सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

सुर-२९१ : "चिंतन --- ज्वाला नहीं... ज्योति बनो...!!!"

           
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मित्रों...,

अपनी षोडशी कन्या ‘शेफ़ाली’ को आज फिर कॉलेज से परेशां होकर आते देख माँ भी थोड़ी चिंतित हो गयी आजकल उसका ये रोज का ही काम था कहीं से भी आये घर में बडबडाते हुये ही घुसती बाहर तो किसी का कुछ कर नहीं पाती लेकिन अपने कमरे में बैठकर कभी चुपचाप रोती तो कभी यहाँ से वहां दनदनाती फिरती ये सब देखकर माँ को अच्छा नहीं लगता लेकिन आज जब उसे चीजों को तोड़ते-फोड़ते अपने गुस्से को यूँ ही जाया करते देखा तो वो उसके नजदीक आई और बोली---

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मत बनो ज्वाला
जो धधकती
भीतर ही भीतर और
अंतर को जलाती
पल-पल आग बढाती
कभी-कभी साथ अपने
दूसरों को भी मिटाती
इसलिये बनो ज्योति
जो खुद तो जलती साथ
दूसरों को भी राह दिखाती
बनकर होम की ज्वाला
दुनिया में अमन संदेश फैलाती ।।
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‘शेफ़ाली’ को समझ में आया कि उसके अंदर के शक्ति और ऊर्जा को वो यूँ ही बेकार गंवा रही हैं जबकि इनको सही दिशा में लगाकर न सिर्फ़ अपना बल्कि दूसरों का भी कुछ तो भला कर सकती हैं क्योंकि इस तरह तो कोई बदलाव आने से रहा जिन लोगों को शराफ़त की भाषा समझ नहीं आती उनसे उस तरह बात करने का कोई मतलब नहीं अपने ही दामन पर कीचड़ उछलेगा लेकिन यदि उस लहजे में अपने जैसे लोगों की जमात तैयार की जाए तो उनसे निपटा जरुर जा सकता हैं तो ये निश्चित कर वो उन लोगोने का समाना कर उठ खड़ी हुई जो उसे और दूसरों को परेशां करते थे    
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१८ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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