शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

सुर-२०१८-२०७ : #प्रकृति_हर_शय_गुरु #बस_ध्यान_से_सिखाना_करें_शुरू




‘एकलव्य’ की कहानी हम सबने सुनी जिसने अपने गुरु की मूर्ति बनाकर उससे ही धनुर्विद्या सीख ली और ये सिद्ध किया कि यदि कुछ सीखने की सच्ची लगन मन में हो तो फिर मिटटी के बुत से भी सीखा जा सकता है कबीर, तुलसी, सूरदास, मीराबाई जिन्हें आज सर्वश्रेष्ठ शिक्षक माना जाता वे स्वयं किसी विद्यालय में जाकर नहीं पढ़े न ही किसी गुरुकुल में जाकर किसी गुरु से विधिवत शिक्षा ली पर, वे आने वाली पीढियों को इतना कुछ देकर गये जिसकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी चाहे सदी कोई भी हो, चाहे सोच में कितना भी बदलाव क्यों न आ जाये क्योंकि, इन्होने अपने आस-पास के परिवेश, प्राकृतिक वातावरण हर एक चीज़ से कोई न कोई सबक लिया और उन्हें ही अपने काव्य या कथ्य का विषय बनाकर जगत को अनमोल संदेश देकर गये यहाँ तक कि उन्होंने तो इसे कहीं लिखा भी नहीं दूसरों ने उनके बोलों का संकलन कर उसे सहेजकर हमें दिया

ऐसे में ये समझ आता कि ज्ञान तो किसी न किसी रूप में हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा जरूरत केवल उसको पहचानने और ग्रहण करने की है पर, हम ही इतने गाफ़िल की यत्र-तत्र-सर्वत्र सहजता से उपलब्ध इन अनमोल शिक्षाओं को नजरअंदाज करते और जो किताबों से हासिल होता उसे ही मान्यता देते है क्योंकि, उसके अनुसार हमें रोजगार या जीवन चलाने के लिये कोई न कोई नौकरी प्राप्त होती जो हमारे जीवन का आधार है ऐसे में हमारी प्राथमिकतायें बदल जाती और जिस चीज़ से हमें कोई लाभ नहीं या जिसे सीखने से हमें अपने कैरियर में किसी तरह का कोई फायदा समझ नहीं आता उसे हम सीखना ही नहीं चाहते जबकि, जीवन का वास्तविक ज्ञान हमें इन्हीं सबके बीच मिलता न कि पाठ्यपुस्तकों में वे तो महज हमें विषय आधारित ज्ञान देती जो व्यवहारिक रूप में उतना उपयोगी नहीं होता जितना कि व्यवसायिक रूप से होता है  
 
‘वेद व्यास’ जिन्होंने ‘महाभारत’ जैसा विशालतम ग्रंथ लिखा उन्होंने भी प्रकृति से ही सारा ज्ञान प्राप्त किया यही वजह कि पहले गुरुकुल या आश्रम हरे-भरे और खुले प्राकृतिक स्थलों में बनाये जाते थे जहाँ इन्सान पक्षी, जानवर, वनस्पति सबके बीच रहकर सहज तरीके से जो सीखते वो महंगी से महंगी पुस्तकों या आधुनिकतम उपकरणों से सजी प्रयोगशाला में रहकर भी पाया नहीं जा सकता है वेद-शास्त्र ये कहते है कि समस्त प्रकार का ज्ञान वायुमंडल में सूक्ष्म अदृश्य तरंगों के रूप में विद्यमान है और जब हम कुदरत से जुड़ते तो वो सांसों के जरिये हमारे भीतर उतर जाता जिससे हमारे आंतरिक ज्ञान चक्षु खुल जाते और वो रहस्य जिन्हें सुलझाना नामुमकिन बड़ी सरलता से हमें उनका जवाब मिल जाता जिसे पाने के लिये आँखें खोलने नहीं बंद करने की आवश्यकता क्योंकि, वो हमारे भीतर ही मौजूद है आखिर, हम प्रकृति से भिन्न थोड़े उसके ही तो अंग है उसी जल, वायु, आकाश, धरती, अग्नि से ही तो हमारा भी निर्माण हुआ है


आषाढ़ की काली अंधियारी रात में पूर्ण चंद्रमा की उदयकालीन तिथि को ‘गुरु पूर्णिमा’ कहा जाता जो अपने गुरुओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का दिन है और इसमें निहित गूढ़ संदेश यही हैं कि, गुरु भी चाँद की तरह उदित होकर हमारे जीवन के अज्ञान रूपी अंधकार को हर लेते जिससे हमें साफ़-साफ़ दिखाई देने लगता ऐसे गुरुदेव को सादर नमन... जिनके बिना न खुलते हमारे बंद नयन... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ जुलाई २०१८

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