कभी-कभी मन में
ये ख्याल आता हैं कि गर, न होती फिल्मी दुनिया
और न ही होते उनमें काम करने वाले कलाकार तो हमारी ज़िंदगी अपने काम, घर-परिवार और जिम्मेदारियों में पिसते-पिसते
बेहद नीरस व उबाऊ हो जाती क्योंकि, एकरसता हमारे
फुर्सत के लम्हों को बोझिल बनाकर जीवन के प्रति उदासीन बना देती जबकि, कई दफा फिल्में हमें उबार लेती हमारे तनाव को कम
कर हमारी परेशानियां भूला देती और कभी-कभी तो हमारी उलझनों को भी सुलझा देती,
बड़ी-बड़ी समस्याओं का हल दे देती हैं ।
फिल्में न होने
से उनको जीवंत बनाने वाले अदाकार भी न होते तो फिर स्वप्न में लोग किसको पाने की
आरज़ू करते या किसके जैसा बनने की चाहत लिए कोई घर छोड़कर भागता या किसकी अदाओं पर
सिक्के लुटाये जाते क्योंकि, ये एक फनकार की
अदायगी की ही जादू कि कुछ लोग उसकी एक झलक पाने दीवाने हो जाते तो कुछ उनको पाने
की ख्वाहिश लिये जीवन गुजार देते और कुछ उनके पदचिन्हों पर चलकर जीवन संवार लेते
अपने सपनों को सच कर उनके सामने खड़े होकर ख्वाब की ताबीर देखते जिसने उसे यहाँ आने
की प्रेरणा दी और मन में ऐसा जोश भरा कि सिवाय मंज़िल के कुछ नजर ही न आया और
फिल्मी कलाकारों ने बहुतों को जीना सीखा दिया सलीके से उठना-बैठना बता दिया ये
क्या कोई कम उपलब्धि हैं ।
जब से भारत में
फिल्मों का बनना प्रारंभ हुआ तब से आज तक नजर डाले तो तकनीकी तौर पर जरूर बेहद
विकसित दिखाई देते लेकिन, अभिनय के पक्ष
पर गौर करें तो अधिकांश अदाकारों को बड़ा कमजोर पाते जबकि, बुनियादी स्तर पर काम करने वाले कलाकारों ने बिना सुविधाओं व तकनीक के
ही ऐसा कमाल किया कि उन्होंने फिल्म मेकिंग को एक ऐसा कारोबार बना दिया जहां हर
किसी की काबलियत को अवसर दिया गया चाहे वह लेखन हो या गायन या संगीत या अभिनय या
नृत्य या मेकअप या चित्रकला या परिधान बनाना या फिर सजना-सजाना सबके लिये यहाँ काम
था तो जिसके पास जो भी हुनर था उसने आजमाया खुद को शिखर पर स्थापित कर फिल्मों को
भी मूक से वाचाल बनाया और देखते-देखते कंप्यूटर ने उसे शक्तिशाली बना दिया कि अब
कुछ भी असंभव नहीं रहा ।
जो भी सोचो वही
कंप्यूटर की मदद से संभव होता उसके बाद भी कहीं न कहीं कमी दिखाई देती जिसकी वजह
कुछ कलाकारों का उतना सशक्त या परिपक्व न होना जितना कि शुरुआती दौर के कलाकार थे
जो सिर्फ और सिर्फ अभिनय पर ही फोकस करते थे उन्हें पता था कि उनकी एक गलती का
सुधार मुमकिन नहीं और बहुत नुकसान हो सकता तो वे बेहद तैयारी के साथ ही कैमरे से
आंख मिलाते थे जबकि, आज तो कमियों
को तकनीक की मदद से ढांका जा सकता तो कृत्रिमता ही अधिक उजागर होती जो कहीं न कहीं
अदाकारों के प्रति सम्मान का भाव खत्म करती और जो जुनून दिखाई देता भी तो वो
क्षणिक होता टाकीज से बाहर निकलते ही जोश खत्म हो जाता हैं ।
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© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
१६ जुलाई २०१८
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