रविवार, 31 जनवरी 2016

सुर-३९६ : "आधे-अधूरे प्रेम ने बनाया... 'सुरैया' को मुकम्मल फ़नकार...!!!"

दोस्तों...

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कानों में रस घोलती
वो सुरीली मद भरी आवाज़
सुनकर जिसे बज उठता
मन का मधुर साज़
दर्शकों को दीवाना बनाते
उसके नाजों अंदाज़ 
जिसने उसके सर पहनाया
बेशुमार लोकप्रियता का ताज़
नायिका-गायिका दोनों ही रूप में
‘सुरैया’ समान नहीं कोई
हरफ़नमौला अदाकार
जिसके गाये सदाबहार नगमे
अभिनीत बहुरंगी भूमिकायें       
करता याद हिंदी सिनेमा भी आज
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ये न थी हमारी क़िस्मत
कि विसाले यार होता
अगर और जीते रहते
यही इंतज़ार होता...

सन १९५४ में राष्ट्रपति के ‘स्वर्ण कमल’ से सम्मानित और ‘सुरैया जमाल शेख़’ की अदाकारी व गायिकी से सजी ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ फ़िल्म में गाई इस गज़ल को यूँ तो अनेक फनकारों ने अपनी आवाज़ दी मगर, जिस तरह से ‘सुरैया’ ने गाया उसका कोई सानी नहीं क्योंकि इसमें उनकी अपनी जिंदगी की भी दुखद सच्चाई बयाँ होती हैं वाकई... उस नायिका-गायिका के कहने को तो अनगिनत चाहने वाले थे सिर्फ़ अपने देश ही नहीं विदेश में भी उनकी लोकप्रियता का डंका बजता था जिसे सुनकर हालीवुड स्टार ‘ग्रेगरी पेक’ एवं ‘फ्रेंक काप्रा’ तक उनके रूबरू मिलने ‘भारत’ चले आये थे लेकिन वो जिसकी तीरे नजर की शिकार थी उसकी न होने पाने की पीड़ा को ताउम्र तन्हां सहते हुये आज ही के दिन ३१ जनवरी २००४ को इस दुनिया से कूच कर गयी लेकिन उनके गाये अधिकांश नगमों में उनके आधे-अधूरे प्रेम प्रसंग की आंतरिक वेदना को महसूस किया जा सकता हैं जो उनकी नानी की वजह से अपने मुकाम को हासिल न कर सका क्योंकि उस जमाने में खुदमुख्तार होने के बावजूद भी एक ख़ानदानी, परंपराओं व मज़हब की बेड़ियों से जकड़ी लड़की को अपने से ज्यादा परिवार वालों की इच्छा व मान-सम्मान का ख्याल रखना पड़ता था नहीं तो वो अभिनेत्री जिसका हर कोई दीवाना था, वो जिसकी दीवानी थी अपने परिजनों के खिलाफ़ जाकर उसे अपना न बना सकती थी तो जितना भी जीवन मिला था उतने बरस तक जीती तो रही पर, महज़ सांस लेकर उसमें से जिंदादिली, जीने की वो खुबसूरत वजह तो निकल ही गयी थी जिसने उनको बड़ी शिद्दत से अपने वज़ूद का कोमल अहसास कराया था
   
आपसे प्यार हुआ जाता हैं
जीना दुश्वार हुआ जाता हैं...

अपने ख़्वाबों के शहज़ादे की छवि को मन में बसाकर ही उनके कंठ से ये अल्फ़ाज़ निकले होंगे जो अपने जमाने की हुस्न व गायिकी की मल्लिका कहलाई जाती थी और उनकी लोकप्रियता का तो वो आलम था कि कोई चीज़ नहीं जिस पर उनकी तस्वीर चस्पा न हो, कोई व्यक्ति नहीं जो उनका मुरीद न हो पर, उनका दिल तो ‘देव आनंद’ के नाम पर धड़कता था जिनसे मिलते ही अदाओं की उस शहज़ादी पर उस अदाकार की भोली-भाली अदाओं का जादू चल गया तो फिर ये गीत तो गाना ही था---   

धड़कते दिल की तमन्ना हो, मेरा प्यार हो तुम
मुझे करार नहीं, जब से बेकरार हो तुम...

