रविवार, 30 जून 2019

सुर-२०१९-१८० : #टेलेंट_छिपा_अंडर_बुर्का #छोड़ा_बॉलीवुड_फ़ॉर_खुदा




रविवार की खुशनुमा सुबह एक ऐसा पैगाम लाई जिसमें फतवे का कहीं जिक्र नहीं था लेकिन, वो अपने आप में ही मन से लिखा गया कोई खुला ख़त नहीं बल्कि, किसी दबाब में या किसी के द्वारा जबरन लिखाया गया पत्र जरूर लग रहा था ऐसा इसलिये क्योंकि, उसकी अधिकांश बातें किसी मनोभाव या ख़्वाहिश को ज़ाहिर नहीं कर रही थी बल्कि, एकाएक ही स्वप्रेरणा या कुरान की किसी आयत से प्रभावित होकर फिल्मी दुनिया को छोड़ने का ऐलान करने वाली ये पोस्ट एक तरह से उस संकीर्ण सोच या बुर्के का ही समर्थन करती प्रतीत हो रही थी जिससे बाहर निकलने न जाने कितनी मुस्लिम लड़कियां, औरतें नकाब के पीछे अपने आंसू छिपाये रहती फिर भी उन्हें उसके बाहर झांकने तक का मौका नहीं मिलता है और, एक कमसिन ‘जायरा वसीम’ है जिन्हें कि आमिर खान की मेगा मूवी ‘दंगल’ से न केवल अपने हुनर को दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ बल्कि, गॉडफादर व मेंटर के रूप में उनका अमूल्य मार्गदर्शन व सहयोग भी मिला जिसकी बदौलत वे उनकी अगली फिल्म ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ में बड़ी भूमिका भी पा सकी और ट्रोल किये जाने पर जवाब देने की हिम्मत भी दिखाने लगी

जिस तरह के दबंग किरदार उन्होंने निभाये उनमें केवल उनके काल्पनिक पात्र के ही दर्शन नहीं हुये बल्कि, कहीं न कहीं वो लड़की भी दिखाई दी जो अपने आस-पास के दमघोंटू माहौल व परिवार की बंदिशों, भेदभाव के खिलाफ अपने रोष को भी छिपाये बैठी है जिसे निकलने का मार्ग यदि मिला तो उसकी शख्सियत पूरी तरह उभर आयेगी मगर, ये अचानक जो सामने आया वो इतना अप्रत्याशित व हैरत में डालने वाला है कि इसके मायने समझ नहीं आ रहे है जिसकी एक वजह तो ये भी है कि फिल्मी कलाकारों को इस तरह से लाइम लाइट में आने एवं कंट्रोवर्सी खड़ी करने की भी आदत है जो कि इनके प्रोफेशन का ही हिस्सा है और इनकी नई फिल्म ‘स्काई इज पिंक’ आ रही तो हो सकता ये उसके प्रमोशन का ही कोई पार्ट हो दूसरी वजह कि जो कारण उन्होंने बताये उस हिसाब से तो किसी भी मुस्लिम कलाकार का इस तरह से काम करना गलत व मज़हब विरोधी है तब तो जो इस पेशे से जुड़े सभी खुदा को छोड़कर गलत राह पर चल रहे होंगे और, तीसरी महत्वपूर्ण वजह कि एकदम से उन्हें ये अहसास किस तरह हुआ जैसा कि हम देख रहे मुस्लिम युवाओं को अल्लाह के नाम पर बरगलाकर आतंकी तक बनाया जा रहा और इस तरह से उनके दिमाग में ये बात ठूंस दी जाती कि दूसरों को मारकर खुद की जान देकर अपराध जैसे काम करने को भी वे दीन की सेवा समझते तो कहीं ऐसा ही कुछ इनके मामले में भी तो नहीं कि किसी ने इनके जेहन को इस तरह से बदल दिया कि जो कल तक एक्टिंग को अपना ख्वाब बता रही थी आज लिख रही कि जब से वे इस दुनिया में आई अपनी अंतर्रात्मा से लड़ रही और 5 साल बाद ये समझी कि अभिनय करना गलत है ।

‘जायरा’ ने अपनी पोस्ट में लिखा है कि, “5 साल पहले उनके बॉलीवुड में कदम रखने के फैसले ने किस तरह उनकी लाइफ को बदल दिया है उनको जो भी पहचान मिली है वो उससे बहुत खुश हैं फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ने के बाद उन्हें लोगों का काफी प्यार और सपोर्ट मिला लेकिन, एक्ट्रेस बनने की वजह से वो अपने इस्लाम धर्म से दूर होती जा रही हैं पिछले पांच सालों से वो अपनी अत्मा से लड़ रही हैं एक कामयाब पहचान मिलने के बाद भी वो खुश नहीं हैं क्योंकि, ये वो पहचान नहीं है जो वो अपनी जिंदगी से चाहती हैं उनको लंबे समय से उन्हें ऐसा लगा रहा है कि वो कुछ और ही बनने की जद्दोजहद कर रही हैं और उन्हें एहसास हो गया है कि उनकी नई लाइफस्टाइल, फेम और कल्चर में वो खुद को फिट तो कर सकती हैं, लेकिन वो इस प्लेटफ़ॉर्म के लिए नहीं बनी हैं हालाँकि, बीते कुछ समय से खुद को समझाने की कोशिश कर रही थीं कि वो जो कर रही हैं वो सब सही है लेकिन, उन्हें आखिरकार समझ आ गया है कि अपने धर्म इस्लाम की बताई हुई राह पर चलने में वो एक बार नहीं बल्कि 100 बार असफल रहीं हैं ऐसे में वो अपनी छोटी से जिंदगी में इतनी लंबी लड़ाई नहीं लड़ पा रही हैं और वो बहुत सोच समझकर बॉलीवुड को अलविदा कहने का फैसला ले रही हैं”

