा गया वे उसे कभी नहीं करते जिसका खामियाजा अक्सर बहुत बुरी तरह उन्हें भुगतना पड़ा हैं समझ नहीं आता कि साफ़-साफ़ मना करने में इनका जाता क्या हैं कम से कम इससे सामने वाला खुद को तैयार तो कर सकता हैं इसकी वजह से सिर्फ काम का ही हर्जाना नहीं होता बल्कि कितनी सारी अप्रिय परिस्थितियों से तालमेल बिठाना पड़ता साथ-साथ असहज मनोस्थिति को भी झेलना पड़ता जो कि इस वजह से उत्पन्न हो जाती और फिर इसमें सामंजस्य बनाते हुये ही आगे बढ़ना पड़ता अरे, न बोलना इतना कठिन नहीं जितना कि इन सब मुसीबतों से पार पाना उफ़... किस तरह की फ़ितरत होती इन लोगों की जो कभी तो अपनी छवि को साफ़-सुथरा रखने के लिये इस तरह की हरकत करते तो कभी उनकी आदत उन्हें ऐसा करने मजबूर करती और कुछ लोग तो ऐसे भी होते जो दूसरों को महज परेशान करने भी इस तरह का व्यवहार करते जिसके कारण सामने वाले को जो भुगतना पड़ता उससे इन्हें कोई सरोकार नहीं बल्कि ये तो जुबान पर ‘हाँ’ दिल में ‘ना’ और व्यवहार में ‘बेफिक्री’ रखते और उनके इस दोगले चरित्र से किसी का कितना भी नुकसान हो उन्हें क्या पिछली बार ही तो उनकी देवरानी ने कहा था, दीदी आप बिल्कुल भी फ़िक्र नहीं करना हम वहां आकर आपके साथ दीपावली की साफ़-सफाई और मिठाई बनाने का सारा काम संभाल लेंगे इसलिये अभी तो आप आराम करो बस, बच्चों की छुट्टी शुरू होते ही अगले ही दिन हम वहां आ जायेंगे तो वे एकदम निष्फिक्र हो गयी लेकिन ये क्या देवरानी न तो आई न ही खबर भिजवाई उन्होंने फोन किया तो पता चला कि उनका तो अचानक ही कोई दूसरा कार्यक्रम बन गया और वे अपने मायके चली गयी सुनकर उनके पैरों तले धरती खिसक गयी उस वक़्त भी जैसे-तैसे उन्होंने सब काम निपटाया पर, आज भी इस तरह के लोगों से उनका सामना होता रहता और वे सोचती कि वो भी ऐसी क्यों नहीं बन जाती पर, कमबख्त स्वभाव बदलता नहीं काश... वे ऐसे लोगों को समझा पाये कि ये कितना घातक हैं तो उनका चिंतन सार्थक बन जाये... :) :) :) !!!              
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२८ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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