सोमवार, 31 अगस्त 2015

सुर-२४३ : "साहित्य जगत का जगमगाता नक्षत्र... 'अमृता प्रीतम'...!!!


टूटते हैं
आसमान से
रोज कई तारे
पर, अपनी मंजिल
सब नहीं पाते
कुछ भटकते ही रहते
उसकी तलाश में
जो छूट गया पीछे कहीं
फिर भी जो लेकर आये साथ
वो सब बाँट देते यहीं
और होकर खाली
ऐसे जाते कि फिर नहीं आते
लेकिन पीछे छोड़ जाते
अपने हर्फों के अमिट निशाँ
जो करते रहते उनकी दास्ताँ बयाँ  
कुछ ऐसा ही सितारा बनी  
सूफी कलमकार ‘अमृता प्रीतम’  
जो थी कलम की धनी
ताउम्र उसने की साहित्य की बंदगी
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मित्रों...,

३१ अगस्त हर उस साहित्य प्रेमी के लिये इबादत का दिन हैं जो रूहानी लेखन का मुरीद और जिसकी अपनी आत्मा को भी किसी की तलाश हैं कि आज ही के दिन ही उनकी प्रिय सूफियाना कलमकार ‘अमृता प्रीतम’ जो एक पाकीज़ा रूह थी के इस दुनिया में आने का दिन हैं और वो कोई आम लेखिका नहीं बल्कि उन चंद अलहदा लिखने वालों में से हैं जो सिर्फ़ कलम या स्याही से नहीं बल्कि रगों में दौड़ने वाले सुर्ख लहू से अपने अंतर के अहसासों को अभिव्यक्त करते हैं और उनका अंदाज़े बयाँ कुछ इतना अलग होता कि सिर्फ़ हर्फों को पढ़कर ही इंसान उसे पहचान जाता तभी तो यदि बिना नाम जाने भी किसी किताब को खोलकर पढों तो उनकी शैली को पकड़ना मुश्किल नहीं जो किसी से भी मेल नहीं खाती जबकि उनके बाद कई लोगों ने उस तरह से लिखने का प्रयास किया पर सबके पास वो हुनर कहाँ जो उन्हें वरदान में मिला था जिसके कारण उनकी कलम से लिखा हर अल्फाज़ खुद ही बयाँ करता कि वो किस कलम से पन्नों पर उतर आया हैं

इस तरह का अनूठापन यूँ ही नहीं मिलता और न ही इंसान अपनी विरासत में इसे पाता हैं बल्कि ये तो उसकी बेचैन रूह के साथ ही आसमान से धरती पर उतर आता हैं तभी तो वो आदम जात से भरी हुई इस दुनिया में एकदम अलग ही नजर आता हैं फिर अपनी लेखन काबिलियत से साहित्य जगत को इस तरह से रोशन करता कि उसके उजाले तले आने वाली सदियों तक भी उसका काम नजर आता रहता क्योंकि उसके हर शब्द में छिपे मायने भी उतने सामान्य नहीं बल्कि अपनी ही तरह के होते जिनसे शब्दकोश के दायरे भी कुछ ओर ज्यादा बढ़ जाते और वो पूरे मन से पढ़ने वाले हर पाठक की रगों में उतर उसके दिल के तार्रों को यूँ झनझना देते कि उसके अंतर्मन की वीणा में  नये सुर बजने लगते जो उसे सफों पर लिखे उन शब्दों की जीवंतता का अहसास कराते तभी तो उनको भूल पाना किसी भी साहित्य प्रेमी के वश की बात नहीं और यही वजह हैं कि ‘अमृता प्रीतम’ का सृजन आज भी उतना ही दिलकश और तरोताज़ा बना हुआ हैं