यूँ तो ये उनका जीवन वो इसे जैसे चाहे वैसे जिये, जो चाहे वही फैसले ले किसी को कोई हक नहीं बनता उन पर ऊँगली उठाने या उनकी बातों का पोस्टमार्टम करने का मगर, चूँकि उन्होंने इसे सार्वजानिक किया और सोशल मीडिया पर सबके साथ साँझा किया अतः सबको अपने हिसाब से उस पर अपनी राय देने का इख़्तियार है जिस तरह से उन्होंने इस्लाम के नाम पर अपना निर्णय लिया वो बेहद चौंकाने वाले है क्योंकि, यदि इस नजरिये से देखा जाये तो फिर किसी भी मुस्लिम का फिल्मों में काम करना इस्लाम के हिसाब से गलत है जबकि, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उनका ही कब्जा नजर आता चाहे कहानीकार हो या गीतकार या फिर निर्देशन या अभिनय सब जगह उनका साम्राज्य है जब से हिंदी सिने जगत का आगाज़ हुआ अधिकांश कलाकार मुसलमान ही रहे चाहे वो दिलीप कुमार हो या रहमान या फिर मीना कुमारी, मधुबाला या फिर नर्गिस या नौशाद नाम कई है चंद ही लिखे जो नामचीन है इनमें से किसी को कभी ये ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ जो चिंताजनक है एक तरफ ‘मलाला युसुफजई’ जैसी बहादुर लडकियाँ जो अपने कौम की लडकियों की शिक्षा हेतु लड़ने का जोखिम ही नहीं लेती गोली भी खाती है दूसरी तरफ ‘तसलीमा नसरीन’ भी है जो फतवों के बावजूद भी लिखना नहीं छोड़ती वो भी उस दौर में जबकि, ये सब बेहद कठिन था अब तो काफी सकारात्मक व सहयोगी वातावरण है जहाँ आपकी आवाज़ को समर्थन देने बहुत से मानवतावादी और नारीवादी सन्गठन खड़े उसके बाद इस तरह का का कायराना निर्णय बहुत से सवाल खड़ा करता है कहाँ तो मुस्लिम समाज की अधिकांश लडकियाँ इनको देखकर अपना रोल मॉडल समझकर घर से निकलने की प्रेरणा प्प्राप्त कर रही होगी और कहाँ अब उनके अम्मी-अब्बू उन्हें ‘ज़ायरा’ की मिसाल देकर मजहबी बनने की सलाह देंगे इस तरह उन्होंने उनकी आज़ादी पर पाबंदियां बढ़ा दी है उन्हें यदि सचमुच सन्यास लेना ही था तो वे ख़ामोशी से भी अलविदा कर सकती थी यहाँ तो बड़े-से-बड़े अदाकार चले गये तो काम न रुका फिर इनके न होने से क्या फर्क पड़ता लेकिन, इस तरह ढिंढोरा पीटकर जाना जताता कि या तो कोई दबाब है या ये अपनी तरह दूसरों की जिंदगियों को भी चारदीवारी में बुर्के के भीतर बंद कर देना चाहती है । कश्मीर में बहुत कुछ ऐसा चला रहा जो तब समझ में आता जब कोई हादसा घटित हो जाता ‘शाह फैसल’ भी कुछ दिनों पूर्व प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देकर राजनीती में आये और अब ‘ज़ायरा’ का ये कदम बहुत कुछ कहता जिसे समझने में काफी वक़्त लगेगा तब तक इसे पहेली ही समझा जाये जिसे हल करना सबके वश की बात नहीं है ।

इतना तो यकीन है कि यदि ऐसा कुछ किसी हिन्दू अभिनेत्री ने लिखा होता कि वो धर्म के लिये फिल्में छोड़ रही है या भगवान श्रीराम से दूर हो रही इसलिये उसने अभिनय को गुडबाय कहने का मन बना लिया है तो सारी बड़ी बिंदी गैंग, वामपंथी, सो काल्ड मानवतावादी, फर्जी सेकुलर और फेक मीडिया ने अब तक हंगामा बरपा दिया होता कि हिन्दू धर्मवादी लडकियों को बहका रहे, उनकी प्रतिभा पर अंकुश लगा रहे है जो सरासर गलत है । वे तो तीज-त्योहारों पर वर्किंग वीमेन के ससुराल जाकर वहां के रीति-रिवाज निभाने एवं चार दिनों के लिये घुंघट लेने पर ही इतनी हाय-तौबा मचाती मानो इसके बाद उन पर ही सर पर पल्लू रखने का नियम लागू हो जायेगा पर, कभी बुर्का, तीन तलाक या हलाला पर भूले से भी कलम नहीं चलाती न ही आतंकवाद के मज़हब को स्वीकारने तैयार होती पर, जहाँ मोब लिंचिंग की बात हो तपाक से धर्म निर्धारण कर देती उनकी इस सलेक्टिव अजेंडा वाली अदा ने जिस तरह से उनको बेपर्दा किया वैसा इसके पहले नहीं किया था तो सोशल मीडिया का ये लाभ तो है कि यहाँ कौन किधर, किसके खिलाफ़  सबकी पहचान हो जाती है ।
       
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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून ३०, २०१९

शुक्रवार, 28 जून 2019

सुर-२०१९-१७८ : #मोब_लीचिंग_बनाम_हत्या



पापा, ये देखो अखबार में एक खबर छपी कि कुछ मुसलमान लोगों ने एक हिन्दू द्वारा उसकी होटल में खाना खाने के बाद बिल मांगे जाने पर गुस्से में उसको इतना पीटा की उसकी मौत हो गयी पर, इसके लिये 'मोब लीचिंग' शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया गया मीडिया इसे हत्या की वारदात बता रहा ऐसा क्यों ? मुझे तो आज तक समझ नहीं आया कि 'मोब लीचिंग' और 'हत्या' में अंतर क्या है ??

बेटा, यूँ तो भीड़ या समूह द्वारा किसी भी धर्म या मज़हब के व्यक्ति को सामूहिक रूप से मिलकर जान से मारना मोब लीचिंग कहलाता पर, आजकल कुछ फेक सेक्युलर, बिकी हुई मीडिया व बौद्धिकता इसे मजहबी चश्मे से देखती और उसके आधार पर ही इसे हत्या या लीचिंग कहती है ।

पापा, मैं आपकी बात ठीक से समझा नहीं जरा विस्तार से बताइये न प्लीज़...

ओके, सिम्पली बताता हूँ जब भी कोई मुस्लिम किसी हिन्दुओं द्वारा मारा जाता तो उसे 'मोब लीचिंग' कहा जाता है और सरकार उसे मुआवजा व नौकरी भी देती है लेकिन, यदि कहीं इसका उल्टा हुआ तो उसे 'हत्या' कहते है जिसमें न ही मीडिया, न सरकार और न ही बुद्धिजीवियों को कोई दिलचस्पी होती क्योंकि, हिन्दू तो बहुसंख्यक तो उन पर कौन अत्याचार कर सकता वो तो अपनी गलती से मरते तो उनको तवज्जो क्या देना इस मानसिकता ने आज़ादी व बंटवारे के बाद भी देश को गुलाम ही नहीं बना रखा बल्कि, इस डर में भी बांध रखा कि देश के अनेक टुकड़े होना अभी बाकी है ।

पापा, हम युवा इस सोच को बदल सकते क्योंकि, हम इन बातों में विश्वास नहीं करते और आपने भी यही सिखाया कि इंसानियत ही एकमात्र धर्म तो हम यूथ मिलकर अब इस विचारधारा की ही मोब लीचिंग कर देंगे ।

बहुत खूब बेटा, तुम लोग ही देश का भविष्य व उम्मीद हो तो मुझे विश्वास है कि तुम लोग ये कर सकते हो इन पूर्व प्रचलित धारणाओं को तोड़कर उन फेक बुद्धिजीवियों व राजनेताओं के षड्यंत्र को असफल कर सकते हो जो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये ऐसी घटनाओं को प्रायोजित करते है ।

पापा, आज से ही हम सब दोस्त सोशल मीडिया के माध्यम से ही नहीं जमीनी स्तर पर भी इसके मायने बदल देंगे और खबरों की पड़ताल कर इसका सत्य सबके सामने लायेंगे ताकि, इस देश का अब आगे किसी भी आधार पर कोई विभाजन न हो आखिर, हम सब एक है ।

पिता ने आगे बढ़कर पुत्र को गले लगाकर सफलता की शुभकामना दी और इस आश्वासन ने उसे निश्चिंत कर दिया था ।

अगले दिन ही उसने व उसके दोस्तों ने मिलकर मोब लीचिंग के मायने ही बदल दिये जब सोशल मीडिया पर नया ट्रेंड दिखाई दिया...

