शनिवार, 31 जनवरी 2015

सुर-३१ : "सुखद पुरवैया... आवाज़ की मल्लिका... 'सुरैया' !!!"

___//\\___ 

मित्रों...,

●●●-----------
गायिकी
अदाकारी
हर फन में थी लाजवाब...
.....
भूले न
आज तलक हम वो
बेमिसाल आवाज़... ‘सुरैया’ ।।
-------------------------------●●●

सिनेमा के रुपहले पर्दे ने अभी बोलना शुरू ही किया था कि और संगीत प्रेमियों ने उसमें सुर की ऐसी रसधार बहा दी कि जिसके भी पास सुरीला गला और साथ अभिनय का हुनर भी था उसे तो सिनेमा जगत ने हाथों हाथ लिया ऐसे में बेपनाह हुस्न की मल्लिका ‘सुरैया’ ने जब रजतपट पर अपनी खनकती मधुर आवाज़ और उतने ही मर्मस्पर्शी अभिनय जिसे कि वास्तविकता ही कहे तो अधिक उपयुक्त होगा के साथ आगमन किया तो उन्हें देखने सुनने वाला हर एक बंदा उनका मुरीद हो गया । उनकी स्वप्निल आँखें, लहराते घुंघराले गेसू, मंदिर की घंटी सी मन को छूने वाली मधुर ध्वनि और उस पर उतनी ही भोली-भाली अदा के साथ किये जाने वाले सहज-सरल मंत्रमुग्ध कर देने वाले स्वाभाविक अभिनय ने हर एक को अपना ऐसा दीवाना बनाया कि उस दौर में हर एक उत्पाद, हर सामान पर उनकी तस्वीर उनका नाम होता था जो उनकी लोकप्रियता के पैमाना को स्वतः ही जता देता हैं ।

उनके प्रति लोगों की दीवानगी का वो आलम था कि सुनते हैं कि उस ज़माने में पाश्चात्य अभिनेता ‘ग्रेगरी पेक’ जिसकी कि वो स्वयं एक प्रशंसिका थी एक दिन सिर्फ उनको देखने और उनसे मिलने भारत चले आये थे और कहते हैं कि कोई एक दीवाना तो आजीवन अपनी सुध-बुध भुलाकर उनके दर पर बैठा रहा केवल उनकी एक झलक पाने रोज उनका दीदार करने के लिये । आज के समय में तो जबकि हीरो-हीरोइन या फिल्मों को देखना कोई बड़ी बात नहीं दिन-रात टी.वी. पर उनके गाने और फ़िल्में प्रसारित होती हैं यहाँ तक कि मोबाइल या कंप्यूटर पर जब जी चाहे हम उन्हें देख सकते हैं लेकिन उस वक़्त तो न सिर्फ फिल्मों में काम करना ही एक बड़ा साहसिक कदम माना जाता था बल्कि उनको देख पाना भी बहुत मुश्किल होता था इसलिये उस दौर के कलाकारों ने जो लोकप्रियता या मापदंड स्थापित किये उसकी कल्पना कर पाना भी हमारे लिये मुमकिन नहीं क्योंकि तब न तो मनोरंजन के इतने साधन थे न ही फ़िल्में देखना ही इतना सुलभ ।

ऐसे कठिन दौर में जब ‘सुरैया’ फ़िल्मी दुनिया में आई तो उन्होंने बहुत कम समय में ही कामयाबी का वो मुकाम हासिल कर लिया कि हर किसी की जुबान पर उनका नाम था, हर कोई उनकी निश्छल मुस्कुराहट के साथ उनके अभिनय को स्वर देती उनकी अलहदा आवाज़ में गाये जाते उनके मधुरतम गीतों को सुनने बार-बार सिनेमा हाल जाता था । उन्होंने १५ जून १९२९ को अविभाजित भारत के 'लाहौर' में जनम लिया और छोटी सी उम्र में अभिनय की दुनिया में कदम रख उस दौर के सभी नामचीन अभिनेताओं के साथ काम किया जहाँ वो अपनी पहली फिल्म 'इशारा' (१९४३) में अभिनय के पितामह ‘पृथ्वीराज कपूर’ की नायिका बनी तो दूसरी और उन्होंने उनके सुपुत्रों ‘राज कपूर’ और ‘शम्मी कपूर’ के साथ भी ‘दास्तान’(१९५०) और ‘शमा परवाना' (१९५४) में काम कर अपनी अपूर्व अभिनय क्षमता का परिचय दिया । फिल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ ने उन्हें सफलता के शिखर पर पहुंचा दिया तथा उनके जीवन में एक अद्भुत संयोग आया जब उन्होंने अपनी अंतिम फिल्म ‘रुस्तम सोहराब’ में एक बार फिर ‘पृथ्वीराज कपूर’ के साथ काम किया और इस तरह उनके फ़िल्मी जीवन की शुरुआत और समाप्ति में उनका साथ देने वाले अभिनेता एक ही थे ।