अपनी खनकदार आवाज़ और नफ़ासत भरे अंदाज़ से हर किसी को अपना बना लेने वाली ‘सुरैया’ की मनमोहक सदाबहार कहलाये जाने वाले ‘देव आनंद’ से पहली मुलाकात १९४८ में ‘विद्या’ फ़िल्म के सेट पर हुई ये उस समय की बात हैं जब ‘सुरैया’ तो नामचीन बन चुकी थी लेकिन ‘देव आनंद’ अभी उस पोजीशन को हासिल करने संघर्ष कर रहे थे तो शूटिंग के दौरान उनके अंदर कुछ घबराहट थी जिसे देख वे उनके नजदीक गयी और उनकी हौंसला आफज़ाई करने के उद्देश्य से बोली, ‘आपने तो मुझे मेरे मनपसंद कलाकार ‘ग्रेगरी पैक’ की याद दिला दी’ जिसे सुनकर ‘देव’ एकदम सामान्य हो गये और बोले, ‘ओह ! आप ऐसा सोचती हैं’ बस, फिर क्या था अगले ही दिन से उन्होंने उनके प्रिय अभिनेता की नकल करना शुरू कर दी और ‘सुरैया’ के प्रति भी उनका नज़रिया बदल गया तो फिर उनको करीब लाने प्रेम दूत ने अपना तीर चलाया तो किस्मत ने भी बहाना गढ़ा जिसके कारण नाव के एक दृश्य के फिल्मांकन के समय अचानक नाव डूब गयी ऐसे में ‘देव’ ने एक बहादुर नायक की तरह अपनी हसीन नायिका की जान बचाई तो नायिका ने भी उनका एहसान मानते हुये कहा, ‘अगर, आज आप न होते तो मैं खत्म ही हो गयी होती’ तो तुरंत नायक न भी बड़ा प्यारा जवाब दिया, ‘अगर, आपको कुछ होता तो मेरी भी जिंदगी खत्म हो जाती’ बस, इन चंद लम्हों ने ही उनको सदा के लिये एक-दूजे का बना दिया और उस कालजयी मुहब्बत की दास्ताँ शुरू हो गयी जिसे हिंदी सिने इतिहास में आज तलक भी याद किया जाता हैं

ये कैसी अजब दास्ताँ हो गई हैं
छुपाते-छुपाते बयाँ हो गई हैं...

फिर वही हुआ जो होना था धीरे-धीरे उनकी मुहब्बत के किस्से आम होने लगे तो फिर उनके घरवाले सतर्क हो उनको दूर करने खलनायक बन सामने आ गये उन्हें लगता कि इनके विवाह से मज़हबी दंगे हो सकते हैं तो उन्होंने उनको हमेशा के लिये दूर कर दिया और अपने पैरों में खड़े होने के बाद भी ‘सुरैया’ में वो हिम्मत न थी कि वो अपनी नानी माँ का विरोध करे तो न चाहते हुये भी दोनों की राहें जुदा हो गयी---

चार दिन की चांदनी थी, फिर अँधेरी रात हैं
हम इधर हैं, वो उधर हैं बेबसी का साथ हैं...

यूँ तो उनकी आवाज़ में शुरू से ही एक कशिश थी पर, इस चार दिन के इस प्रेम ने उसमें दर्द का सुर भी मिला दिया तो उसके बाद उनकी गायिकी और भी निखर गयी बोले तो विरह की अग्नि में कुंदन की तरह तपकर नायाब बन गयी और फिर जब भी उनको इस तरह के दर्दीले नगमे गाने का अवसर मिला तो वे बेहद मकबूल हुये---
    
तेरा ख्याल दिल से भुलाया न जायेगा
उल्फ़त की जिंदगी को मिटाया न जायेगा...

जिसमें अनजाने ही उस कसक की सदा सुनाई देती जो उनकी साँसों में बस गयी थी जिसने अंतिम पलों तक उनको उस चाहत को भूलने नहीं दिया जो उनके लिये पल दो पल का साथ नहीं बल्कि जीवन भर का एकतरफ़ा अनुबंध बन चुका था तो फिर एकाकी रहते हुये उसे पूरी वफादारी से निभाया---   

निराला मुहब्बत का दस्तूर देखा
वफ़ा करने वालों को मजबूर देखा...

वफ़ा की ऐसी मिसाल फ़िल्मी दुनिया में कम ही देखने मिलती जहाँ रोज ही प्रेमी-प्रेमिकायें बदलती वहां ‘सुरैया’ के लिये ‘देव’ के सिवा सभी बेगाने बन गये थे जिनसे उनका कोई ताल्लुक नहीं था और दुनिया से ताल्लुकात बनाने की इच्छा भी खत्म हो गयी थी तो सबसे अलग-थलग अपनी अलग ही बस्ती बना ली थी---

जब तुम ही नहीं अपने
दुनिया ही बेगानी हैं
उल्फ़त जिसे कहते हैं
इक झूठी कहानी हैं...

जिसे चाहा वो तो मिला नहीं फिर किसी भी शय से दिल न बहला और उपरवाले से शिकवा बना रहा कि उसने उन दोनों को क्यों न मिलाया ?  

तेरी क़ुदरत, तेरी तदबीर मुझे क्या मालुम
बनती होगी कहीं तकदीर मुझे क्या मालुम
ओ मेरा दिलदार न मिलाया
मैं क्या जानूं तेरी ये ख़ुदाई ???

अपने भीतर की अनकही पीड़ा, अपने अधूरे अरमानों, अपनी अतृप्त चाहत को मन में छुपाये वे ख़ामोश इस जहां से चली तो गयी पर, हम सबके लिये छोड़ गयी अपने चंद शोख़ अल्हड़ तराने, चंद संजीदा नगमे, कुछ रूमानी गीत, कुछ दर्दीली गज़लें और अनेक विविध भूमिकाओं से अभिनीत कई फ़िल्में... जिनको सुनकर उनकी अलहदा गायिकी और देखकर उनकी अद्भुत अदाकारी का परिचय पाया जा सकता हैं जिसे विस्मृत करना मुमकिन नहीं इसलिये तो आज उनकी ‘पुण्यतिथि’ पर उनकी याद करते हुये श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं... :) :) :) !!!               
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३१ जनवरी २०१८
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शनिवार, 30 जनवरी 2016

सुर-३९५ : "महात्मा गाँधी का बलिदान... याद रखेगा हिंदुस्तान...!!!"

दोस्तों...

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गांधीजी’ का जीवन ही
हमारे लिये प्रेरक संदेश बना
जिसने आजीवन ही
परहित खुद को समर्पित किया
देश स्वतंत्रता ख़ातिर       
अपना आप भी लुटा दिया
आज ‘शहीद दिवस’ पर
देश ने उनको सलाम किया
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३० जनवरी १९४८ की सुबह यूँ तो हर दिन की तरह ही आई थी और पूरे देश ने अभी आज़ादी की हवा में साँस लेना आरंभ ही किया था कि ‘भारत वर्ष’ को एक लम्बे समय की दासता से मुक्त कराने वाला मसीहा जिसने बिना अस्त्र-शस्त्र के ही फिरंगियों के चंगुल से अपनी मातृभूमि को छुड़ा लिया था को एक कट्टरपंथी मतिभ्रम के शिकार नौजवान ने केवल अपनी धारणा को सही साबित करने अहिंसा के पुजारी को हिंसा का सहारा लेकर मार दिया तो वो देश जो अभी अपने पाँव पर खड़ा होने की कोशिश ही कर रहा था एकदम से पुनः लडखडा गया कि एकाएक ये कैसा भूचाल आ गया जिसने कभी किसी पर हाथ तक न उठाया न ही अपने जीवन में कभी किसी को ऐसा करने ही प्रेरित किया उसी महात्मा को एक बाग़ी ने इस तरह से सरेआम मार दिया इस घटना ने संपूर्ण देश को शोक की लहर में डूबा दिया किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उनके प्यारे ‘बापू’ अब उनके बीच नहीं रहे, उनके ‘राष्ट्रपिता’ अब इस राष्ट्र को अनाथ कर चले गये उस वक्त देश की बागडोर सम्भाल रहे प्रथम प्रधानमंत्री ‘श्री जवाहर लाला नेहरु’ को तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि वो किस तरह से आम जनता को इस खबर की सूचना दे वे तो स्वयं ही स्तब्ध थे तो किसी तरह अपने आपको संभाल ये संदेश दिया---

हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ़ अंधकार छा गया है, मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे”।

सचमुच उस दिन हमारे मध्य से रौशनी का पुंज यूँ अचानक क्या गया हम तो अंधकार में खो गये और उस संत के त्याग को ही भूल गये आज शहीद दिवस पर पुण्य स्मरण... :) :) :) !!!      
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३० जनवरी २०१८
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

सुर-३९४ : "महाराणा प्रताप का प्रताप... करते हम सब गुणगान...!!!"