#Mob_Lynching_Fake_Media
#Mob_Lynching_OneWay_Secularism
#Mob_Lynching_Dividing_Mentality

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून २८, २०१९

गुरुवार, 27 जून 2019

सुर-२०१९-१७७ : #न_कैंडल_मार्च_न_ज्ञापन #अब_रेप_का_करना_होगा_समापन



मर्दों की मर्दानगी जिस तरह से पीढ़ी-दर-पीढ़ी गिरती जा रही हार्मोन्स का लेवल भी उतनी ही गति से उफान पर जा रहा और नैतिकता वो तो हर जगह लगभग डायनासोर की तरह विलुप्त होती नजर आ रही जिसकी वजह से कामुकता से भरी अंधी आँखें अपनी काम पिपासा की तृप्ति हेतु एक सुराख़ की तलाश में इस कद्र मानव से दानव बनता जा रही कि न तो उसे दुधमुंही बच्ची नजर आ रही और न ही उम्रदराज बूढी देह और न ही जानवर उसे तो हर हाल में उस उत्तेजना को शांत करना जो एकाएक ही शराब के नशे या किसी कामुक विचार या किसी अश्लील तस्वीर से उसके शरीर में उभर आती जिसके बाद न तो उसे कोई रिश्ता याद रहता और न ही शरीर के बीच का फर्क समझ आता उसका तो एकमात्र लक्ष्य अपनी हवस की पूर्ति होता जिसे वो किसी भी तरह से हासिल कर लेना चाहता है उसकी इस नीचता ने उसे इतना अधिक पाशविक बना दिया कि वो नन्ही किलकारियों में सिसकारियां तलाशने लगा और जब से नन्ही मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार की खबरें आई मानो वासना के लिये भटकते इन पशुओं को अपनी उस उत्तेजना को मिटाने का आसान टारगेट मिल गया हो फिर तो एक के बाद एक ऐसी ही घटनाओं की खबरें देश के कोने-कोने से आने लगी लोगों के इतने विरोध, आपत्तियां दर्ज करने व कड़ा कानून बनने के बाद भी इसमें कमी की बजाय बढ़ोतरी ही नजर आई और ये महामारी की तरह उन जगहों तक भी फ़ैल गयी जहाँ लोगों को ये गुमान था कि हमारा नगर तो इस गंदगी से बचा हुआ है यहाँ ऐसे राक्षसों का वास नहीं 25 जून की सुबह मगर, ये भ्रम भी टूट गया जब खबर आई कि नृसिंह भगवान् की पावन नगरी में भी वासना के ऐसे भूखे भेडियें रहते जो नन्ही-नन्ही मासूम बच्चियों में कामुकता ढूंढ लेते है

24 जून, सोमवार की रात ऐसे ही एक राक्षस ने डेरे में रहने वाले खानाबदोश परिवार की पांच वर्षीय बच्ची को सोते से उठाया और गोद में लेकर सुनसान जगह में जाकर उसके साथ दुष्कर्म कर उसे घायल अवस्था में झाड़ियों में फेंककर चला गया मंगलवार को कुछ लोगों ने बेहोश बच्ची को देखकर उसकी सूचना दी तब पुलिस सक्रिय हुई और सी.सी.टी.वी. कैमरे में दर्ज उस दानव की अस्पष्ट आकृति नजर आई तफ्तीश में ये भी पता चला कि रात को करीब दो बजकर 45 मिनट पर उसने बच्ची को उठाया और 3 बजे के लगभग उसके माता-पिता अपनी बेटी को लापता पाकर पास के पुलिस स्टेशन पर गये मगर, ड्यूटी में तैनात आरक्षक ने उनकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया अन्यथा ये हादसा टाला भी जा सकता था जाँच के पश्चात् तत्काल उस प्रधान आरक्षक को निलंबित कर दिया गया उसके बाद भी इस वारदात में अनेक लूप होल्स नजर आते जो लचर प्रशासन की पोल खोलते कि सरकार ने जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे तो लगवा दिये लेकिन, उन पर नजर रखना भूल गयी दूसरी बात की वो राक्षस लम्बी दुरी पार कर के उसे गोद में उठाकर लेकर गया पर, उतनी रात में कोई गश्त पर नहीं था और सीसीटीवी कैमरे में एक मोटर साइकिल भी जाती दिखाई दे रही लेकिन, उसने गाड़ी चालक ने भी इस सामान्य समझ नजर अंदाज कर दिया शायद, या फिर वही मानसिकता की दूसरों के पचड़े में कौन पड़े तो निकल चलो यहाँ से इसके अलावा पुलिस की लापरवाही तो है ही जो यदि शिकायत पर तुरंत कदम उठाये तो ऐसी अनेक घटनाओं को घटित होने से रोका जा सकता है जितना सरकार या कानून दोषी उतने हम भी है जो हर घटना के बाद कैंडल मार्च या ज्ञापन सौंपकर घरों में चुपचाप बैठ जाते या अपने कामों में लग जाते और इसे सरकार का जिम्मेदारी समझ अपना दामन झाड़ लेते जबकि, हम सब भी यदि सतर्क-सजग रहे तो कुछ अपराधों को तो रोक ही सकते है हमारे समाज के बेरोजगार युवा या सेवानिवृत नागरिक अपने नगर की चौकसी की स्वतः संज्ञान से जवाबदारी ले और खुद घुम-घुमकर सुनसान इलाकों पर नजर डाल और कोई संदिग्ध दिखे तो उसकी शिकायत दर्ज करवाये जो नामुमकिन तो नहीं है

