मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

सुर-२९३ : "आई दुर्गाष्टमी की रात... करें माता से फरियाद...!!!"


आई
नवरात्र की
अष्टमी तिथि
करते भक्त
हवन-पूजन साविधि
कि बढ़ती रहे
उनकी अक्षय निधि
न रहे किसी भी
सुख-साधन में कमी
पर, जो चाहते
भगवान को पाना
जिनके मन में
होती उनके दर्शन की
चिर अधूरी आस
जो चाहते हैं बुझाना
अपने अंखियों की प्यास
वो करते सिर्फ़...
प्रभु मिलन की अरदास
------------------------------●●●
                 
___//\\___

मित्रों...,

साधना-उपासना के द्वारा ऋतू परिवर्तन को सहज बनाना और मन की कलुषित भावनाओं को होम की अग्नि में भस्मीभूत कर अपने तन-मन को भी पवित्र बनाना जिससे कि सांसारिक मोह-माया से अंतर की मलिनता को धोकर उसे स्वच्छ निर्मल बनाया जा सके इसलिये हर तीन महीने की अवधि में जगत जननी माँ आदिशक्ति की भक्ति भावना से परिपूर्ण परम तेजोमय नव जागरण की ऊर्जामयी ‘नवरात्र’ का इस पापमय जगत में आगमन होता हैं ताकि मोह-माया के जाल में उलझ जीवन का ध्येय भूल जाने वाले तुच्छ प्राणी ध्यान-मनन से पुनः नौ द्वारों वाले शरीर में बसने वाले छह चक्रों के माध्यम से ब्रम्हांड के आवागमन के रहस्य को जानने की प्रक्रिया से गुजरकर अपने लक्ष्य को समझ सके ऐसे में अगर किसी एक भी मनुज की कुंडलिनी जागृत हो गयी तो वो इस भवबंधन से मुक्त होकर सूक्ष्म में विलीन हो जाता या फिर अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर उसको साधने में लग जाता क्योंकि ये नौ दिन एवं नौ रातें परम शक्तिशाली असीम सकारात्मक ऊर्जा से भरी होती जिनमें पूरे मनोयोग से की गयी अल्पावधि की तपस्या भी इंसान को निम्नतर से उच्चतर अवस्था में ले जा पाने में सहायक सिद्ध होती जिसके लिये केवल अपने आप को हर तरह की वासनाओं से पृथक कर वापस अपने उद्गम स्थल या अपने उस केंद्रबिंदु जहाँ से हम जन्मे हैं जिसे कि ‘नाभि’ कहते पर केंदित करना पड़ता और बस, हमें अपने जीवन का मूल ही नहीं बल्कि जिस वजह से हम इस धरती पर आये सबका ज्ञान हो जाता और हम पूरी तन्मयता से उसे पूरा करने के कर्मयोग में जुट जाते जिसके लिये आवश्यक ताकत हमें इन्हीं नव दिन-रातों में प्राप्त हो जाती हैं

शारदीय नवरात्र तो वैसे भी समस्त हिंदू वर्ग का वार्षिक पूजन का पर्व कहलाता और अष्टमी तिथि तो उनके लिये विशेष मानी जाती क्योंकि इस दिन सभी के घर में कुलदेवी का सालाना अनुष्ठान किया जाता जिस न केवल करने का अधिकार सिर्फ घर के पुरुष एवं बहुओं को होता बल्कि इसका प्रसाद भी सिर्फ़ उन्ही को दिया जाता लेकिन घर की बेटियों को इससे वंचित रखा जाता जिसकी वजह शायद, ये होती कि हमारे यहाँ जन्म से ही पुत्रियाँ को दूसरे के घर-परिवार और खानदान की धरोहर माना जाता इसलिये इस तरह के धार्मिक आयोजनों से हमेशा बेटियों को दूर रखा जाता खैर, वजह जो भी हो लेकिन ‘दुर्गा माता’ तो अपने भक्तों में कोई भेद नहीं करती अतः उनकी उपासना हर एक जन कर सकता जिसमें न तो लिंग और न ही ही जात-पात का ही कोई विभाजन किया जाता भले ही हम मनुष्य इसमें भी अपनी तरह से कोई भिन्नता ढूंढ लेते हो लेकिन जगतमाता और जगतपिता के नजरों में सब एक ही होते इसलिये तो छोटे-बड़े, जवान-बूढ़े सभी उत्साह से भरकर बड़े प्यार से उनकी झांकी सजा इन नौ दिन-रातों में अथक उनकी सेवा कर जागरण करते जिससे माँ प्रसन्न होकर उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति करती और उनको इच्छित वर का दान देकर उनकी साधना को सफल करती लेकिन कुछ लोग इन ख़ास दिवसों का औचित्य सही तरह से नहीं समझते और केवल व्रत-उपवास का उपरी दिखावा कर अपने आपको ईश्वर भक्त कहलाना चाहते जबकि ‘व्रत’ या ‘उपवास’ का तात्पर्य केवल फलाहार या व्रत के खाद्य पदार्थों को खाना नहीं हैं बल्कि इन असाधारण दिनों में हम किसी भी तरह का संकल्प लेकर अपने मन को स्थिर कर व्रत रख सकते जो कि सार्थक भक्ति होगी पर, हम लोग एक सांचे में इस तरह से ढल गये कि उसी परिपाटी को दोहराते जाते और कुछ नवीन करने से घबराते क्योंकि हम सब धर्म भीरु होते अतः धर्म-कर्म में अपनी तरह से कोई परिवर्तन करना पाप समझते लेकिन गलत आचरण करना हमें जरा भी अनैतिक नहीं लगता बड़ी ही विडम्बनाओं से भरा हुआ हैं हमारा दैनिक जीवन जहाँ सही-गलत का पैमाना अपने हिसाब से हम ही तय करते और फिर अपनी जरूरतों से उसे तोड़ भी देते

आज यही व्रत ले कि माँ हम सबको बुद्धि दे कि हम इंसानियत को ही धर्म मानकर हर इंसान को एक नजर से देख सके जो आज की सबसे बड़ी जरूरत हैं... तो यही हमारी सच्ची पूजा होगी.... जय माता दी... :) :) :) !!!                 
___________________________________________________
२० अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
--------------●------------●

कोई टिप्पणी नहीं: