मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

सुर-३०० : "महर्षि वाल्मिकी संत महान... देकर गये रामायण का ज्ञान...!!!"


कोई भी काम
कभी न जाता निष्काम
जब बसे हो मन में ‘राम’
तो संवर जाते बुरे भाग
बन जाते सभी बिगड़े काज
बुरे लोग भी बनते अच्छे इंसान
देते दुनिया को सदज्ञान  
देती संदेश यही हम सबको
‘ऋषि वाल्मिकी’ की कथा महान  
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मित्रों...,

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान ।
निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान ।।

ये पंक्तियाँ कवि हृदय को अभिव्यक्त करने में पुर्णतः समर्थ हैं क्योंकि एक संवेदनशील भावुक मन ही पीड़ा को उतनी ही शिद्दत से महसूस कर अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सकता हैं... महर्षि वाल्मीकिजिन्हें हम रामायणके रचयिता के रूप में जानते हैं, कोई जन्मजात कवि नहीं थे बल्कि इन्होने तो सृष्टि की सर्वप्रथम कविता को जन्म देकर आदिकविका गौरव हासिल किया... और जिस वेदनामय दृश्य ने उन्हें इतना पीड़ित कर दिया कि अनायास ही उनके मुख से कविता का जन्म हुआ, वो एक तीर चुभे क्रोंच पक्षीका मरणासन्न अवस्था में अपने प्रिय से बिछड़ने के असीम दर्द का था... जिसने उनके संत हृदय को भी हिला दिया और उन्हें इतना गुस्सा आया कि उन्होंने सारी व्याध जाति को ये कहकर श्रापित कर दिया---

मा निषाद प्रतिष्ठाँ त्वमगभ:शाश्वती: समा: यत्क्रौँमिथुनादेकमवधी:काममोहितम्`"

[भावार्थ : हे निषाद , तुमने काममोहित मैथूनरत क्रौंच-युग्म से एक का वध कर डाला , जाओ तुम अनंत समय तक प्रतिष्ठा-सौख्य आदि से क्षीण रहोगे ।]

यदि हम इनके अतीत में जाते हैं तो पाते हैं कि यही कोमल हृदय साधु उसके पूर्व एक दुष्ट डाकु रत्नाकरथे, जो लोगों को लुट पीटकर अपना जीवन-यापन करते थे फिर उनके जीवन में ऐसा क्या हुआ कि उनके भीतर इतना बड़ा चमत्कारी परिवर्तन आया, शायद आप सबने भी वो कहानी सुनी हो कि जब वो दस्यु थे उस वक़्त उनकी भेंट नारदजीसे हो गयी और वो अपने पेशे की वजह से उन्हें भी लुटना चाहते थे, पर नारदजी के ये पुछने पर कि वो ऐसा घृणित काम क्यों करते हैं तो उन्होंने बड़ी सहजता में जवाब तो दे दिया कि अपने परिवार को पालने के लिये तो जब जवाब  में नारदजी ने कहा कि अपने परिजनों से ये पूछकर आये कि वो सिर्फ उनकी कमाई के हिस्सेदार हैं या उनके पाप और पुण्य के भी, और हुआ वही जो होना था सभी ने इंकार कर दिया तब उनके अंतरचक्षु खुल गये और वो नारदजी द्वारा दिया गया रामनाम मन्त्र को भूल गलती से मरा’... ‘मराजपते हुयें एक बड़े तपस्वीबन गये और फिर ईश्वर कृपा से संत हुए, आदिकवि बने, रामायण लिखी, सीता जी को वनवास के समय अपने यहाँ रखा, लव-कुश को शिक्षित किया.. तो उनकी साधारण से असाधारण बनने की कहानी बेहद प्रेरक और मार्गदर्शक हैं, जिसे पढ़कर हम सब भी जीवन के किसी भी सोपान में जागृत हो ख़ुद के साथ-साथ औरों का भी जीवन संवार सकते हैं

आज उन्ही रत्नाकर डाकू’, ‘महर्षि वाल्मीकि’ ‘आदिकविऔर रामायण के रचनाकार की जयंती पर उनको कोटि-कोटि प्रणाम... :) :) :) !!! 
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२७ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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