घटना के बाद उसकी गम्भीरता को देखते हुये पुलिस ने 48 घंटो के भीतर आज दोपहर उस दुराचारी को पकड़ लिया और जब उसकी शिनाख्त हुई तो पता चला कि वो तो सशस्त्र पुलिस बल में रसोइया था बोले तो एक बार फिर साबित हुआ कि रक्षक ही भक्षक है दूसरा कि वो शादीशुदा भी है उसके दो बच्चे भी है और उसने शराब के नशे में इस घृणित काम को अंजाम दिया जो दर्शाता कि नौकरी या शादी भी उसके जीवन में संतुष्टि न ला सकी तो शराब का सहारा लिया और उसके बाद भी मन न भरा तो बच्ची के साथ दुष्कर्म किया यूँ तो हम जानते कि व्यक्ति की कामनाओं का कोई अंत नहीं लेकिन, अब वो कामांध बनकर इंसानियत को ही लजाने लगा है ऐसे में इसको ऐसा दंड दिया जाये कि बलात्कारियों में भय व्याप्त हो जो कि इनके साथ भी उतनी ही दरिंदगी करने से सम्भव शायद, तब वे उस पीड़ा को महसूस कर पाये जो वे नादान बच्चियां सहन करती होंगी कितनी तो बेचारी बेमौत ही मर जाती है इतनी खबरों को सुनने के बाद भी यदि अपराधियों की हिम्मत बढ़ रही तो इसका यही मतलब कि उनके भीतर सरकार, प्रशासन व् कानून को लेकर कोई डर नहीं और उसके भीतर नैतिकता का अंश मात्र भी शेष नहीं जो उसे ऐसा करने से रोक सके अन्यथा एक बालिका को देखकर जहाँ वात्सल्यता का भाव उभरना चाहिये वहां कामुकता पैदा हो रही है जिसकी एक वजह मोबाइल, सिनेमा और केबल टी.वी. भी है भले कोई माने या न माने पर, कहीं न कहीं ये सब माध्यम आदमी के भीतर उत्तेजना जगा रहे जिसका खामियाजा ये निर्दोष भुगत रही है अतः अब सरकार को चाहिये कि नशा ही नहीं इन सब पर भी प्रतिबन्ध लगाये जो बलात्कार को काफी हद तक कम करेगा क्योंकि, जिनका खुद के आवेगों पर कोई नियन्त्रण नहीं कम से उनकी मानसिकता पर सरकार ही लगाम लगाने का काम करें और इसमें उत्प्रेरक का काम करने वाले नशीले पदार्थों को भी राजस्व का लोभ छोड़कर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंधित करें अब भी यदि बलात्कार के समस्त कारणों पर शिकंजा न कसा गया तो इसे रोकना असम्भव होगा कि ये भोगवादी प्रवृति व विलासिता धीरे-धीरे बढ़ती ही जायेगी हम अब भी शायद, कल्कि अवतार का इंतजार कर रहे कि वही आकर सब ठीक करेंगे तो फिर हमारा जीवन जो मूकदर्शक बनकर जी रहा व्यर्थ है लानत है इस पर जो घटना होने पर कोई ठोस कार्यवाही करने की जगह कैंडल जलाने या ज्ञापन देने की औपचरिकता का निर्वहन मात्र करना जानता है                     

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून २७, २०१९

बुधवार, 26 जून 2019

सुर-२०१९-१७६ : #शान_से_जीवन_जियो #नशा_रूपी_ज़हर_मत_पियो




जितने तरह के नशे होते उतनी ही उन्हें करने की वजहें भी होती लेकिन, ये खुद पर निर्भर कि हम क्या चुनते है । कुछ लोग गम में तो कुछ खुशी में इसे अपनाते पर, महसूस करेंगे तो पायेंगे कि किसी भी अहसास को कम करने या बढाने में इसकी कोई भूमिका नहीं होती । ये हमारे भीतर की सोच और उससे निकले रसायन ही होते जो नशा करने के विचार मात्र से हमारे मन के भावों में परिवर्तन कर देते है । ऐसे में यह ज्ञात होता कि सबसे बड़ा नशा या मदहोशी का आलम भीतर उठने वाले ख्यालों की दिशा बदलकर ही जगाया जा सकता जिसे हम जबरन मेहनत से कमाये पैसे व अनमोल सेहत गंवाकर प्राप्त करते है ।

हमारी सोच ही होती जो हमको हंसाती या रुलाती नशा तो उस अनुभूति से गुजरकर उसे जीने ही नहीं देता और एक ऐसा निराशापूर्ण माहौल पैदा कर देता जिससे हमारी चेतना ही भ्रमित हो जाती है । फिर इसके वशीभूत होकर हम कोई भी गलत कदम उठा सकते क्योंकि, अच्छे-बुरे का निर्देश देने वाली पवित्र आत्मा की आवाज़ इस शोर में सुनाई ही नहीं देती इसलिए ज्यादातर आपराधिक घटनायें नशे की स्थिति में ही घटित होती जिन्हें रोका जाना सम्भव होता है । जितने भी नशीले पदार्थ या नशे की सामग्री है उनसे अधिक प्रेरक नशा तो प्रकृति में बिखरा पड़ा जिसकी जगह हमने उत्तेजक द्रव्यों को जीवन में अपनाकर सिर्फ अपना ही नहीं अपने आस-पास रहने वालों का जीवन भी नरक बना दिया है ।

जिस पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में हमने ये अपनाया ये नहीं देखा कि उनके क्लाइमेट के अनुसार ये उनके लिए दवा समान और वे इसे उसी तरह से लेते पर, हमने तो इसे स्टेटस सिंबल बना दिया जिसके बिना हमारी पावरफुल इमेज में कुछ कमी लगती है । हमसे बड़ा बेवकूफ कौन होगा जो नशे के पैकेट्स पर चेतवानी पढ़कर बोले तो आने मौत का पैगाम पढ़कर भी स्वयं उसे चुनते और अपनी मेहनत की कमाई से उसे खरीदकर खुशी-खुशी उस जहर को पीते भी है । एकमात्र सरकार ही है जो यदि चाहे तो इस पर लगाम लगा सकती है क्योंकि, वही तो जो इसे खुलेआम बेचने की अनुमति देती इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो इसे वैधानिक चेतवानी के साथ बिक्री का आदेश देती है

ये कुछ समझ नहीं आता कि एक तरफ तो सरकार की इसे बेचने की परमिशन देती तो दूसरी तरफ इसकी रोकथाम और इसके निवारण हेतु कार्यक्रम भी चलाती और केंद्र भी खुलवाती जो नशे की आदत से छुटकारा दिलाते है इस तरह नशे के माध्यम से केवल सरकार ही नहीं व्यापारी, डॉक्टर और वे संस्थायें भी लाभान्वित होती जो नशामुक्त समाज बनाने का दावा करते हुये खोली जाती इस तरह ये बहुत सारे लोगों के लिये आय का जरिया बनकर अपने आपको सेफ ज़ोन में कर लेता है इसकी वजह से क्या इसे पूर्णरूप से समाप्त नहीं किया जाता तो ऐसे में इस तरह के दिवस मनाने या बनाने का कोई औचित्य नजर नहीं आता क्योंकि, जब तक नशा मौजूद इसका निरोध असंभव है

आजकल तो ‘मोबाइल’ से बढ़कर कोई नशा दिखाई नहीं देता जिसकी गिरफ्त में हर उम्र और हर वर्ग का इन्सान नजर आता जिससे छुटकारा पाने का भी कोई उपाय नहीं क्योंकि, कोई इसके बिना रहना ही नहीं चाहता है । याने कि सबकुछ जानते हुये भी व्यक्ति खुद उस राह पर चलता जो उसे विनाश की तरफ ले जाती ऐसे में अपने आप पर नियन्त्रण व नैतिक मूल्यों की शिक्षा ही है जो उसे बचा सकती क्योंकि, नशा नाश की जड़ तो नशा करने वाले भी जानते मगर, फिर वो उसे अपनाते है । वर्तमान में हम संस्कारों से दूर हो जा रहे और नशे के करीब होते जा रहे हर एक व्यक्ति किसी न किसी नशे का शिकार जो उन नशीले पदार्थों के सेवन से बचा वो सेल फोन के स्क्रीन में गिरफ्तार है ।