‘अमृता प्रीतम’ ने अपनी कलम से ऐसी कई बेचैन रूहों का परिचय भी करवाया जिनसे हम अंजान थे पर, उनसे मिलकर वो हमें भी अपनी ही सी लगी कि जिसके भी अंदर वैसी ही तलाश हैं जो इस दुनिया में पूरी नहीं होती और न ही उनको उसे अभिव्यक्त ही करना आता उन सबको ही उनकी कलम से निकली हर बयानगी अपनी ही रूह की वो दबी हुई आवाज़ लगती हैं और एक अजीब से सुकून का अहसास भी होता हैं कि कोई तो हैं इस दुनिया में भी जो उसकी ही तरह जिसकी जिंदगी भी साँसों या हवा से नहीं बल्कि नाज़ुक जज्बातों से चलती हैं सच... इस सूक्ष्म सवेदनाओं को केवल वही महसूसता हैं जो झूठी भावनाओं के मोहजाल में नहीं फंसता बल्कि उसे हमेशा ही उस सच्ची ख़ुशी की तलाश होती जो अगर इस दुनिया में नहीं तो किताबों की दुनिया में सही मिल जाये तो भी अंतर की बेचैनी को तसल्ली मिलती तो ऐसी ही कई भटकती बेचैन आत्माओं को खालिस संवेदनाओं का मरहम देने वाली शब्द साधिका के जन्मदिवस पर कोटि-कोटि नमन और शब्दांजलि... :) :) :) !!!
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३१ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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रविवार, 30 अगस्त 2015

सुर-२४२ : "काव्य-कथा --- बालहठ...!!!"

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मित्रों...,

काव्यकथा : बालहठ’ !!!
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बालपनजब किसी जिद पर अड़ जाता हैं तो फिर किसी की भी कहाँ सुनता हैं... वो तो बस, अपनी कहता हैं और हर हाल में उसे मनवा कर ही रहता हैं... फिर चाहे कोई भी क्यों न आ जाये उसे समझाने किसी की न चलती उसके आगे... न हो यकीन तो जरा एक नज़र यहाँ डाले---

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देखकर...
उस गरीब बच्चे के
कटे हुये होंठ
नन्हा शौर्यबोल पड़ा---
मम्मा... मम्मा...
मेरे होंठ ऐसे क्यूँ नहीं ?’

सुनकर ये बात
माँ ने झट उसे गले लगाया
हौलें से कानों में बुदबुदाया---
फिर न कभी भी
ऐसा कहना मेरे लाल
भगवान् ने करें कि
किसी भी बच्चे का हो
ऐसा बुरा हाल।  

तभी भीतर से
उसके पिता आ गये
देखकर वो दृश्य
लगे उसे समझाने---
बेटा, ये कोई
सामान्य बात नहीं
बल्कि एक बीमारी हैं 
गर, उसके माता-पिता
उसका इलाज़ करवा सकते तो
उसके होंठ ऐसे न होते

फिर भी जब न वो माना
गाता रहां वही गाना 
तो वहीँ पलंग पर बैठी
उसकी दादी लगी जोर से कहने--- 
अरे, ये सब तो
जन्मों का हेर-फेर हैं 
तू न ऐसे जिद कर
मेरे लाडले मुन्ने
तुझमें न कोई भी खोट हैं
तू तो एकदम स्वस्थ हैं
वो अभागा तो भुगत रहा
अपने पिछले कर्मों का फल हैं

हर किसी ने 
अपनी-अपनी तरह से
उस मासूम को समझाया 
पर, बालहठ किसी भी तर्क से
उनकी बातों में न आया 
वो तो अपनी जगह
वैसे ही पैर पटक मचल रहा था
बार-बार एक ही बात दोहरा रहा था---
मुझे वैसे ही होंठ चाहिये...
मुझे वैसे ही होंठ चाहिये...
बस, वैसे ही होठ चाहिये...

यही तो हैं
निश्छल, निर्दोष
पवित्र मासूमियत
दुनियादार, छल-कपट
और हर प्रपंच से
कोसों दूर रहने वाली
जिसके आगे किसी की भी
कोई बुद्धिमानी न चलने वाली ॥  
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बच्चों की जिद से हर कोई हारा... चाँद को भी जमीन पर उतारा... अद्भुत हैं बचपन का हर एक नज़ारा... जाकर जो फिर नहीं आता दुबारा... जी लो उसे नन्हे-मुन्नों में मेरे यारा... :) :) :) !!!    
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३० अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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शनिवार, 29 अगस्त 2015

सुर-२४१ : "करें सबकी सुरक्षा... स्नेह से बाँधा गया धागा...!!!"