दोस्तों...

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वीरता का दूजा नाम
मेवाड़ नरेश ‘महाराणा प्रताप’
देश की आन-बान-शान
साहस से बनाई अमिट पहचान
राजपूतों की मर्यादा
देकर बलिदान रखा मान सदा
झुके न अधर्म के आगे
धर्म हित में अपने प्राण त्यागे
भूले न हम भारतवासी
इतिहास में हुआ एक ऐसा पराक्रमी
जिसके शौर्य की गाथा
आज तलक भी ये जग गाता
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जिस समय इस भारतभूमि पर ‘महाराणा प्रताप’ का सूर्य उदित हुआ उस समय मुगलों का शासन था और ‘सम्राट अकबर’ अपने धर्म का परचम फहराने हर हाल में साहस वीरता और पराक्रम की मिसाल बने मेवाड़ के राजा ‘महाराणा प्रताप’ का सहारा चाहते थे जो हर अत्याचार, हर अन्याय सहने को तैयार थे पर, किसी भी परिस्थिति में अपने स्वाभिमान के साथ समझौता करना उनको गंवारा न था तो जितनी भी बार उस बादशाह ने अपने छल-बल-दल से उनको हराना चाहा उतनी ही दफा उनको मात मिली फिर भी अपने मिजाज के कारण उनको ये पराजय स्वीकार न हुई तो तो वे तब तक उनके पीछे पड़े रहे जब तक कि उनको अपने मज़हब के आगे झुका न दे लेकिन जिसकी रगों में लहू नहीं फौलाद दौड़ता था वो भला किस तरह से उनके बिछाये जाल में फंसता तो सदैव एक जाबांज शेर की तरह उन्होंने उसका मुकाबला किया यही वजह कि उनके अद्भुत शौर्य को देखकर दुश्मन भी उनकी तारीफ़ करते थे कि किसी भी तरह से वो उनके भाले का सामना करने में खुद को समर्थ न पाते थे तभी तो उनके सामने आने भी घबराते थे ऐसे ही कुशल रणवीर को आज पुण्यतिथि पर नमन कर शब्दांजलि अर्पित करते हैं... :) :) :) !!!          
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२९ जनवरी २०१८
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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गुरुवार, 28 जनवरी 2016

सुर-३९३ : "शेरे पंजाब लाला लाजपत राय जयंती... !!!"

दोस्तों...

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देकर अपनी आहुति
जलाई रखी मशाले क्रांति
ऐसे वीर शहीदों की
भूल न जाये हम जयंती
जिनकी शहादत से
मनाया हमने जश्ने आज़ादी
ऐसे ही थे एक बहादुर  
पंजाब केसरी ‘लाला लाजपत राय’
आओ उतारे उनकी आरती
जिनकी कुर्बानी से
आज़ाद हो सकी माँ भारती
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आज से लगभग डेढ़ सौ बरस पूर्व सन् १८६५ की बात हैं जबकि सम्पूर्ण भारतवर्ष में अंग्रेजों ने अपना अधिकार जमा रखा था और दिन-ब-दिन उनका अत्याचार बढ़ता ही जा रहा ऐसे में उसका ही एक हिस्सा ‘पंजाब’ भी अछूता न रहा वहां पर, भी फिरंगियों ने क्रूरता की हर सीमा पार कर दी थी तभी तो वहां से वीरों की बड़ी भारी जमात ने जनम लिया और इन विदेशियों को अपनी भारतभूमि से खदेड़ने की कसम खाई तो फिर अपने हौंसलों को किसी भी तरह की परिस्थिति में झुकने न दिया बल्कि अपनी आगे आने वाली पीढ़ी में वही भावना प्रवाहित की तो ऐसे समय में जबकि ‘पंजाब’ पूरी तरह से अंग्रेजों के कब्जे में था और जहाँ देखो वहीँ उन गोरों का बोलबाला था उनके जुल्मों-सितम की तो ये इन्तेहाँ था कि कोई भी उनके खिलाफ आवाज उठाने की जुर्रत नहीं कर सकता था यदि कोई ऐसा करता तो उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ता जिसने देशवासियों के दिल में आक्रोश के साथ-साथ प्रतिकार की भी तीव्र भावना पैदा कर दी थी तो इस तरह के अराजकता भरे माहौल में २८ फरवरी १८६५ को मुंशी ‘राधाकृष्णजी’ की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया जिसे वे प्यार से ‘लाजपत राय’ कहकर बुलाते थे जो हर धर्म का पूर्ण आदर सम्मान करते थे अतः उनको अपने पिता से सभी की धार्मिक भावनाओं का आदर करने की सुमति प्राप्त हुई जिसने आगे चलकर उनको ‘आर्य समाज’ का अनुयायी बना उनके अंदर देशप्रेम की अखंड ज्योत जला दी जिसकी प्रेरणा से वे अपनी मातृभूमि के लिये आजीवन कुछ न कुछ करते ही रहे चाहे फिर ‘समाज सेवा’ हो या ‘देशभक्ति’ या ‘लेखन’ या ‘शिक्षा’ या फिर ‘वकालत’ का क्षेत्र सबमें अपना झंडा गाड़ दिया ।