हर कोई इनके दुष्प्रभाव के बारे में जानता फिर भी वो खुद को इनसे बचा नहीं पाता कि उसका खुद पर ही नियन्त्रण नहीं जिसके लिये ‘ध्यान’ व ‘योग’ मदद कर सकते तो उसकी शरण में जाये और सेहत बनाने का नशा अपनाये जिसे अपनाकर हर बुराई खुद-ब-खुद हमारे करीब नहीं आती है । नशा करना ही है तो अपने परिजनों से स्नेह का करें जिसके बाद आप अपने आप ही इससे इन्कार करेंगे क्योंकि, प्रेम में डूबे हुये प्रेमी पर फिर कोई भी नशा असर नहीं करता है । ‘नशा’ करने के सकारात्मक विकल्पों को चुनने पर नकारात्मक को ‘न’ कहना मुश्किल नहीं होगा तो आज ‘अंतर्राष्ट्रीय नशा निरोधक दिवस’ पर यही संकल्प तो लेना है जिससे कि इस दिन को मनाना ही बंद हो कि ये कोई ख़ुशी का दिन तो नहीं है ।       

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून २६, २०१९

मंगलवार, 25 जून 2019

सुर-२०१९-१७५ : #इक_पाती #मेघ_को_पुकारती




ओ मानसून,

तेरे बिना...
नदी, तलाब, पनघट
पेड़-पौधे, पशु-पंछी सब
राह निहार रहे होकर बैचेन
काले मेघ तो आ रहे
बरसे बिन मगर, जा रहे
उमस ही बढ़ा रहे
धरती को भी जला रहे  
होने लगे सब बड़े व्याकुल
कहाँ हो तुम ?
.....
तरसते नयन
आसमान को ताकते
आंसू भी अब न रहे शेष  
सूख गये सारे
तेरी एक बूंद के प्यासे
सुनो, कर रहे करुण पुकार
टूट न जाये उनकी आस
बुलाते तुझे हे मेघ   
होकर सब बड़े आतुर
कहाँ हो तुम ??
.....
ढूंढ रहे
इधर-उधर, चारों तरफ
एक तुझे ही हम
जाने किधर हो गये गुम
आ जाओ बरसो झमाझम
कर दो हर कण नम
तुम्हें वसुंधरा की कसम  
देखो जरा नीचे
बैठे सब बड़े गुमसुम
कहाँ हो तुम ???
..... ●●●●●

#Mansoon_Please_Come_Soon

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून २५, २०१९

सोमवार, 24 जून 2019

सुर-2019-174 : #भारत_की_पहचान_ऐसी_नारी #जैसी_थी_गोंडवाना_की_दुर्गावती_रानी




इतिहास पढ़कर अहसास होता कि वर्तमान में देश की जो स्थिति या हालात है उसके लिये सर्वाधिक जिम्मेदार ‘मुगल’ है जिनके आने के बाद समाज में बुराइयों का भी आगमन हुआ और सबसे ज्यादा स्त्रियों की दशा पर प्रभाव पड़ा उनकी अंदर व बाहर की आज़ादी पूरी तरह छीन गयी और वे केवल घर की चारदीवारी तक सीमित हो गयी थी उसके बाद धीरे-धीरे सभी बुराइयां समय के साथ इस तरह से संपूर्ण समाज में व्याप्त हो गयी कि दोष हिन्दू समाज को दिया जाने लगा जबकि, अपने परिवार व औरतों की सुरक्षा की खातिर उन्होंने तत्कालीन व्यवस्था को बदलना उचित समझा जो एक लंबे कालखण्ड में प्रचलित होने के कारण इस तरह से सभ्यता का हिस्सा बन गयी कि उस पर पुनर्विचार करने या उसे पुनः पूर्वस्थिति में लाने किसी ने विचार नहीं किया जिसकी वजह से औरतों को अपने उस खोये हुये हक को प्राप्त करने आंदोलन करने पड़ रहे और गालियां पितृसत्ता के नाम जा रही है सही मायने में तो जिसका एकमात्र हकदार नारी शोषण का जिम्मेदार देश में बाहर से आकर कब्जा जमाने वाला क्रूर, हिंसक, निरंकुश, लोभी व तानाशाह मुगल साम्राज्य है ।

उसके पूर्व की जो नारियां व उनकी कहानियां सामने आती उनसे यही ज़ाहिर होता कि इस देश में स्त्रियों पर इस तरह से बंदिशें उस दौर में नहीं थी जितनी कि मुगल काल के बाद देखने में आती है यहां तक कि तब तो औरतें न केवल स्वतंत्र निर्णय लेने की कूवत रखती बल्कि, शिक्षा एवं अस्त्र-शस्त्र विद्या में भी पारंगत होती थी जिसका उदाहरण रानी दुर्गावती, रानी अवंति बाई, रानी अहिल्या बाई एवं रानी लक्ष्मी बाई है जो सिर्फ इसलिए नहीं सशक्त थी कि किसी राजघराने से ताल्लुकात रखती थी बल्कि, उस युग में ये सामान्य ही माना जाता था तभी तो वे पुरुषों की बराबरी से लड़ने की हिम्मत दिखा सकी अन्यथा जिसने सिर्फ रसोई का काम किया हो वे एकदम जंग के मैदान में जाकर शत्रुओं के छक्के नहीं छुड़ा सकता जबकि, उन्होंने तीन बार आसफ खान को बैरंग वापस भेजा वो भी शर्मिंदगी के साथ जिसे ये लगता था कि एक औरत पर काबू पाना आसान होगा पर जब आमना-सामना हुआ तो उसे ये स्वीकार करना पड़ा कि रानी दुर्गावती कोई आम महिला नहीं एक बहादुर यौद्धा है जिसे बिना छल-कपट या धोखे के पराजित करना नामुमकिन है ।

ये भी हिंदुओं के साथ एक विडम्बना रही कि वे जरूरत पड़ने पर अपनी ही कौम का साथ देने की बजाय दुश्मन के साथ मिलकर गद्दारी करते और ऐसा आपको हर एक जाबांज की वीर गाथा में पढ़ने को मिलेगा कि बिना धोखे के उनको मारना तो दूर हराना भी असम्भव था मगर, हमारे अपनों ने ही हमें हमेशा छला जिसका खामियाजा हम आज तक भुगत रहे कि मुगलों ने जो देश को बर्बाद करने का बीड़ा उठाया तो आज तक उसी काम में लगे हुये है बस, मौके की तलाश है उन्हें यकीन है कि उनकी इस साज़िश में इस बार भी चंद कपटी हिन्दू ही उसका साथ देंगे क्योंकि, ये अपने इतिहास या धर्म से कुछ नहीं सीखते और मानवता के नाम पर इन्हें आसानी से बरगलाया जा सकता है जैसा कि अभी भी देखने में आता कि किसी प्रकरण में यदि हिन्दू केवल शक के दायरे में भी हुआ तो सबसे ज्यादा हिन्दू ही उसके खिलाफ बोलेगा पर, उसके विपरीत होने पर बोलने पर तमाम मानवतावादियों व रुदालियों का सियापा चालू हो जायेगा ये सब एकजुटता का अभाव दर्शाते जो मुगल काल से ही देखने में आ रही है ।