उन्होंने सारी उमर अपनी जिंदगी अपने ही ढंग से जी और सभी लोगों से कटकर तन्हां ही रही ताउम्र और ३१ जनवरी २००४ को आज के ही दिन चुपचाप हम सबको अपने अनमोल गीतों और अभिनीत फिल्मों का बेशुमार खज़ाना सौंपकर इस दुनिया को अलविदा कहकर चली गई... अब तो वो सशरीर हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अपने सभी एक से बढ़कर एक तरानों और किरदारों के रूप में वो सदैव हमारे साथ रहेगी... जब भी उनकी याद आये तो जो भी आपका मन चाहे वही गीत उनकी खनकदार आवाज़ में सुन लीजिये---

● तू मेरा चाँद मैं तेरी चांदनी...
● नैनों में प्रीत हैं होंठो पे गीत हैं...
● तेरा ख्याल दिल से भुलाया न जायेगा...
● मन लेता हैं अंगडाई जीवन में जवानी छाई...
● मन मोर हुआ मतवाला किसने जादू डाला रे....  
● ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता...
● वो पास रहें या दूर रहें नजरों में समाये रहते हैं... 
● धडकते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम...
● मुरली वाले मुरली बजा सुन-सुन मुरली को नाचे जिया...
● तेरे नैनों ने चोरी किया मेरा छोटा सा जिया परदेसिया...
● बिगड़ी बनाने वाले बिगड़ी बना दे नैया हमारी पार लगा दे....
● ये कैसी अजब दास्ताँ हो गई हैं छुपाते-छुपाते बयाँ हो गई हैं...
● दिल धड़के आँख मोरी फड़के कहीं जाना न देखो जी बिछड़ के...
   
मित्रों बड़ी लंबी फेहरिस्त हैं उनके मधुर गीतों की... तो इसे यही खत्म करती हूँ... :) :) :) !!!
_____________________________________________________
३१ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
●--------------●------------●

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

सुर-३० : "एक आंधी... महात्मा गाँधी...!!!"


___//\\___  

मित्रों...,

●●●----------------------------
ओ बापू...

पाकर आज़ादी
ये संतान तुम्हारी
बन गई कृतध्न
करती निंदा तुम्हारी

त्याग-बलिदान-समर्पण 
सत्य-अहिंसा जानती नहीं
कर्तव्य अपने निभाती नहीं
फिर समझे कैसे कुर्बानी तुम्हारी ।।
---------------------------------------------●●●

भारतीय इतिहास में ‘मोहनदास करमचंद गांधी’ जिन्हें कि हम ‘राष्ट्रपिता’ / ‘महात्मा’ या ‘बापू’ कहते हैं का कद उस समय के सभी क्रांतिकारी, शहीदों, बलिदानियों में सबसे ऊंचा हैं और इसी कारण हमने उन्हें प्यार से इन सारे नामों से संबोधित कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा और स्नेह का परिचय दिया क्योंकि उन्होंने धर्म, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह को अपना हथियार बना आज़ादी की लड़ाई का आगाज़ किया और फिर किसी भी परिस्थिति या हालात के साथ समझौता किये बिना एक कर्मयोगी की तरह अपने बनाये गये मार्ग पर अनवरत अडिग चलते रहे अपने जीवन सिद्धांत से उन्होंने सिर्फ अपनी भारतभूमि ही नहीं बल्कि विदेशी जमीनी पर भी लोगों को प्रेरित किया और यही कारण हैं कि आज देश के लोग भले ही उनके प्रति शंका की निगाहों से देखते हो लेकिन उस भूमि पर उन्हें एक आसाधारण मानव की तरह पूजा जाता हैं ‘अल्बर्ट आइंस्टीन’ ने उनके बारे में तो ये तक कह दिया कि--- “आने वाली सदी शायद ही इस बात पर विश्वास करें कि कभी इस धरती पर ऐसा हाड़-मांस का बना कोई इंसान भी कभी हुआ हैं”

लेकिन हमारे देश के युवाओं को न जाने क्या हो गया हैं जो खुद तो किसी भी मापदंड से उनके चरणों के समीप तक नहीं पहुँच सकते लेकिन उन्हें बुरा कहने का फैशन-सा बना लिया हैं और एक सुर में उस बात को दोहराते हैं जो उन्होंने निराधार खुद ही मनगढ़ंत तथ्यों के आधार पर पैदा कर ली हैं ये कुछ ऐसा ही हैं कि दुसरे की लकीर काटकर खुद को बड़ा साबित करना । हम कुछ भी कर ले फिर भी उनके पासंग में भी नहीं आ सकते न ही हम उस कालखंड और उस समय के हालातों का अनुमान लगा सकते हैं कि किस तरह के कष्ट-अन्याय का सामना उनको और अन्य सभी क्रांतिकारियों का करना पड़ा केवल सबका मार्ग अलग-अलग था लेकिन लक्ष्य सबका एक ही था---‘आज़ादी’ और इसके लिये कोई भी कुछ भी करने के लिये तैयार था । युवाओं में जोश अधिक था तो उन्होंने ‘गरमदल’ बना हिंसा का सहारा लिया जबकि गांधीजी ने शुरू से ही अहिंसा को ही अपना एकमात्र शस्त्र बना लिया था तो अंत तक उसके ही बल पर धर्मयुद्ध लड़ते रहे और आज भी हम उनको अहिंसा का पर्याय मानते हैं ।

‘महात्मा गाँधी’ को समझने के लिये हमें उस काल को समझना होगा और ये भी जानना होगा कि एक परतंत्र देश में कोई व्यक्ति इतने कठिन शासन के बीच किस तरह से अपनी शर्तों पर न सिर्फ जीता रहा बल्कि किसी भी अन्याय के आगे कभी भी न झुका तो उसने किस तरह से ये सब कुछ मुमकिन किया होगा जबकि आज हम स्वतंत्र रहकर अपनों के बीच ही अपनी बात कहने में असमर्थ हैं । हमें तो अपने देश के इस महानतम व्यक्तित्व पर गर्व और कृतज्ञता के सिवाय और कोई भाव नहीं होना चाहिये क्योंकि हमारे सभी शहीदों ने उस समय जो भी उन्हें सही लगा वो किया उनके पास सब्र था तो उन्होंने शांति से काम लिया और देर से ही सही वो विश्व को ये समझा पाये कि जब किसी युद्द को बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के भी लड़ा जा सकता हैं तो फिर लोग क्यों किसी का खून बहाते हैं उन्होंने अपना सारा जीवन एक तपस्वी की भांति बिता दिया जिसने न जाने कितने लोगों को प्रेरणा दी और उन्होंने उनके दिये मन्त्रों का उपयोग कर अपना जीवन सफल बना लिया ।

उनका जीवन तो एक खुली किताब की तरह हैं जिसके हर पन्ने पर उनके त्याग-बलिदान का वर्णन लिखा हुआ हैं... हम उनसे बहुत कुछ सीखकर अपने आपको बदल सकते हैं तभी तो जिसने भी उनकी पारसमणि समान जीवनी को पढ़ा वो कुंदन बन गया तो फिर हम भी क्यों न खुद का भविष्य संवार ले... आओ आज उनकी पुण्यतिथि पर उनको नमन करें... रघुपति राघव राजाराम का गान करें... हे राम का उच्चारण करें... जय हिंद... :) :) :) !!!   
____________________________________________________
३० जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

●--------------●------------●

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

सुर-२९ : "सूर्य-सा चमकता... 'महाराणा प्रताप'... का प्रताप...!!!"


