मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

सुर-२७९ : "शब्दांजलि --- ओ मेरे सांवरे...!!!"

            
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मित्रों...,

आज सुबह देख भगवान की मूर्ति आँखों से अपने आप अश्रु छलकने लगे...
और अधर कुछ यूँ कहने लगे---

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उस महासमर में
जब अपने ही खड़े थे
अपनों के सामने ।
तुम ही तो आये थे
तब बनकर कुशल सारथी
धर्मरथ को थामने ॥
……….
विश्वरूप धरकर
धरा से आकाश तक लगे
ब्रम्हांड को नापने ।
टूट गये सारे भ्रम
ऐसा दिया गीता का ज्ञान
अंतर्मन में झाँकने ॥
……….
दर्शन अभिलाषी
तकते ही रह गये नयन
ऐसे हुये बावरे ।
होती न विजय
लहराता न धर्म का परचम
तुम बिन सांवरे ।।
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कभी-कभी मन उस अदृश्य के प्रति यूँ ही आभार व्यक्त करता हैं... मन दर्पण साफ हो फिर से चमकता हैं... तो यूँ ही अश्कों का बहना भी अच्छा होता हैं... हैं न... :) :) :) !!!
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०६ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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