रानी दुर्गावती जो दुर्गाष्टमी के परम पावन दिन जन्मने के कारण इस नाम की अधिकारिणी बनी अपने ही दल के एक सरदार के द्वारा किये गये छलावे की वजह से मृत्यु को प्राप्त हुई अन्यथा उन्होंने तो उस कायर आसफ खान को दो बार बुरी तरह हराकर लज्जित किया था परंतु, मुगलों की एक खासियत या घटियापंती जो भी कह ले उनके लहू में ही बेईमानी समाई वे सत्रह बार माफ किये जाने पर अठारहवीं बार हमला करेंगे पर, जब उनका दांव लगेगा तो माफी तो छोड़िए वे आपको एक पल की मोहलत न देने और इस तरह से तड़फा-तड़फाकर मारेंगे कि रूह भी कांप जायेंगे ये उनकी फितरत जो उनके डी. एन.ए. समाई जिससे विलग कर के उन्हें देख पाना मूर्खता ही कहलाएगी जो आपको फिर उनके झूठे गंगा-जमुनी तहजीब के जाल में फंसा देगी जिसमें सारी रवायतें एकतरफा जो सिर्फ आपको माननी उनसे कोई अपेक्षा करना कुफ्र है ।

रानी दुर्गावती साक्षात रणचण्डी का अवतार थी और युद्ध में जिस तरह का शौर्य व पराक्रम उन्होंने दिखाया वो समस्त स्त्री जाति के लिये गौरव का विषय है और अंत समय में भी जब उन्हें लगा कि अब इन नीच शत्रुओं से लम्बे समय तक लड़ पाना क्षमता से बाहर तो जीवित उनके हाथ पड़ने की बजाय बड़ी वीरता से उन्होंने अपने ही हाथों अपने सीने में कटार घोंप ली शुक्र है कि उस समय यदि स्वरा भास्कर जैसी मानसिकता वाली औरतों की खेप नहीं जन्मी जिनके लिए जीवन का विकल्प सेक्स स्लेव बनकर जिये जाने पर भी बेहतर है ।

नमन है देश की ऐसी वीर नारियों को जिन्हें देश की शान व अपनी आन प्यारी थी... जय हिन्द... !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून २४, २०१९

रविवार, 23 जून 2019

सुर-२०१९-१७३ : #ये_कहाँ_आ_गये_हम #बच्चे_भी_बन_रहे_बलात्कारी_अब




एक-दो दिन के भीतर होने वाली इन दो घटनाओं को यदि अभी हमने उसी तरह नजरअंदाज कर दिया जैसा कि अब तक करते आये तो आने वाले दिनों में सबसे ज्यादा नाबालिग किशोर बच्चे बलात्कारी के रूप में कटघरे में खड़े होंगे क्योंकि, जिस तरह की आरामदायक सुविधापरस्त भोगवादी जीवन शैली हम सब लोगों ने अपना रखी उसमे ये सब बेहद सामान्य माना जायेगा ।

आखिर, हम ही तो अपने बच्चों के हाथों में मोबाइल थमा रहे, हॉलीवुड / बॉलीवुड फिल्में देखने दे रहे लेकिन, जब हमें ये खबर मिलती कि किसी 11 साल के बच्चे ने एक 4 साल की मासूम बच्ची के साथ रेप कर दिया तो हमारे मुंह से अनायास ही निकलता कि, इम्पॉसिबल बच्चे ऐसा कर ही नहीं सकते वो तो ये सब समझते नहीं जरूर समझने में गलती हुई होगी या फिर उसने जिज्ञासावश कुछ किया होगा जिसे बलात्कार कहना सही नहीं है ।

मगर, अब समाचारों की हैडलाइन में लिखा आ रहा कि...

21 जून, देहरादून के डालनवाला क्षेत्र में एक तीन वर्षीय बच्ची के साथ कथित तौर पर 11 वर्षीय पड़ोसी के दुष्कर्म करने का मामला सामने आया है । पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार, घटना के वक्त बच्ची के माता-पिता काम पर गये हुए थे जबकि वह अपने दो बड़े भाई बहनों के साथ घर में थी । आरोपी लड़का बच्ची को अपने घर ले गया जहां उसने उसके साथ कथित तौर पर दुष्कर्म किया ।

22 जून, बठिंडा जिले के गांव में एक 4 साल की मासूम बच्ची के साथ पड़ाेसी 13 साल के लड़के ने रेप कर दिया फिर पकड़े जाने के डर से लड़के ने जहर निगल लिया।

ये दो दिन के भीतर घटित होने वाली वे दो वारदातें है जो हमें आने वाले घृणित भविष्य के प्रति आगाह करती है यदि अब भी हम न चेते और इस यूँ ही जाने दिया तो फिर आने वाले दिनों में जब इस तरह की खबरों की संख्या में इजाफा होगा तो हमें ये शिकायत करने के भी हकदार नहीं होंगे कि आखिर, हम ये कहाँ आ गये, ये किस तरह हो गया क्योंकि, हर आने वाली मुसीबतों या आपदाओं के इसी तरह से संकेत मिलता हम ही अपनी मस्ती में गाफ़िल उसको देखकर भी अनदेखा कर देते है ।

ऐसा तब तक करते रहते जब तक कि ये समस्या में तब्दील नहीं हो जाता भले, ही सुना-पढा हो या इससे वाक़िफ़ भी हो कि सुरक्षा या सावधानी दुर्घटना से बेहतर है पर, अमल में कब लाते यदि ऐसा होता तो मुजफ्फरपुर में बुखार से जो इतने बच्चे अकाल मृत्यु को प्राप्त हुये न होते कि पिछले 25 वर्षों से मौसम परिवर्तन पर ये देखने में आ रहा पर, किसी सरकार या समाज ने इसको रोकने आज तक कोई व्यवस्था नहीं कि बल्कि, इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया कि जून में या अगस्त में ऐसा होता ही है शायद, आगे भी ऐसा ही कहे कोई कि बच्चे कमउम्र में जवान हो रहे तो हार्मोन बदलने से ऐसा होना स्वाभाविक है तब हो सकता हम भी इसे इसी तरह से स्वीकार कर ले ।

जैसे अभी भी बलात्कार की घटनाओं पर दो-चार दिन हल्ला मचता, कैंडल मार्च किया जाता, रैलियां / धरना प्रदर्शन होते अंततः सब खामोश होकर बैठ जाते कि लगातार यही सब करते-करते हमने उसे रेप की प्रतिक्रिया मान लिया जबकि, हम सबको तब तक अपना विरोध दर्ज करना चाहिये जब तक कि इस पर पूर्णतया विराम न लग जाये लेकिन, अब तो इसमें भी धर्म / मज़हब का प्रवेश होने से इसके खिलाफ बोलने वाले भी बंट चुके है बोले तो मानवीयता, नैतिकता व संवेदनाओं का अनवरत पतन जारी है ।