___//\\___  

मित्रों...,

भारत भूमि
कदम-कदम पर
कहती कोई कहानी
गुज़र गई सदियाँ लेकिन
वो अब तक न हुई पुरानी
ऐसे ही एक अद्भुत वीर की गाथा
सुनो, आज फिर इतिहास की जुबानी ।।

सोचो अगर तो विश्वास ही नहीं होता कि आज से लगभग चार-सौ बरस पूर्व इसी धरती पर एक ऐसा महावीर शूरवीर पराक्रमी योद्धा भी हुआ जिसने अपने शौर्य बल से मुग़ल शासकों को न सिर्फ नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया बल्कि अपने अपूर्व आत्मविश्वास स्वाभिमान के लिये एक महाराजा होते हुये भी वनवासी की तरह जीवन जीने को मजबूर हो गए लेकिन अपना सर न झुकाया न ही किसी के सामने अपने आपको कमज़ोर पड़ने दिया हम सब सदियाँ गुज़र जाने के बाद आज भी अपनी पाठ्य-पुस्तकों में उनकी वो गौरव गाथा पढ़ते हैं तो आँखों में आंसू भर आते हैं और जब ये सुनते हैं कि मेवाड़ के नरेश, राजपूताना वंश के भाल का तिलक, हिंदूओं के मस्तक का मुकुट वो बलशाली घास की रोटी खाने को मजबूर हो गया लेकिन अपने धर्म का परित्याग न किया जबकि उस वक़्त हमारे यहाँ मुगलों का शासन था जिसके शासक महाराजा अकबर उन्हें अपना गुलाम और समधर्मी बनाना चाहते थे वो किसी भी हालत में अपनी मातृभूमि और अपने धर्म का मान नहीं घटाने चाहते थे इसलिये उन्होंने एक लंबे अरसे तक अकबर से युद्ध किया लेकिन उसकी बात को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया जबकि उन्हें बड़ी ही कठिनतम परिस्थितियों और संघर्ष भरे हालातों का भी सामना करना पड़ा लेकिन कोई भी परीक्षा उन्हें उनके कर्तव्यपथ से डिगा न सकी यहाँ तक कि उनकी आँखों के सामने ही उन्हें अपने परिजनों  और स्वामिभक्त सेवकों की दयनीय दशा के करुण दृश्य भी देखने पड़े फिर भी वो अपने धर्म, देशभक्ति को गंवाकर जीने की कल्पना तक करने को तैयार न हुये

मेवाड़ के राजा उदयसिंह के घर पर जन्मे ‘प्रताप’ उनके सबसे बड़े पुत्र थे, जिनकी रगों में वीरता खून की तरह बहती थी और परिवार के संस्कारों ने उन्हें आत्माभिमान के साथ-साथ दया, प्रेम, अस्त्र-शस्त्र, युद्धकला की जो शिक्षा दी उसने बालक प्रताप को ‘महाराणा प्रताप’ बना दिया जिसने अपनी जन्मभूमि को मुगलों से बचाने की खातिर अपना सर्वस्व त्याग दिया, अपने धर्म को किसी भी दूसरे के धर्म से न बदलने के लिये अपनी अंतिम साँस तक लड़ते रहे जिनके साहस के सामने शत्रु टिक न सके इतिहास कहता हैं कि उनकी पहचान बना उनका भाला लगभग ८० किलो वजन का होता था जिसे पकड़कर वो रणक्षेत्र में दुश्मनों के सामने उतरते थे और उनका कवच भी लगभग इतना ही वजनी होता था फिर वो बड़ी ही कुशलता और चपलता से रणभूमि में अपने विपक्ष को टिकने न देते थे जब हम ये सुनकर उनकी कल्पना करते थे तो आश्चर्य से हमारा मुंह खुला रह जाता और हम उनकी वीरता के बारे में सोचकर दंग रह जाते हैं कि जो व्यक्ति इतना भारी भाला और कवच पहनकर लड़ता होगा उसकी ताकत का अंदाज़ा हम किस तरह लगा सकते हैं हल्दीघाटी का वो युद्ध इतिहास में आज भी इस तरह दर्ज हैं जैसे कल की ही बात हो जिसमें ‘प्रताप’ ने अपने अद्भुत प्रताप का पराक्रम दिखाकर ये बता दिया कि उन्हें छल से ही जीता जा सकता हैं धर्म की लड़ाई सत्य के अस्त्र से लड़ने पर कोई उन्हें पराजित नहीं कर सकता उनके स्वामिभक्त घोड़े ‘चेतक’ को भी हम भूल नहीं पाते जो उनकी ही तरह अदम्य इच्छाशक्ति और साहस से भरा हुआ था तभी तो ‘प्रताप’ के नाम के साथ उसका नाम भी उसी तरह जुड़ा हुआ हैं जिसे भूला पाना हमारे लिये संभव नहीं हैं और उनकी प्यारी बेटी ‘चंपा’ की भोली बातें और उस असहनीय कष्ट के दिनों का वो त्याग भी कोई कभी विस्मृत कर सकता हैं भला        

