शनिवार, 2 अप्रैल 2016

सुर-४५८ : "आलेख : 'अहसासों का रिमोट कंट्रोल' !!!"


(संदर्भ : अभिनेत्री ‘प्रत्युषा बैनर्जी’ आत्महत्या प्रकरण)

दोस्तों...

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कलर चैनल के शुरूआती धारावाहिक 'बालिका वधू' में नवयुवती 'आनंदी' का किरदार निभा हर किसी का दिल जीतने वाली 'प्रत्युषा बैनर्जी' की असामयिक आत्महत्या, वैसे तो आत्महत्या सभी असामयिक ही होती क्योंकि काल को चुनौती देकर मृत्यु से पहले ही उसका आह्वान कर लिया जाता फिर भी इसे असामयिक इसलिये लिख रही कि ख़ुदकुशी करने वाली कोई मज़बूर, हालातों की मारी, दीन-दुखियारी, पीड़ित, असहाय या परवश जीवन जीने वाली कोई पराश्रित महिला नहीं बल्कि एक खुदमुख्तार, आत्मनिर्भर अपने आप से अपनी तकदीर बनाने वाली और पहली ही बार में एक दमदार चरित्र के माध्यम से अपने आत्मविश्वास, खुशमिजाज से सबको प्रभावित करने वाली नायिका थी जिसने छोटे पर्दे पर ऐसी धूम मचाई कि घर-घर में अपने पात्र के नाम से जाने जानी लगी अपार लोकप्रियता हासिल कर अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुई फिर न जाने बड़े पर्दे के लालच या अति महत्वकांक्षा ने उसको बरगलाया कि प्रसिद्धि के शिखर पर विराजमान इस अदाकारा ने स्वैच्छा से वो मुकाम छोड़ दिया

वजह जो भी हो पर, इससे उसकी अस्थिर, चंचल, अपरिपक्व मानसिकता का पता तो लगता क्योंकि उसके बाद उनके कैरियर ने कोई उछाल न मारी, न ही किसी जगह वो कोई बड़ा रोल या काम हासिल कर सकी बल्कि यूँ ही छुटपुट से कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रही लेकिन भीतर तो अनंत ऊर्जा का सागर हिलोरें मार रहा था और कला भी छटपटा रही थी बाहर निकलने को पर, जब उनको उचित मार्ग न मिला तो बंदी ने असीम ऊर्जा का वो सैलाब फ़िज़ूल बातों में बहाना शुरू कर दिया और कुछ गलत निर्णय भी ले लिये जैसे कि 'बिग बॉस' का यातना गृह और आत्मघाती 'लिव इन' में रहने का ‘अ-साहसिक’ कदम जिसने अनजाने ही उसे उस रास्ते पर डाल दिया जो उसकी मंज़िल नहीं थी पर, करती भी क्या भीतर भरी क्रियात्मक ऊर्जा तो उसे कुछ न कुछ करते रहने को विवश कर रही थी वैसे भी कुछ न कर पाने की पीड़ा का तीव्र अहसास उनको ही होता जो कुछ कर सकते हैं और यही भाव किसी व्यक्ति को भीड़ से अलग खड़ा कर देता लेकिन सिर्फ हायपर एक्टिव होने से ही काम नहीं बनता उचित-अनुचित कार्यों का भी तो इल्म हो तब ही न एकदम परफेक्ट कॉम्बिनेशन बनेगा बस, यही अनभिज्ञता इंसान को पुण्य से पाप की तरफ ले जाती क्योंकि अंदर की बैचेनी को तो करार चाहिये, काम-पिपासा (काम बोले तो ‘कार्य’ वाला काम) को भी तृप्ति का जल चाहिए फिर आगे बढ़े कदमों को ये कहाँ पता चलता कि वो पोखर के गंदे जल की तरफ बढ़ रहे या नदी के साफ़ पानी से प्यास बुझाना चाह रहे बात, तो सिर्फ किसी भी तरह उस प्यास को मिटाने की हैं तो फिर सही-गलत के फेर में पड़कर कौन अपना वक़्त बर्बाद करे तो जो सामने नजर आया उसी को अपना लिया फिर वो अमृत हैं जहर ये तो समय आने पर ही पता चलता

जैसा कि अब हम सबको चल रहा लेकिन जब हमारे सामने यही स्थितियां आयेगी तब हम क्या ये विचार कर पायेंगे शायद, कुछ व्यवहारिक और कम-संवेदनशील लोग रुक जाये कि उनको अपनी तृष्णा के लिये गंगाजल ही दरकार पर, अति-भावुक संवेदनशील व्यक्तियों में ये ठहराव नहीं होता क्योंकि उनकी प्यास उनके दिलों-दिमाग पर काबिज हो जाती फिर ऐसे में उसका अंजाम भला इसके सिवा और क्या होगा ???