प्रियजनों की
रक्षा का एक सूत्र
बांधे हाथ में
स्नेह से बना रक्षासूत्र
जो बनकर ढाल
करे हर बुरी बला से
अपनों की सुरक्षा पूरे साल
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मित्रों...,


यूँ तो संपूर्ण ‘श्रावण मास’ ही बड़ा पावन एवं शुभ फल देने वाला हैं पर, पूर्णिमा जिसे कि  ‘रक्षाबंधन’ के पर्व के रूप में मनाया जाता हैं बड़ा ही मंगलकारी त्यौहार हैं जो केवल भाई-बहन के स्नेह का उत्सव ही नहीं बल्कि हर एक प्राणी को वर्ष भर अभय देने वाला बड़ा-ही पुण्यदायी संस्कार भी हैं तभी तो पुराणों में लिखा गया हैं कि---

सर्वरोगोंपशमनम् सर्वा शुभ विनाशनम्
सक्र्त्क्रते नाब्दमेकं येन रक्षा कृता भवेत् 

इस शुभ पर्व पर धारण किया हुआ ‘रक्षासूत्र’ सम्पूर्ण रोगों तथा अशुभ कार्यों का विनाशक है अतः इसे वर्ष में केवल एक बार धारण करने से वर्ष भर मनुष्य रक्षित हो जाता है, यह पर्व समाज के टूटे हुए मनो को जोड़ने का सुंदर अवसर है जिसके आगमन से कुटुंब में आपसी कलह समाप्त होने लगते हैं, दूरी मिटने लगती है, सामूहिक संकल्पशक्ति साकार होने लगती है

यह महोत्सव आज से नहीं बल्कि बहुत प्राचीन काल से मनाया जा रह हैं जिसका उल्लेख धर्मग्रंथों में आया हैं जो इसे करोड़ों वर्ष पुराना दर्शाता हैं तब जब  ‘देवता’ और ‘दानव’ के मध्य युद्ध चल रहा था लेकिन अनेक वर्षों तक युद्ध होने के बाद भी किसी तरह का निर्णय नहीं हो पा रहा था  तो ऐसे में देवराज ‘इन्द्र’ ने गुरु ‘ब्रहस्पतिजी’ से कहा कि गुरुवर ! आप ही बताओ क्या करें क्योंकि इतना समय बीत जाने के बाद भी लगता नहीं कि कोई भी फ़ैसला हो पा रहा हैं ऐसे में न तो हम अधिक लड़ ही सकते हैं और न ही इस रण से भाग सकते हैं तब ‘इन्द्र’ की पत्नीं शचि ने कहा, ‘पतिदेव ! कल मैं आपको अपने संकल्पसूत्र में बांधूगी और देखियेगा उसके बाद तुरंत निर्णय हो जायेगा’ तो अगले दिन श्रावण पूर्णिमा की शुभ बेला में ब्राह्मणों के द्वारा वेदमंत्र का उच्चारण और ओंकार का गुंजन हुआ जिसके बाद ‘शचि’ ने अपना संकल्प जोड़कर वह सूत्र ‘इंद्र’ की दायीं कलाई में बांध दिया जिससे ‘इन्द्र’ का मनोबल, निर्णयबल, भावबल, पुण्यबल कई गुना बढ़ गया और उस दिन इस संकल्पबल ने ऐसा जोहर दिखाया कि ‘इन्द्र’ दैत्यों को परास्त करके देवताओं को विजयी बनाने में सफल हो गये जो ये बताता हैं कि रक्षा के निमित बाँधा गया ‘कलावा’ या ‘रक्षासूत्र’ कोई भी किसी प्रियजन को बांध उसके लिये एक अदृश्य सुरक्षा मडंल का निर्माण कर सकता हैं