आज उनकी पुण्यतिथि के इस अवसर पर ये राष्ट्र अपने उस महावीर महानायक को शत-शत नमन करता हैं जिसकी गौरव गाथा से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं... जिसकी वीरता की दास्ताँ अब भी मेवाड़ के कण-कण में लिखी हुई हैं... और जिसकी आस्था हिंदुओ को स्वाभिमान की शिक्षा देती हैं कि अपने धर्म में भूखों मरना भी पड़े तो मर जाओ पर किसी के सोने के निवाले की खातिर अपना अनमोल धर्म न बदलो आज के धर्मांतरण को प्रेरित लोगों को उनकी ये कष्टों से भरी गाथा प्रेरणा देती हैं... स्वधर्म... स्वदेश... जन्मभूमि... मातृभूमि... सबसे महान... किसी भी हाल में उनका मान न घटने दो... नमन इस पावन सोच और इसके लिये प्राण देने वाले उस महानायक महावीर को... ‘महाराणा प्रताप’ का बलिदान... सदा रहेगा याद... नमन... :) :) :) !!!    
____________________________________________________
२९ जनवरी  २०१५

© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री’ 

बुधवार, 28 जनवरी 2015

सुर-२८ : "भारत के लाल... लाला लाजपत राय" !!!


___//\\___ 

मित्रों...,

लाल-बाल-पाल
कहने को तीन नाम
लेकिन बनाई एक पहचान
आज भी वो हो न सके अलग
याद करो एक को आ जाते याद सब
जिसने भी देश की खातिर दे दी अपनी जान
करते हम उन सबको बारंबार याद और सलाम ।।

आज फिर इस देश के एक और लाल का जन्मदिवस हैं जिसने की आजादी की लड़ाई में अंतिम सांस तक अपना योगदान दिया और अंग्रेजों की लाठी सहकर भी अपने कदमों को कभी पीछे न हटाया बल्कि शेर की तरह दहाड़ कर कहा कि--- मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी।  जब मन-वचन-कर्म से ईमानदार व्यक्ति कोई भी कथन कहता हैं तो ईश्वर उसके उस वचन की लाज रखता हैं इसलिये जब ३० अक्टूबर १९२८ को साइमन कमीशनका विरोध करते लालाजी फिरंगियों के आक्रमण से आहत होकर घायल हो गये और अपने अंतिम भाषण में ये बोले तो उनकी आवाज़ ने आसमान का सीना भी चीर दिया और उनकी इस असमय मौत ने देश के अन्य गर्म खून युवाओं के लहू में ऐसा उबाल लाया कि एक लालाजी के मरने अपर अनेक देश के लाल अपनी भारतमाता को स्वतंत्र करने अंग्रेजो की गोली अपने सीने पर झेलने सामने आ गये । 

लालाजी की आकस्मिक मौत से सभी स्तब्ध रह गये 'महात्मा गांधी' जी ने उनको श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि--- "भारत के आकाश पर जब तक सूर्य का प्रकाश रहेगा, लालाजी जैसे व्यक्तियों की मृत्यु नहीं होगी वे अमर रहेंगे" तभी तो आज इतने सालों बाद भी हम उनको या उनके इस योगदान की भूल नहीं सके और जब-जब भी उनकी जयंती या पुण्यतिथि आती तो हमारी आँखें श्रद्दा से नम और ह्रदय उनकी स्मृति से अकुलाने लगता । वो इस भारतभूमि का काला इतिहासकहलायेगा जब इस धरती पर पश्चिम का शासन चलता था आर हम अपने ही देश में परायों की  तरह रहने को मजबूर हो गये थे । वो भी लगभग दो-सौ साल तक हमें इस असहनीय पीड़ा के बीच अपने दिन गुजारने पड़े लेकिन आख़िर कब तक कोई अपने ही घर में दूसरों को अधिकार करना देख पाता इसलिये स्वतंत्रता संग्राम की जो मशाल जला तो फिर उसने सबके अंतर में भी आज़ादी पाने की लौ जगा दी जिसके फलस्वरूप एक लम्बे संघर्ष के बाद हम अपनी ही भूमि पर खुलकर सांस लेने का अधिकार पा सके ।