मोबाइल ने जहां हमारी ज़िंदगी को थोड़ा आसान बनाया वहीं दूसरी तरफ हमारा चैन, सुकून ही नहीं समय भी हमसे छीन लिया अब हमारे पास अपने रिश्तों या अपनों को देने के लिये रेडीमेड मैसेज या वीडियोज तो है पर, फुर्सत से बतियाने या समझाने का वक़्त नहीं कि हर समय जल्दी पड़ी रहती और बहुत कुछ टालते जाते कि फ्री होकर अच्छे से करेंगे लेकिन, वो वक़्त कभी नहीं आता वो बच्चे जो बचपन में हमसे दो-पल मांगते इतने बड़े हो जाते कि अब उनके पास हमारे पास बैठने की भी फुर्सत नहीं बोले तो घड़ी की सुइयों की तरह गोल-गोल जीवन बीतता जाता वही सब कुछ फिर दोहराया जाता जिसमें बच्चे ही होते जो बड़ों के बीच एडजस्ट नहीं हो पाते और बड़े उनसे पीछा छुड़ाने गेजेट्स हाथ में थमा देते है ।

उसके बाद जब वो कुछ भी घटिया-सा देखकर उसे इस तरह से आजमाता तो बोलते ये कब और कैसे हुआ ? हमने तो इसकी इतनी अच्छी तरह परवरिश की, इसके मांगने से पहले सब कुछ दिया इसकी हर विश पूरी की, सबसे महंगे स्कूल में पढ़ाया तो पता नहीं ये ऐसा कैसे निकल गया जरूर किसी ने इसे बहकाया है । ये सबसे बढ़िया ढाल है खुद को बचाने की पर, भीतर वे भी जानते कि वजह वे खुद है जब गीली मिट्टी को मनचाहा आकार दे सकते थे तब उसे बिखर जाने दिया और जब वो खुद को समेटकर अपने हिसाब से बनाने लगा या किसी दूसरे ही सांचे में ढल गया तो हम उसे तोड़ने लगे क्योंकि, जो तैयार हुआ ये वो नहीं था जो हमने मन में सोचकर रखा था इसके बाद भी हम अपनी गलती मानने तैयार नहीं होते अपने दोष / अपराध को किसी बहाने की खोल में छिपाकर खुद को निर्दोष साबित करने का प्रयास करते कि इसमें हमारा क्या दोष क्या हम अपनी जिंदगी नहीं जीते ? क्या हम सब काम-धाम छोड़कर इसे ही संभालते रहते ?? हमने जो किया इसके लिये ही तो किया फिर ये ऐसा कैसे निकल गया ।

दरअसल, ये सब महज़ अपनी गिल्ट को कम करने के तरीके असलियत ये है कि आज ज्यादातर पेरेंट्स को उस समय बच्चे बोझ लगते, अपने कैरियर के बैरियर लगते, लाइफ को एन्जॉय करने के दौरान मुसीबत महसूस होते जब वे उनसे उनके समय की डिमांड करते जिसे छोड़कर वे उसे सब कुछ देने तैयार । ये जिंदगी हमने ही खुद इतनी उलझ ली है कि अब समझ न आ रहा कि इसे किस तरह सुलझाये इससे बेहतर तो हमारे पूर्वज थे जिन्होंने कम कमाई में ज्यादा बच्चों को पाला ही नहीं संस्कारित सभ्य इंसान भी बनाया और एक हम है जो उनसे अधिक शिक्षित, सुविधासंपन्न, पैसे वाले पर नैतिकता विहीन ।

उस पर तर्क ये कि आज के जमाने में दोनों की कमाई बगैर पूरा नहीं पड़ता, पढ़े-लिखे होकर घर में बैठने का क्या फायदा, आजकल के बच्चे किसी की नहीं सुनते, मंहगाई इतनी कि जॉइंट फैमिली में रहना नामुमकिन मगर, ऐसे हालात में ही हमें समाधान निकलाना होगा कुतर्कों से खुद का बचाव करने की जगह ये सोचना पड़ेगा कि इसे रोकने का उपाय क्या है यदि हम बढ़ती महंगाई या अपनी ख्वाहिशों को लगाम नहीं लगा सकते तो इनका हल तो खोज ही सकते है जो हमारे बच्चों को इस हद तक गिरने से रोके अन्यथा उनकी पैदाइश पर ही बंदिश लगाई जाये क्योंकि, किसी बच्चे को मात्र पैदा करना ही जीवन देना नहीं है ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून २३, २०१९

शनिवार, 22 जून 2019

सुर-२०१९-१७२ : #लघुकथा #नारी_न_मोहे_नारी_के_रूपा




प्रिया, क्या ये भी तुम्हारी दुकान से कपड़े खरीदती है ?

प्रिया के बुटीक में घुसते हुये मिसेज खोसला ने बेहद आश्चर्य से ये प्रश्न किया ।

प्रिया ने उसके चेहरे पर दिखने वाले असमंजस के भाव और आश्चर्य से फैलती नजरों का पीछा किया तो वो समझ गयी ये क्या कहना चाहती है फिर भी अनजान बनकर सहजता से पूछने लगी, कौन भाभी आप किसकी बात कर रही है ???

अरे, वो माया मेरी काम वाली जो मेरे घर में झाड़ू पौंछा करती है उसकी बात कर रही अभी वही तो निकली न तुम्हारी दुकान से ।

ओह, आप उसकी बात कर रही मैं समझी नहीं भाभी, ये दुकान तो सबके लिए खुली इसलिये कोई भी आ सकता कोई बंधन नहीं है ।

अरे वाह, ऐसे कैसे आ सकता है । हममें और उसमें कोई फर्क ही नहीं है क्या ? वो हमारी बराबरी करेगी, हमारे जैसे कपड़े पहनेगी, जहां से उसकी मालकिन खरीदती वहां से लेगी फिर तो लगता मुझे यहां से ड्रेसेस खरीदना बन्द करना पड़ेगा ।

प्रिया ने तुरंत बात बदलते हुये कहा, भाभी आपको याद है अभी दो-चार दिन पहले ही आप दिल्ली में महिलाओं के लिये फ्री मेट्रो की सुविधा के पक्ष में सोशल मीडिया में आवाज़ उठा रही थी ।

बिल्कुल, याद है अच्छी तरह से याद है वो एक अच्छी पहल इसलिए मैं उसका समर्थन कर रही थी और आज भी कर रही हूं पर, तुझे वो बात अभी इस वक़्त क्यों याद आ गई?

वो इसलिए कि कुछ महिलाएं इसका विरोध करते हुये आपकी पोस्ट पर लिख रही थी कि, अब तो मजदूरी और घरेलू काम करने वाली औरतें भी हमारे साथ बैठेंगी जो एकदम गलत है । तब आपने मुझसे कहा था कि ये महिलाएं किस मुंह से स्त्री समानता और सशक्तिकरण की बात करती है जब ये महिला-महिला में भेद कर रही । छि, ऐसी ओछी मानसिकता लोगों में कैसे आ जाती मुझे समझ में नहीं आता मेरा ख्याल है आज आप आपको अपने उस सवाल का जवाब मिल गया होगा ।

उसकी बात सुनकर मिसेज खोसला को लगा जैसे किसी ने अचानक उनके सामने आईना रख दिया हो ।
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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून २२, २०१९

बुधवार, 19 जून 2019

सुर-२०१९-१७० : #योग_करो_रोज_करो #जीवन_में_सदैव_निरोग_रहो



जितनी बीमारियों के नाम हम आज सुनते है, उतने पहले कभी नहीं सुने गये वो भी तब जबकि, हम आधुनिक रूप से अत्यधिक विकसित हो चुके और हर तरह की सुविधाओं से संपन्न है । फिर भी जितना हम आगे बढ़ रहे उतना ही हमारी उम्र घट रही, उतनी ही जल्दी बुढ़ापे के चिन्ह चेहरे पर नजर आ रहे और उतना ही हम तनावग्रस्त अवसाद भरा जीवन जी रहे आखिर क्यों ???