इसके अतिरिक्त पुराणों में एक अन्य कथा भी आती है जो इस प्रकार है--- जब दानवो के राजा ‘बलि’ ने अपने सौ यज्ञ पुरे कर लिए तो उन्होंने चाहा कि उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो तब  राजा बलि कि इस अभिलाषा का ज्ञान होते ही  देवराज इन्द्र का सिहांसन डोलने लगा और जब देवराज ‘इंद्र’ को कोई उपाय नहीं सुझा तो वो घबरा कर भगवान ‘विष्णु’ की शरण में गयें और ‘बलि’ की मंशा बता इस समस्या का निदान करने को कहा । देवराज ‘इंद्र’ की बात सुनकर भगवान ‘विष्णु’ वामन अवतार ले, ब्राह्माण वेश धर कर, राजा ‘बलि’ के यहां भिक्षा मांगने पहुंच गयें क्योंकि राजा ‘बलि’ अपने दिए गए वचन को हर हाल में पूरा करते थे अतः जब राज ‘बलि’ ने ब्राह्माण बने ‘श्री विष्णु’ से कुछ माँगने को कहां तो उन्होंने भिक्षा में तीन पग भूमि मांग ली तो राजा बलि ने उन्हें तीन पग भूमि दान में देते हुए कहां की आप अपने तीन पग नाप ले । वामन रुप में भगवान ने एक पग में ‘स्वर्ग’ ओर दुसरे पग में ‘पृ्थ्वी’ को नाप लिया और फिर भी तीसरा पैर रखना शेष था जिससे ‘बलि’ के सामने संकट उत्पन्न हो गया और आखिरकार उन्होंने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहां तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए वामन भगवान ने वैसा ही किया, श्री विष्णु के पैर रखते ही राजा ‘बलि’ पाताल लोक पहुंच गए। ‘बलि’ के द्वारा वचन का पालन करने पर, भगवान विष्णु अत्यन्त खुश हुए, उन्होंने आग्रह किया कि राजा ‘बलि’ उनसे कुछ मांग लें इसके बदले में ‘बलि’ ने रात दिन भगवान को अपने सामने रहने का वचन मांग लिया, ‘श्री विष्णु’ को अपना वचन का पालन करते हुए, राजा ‘बलि’ का द्वारपाल बनना पडा । जब यह बात ‘लक्ष्मीजी’ को पता चली तो उन्होंने नारद जी को बुलाया और इस समस्या का समाधान पूछा तो  नारद जी ने उन्हें उपाय बताया की आप राजा ‘बलि’ को राखी बाँध कर उन्हें अपना भाई बना ले और उपहार में अपने पति भगवन विष्णु को मांग ले तब लक्ष्मी जी ने ऐसा ही किया उन्होंने राजा ‘बलि’ को राखी बाँध कर अपना भाई बनाया और जब राजा बलि ने उनसे उपहार मांगने को कहाँ तो उन्होंने अपने पति विष्णु को उपहार में मांग लिया जिस दिन लक्ष्मी जी ने राजा बलि को राखी बाँधी उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी तो कहते है की उस दिन से ही ‘राखी’ का तयौहार मनाया जाने लगा ।

आज मानव जीवन के रक्षक उसी महोत्सव के शुभ अवसर पर सभी मित्र जनों को अशेष शुभकामनायें... :) :) :) !!!
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२९ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

सुर-२४० : "राखी का त्यौहार आया... बहन को भाई याद आया...!!!"


हंसते-गाते
लड़ते-झगड़ते
खेलते-कूदते
साथ-साथ ही
वो बडे होते
फिर एक दिन
जुदा हो जाते
पर, एक दूजे को
कभी न भूल पाते
कि जुड़े लहू से
उन दोनों के नाते
वो पावन रिश्ते जो
भाई-बहिन कहलाते
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मित्रों...,

नन्ही ‘रावी’ बहुत खुश थी जब से उसने सुना था कि जल्द ही उसकी माँ अस्पताल से उसके लिये एक छोटा-सा गोल-मोल प्यारा ‘भैया’ लाने वाली हैं जो न सिर्फ़ उसके साथ खेलेगा-कूदेगा बल्कि हमेशा उसके ही साथ रहेगा और जैसा कि ‘दादी माँ’ कहती हैं कि भले ही वो दिखने तुझसे छोटा हो पर, सदा तेरी रक्षा करेगा तो इन सब सुनी-सुनाई बातों ने उसके मन में अपने अनदेखे-अनजाने भाई के प्रति एक अजीब कोतुहल पैदा कर दिया हैं और उसके दम पर तो उसने अभी से ही अपने दोस्तों को धमकी देना भी शुरू कर दिया हैं कि देखना जब मेरा भाई आयेगा तो तुम सबको कैसा मजा चखायेगा तुम लोग जो मुझे परेशान करते हो तुम सबसे गिन-गिनकर बदला लेगा तो उसके साथ खेलने वाले उसके दोस्तों को भी उसका बेसब्री से इंतजार था देखते-देखते वो चार-पांच दिन भी बीत गये और आज तो उसकी ‘मम्मी’ के घर आने का दिन था तो उसकी ख़ुशी देखते बनते थी कभी यहाँ तो कभी वहां दौड़ी भागी फिरती और कभी अपने खिलौनों में से सबसे प्यारा खिलौना अपने भाई को देने ढूँढने लगती तो कभी सारे खिलौनों को छिपा देती कि कहीं वो आकर उन सभी पर अपना कब्जा न जमा ले और अभी वो उसी चहल-पहल में लगीं थी कि बाहर कार के रुकने की आवाज़ आई तो सब कुछ भूलकर वो बाहर दौड़ी तो सामने मम्मी की गोद में एक छोटे-से बच्चे को देखकर वहीँ थम गयी और सोचने लगी जो ख़ुद इतना जरा-सा हैं वो भला किस तरह से उसके साथ खेलेगा या उसकी रक्षा करेगा उसे तो खुद ही उसे सबसे बचाना पड़ेगा