हम उनकी शहादत का मोल तो किसी भी तरह चुका नहीं सकते इसलिये जब-जब भी देश के किसी सपूत का बलिदान दिवस आता तो उसे श्रद्धा सुमन अर्पित कर उनके प्रति अपने मनोभावों का प्रदर्शन तो कर ही सकते हैं तो आज पंजाब केसरीऔर देश के लाल लाजपत रायको उनकी जयंती पर कोटि-कोटि प्रणाम... आप का ये बलिदान सदैव हमारे दिलों में अंकित रहेगा आपकी चोट के निशान के दर्द को हम अपनी देह पर महसूस करेंगे और इसी तरह आपको अपनी शब्दांजली अर्पित करेंगे... नमन... :) :) :) !!!   
____________________________________________________
२८ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

●--------------●------------●

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

सुर-२७ : 'अब रहेगा सदा बेचैन....कॉमन मैन' !!!



___//\\___ 

मित्रों...,

जिसने मुझे
जन्म, नाम, पहचान
और बोलने की ताकत दी
मेरा वो रचयिता, जनमदाता
छोड़कर मुझे अकेला चला गया :’(

मगर...,
जो कुछ भी
उसने मुझे सिखाया
जो भी उसकी अपेक्षायें हैं
मैं न कभी भी उनको भूलूंगा
न ही कभी मैं चुप रहूँगा... वादा... :) !!!

___________ "द कॉमन मैन" ____________

अपनी कलम से आम आदमीको गढ़ने वाली वो उँगलियाँ अब कभी भी कागज़ पर न चलेगी न ही किसी भी समसामयिक मुद्दे पर अपनी राय रखेगी न ही वो शख्सियत ही नज़र आयेगी  जिसने कि अपनी अद्भुत सोच से इस किरदार को पैदा किया क्योंकि कल ही तो वो असाधारण  आत्मा इस भूमंडल पर अपना काम समाप्त कर सदा-सदा के लिये इस दुनिया से चली गई लेकिन अपने पीछे ख़ुद को आम आदमीसे ख़ास आदमीमें बदलने की यादगार दास्ताँ छोड़ गई जिसके कारण उसे भूलाया जाना आसां नहीं होगा अपने इस अभूतपूर्व योगदान के लिये आज ये संपूर्ण राष्ट्र अश्रुपूरित नयनों से उनको नमन करता हैं ।

कल जैसे ही ये खबर आई तब से ही देख रही हूँ कि आभासीहो या वास्तविक दुनियासभी ने इस हस्ती को अपनी-अपनी तरह से श्रद्धांजलि अर्पित की जो ये बताने के लिये काफ़ी हैं कि जब व्यक्ति धैर्य, लगन और सतत क्रियाशीलता से अपना कर्म करता हैं तो फिर किन्ही भी परिस्थितियों या जगह में जनम ले एक दिन अपनी प्रतिभा से दुनिया को चमत्कृत कर देता हैं । यही तो हुआ रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मणजिन्हें हम आर. के. लक्ष्मणके नाम से जानते हैं के साथ जिसने २३ अक्टूबर १९२१, को एक विद्यालय चलाने वाले साधारण आदमी के घर उनके ६ बेटों के बीच सबसे छोटे पुत्र के रूप में जन्म लिया । बालपन से ही चित्रकला में रूचि के कारण उन्होंने इसी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने को अपने जीवन का ध्येय बना लिया और उनके इस जुझारूपन ने उन्हें हर तरह के हालातों से लड़ने का हौंसला दिया जिसका परिणाम ये हुआ कि उन्होंने तीस साल की आयु में सर्वप्रथम 1951 में अपनी कूची से द कॉमन मेननाम का ये किरदार बनाया और पूरे छे दशक तक हर तरह के सामजिक, राजनितिक, धार्मिक और विवादित विषयों पर उसके माध्यम से जनता के मन की बात को सबके सामने रखा । देश के प्रतिष्ठित अख़बार द टाइम्स ऑफ़ इंडियामें इसके लगातार प्रकाशन से वे इसका पर्याय बना गये और देश ही नहीं विदेश में भी अपनी कला के प्रशंसक बना लिये इसलिये तो सिम्बायोसिस अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालयमें आर. के. लक्ष्मणके नाम पर एक कुर्सी भी है । उन्होंने अपनी तूलिका से कार्टूनजैसी विधा को ऐसा उच्चतम दर्जा दिया कि कई लोगों ने उनसे प्रेरणा ली उन्होंने सिर्फ कार्टून्सही नहीं बनाये बल्कि कई किताबें भी लिखी और अपनी बेमिसाल बहुमुखी क्षमता से देश के बड़े-बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण’, ‘पद्मश्रीऔर साथ ही रमन मैग्सेसे पुरस्कारको भी हासिल किया ।

