बूंद-बूंद जो
बरसती
संग-संग उसके
मैं गलती
माटी की काया
ये
माटी बन-बनकर
पिघलती
अंतर की पीड़ा
भी
धीरे-धीरे
आंसुओं में घुलकर
बारिश की तरह
बहती
आषाढ़ के आते ही
मानो आ जाता
सन्यासी मन का चातुर्मास
समेटकर तन की
कंदरा में आप अपना
मौन साँसों की
माला सिमरती
जलाकर देहाग्नि
में वजूद शलभ की तरह
काया ये नित रूप
नया बदलती
जैसे हो जाती हरीतिमा
की चूनर ओढ़कर
नवल सजल पुरानी
धरती
वैसे ही देह भी
आवरण नूतन ओढ़ती
पावस ऋतू के ये
चार मास
भींगो देते
वसुंधरा
भींगो देते
संपूर्ण कायनात
भींगकर जिसमें सर
से पाँव तक
खुद को आँखें तकती
छवि नव
पल्लव-सी लगती
झमाझम बारिश ये
सिर्फ धरा का ही नहीं
बैरागी मन का भी
श्रृंगार करती
चौमासे की कठिन
तपस्या का फल देती ।
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© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
१० जुलाई २०१८
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