देश में व्याप्त कुरीतियों को समाज से समूल नष्ट करने के संकल्प के साथ ही उन्होंने भारतमाता को विदेशियों की कैद से आज़ाद कराने की शपथ भी ली जिसके लिये उन्होंने अपने दल में ऐसे सदस्यों को जोड़ना शुरू किया जो पूरी लगन व समर्पण के साथ वतन के लिये कुछ भी करने को हमेशा तैयार हो ऐसे में उनको ‘लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ एवं ‘विपिनचंद्र पाल’ का साथ मिला जिससे मिलते ही वो ‘लाल-बाल-पाल’ की तिकड़ी में तब्दील हो गये जहाँ तीन लोग आपस में इस तरह से संयुक्त हुये कि एक नाम बन गये जिनका एकमात्र लक्ष्य ‘पूर्ण आज़ादी’ हासिल करना था जिसके लिये किसी भी तरह का समझौता उनको गंवारा नहीं था और इतिहास में वि वो तीनों एक साथ इस तरह से अंकित हुये कि उनको पृथक कर पाना मुमकिन नहीं जिन्होंने कदम से कदम से मिलाकर हर अभियान में एक साथ भाग लिया चाहे फिर वो स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार हो या फिर अंग्रेजों का विरोध या फिर ब्रिटिश युवराज के भारत आगमन पर उनके स्वागत के खिलाफ आवाज़ उठाना या फिर बंगाल विभाजन के विरुद्ध अपना प्रतिरोध हर अवसर पर खुलकर अपना आक्रोश ज़ाहिर किया क्योंकि उनका मत था कि फिरंगियों के सामने गिडगिडाने या एक के बाद एक प्रस्ताव पास कराने से स्वतंत्रता नहीं मिलने वाली बल्कि इसके लिये सबको एकजुट होकर सम्मिलित प्रयास करना होगा चूँकि वे ‘गरम दल’ की विचारधारा वाले थे तो उन्हें अहिंसा या शांति के मार्ग की जगह क्रांति का पथ पसंद था जिसमें आमने-सामने वार कर अपना हक़ यदि न मिले तो उसे छिनकर हासिल करने के मत का पक्ष लिया जाता था पर, खामोश बैठकर तमाशा देखने वालों में वो शामिल नहीं थे उन्होंने तो स्वयं ही लिखा था---

"मेरा मज़हब हक़परस्ती है, मेरी मिल्लत क़ौमपरस्ती है, मेरी इबादत खलकपरस्ती है, मेरी अदालत मेरा ज़मीर है, मेरी जायदाद मेरी क़लम है, मेरा मंदिर मेरा दिल है और मेरी उमंगें सदा जवान हैं।"

वो समय ऐसा था जब राजनैतिक गतिविधियाँ इतनी तेजी से हो रही थी कि संपूर्ण देश में ही देशभक्ति का सैलाब उमड़ पड़ा था ऐसे में जब ३ फ़रवरी, १९२८ को ‘साइमन कमीशन’ का भारत आगमन हुआ तो पूरे देश में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी और लाहौर में ३० अक्टूबर, १९२८ का दिन देश के लिये बड़ा दुर्भाग्यशाली साबित हुआ जब ‘लाला लाजपत राय’ के नेतृत्व में ‘साइमन कमीशन’ का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया जहाँ पर पुलिस ने ‘लाला लाजपत राय’ की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं जिसकी वजह से वे बुरी तरह घायल हो गये और इस घटना के १७ दिन बाद यानि १७ नवम्बर, १९२८ को लाला जी ने आख़िरी सांस ली पर, उस आंतरिक वेदना से पीड़ित होकर उन्होंने ओजपूर्ण वाणी में अपने अंतिम भाषण में कहा था---

“मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी” ।

उनकी ये भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य साबित हुई क्योंकि लालाजी की मृत्यु से समस्त भारतीय भूमंडल में रहने वाला हर एक व्यक्ति उत्तेजित हो उठा और चं’द्रशेखर आज़ाद’, भगतसिंह’, राजगुरु’, सुखदेव’ व अन्य क्रांतिकारियों ने ‘लालाजी’ की मौत का बदला लेने का न सिर्फ़ निर्णय लिया बल्कि इन जाँबाज देशभक्तों ने तो ‘लालाजी’ की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और १७ दिसंबर, १९२८ को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर ‘सांडर्स’ को गोली से उड़ा दिया जिसकी वजह से ‘राजगुरु’, सुखदेव’ और ‘भगतसिंह’ को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई गई लेकिन इन बलिदानों ने अनगिनत क्रांतिकारियों को पैदा किया ।

शेर-ए-पंजाब ‘लाला लाजपत राय’ जी ने जीते-जी तो युवाओं को प्रेरित किया ही लेकिन उनकी मृत्यु ने भी अनेक देशभक्तों के भीतर स्वतंत्रता प्राप्ति का वो जोश-जुनून उत्पन्न किया कि आख़िरकार १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों को ये देश छोड़कर जाना ही पड़ा तो ऐसी तेजस्वी कर्मठ ऊर्जावान शख्सियत को आज जयंती पर मन से नमन और ये शब्द सुमन अर्पित करते हैं... जय हिंद... जय भारत... :) :) :) !!!   
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२८ जनवरी २०१८
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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बुधवार, 27 जनवरी 2016

सुर-३९२ : "भारत भूषण सा कलाकार... आता नहीं बार-बार...!!!"

दोस्तों...

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सादगी की मूर्ति
सहज अभिनय संग
दिल में उतरती
देख उसके विविध रूप
हर आँख भरती
‘भारत भूषण’ की
नैसर्गिक कला प्रतिभा
झरने सी कल-कल बहती
हर मन को छूती
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हिंदी सिने युग का स्वर्णिम काल जबकि रजत परदे पर ‘दिलीप-देव-राज’ की तिकड़ी ने दर्शकों को अपने बेजोड़ अभिनय और अदाओं से सम्मोहित कर रखा था ऐसे में ‘भारत भूषण’ जैसे सहज-सरल सादगी से भरे अभिनेता का फिल्मों में आना और अपना स्थान बनाना एक अजूबा ही लगता कि उस समय उन्होंने न सिर्फ बड़े-बड़े निर्देशकों को अपनी अद्भुत अदाकारी से प्रभावित किया बल्कि अपने खाते में एक के बाद एक शानदार भूमिकाओं को भी जोड़ते चले गये जिसके बलबूते पर उनको उस तरह के धार्मिक या ऐतिहासिक किरदारों के लिये एकदम मुफीद समझा जाता क्योंकि वे जब भी किसी जग-प्रसिद्ध हस्ती के जीवन चरित्र को सिनेमाई कथा में तब्दील कर उसमें अपने अभिनय के रंग भरते तो वो एकाएक ही यूँ फ़िल्मी केनवास पर सजीव हो उठता कि सहज ही विश्वास नहीं होता कि जिसे हम देख रहे वो कोई नाटकीय रूपांतरण हैं जिसके लिये एक समर्पित कलाकार ने अपने आपको उस किरदार के खोल में इस तरह से उतार दिया हैं कि वो इनके रूप में परदे पर उतर आया हैं शायद, यही वजह हैं कि उन्होंने लगातार इस तरह के महान व्यक्तित्वों की भूमिका निभाई जिसने उनको सदा-सदा के लिये अमर बना दिया और उस दौर के उनसे पहले ही इस दुनिया में अपने काम से सभी स्थापित अभिनेताओं के बीच अपना एक अलग मुकाम बनाया जो अब तक वैसा का वैसा ही बरकरार हैं

‘मन तडपत हरि दर्शन को आज...’