फ़िल्मी दुनिया ने भी उनके इस अनुपम हस्त कौशल का उपयोग किया महान फिल्म निर्देशक गुरुदत्तने जब अपने चलचित्र मि. एंड मिसेज 55’ में कार्टूनिस्टका चरित्र निभाया तो उसके लिये कलम इन्होने ही थामी भले ही रजतपर्दे पर चेहरा उनका था लेकिन सफे पर चित्र बनाते हाथ इनके ही थे । अब तो वे चले गये बस, यादें ही शेष रह गई तो आज शाम उन्ही को दोहराने का मन कर रहा था तो इन शब्दों के द्वारा उनको अपनी शब्दांजली अर्पित करती हूँ... :( :( :( !!!

।। ॐ शांति ॐ ।।     
____________________________________________________
२७ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
●--------------●------------●

सोमवार, 26 जनवरी 2015

सुर-२६ : "ये कैसा गणतंत्र... हम अब भी हैं परतंत्र" !!!



___//\\___ 

मित्रों...,

●------------------------
जन गण मन
सब एक स्वर में गाते
बड़े जोश से गणतंत्र दिवसमनाते । 
.....
लेकिन अधिकारही नहीं
कर्तव्यभी हैं कुछ यही भूल जाते
फिर वापस अपनी दुनिया में खो जाते ।।
-----------------------------------------------● 

देश को एक लंबे संघर्ष और अनगिनत शहादतों के बाद आज़ादीकी सुबह देखने को मिली और उसके बाद ही इस देशवासियों को संविधानकी अद्भुत सौगात हासिल हुई जिसे बड़ी ही मशक्कत और अध्ययन के बाद बनाया गया और जिसने अपने राष्ट्र की जनता को जनतंत्रकी एक बेमिसाल भेंट दी और जिसके लागू होते ही इसे गणतंत्रका ख़िताब हासिल हुआ जो कहता हैं कि स्वदेशमें प्रजा को अपनी मर्जी से अपना राजा चुनने का अधिकार होगा । ये और बात हैं कि विशेष राजाको जनमानस के दिलो-दिमाग में भरने के लिये हर तरह के हथकंडे अपनाने की छूट होगी और वो साम-दाम-भेदजैसे सभी हाथियारों का खुलकर प्रयोग करेगा मगर, जनता इस मुगालते में रहेगी कि उसकी मर्जी के बिना कोई भी उन पर राज नहीं कर सकता इसलिये जनता को खुश रहने को ये लालीपॉपथमा दिया गया । ये तो लिखने वाला और इसे लागू करने वाला भी जानता था कि यदि सभी लोग आपस में मिलाकर रहें और एकता का पाठ पढ़ते रहे तो उनका काम नहीं बनने वाला इसलिये उन्होंने भले ही उस किताब में धर्म-निरपेक्षता, संप्रभुता  जैसे शब्द लिख दिये लेकिन उसी के आधार पर लोगों को अनेक जाति, भाषा, धर्म और स्थान के आधार पर बाँट दिया जिससे कि हम सब एक-दूसरे को उसी के आधार पर पहचान आपस में लड़ते-झगड़ते रहे और वो शांति से हम पर राज करते रहे जिससे एक साथ राजा व प्रजादोनों एक साथ खुश ।

