रविवार, 11 अक्तूबर 2015

सुर-२८४ : "किया आजीवन मानवता से प्यार... करते 'भगिनी निवेदिता' का आभार !!!


हर जीवन
ईश्वर का वरदान
जिसे बचाना
काम सबसे महान  
ये रहस्य        
जिसने भी लिया जान
उसने सबको
मन से अपना लिया मान
बसता सब में
एक ही ईश्वर देना उसको मान
सोच लिया कि  
बाँटना विश्व में ये गुरु ज्ञान
इसलिये आई लंदन से
‘मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल’
और बन गई ‘भगिनी निवेदिता’
जिसने बहाई इस दुनिया में
प्रेम की निर्मल पवित्र नदिया
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मित्रों...,

अपने लंदन प्रवास के दौरान ‘स्वामी विवेकानंदजी’ की भेंट जितने भी नामी-गिरामी और सम्मानित लोगों से हुई उनमें ‘मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल’ का नाम सर्वप्रथम लिया जा सकता हैं... जब वो उनसे मिली तो उनसे इतना अधिक प्रभावित हुई कि उन्होंने स्वामीजी को अपना गुरु मान उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया... स्वामीजी से अपनी पहली मुलाकात के बारे में याद करते हुयें उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा कि---

“यदि उस दिन स्वामीजी से मेरी मुलाकात ना हुई होती तो मैं ना जाने जीवन की किन अँधेरी गलियों में भटक जाती, मेरी अंतरात्मा मुझे हमेशा ये कहती थी कि एक दिन जरुर मेरे दिशाहीन भटकते जीवन को ज्ञान की कोई दिव्य रौशनी मिलेगी और जब मैंने पहली बार ‘स्वामी विवेकानंदजी’ के प्रवचन को सुना तो मेरे भीतर के किसी कोने से ये आवाज़ आई कि जिस पुकार को मैं जन्मों से तलाश रही थी, ये वही हैं और बस उसी क्षण मुझे एक आत्मिक शांति और जीने का मकसद मिल गया इसके पूर्व मेरे अंदर की सभी ध्वनियाँ अस्पष्ट थी जिन्हें मैं समझ नहीं पाती थी और जब कभी अपने अंतर्मन की उन गूंज को लिखने बैठती तो सब कुछ तितर-बितर हो जाता मगर जब स्वामीजी को सुना तो एक पल में ही सब कुछ साफ़ हो गया अनायास ही मुझे अपने भावों को अभिव्यक्ति करने की शक्ति मिल गई मानो एक क्षण में चमत्कार-सा हो गया पहले मैं एक शब्द भी लिख नहीं पाती थी और अब मैं चाहूँ भी तो मेरी कलम रूकती नहीं थी मैं हमेशा यही सोचती रहती हूँ कि यदि वे लंदन ना आते और मेरी उनसे भेंट ना होती तो मेरा क्या होता ???”

उसके बाद २८ जनवरी १८९८ को ‘मार्गरेट नोबल’ अपनी जन्मभूमि लंदन को छोड़कर हमेशा के लिये भारत आ गई और इसे अपनी कर्मभूमि बना लिया, स्वामीजी ने उनका अभिनंदन करते हुए उन्हें भारत को इंग्लैंड द्वारा समर्पित ‘अनमोल उपहार’ की संज्ञा देते हुए नया नाम ‘भगिनी निवेदिता’ दिया जिसका अर्थ होता हैं, जो समर्पित हो और वो वाकई अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पित थी इसके लिये उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर राष्ट्रसेवा के प्रति अपने आप को समर्पित कर दिया और अपनी अंतिम सांस लेने यानि ११ अक्तूबर १९११ तक वो अथक परिश्रम करती रही । इस देश के लोगों ने भी उन्हें उतना ही मान-सम्मान और प्रेम दिया और उनकी समाधि पर अंकित करवाया कि - यहाँ सिस्टर निवेदिता का अस्थि कलश विश्राम कर रहा है, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत को दे दिया

आज उन्हीं त्यागमयी कर्मयोगिनी ‘भगिनी निवेदिता’ की पुण्यतिथि पर ये अश्रुपूरित शब्दांजलि... :) :) :) !!!
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११ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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