सिनेमा के परदे पर जब ‘भारत भूषण’ आत्मलीन होकर ये भजन गाते दिखाई देते हैं तो नहीं लगता कि कोई पार्श्व गायक उनको आवाज़ दे रहा हैं बल्कि यही प्रतीत होता कि वे स्वयं ही गा रहे हैं और उनकी भाव-भंगिमा से दर्शक भी इस तरह सम्मोहित होते कि उनके अंतर से भी यही स्वर गूंजने लगते और जब उन्होंने गाया ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले...’ तो पीछे से आती आवाज़ ही नहीं सामने उसके बोलों पर लब हिलाता नजर आता वो फ़नकार भी अपनी पीड़ा से हर किसी की आँख को नम कर देता कि उसने चेहरे पर उभरते दर्द के चिन्हों में अभिनय नहीं सहज अंतर से निकलती कोई वेदना झलकती दिखाई देती तभी तो जब ‘बैजू बावरा’ फिल्म आई तो उसके गीत-संगीत ही नहीं कहानी और कलाकारों ने भी कमाल कर दिया नये प्रतिमान गढ़े जिसने इस तरह की कहानियों एवं फिल्मों के लिये ‘भारत भूषण’ की किस्मत के द्वार खोल दिये फिर तो एक के बाद एक इस तरह के चरित्र उनकी झोली में अपने आप ही आते चले गये तो इसके बाद आई ‘चैतन्य महाप्रभु’ ने उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ का ख़िताब भी दिलवा दिया जिससे अब बड़े-बड़े निर्देशकों का ध्यान भी उनकी तरफ गया तो उन्होंने ने भी ‘भारत भूषण’ को अपनी फिल्मों के लिये अनुबंधित कर लिया जिसकी वजह से वो अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हो सके ।    

“ये इश्क... इश्क़ हैं....”

‘बरसात की रात’ फिल्म की कव्वाली कोई भूल नहीं सकता इसी फिल्म में उन पर फिल्माया ‘जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात...’ गीत का भी अपना ही एक अलग अंदाज़ हैं जो आज भी उसी तरह से देखने वालों को अपनी गिरफ़्त में लेता हैं उन्होंने उस समय की सबसे खुबसूरत कहलाई जाने वाली अभिनेत्री ‘मधुबाला’ के साथ इस फिल्म के अतिरिक्त ‘गेटवे ऑफ़ इंडिया’ एवं ‘फागुन’ में भी काम किया और ये सभी फ़िल्में सुपर-डुपर हिट रही इसके अलावा उन्होंने अपने समय की लगभग सभी शीर्ष अभिनेत्रियों के साथ काम किया ‘मीना कुमारी’ ने तो उनके साथ ही अपना सफ़र शुरू किया था ‘तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा...’ बनकर तो ‘गीता बाली’ के साथ भी उनकी जोड़ी बनी तो ‘माला सिन्हा’ के साथ भी उनको पसंद किया गया  और ‘सुरैया’ हो या ‘निम्मी’ सबने ही उनके साथ काम किया भले ही उन्होंने कितनी भी नायिकाओं के साथ परदे पर अपनी जोड़ी जमाई हो लेकिन कभी भी किसी के संग उनका कोई स्कैंडल नहीं बना जितने शिष्ट सादगीपूर्ण वे परदे पर दीखते उतने ही असल जीवन में भी थे जिसके कारण हर कोई उनके साथ काम करना चाहता था तभी तो अपने फ़िल्मी जीवन में उन्होंने लगभग १४३ फिल्मों में न सिर्फ अभिनय बल्कि विविध भूमिकाओं के झंडे गाड़े जिन्हें अब तक कोई उखाड़ नहीं पाया हैं न ही कभी उखाड़ सकेगा कि ये तो महज़ अभिनय नहीं बल्कि अभिनीत किरदारों की जीती-जागती मिसाल हैं

इतने तरह के रोल करने के बावजूद भी उनका अंत समय बेहद कष्टमय रहा कि उन्होंने जो फ़िल्में बनाई वो सफल न रही और उन्हें अभाव के दिन देखने पड़े उस समय के कलाकार आज के अभिनेता-अभिनत्रियों की तरह व्यवसायिक बुद्धि वाले नहीं थे अतः अक्सर अधिकांशतः को अपने अंतकाल में दुर्दिनों का सामना करना पपड़ा तो ‘भारत भूषण’ ने भी चरित्र भूमिकाओं व टी.वी’ सीरियल के माध्यम से कुछ दिन गुज़ारे पर, संकट काम न हुआ तो इस तरह की विपरीत परिस्थितिओं का सामना करते हुये वो आज ही के दिन २७ जनवरी १९९२ को इस दुनिया को अलविदा कर गये... आज उनकी पुण्यतिथि पर उनका स्मरण करते हुये ये शब्द सुमन समर्पित करते हैं... :) :) :) !!!        
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२७ जनवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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मंगलवार, 26 जनवरी 2016

सुर-३९१ : "सृदृढ़ हो 'संविधान'... जो बनाये देश महान...!!!"