ये तो केवल आकलन का एक पहलू, दूसरा तो उससे भी ज्यादा ख़तरनाक जब भावुकता का वही प्यासा मृग ‘प्रेम-मरीचिका’ में फंस जाये फिर तो उसे कोई नहीं बचा सकता क्योंकि ये लोग जेहन की जगह हृदय से ही सोचने का काम लेते तो उनके फैसले सदैव कमजोर ही होते और उस पर अगला बंदा शातिर बल्कि बोले ‘शिकारी’ हो तो बचने का नो चांस कि वो तो इस तरह के शिकार की तलाश में रहता तो यही हुआ 'प्रत्युषा' नाम की भोली-भाली बुलबुल के साथ जिसने अपने लिये ख़ुशी-ख़ुशी कैदगाह चुनी जिसके बाद शुरू हुआ खेल शिकार और शिकारी का जहाँ शिकारी अत्यंत चालाक और शिकार उतना ही नादान उस पर से इस धारावाहिक को हम देख भी न सके जिसके एपिसोड प्रतिदिन वो शिकारी लिख रहा था जिस पर ये अदाकारा अभिनय कर रही थी जैसा-जैसा वो कहता ये दोहराती, उसकी रिहर्सल करती हुआ यूँ कि ये भूल ही गयी कि ये महज़ नायिका नहीं बल्कि अपनी ज़िंदगी की स्क्रिप्ट की खुद निर्देशक, अभिनेत्री और सलाहकार हैं वो अब पूरी तरह से एक जीती-जागती यांत्रिक गुड़िया बन चुकी थी जिसका ‘रिमोट कंट्रोल’ किसी और के हाथ में था तो जब वो जैसी बटन दबाता वैसा ही ये महसूस कर भाव प्रदर्शित करती पर, आखिर कब तक

क्योंकि वो कोई सचमुच की मशीन तो थी नहीं तो कहीं न कहीं तो उसके जीते-जागते अंग-प्रत्यंग भी विरोध दर्ज करते होंगे जिसके दबाब में उसकी साँसे घुटने लगी होंगी तो इन स्थितियों में भला कब तक ये सीरियल चलता अंत तो होना था और दुखद ही कि व्यवहारिक एवं बुद्धिजीवी अव्यवहारिक बुद्धुओं को अधिक समय तक नहीं झेल सकता एक दिन वो दुरी बना ही लेता फिर जिसे सहन कर पाना उस आश्रिता के वश में नहीं होता कि जिन कंधों पर बड़े भरोसे से उसने अपना वज़ूद टिकाया हो उसके बिना वो किस तरह से खड़ा रह सकता गिरना ही उसकी नियति आत्महत्या ही उसकी एकमात्र मंज़िल क्योंकि उसे तो अकेले जीना आता ही नहीं उसने तो खुद अपने हाथों से अपनी ज़िंदगी, अपने मन के हर अहसास का रिमोट कंट्रोल उसके हाथों में सौंप दिया फिर उसकी उँगलियों के नीचे आने वाले मनोभाव को अपने जीने का सबब भले ही मशीन न थके कि उसको थकावट होती नहीं मगर, बटन दबाने वाली उँगलियाँ जरूर उकता जाती तो उन हाथों ने छोड़ दिया ‘रिमोट’ साथ उसके ही छूट गया अगले के जीवन का मोह तो बाकी बचे शरीर की पूर्णाहुति करने उसे फंदे पर लटकाना भी तो जरूरी था वो अगर, बचा भी रहता तो बेजान ही रहता तो इस पुरे प्रकरण में समझने की जरूरत ये कि हर उस व्यक्ति की नियति यही हो सकती जिसके मन का मिजाज किसी दूसरे व्यक्ति के क्रिया-कलाप पर टिका होता तो सबसे गुज़ारिश कि न बनो रिमोट चलित मशीन और जो बन भी जाओं तो खुद नियंत्रित करो अपने जीवन की गति... फिर देखो कैसे खिलती ज़िंदगी... बाकी बची हुई  'प्रत्युषाओं' को यही हैं मेरी  शब्दांजलि... :) :) :) !!!
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०२ अप्रैल २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री
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