अगर, इन सवालों के जवाब ढूंढे तो जवाब एक ही होगा कि मॉडर्न लाइफ स्टाइल को अपनाते हुये हम प्रकृति से दूर होते गये और खुद को एक कृत्रिम वातावरण में कैद कर लिया जहाँ शुद्ध हवा तक की भी गुजर नहीं है । यदि विश्वास नहीं आ रहा तो अपने वातानुकूलित कमरे पर नजर डाले जहाँ ठंडक का अहसास तो है मगर, किस कीमत पर जब तक ये अहसास होता तब तक हम अनेकानेक रोगों से ग्रसित हो चुके होते है । पहले हम जी-जान लगाकर पैसा कमाते और जब उसको भोग करने का समय आता तो पाते कि शरीर उस अवस्था में रहा नहीं तो उसे पुनः पहले जैसा बनाने उस कमाई को इलाज में लगा देते है । यदि इसी बात को पहले ही समझ ले तो न केवल अपनी सेहत का ध्यान रख पायेंगे बल्कि, सुखों के जो साधन हमने जुटाये उनका भी उपयोग कर पायेंगे न कि मन को मारकर परहेजी जीवन जीने को मजबूर होंगे जैसा कि आजकल अधिकांश लोग नजर आते है । हमने न केवल नेचर को ही नष्ट किया बल्कि, अपने पूर्वजों के ज्ञान को दरकिनार कर दिया जो गहनतम बातों को भी कहावतों में ढालकर सूत्र रूप में व्यक्त कर गये ताकि, हम उन्हें भूले नहीं इतना दोहराये कि वो आत्मसात हो जाये जैसे कि यही पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में मायाइसमें जीवन का सार छिपा है ।
 
हमने तो पाश्चात्य सभ्यता को ऐसा अपनाया कि खाओ, पीओ मस्त रहो, माय लाइफ माय चॉइस जैसे स्लोगन हमारे आदर्श वाक्य बन गये ऐसे में इसके सिवाय क्या होता कि हम तरह-तरह की बीमारियों से घिर जाये क्योंकि, भोगवादी संस्कृति का यही परिणाम है । यदि हम अपनी ही पुरातन शैली पर अमल करते चलते तो तुलसी, नीम, पीपल, हल्दी जैसे कुदरत के वरदानों से दीर्घायु, सूर्य उपासना से तेजस्वी एवं सात्विक खान-पान के सहज नियमों से निरोगी रहते । अब पक्के घरों में हम अपने पड़ोसियों से ही नहीं शुद्ध हवा, रौशनी व पेड़-पौधों से भी दूर हो गये अन्यथा पहले तो कच्चे आंगन में नीम की दातुन, तुलसी को जल व सूर्य को अर्ध्य देकर सुबह की शुरुआत करते थे । ज्यादातर काम जो आजकल मशीनों या अन्य इलेक्ट्रिक यंत्रों से होने लगे वे सब हाथ से किये जाते जो हमको स्वस्थ रखते थे और भोजन भी चूल्हे पर बिना कुकर के बनता तो बहुत-सी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्यायें अपने आप दूर हो जाती है । तनाव, सरदर्द, अवसाद, चिंता, रक्त दबाब जैसी आम बीमारियाँ तो उस वक़्त प्रचलन में ही नहीं थी जो आज हर किसी को परेशान कर रही ऐसे में समझ आता कि आधुनिक जीवन शैली ही हर बीमारी की जड़ है ।

हमारे ऋषि-मुनियों में प्रकृति के निकट रहकर ये जान लिया था कि यदि लम्बा स्वस्थ जीवन जीना है तो प्राकृतिक तरीके से जीना ही एकमात्र तरीका है इसलिये उन्होंने कुदरत की हर एक शय के गुणों का गहन अध्ययन कर योगसूत्रकी रचना करते हुये सम्पूर्ण विश्व को निरोगी जीवन जीने का रहस्य अद्भुत योगदिया । जिसके अधिकांश आसन प्रकृति से ही ग्रहण किये गये है चाहे वे वृक्षासनहो या ताड़ासनया फिर मकर’, ‘मर्कट’, ‘सिंह’, ‘कूर्म’, ‘शशक’, ‘उष्ट्र’, ‘अर्धचन्द्रया मंडूकया कोई भी आसन सभी का स्त्रोत निसर्ग है । ये तो हम ही है जिसने प्रकृति की जगह कृत्तिमता को प्राथमिकता दी तो फिर वही होना था जो हो रहा ऐसे में अब भी सम्भल जाये तो सम्भव कि हम स्वस्थ शतायु बन सके क्योंकि, हमारे पूर्वजों ने इसे अपने जीवन से साबित किया जिसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं ये तो स्वतःसिद्ध है । हमारी इस विद्या को विदेशों ने भी स्वीकार किया और 21 जून को विश्व योग दिवसमनाने की स्वीकृति प्रदान की जिससे हमारा देश ही नहीं संस्कृति भी गौरवान्वित हुई है अतः हम इसके मूल को समझे उसके अनुसार चले रिजल्ट अपने आप ही अपने भीतर दिखने लगेंगे ।

अगर, हम रोज प्रातःकाल योग करते है तो जिस तरह मोबाइल की बेट्री रिचार्ज होती उसी तरह हम भी ऊर्जा से भरपूर होकर दिन भर के लिये रेडी हो जाते और इससे हमारी शारीरिक, मानसिक ही नहीं आध्यात्मिक उन्नति भी होती कि हमारी आत्मा सीधे परमात्मा के नेटवर्क से जुड़ जाती और हम उसके सिग्नल्स को रिसीव करने लगते जिनको शोर-शराबे भरी आपाधापी में सुन पाना संभव नहीं होता और यही वो वजह जिसने नैतिक मूल्यों का पतन किया व अपराध को बढ़ावा दिया है । अब इन सबसे निजात पाने का एकमात्र मार्ग योगहै जिसे अपने जीवन का हिस्सा बनाकर हम साधारणसे असाधारणबन सकते है अतः इस योग दिवसपर इसे अपनी लिस्ट में शामिल करें और रोज बिना नागा, बिना किसी बहाने के योग करें भले शुरुआत में बेमन या अनिच्छा से ही करें पर, जान ले कि एक बार शुरू किया तो फिर इसके जादू से बचना मुश्किल होगा इतना सकारात्मक प्रभाव ये हम पर डालता है इस उद्देश्य से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवसके दो दिन पूर्व से ही इस श्रृंखला का आगाज किया जो जागरूकता पैदा करेगी यही उम्मीद है ।          

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून १९, २०१९