दोस्तों...

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विविधता में
समानता दर्शाये
हर संस्कृति
आकर इसमें समाये
समभाव का
हमको पाठ पढ़ाये
मौलिक अधिकार ही नहीं
कर्तव्य भी समझाये
शामिल इसमें मताधिकार
जो सरकार बनाये
सियासती मंत्र सीखने  
राजनीतिज्ञ इसे आजमाये 
गणतंत्रऐसा दिया
पाकर जिसको जन-जन हर्षाये
धर्मग्रंथ समान पावन  
देश का ये संविधानकहलाये ॥
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संविधानकिसी भी देश की रीढ़ की हड्डी की तरह होता जिस पर पूरा मुल्क टिका होता अतः उसका एक साथ ही सृदृढ़ एवं लचीला होना आवश्यक होता ताकि वो अपनी मजबूत आधारशिला पर न सिर्फ इतने विशाल साम्राज्य का भार झेल सके बल्कि जरूरत पड़ने पर आसानी से उसे किसी भी दिशा में मोड़ा या फिर अनावश्यक हिस्से को तोड़कर नया भी लगाया जा सके तभी तो जब १५ अगस्त १९४७ को हमारा भारतविदेशियों के चंगुल से मुक्त हुआ तो इसे एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा देने नियमावली की आवश्यकता महसूस की गयी क्योंकि बिना संविधान के किसी भी देश का संचालन सुचारू रूप से किया जाना संभव नहीं कि वही तो हुकूमत को दिशा-निर्देश प्रदान करता जिसका उपयोग कर सियासतदान एवं सभी अधिकारी अपने वतन की सभी गतिविधियों को सही तरीके से संचालित कर पाते अतः इसके लिये उस समय के शीर्षस्थ नेतागणों ने बेहद मशक्कत की जिसके परिणामस्वरूप लगभग २ साल, ११ महीने और १८ दिनों की कवायद के बाद ३९५ अनुच्छेद की एक वृहद पुस्तिका या प्रारूप तैयार हुआ जो कि २२ भागों में विभाजित था जिसमें कि उस समय सिर्फ ८ अनुसूचियों को स्थान दिया गया था जो कि संपूर्ण विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधानमाना जाता हैं ।

जैसा कि हमें विदित हैं कि इसमें समयानुसार परिवर्तन की सुविधा का प्रावधान हैं अतः अब तक लगभग सौ से अधिक संशोधनों के पश्चात् इसमें ४६५ अनुच्छेद जोड़े जा चुके हैं जो कि १२ अनुसूचियों में बंटे हुये हैं और इनमें २२ भाग रखे गये है जिसे कि २६ नवंबर १९४९ को अपने मूल स्वरूप में संविधान सभा में पारित किया गया और २६ जनवरी १९५० से इसे प्रभावी बनाकर लागू कर दिया गया तब से २६ जनवरी का दिन हमारे देश में एक राष्ट्रीय पर्वबन गया जिसे हम सब गणतंत्र दिवसके रूप में मनाते हैं और उन सभी कर्मठ लगनशील देशभक्तों के प्रति अपनी आदरांजलि एवं शुकराना अदा करते हैं जिन्होंने इसके निर्माण के लिये अपना तन-मन समर्पण किया तथा अथक परिश्रम से ख्याली मसौदे को अमली जामा पहनाया और इसमें अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का भी समावेश किया ताकि प्रत्येक नागरिक को हकों के साथ-साथ अपनी जिम्मेदारी का भी अहसास हो तो वो अपने राष्ट्र को एक प्रगतिशील विकसित देश बनाने में अपना अमूल्य योगदान दे सके तो आज का दिन अपनी उसी शपथ को दोहराने का हैं जो हम इस देश के नागरिक होते ही मन ही मन लेते हैं पर, उसको जीवन में न उतारते तो अब यही कोशिश हो कि हम अपने कर्तव्यों का भी समुचित ढंग से पालन करें जिससे कि पूरी दुनिया में हमारा नाम गूंजे और हम गर्व से कहे... सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी... जय हिंद... जय भारत... वंदे मातरम... :) :) :) !!!
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२६ जनवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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