शनिवार, 28 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०८ : #विश्व_प्रकृति_सरंक्षण_दिवस #जीवन_को_बचाने_करता_सचेत



ये चंद दृश्य जिनमें से कुछ धीरे-धीरे लुप्त हो गये तो कुछ होने की कगार पर...

बच्चे तितलियों के पीछे नहीं भागते और न ही पंछियों की तरह ही मैदान में दौड़ते या फिर जुगनुओं को पकड़ते 

पहले पंगतों में पत्तल में भोजन परोसा जाता था और चाट की दुकान वाले भी पत्ते या उससे बने दोने का उपयोग करते थे

घरों में आने वाल सामान कागज से बने पैकेट्स या पूड़े में भरकर आता था और ज्यादा हुआ तो कपड़े की थैलियाँ प्रयोग में आती थी

घरों में एक छोटी-सी बगिया जरूरी होती थी जिसमें जरूरत के फल-फूल-बेल के अलावा तुलसी-नीम व उपयोगी पौधे लगाये जाते और सब्जियां भी उगाई जाती थी    

प्रकृति के बीच रहकर तरह-तरह के पर्व-उत्सव मनाये जाते जैसे आंवला नवमी. वट सावित्री, तुलसी विवाह, हरतालिका तीज, सूर्य पूजा आदि     

सावन आता तो पेड़ों पर झूले लटकाए जाते और तरह-तरह के गीत गाये जाते  

आजकल तो एक ट्रेंड जोरों पर हैं जो भी हिंदू धर्मकी खिंचाई करो और उसके सभी धार्मिक आयोजनों पर प्रश्नचिन्ह लगाओ जिसका सभी तथाकथित बुद्धिजीवी और धर्म विरोधी बड़े जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करते जिनमें से कुछ को तो ये सब कहने या लिखने का बड़ा अमाउंट भी मिलता पर, दूसरे खुद को इनकी श्रेणी में रखने इसी तरह की पोस्ट्स लिखते जिनका एकमात्र मकसद किसी भी तरह से ‘हिंदुओं’ को शर्मिंदा करना ताकि वो अपनी प्रथाओं, अपनी परम्पराओं व अपने रीति-रिवाजों से दूर हो सके जिसमें कुछ अंश तक वे काम्याब भी हो रहे क्योंकि आज की पीढ़ी का ज्ञान उथला व बुनियाद बेहद कमजोर यहाँ तक कि खुद से ही अनभिज्ञ पर, जो इनके शातिरपने को समझ रहे वे न तो इनके बहकावे में आ रहे न ही इनकी साजिशें सफल होने दे रहे बल्कि, जितना हो रहा इन सफेद नकाबपोशों को उजागर कर रहे जिससे कि सनातन धर्म ही नहीं ये पृथ्वी भी बची रहे

अगर आप सोच रहे है कि सनातन हिंदू धर्म ‘पृथ्वी’ व ‘प्रकृति’ को बचाने में सहायक नहीं बल्कि, हिंदू धर्मावलंबियो की कोरी मान्यता हैं तो आप बहुत बड़ी भूल कर रहे क्योंकि, उपर जिन दृश्यों का उल्लेख किया गया वे सब वेद-शास्त्रों में वर्णित परंपराओं के सस्त निर्वहन की वजह से ही प्रचलित रहे परंतु, लोगों को शिक्षित व आधुनिक होते ही अपनी जड़ें व जन्मभूमि ही तुच्छ नजर आने लगती और सभी कर्मकांड खोखले आदर्श या बेवजह समय की बर्बादी लगती जिसका खामियाजा आज हम इस तरह भुगत रहे कि प्रकृति से दूर होकर कृत्रिमता के निकट आते जा रहे और तरह-तरह की बीमारियों का शिकार होकर असमय ही मृत्यु का ग्रास बन रहे जबकि, हमारे पूर्वज इन्हीं जीवन मन्त्रों को अपनाकर शतायु व निरोगी रहते थे वे जानते थे कि उनके पूर्वजों ने जो नियम बनाये वे बेहद सोच समझकर बनाये जिन पर सवाल उठाये बिना उनका पालन करना ही हमारा धर्म है   

हमारे ऋषि-मुनियों ने बिना किस उपकरण के जो खोजें की वो लोग आज विज्ञान की मदद से भी नहीं कर पा रहे और जो अत्याधुनिक तकनीकों से जो नतीजे समाने आ भी रहे तो पता चलता कि वे तो पहले से ही हमारे ग्रन्थों में मौजूद है ये और बात कि उन्हीं किताबों को जलाने की कोशिशें की जा रहे पर, उन्होंने स्वस्थ दीर्घायु जीवन के लिये जो भी लिखा वो उनके गहन शोध का नतीजा है जिसे उन्होंने प्रकृति की प्रयोगशाला में स्वयं पर परिक्षण कर के जाना इसलिये उस पर शंका करना अपने ही पूर्वजों पर ऊँगली उठाना हैं उन्होंने प्रकृति व मनुष्य के सह-जीवन को लंबे समय तक अनवरत चलाने के लिये छोटे-छोटे पर्वों की परंपरा बनाई और आप देखेंगे कि जितने भी व्रत-उत्सव सबमें मानव को कुदरत से जोड़ा है ताकि, धर्म के भय से ही सही वो इसका सरंक्षण करे जब तक इंसान उसका अनुशरण कर रहे तब तक ही वे बचेंगे नहीं तो एक दिन डायनासोर की तरह विलुप्त प्राणियों की सूची में अपना नाम लिखवा लेंगे क्योंकि, बिना प्रकृति जीवन संभव ही नहीं     

अपने ऑफिस या घर की आलीशान बिल्डिंग के ए.सी. रूम में बैठकर महंगे से महंगे गेजेट्स पर तड़ातड उँगलियाँ चलाते हाथ कितने आलसी हो चुके हमें अंदाजा ही नहीं और इसकी वजह से हम कितने कृत्रिम बन गये अहसास नहीं पहले, कच्चे घर, आंगन उसमें पेड, हैण्डपंप या कुआं और तरह-तरह के तीज-त्यौहार तन-मन को ऊर्जावान ही नहीं बनाते बल्कि, हमें कुदरत से भी जोडकर रखते पहले घरों में गौरैया के आने-जाने खिड़कियाँ खुली रहती और आंगन में तुलसी का बिरबा घर की शोभा ही नहीं बढ़ता हमें अनेक बीमारियों से भी दूर रखता था पर, अब तो न आंगन बचा, न गौरैया, न ही तुलसी के लिये कोई कोना फिर भी हिन्दू धर्म बुरा है जिसने प्रकृति सरंक्षण का सबक सदियों पहले ही सीख लिया और हम आज ‘विश्व प्रकृति सरंक्षण दिवस’ मनाकर भी ये समझ नहीं पा रहे । ऐसी अनगिनत दूरदर्शिता भरी बातें, जीवन के रहस्यमय सिद्धांत पुरातन ग्रंथों में लिखी जो न जाने कितने सालों बाद हमें कोई बतायेगा तब हम उसे मानेंगे क्योंकि, वेद-पुराण-उपनिषद तो सब बेकार हैं उनको तो जला देना चाहिये जो विदेशी बताये वही सोलह आने खरा है जबकि, यदि हम उसी तरह से जीते आते तो इस दिवस की कोई आवश्यकता ही नहीं होती ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२९ जुलाई २०१८

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