स्वतंत्रताके नाम पर एक बार जो उस वक़्त इस अखंड भूमिके टुकड़े हुये तो आज तलक भारतमाताउस दर्द से मुक्त न हो सकी हैं क्योंकि एक बार जो टूटने का सिलसिला शुरू हुआ तो लगातार उनके अंग-भंग होने से उनकी आँख के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं । इस दर्द को केवल वही महसूस कर सकता हैं जिसने कभी भारतके नक्शे के उस अखंडस्वरूप को देखा हैं और आज उसी में खिंची अलग-अलग लकीरें और रंग से एक विशाल भूभाग को अनेक खंडों में बंटा देख उसे अपने ही हृदय के कई भागों में विभक्त होने का अहसास होता हैं । लेकिन जिसे वास्तव में इसे सोचना समझना चाहिये वो अपने फ़ायदे के लिये उस तरफ़ से आँखें मूंद केवल अपने स्वार्थ के लिये नये-नये प्रदेशों के नाम पर इसे तोड़ता ही जा रहा हैं जिससे कि यहाँ रहने वाले लोगों के बीच न सिर्फ़ दीवारें बन रही हैं बल्कि भाषाई-जातीय भिन्नता भी उभरकर आ रही हैं ।  सिर्फ कहने के लिये हम सब एक हैं हमारे बीच कोई अंतर नहीं लेकिन जब भी जात-धर्म की बात हो तो लोग इस तरह एक-दुसरे को मारने दौड़ पड़ते कि आश्चर्य होता कि ये संविधानमें लिखे शब्दों का ये कैसा व्यावहारिक रूप हैं । गलती तो हमारी भी हैं कि हम भी तो उन तथाकथित राष्ट्र के कर्णधारों की बातों में आकर अपना कहने वाले पड़ौसी को ही अपना शत्रु समझने लगते और जिसे मित्र कहते उसे ही शक की निगाहों से भी देखने लगते हैं ।

ये देश जहाँ कभी व्यक्ति को सिर्फ़ एक 'इंसान' समझा जाता था लोग इस तरह मिलकर रहते कि उनमें अंतर करना मुश्किल हो जाता और साँझा चूल्हागंगा जमनीसंस्कृति से इसे जाना जाता जो हमारे लिये गर्व का विषय होता पर यदि ये सब कुछ ऐसा ही होता तो फिर तो न ही इतने सारे नेता या दल होते न ही राजनीति का ये कूटनीतिज्ञ चेहरा जो येन केन प्रकरेण सिर्फ़ राजकरना जानता हैं । इसलिये उसने धीरे-धीरे बड़ी ही चालाकी से लोगों के बीच ये खाई बनाना शुरू किया जो दिनों दिन गहरी और गहरी होती जा रही हैं क्योंकि अब तो एक छोटा-सा बच्चा भी जानता हैं कि उसकी केटेगरी’ / ‘श्रेणीक्या हैं और बस, यही से शुरू होती हैं एक गलाकाट प्रतिस्पर्धा जिसमें अधिकतम अंक लाने पर भी एक विद्यार्थी पीछे रह जाता हैं जबकि दूसरा कम अंक लाकर भी नौकरी पा जाता जिसकी वजह से असफल होने वाला निराशा के गहरे गर्त में गिरकर कभी खुद को तो कभी अगले को मार भी डालता हैं । ये तो सिर्फ प्रतिभा की नज़रअंदाजी से उपजे क्रोध का एक छोटा-सा उदाहरण हैं लेकिन जब बात धर्म या जाति या भाषा की होती तो इस संख्या में इज़ाफा भी बहुत हो जाता । ऐसे में अब हमें अपने इन राजनीतिज्ञों की मानसिकता को समझने की जरूरत हैं और ये भी देखना हैं कि हम आपस में एक-दूसरे के बीच कोई भेदभाव न करें और न ही किसी के भड़काने पर दंगा-फ़साद करने लगे... हमें स्वदेशकहना नहीं बल्कि मानना होगा... प्रेमकी भाषा बोलनी होगी... इंसानियतका धर्म अपनाना होगा... तभी अखंड भारतके उस खोये हुये स्वरूप को पुनः प्राप्त कर पायेंगे... जय हिंद... वंदे मातरम... :) :) :) !!!            
____________________________________________________
२६ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
●--------------●------------●