जब उसने अपने उस गोलू-मोलू रुई से कोमल नाज़ुक नरम भैया को छुआ तो उसे गुलाब की पंखड़ियों जैसा मखमली अहसास हुआ और वो बोली मम्मा ये तो एकदम फूलों जैसा सॉफ्ट-सॉफ्ट हैं कितना गुलाबी एकदम गुलाब के फूल जैसा आखिर क्यों न हो मेरा राजा भैया जो हैं... मैं तो इसे गुलाब ही कहूँगी तो उसकी बात सुनकर सब हंसने लगे और इस तरह एक छोटी-सी बहन ने अपने भाई को न सिर्फ़ अपनी तरफ से एक नाम दे दिया बल्कि खुद ही उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी भी स्वयं तय कर ली और अब वो जितना उससे बनता उसका ध्यान रखती उसके रोने पर खुद भी रोने लगती तो उसकी किलकारी सुनकर खिलखिलाने लगती और इस तरह उन दोनों का दोस्ताना शुरू हुआ और धीरे-धीरे उसका पिद्दी सा भाई खा-पीकर अच्छा-ख़ासा छोटा सा सूमो पहलवान टाइप बन गया और उसे ही तंग करने लगा वो कभी उसके बाल खिंचता तो कभी उसके खिलोने तोड़ देता या कभी उसे मार भी देता पर, जब उसने अपने आपको उसकी बड़ी बहन नहीं बल्कि उसकी सरंक्षिका मान लिया था तो फिर किस तरह से उसकी किसी भी ज्यादती का बुरा मानती वो जो खुद ही छोटी-सी गुड़िया थी एक नन्हे से बच्चे के आने पर एकदम से बड़ी अम्मा बन गयी थी आखिर उसे ‘दीदी’ कहने वाला जो कोई आ गया था और इस तरह उन दोनों का बचपन हंसते-खेलते गुजरने लगा जहाँ पता ही नहीं चला कि कब छोटा भाई बड़ी बहन का रक्षक बन गया और कब उसकी दीदी भी उसके  साये तले खुद को महफूज़ समझने लगी ये रहस्य तो आज भी उन दोनों की समझ से परे हैं लेकिन माँ को पता हैं कि जिस दिन उसकी बेटी को कॉलेज में किसी लड़के ने छेड़ा था उसी दिन उसका भाई उसके सामने ढाल बनकर खड़ा हो गया था

अब जबकि ‘रावी’ शादी कर ससुराल आ गयी तो आज राखी के त्यौहार के एक दिन पहले न जाने क्यों हमेशा की तरह उसकी आँखों के सामने वही सब कुछ उसी तरह घूम रहा था जैसे कि ये कल की बात हैं शायद, ये इस सावन का ही असर हैं जो हर ‘बहन’ को उसका ‘भाई’ और हर ‘भाई’ को उसकी ‘बहन’ की याद दिला देता हैं और फिर सब कुछ भूलकर वे आतुर होकर एक-दूसरे से मिलने दौड़े चले आते... यही तो हैं वो रिश्ते जो कच्चे धागे से बंधकर ओर मजबूत होते जाते... ‘राखी’ से पहले ही बहन को भाई के पास ले आते... रिश्ते की अहमियत अहसास कराते... :) :) :) !!!
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२८ अगस्त २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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