रविवार, 30 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-१२० : "एक रिश्ता... आसमानी..."

साथियों... नमस्कार...

“एक रिश्ता आसमानी...!!!”
~~~~~~~~~~~~~~~~~

यूँ ही
टहलते-टहलते
सागर किनारे
एकाएक थम गये कदम
तुम्हारी यादों संग...

सोचा...
रेत पर लिख दूँ
नाम तुम्हारा
पर, तभी देखा
बिखरता हुआ घरोंदा
तो फिसलते कण मिटा गये
मन में उठते शब्द

सोचा...
पानी पर लिख दूँ
नाम तुम्हारा
मगर, उठती-गिरती
बनती-बिगड़ती
आती-जाती समंदर की लहरें
संग बह ले गयी ये ख्याल

फिर सोचा...
हवा पर लिख दूँ
नाम तुम्हारा
तभी आया एक तेज झोंका
जो साथ अपने उड़ा गया
मन में उठता ये विचार

सोचते-सोचते...
मिल ही गयी वो जगह
जहां लिखे नाम न मिटते कभी
तो फिर रूह पर लिख दिया
प्यार से नाम तुम्हारा
और जन्मों-जन्मों तक बांध लिया
अमर प्रेम का ये नाता हमारा

इस तरह...
इक ख्याल ने
रेत से रूह और...
जमीं से आसमां तक का
अंतहीन सफर यूँ पूरा किया
इक रिश्ता आसमानी बना दिया ।।
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३० अप्रैल २०१७

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११९ : “भारतीय नृत्य : कहीं हो न जाये अदृश्य --- अंतिम कड़ी”

साथियों... नमस्कार...


नाच-गाना हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा हैं जिसको विकसित करने और उसे जन-जन तक पहुँचाने में उन कलाकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा जिसने इसे साधना की तरह अपने जीवन में अपनाया और अपनी मनभावन शैली व मनमोहक अदाओं के दम पर लाखों-करोड़ों लोगों को अपना दिवाना बना लिया लेकिन इन्होने केवल ‘शास्त्रीय’ या ‘लोक नृत्य’  को ही तवज्जो दी क्योंकि इनका ये मानना था कि केवल यही विशुद्ध नृत्य कला बाकी सब तो नृत्य के नाम पर महज़ हाथ-पैर पटकना या पश्चिम की नक़ल करना जिसकी वजह से अपनी इन पुरातन विधाओं को नुकसान हुआ हैं कि लोगों को ये लगना लगा कठिन परिश्रम के साथ लंबे समय तक इसे सीखना पड़ता तब कहीं जाकर वो उसे नियमानुसार सही तरह से प्रस्तुत करने के योग्य बन पाता जबकि जो कुछ भी आज नाच के नाम पर परोसा जा रहा वो कसरत नुमा या कलाबाजी टाइप लगता जहाँ नाच करने वाले किसी भी वेशभूषा में किसी भी तरह की भाव-भंगिमा या मुद्रा में मन के कोमल भावों की जगह द्विअर्थी इशारे करता जिससे कि नृत्य की गरिमा और सम्मान कम होता अतः अमूमन शास्त्रीय या लोक नृत्य प्रेमी इस तरह के डांस को पसंद नहीं करता उस ये भी खतरा रहता कि इनकी वजह से अपने धरोहर जैसे प्राचीन नृत्यों का अस्तित्व संकट में पड़ सकता क्योंकि इस तरह से हाथ-पैर अंग चलाने के न तो कोई विशेष नियम और न ही इनमें अपनी सभ्यता-संस्कृति का ही ध्यान रखा जाता चूँकि ये सीखने में आसान और कम समय लेते अतः इनकी लोकप्रियता दिनों-दिन बढती जा रही...

चूँकि अन्य नृत्यों को करना बेहद आसान तो वे लोगों को अधिक आकर्षित करते इसका कारण यह भी कि इसमें शास्त्रीय या लोक नृत्य की तरह कठिन नियमावली, परिधान, मुद्रा, भाव-भंगिमा आदि की बाध्यता नहीं होती तो लोग इसे अधिक पसंद करते और नित बनने वाली फिल्मों एवं रियाल्टी शोज ने इसमें वृद्धि ही की तो आज उसे सीखने वालों की तादाद बढती जा रही आज के जमाने में तो वैसे भी न तो किसी के पास धैर्य और न ही समय जो कि उन नृत्यों को सीखने व करने के लिये दरकार तो ऐसे में ये रेडीमेड स्टेप्स वाले शोर्ट टाइम में तैयार होने वाले नाच आजकल बेहद लोकप्रिय और जिसे देखो वही इन्हें सीखने के लिये लालयित उसे ये फ़िक्र नहीं कि उसकी इस अनदेखी या लापरवाही की वजह से हमारी वो समृद्ध विरासत हमारी अपनी वैयक्तिक पहचान खतरे में पड़ती जा रही उन्हें तो बस, आनन-फानन सफ़लता चाहिये जिसमें जिसमें टेलीविजन, कंप्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल ने भी बहुत योगदान दिया जिसकी वजह से लोग ये भूलकर कि उन भारतीय नृत्यों में देश की आत्मा बसती वो इसी तरह के नाच को प्रचारित कर रहे जिससे कि विदेशों में भी भारतीयता की पहचान वास्तविक शास्त्रीय/लोक नृत्यों की जगह अब इस तरह के नृत्य प्रतिनिधित्व कर रहे तो इससे हमारी पहचान पर संकट खड़ा हो गया हैं तो ऐसे में हमारा भी फर्ज कि हम अपने नृत्यों के प्रति रूचि पैदा करे और किसी सच्चे गुरु से इसका ज्ञान प्राप्त करे जिससे कई लाभ होंगे और दूर-दराज के लोगों को भी ये पता चलेगा कि हमारे देश में कितनी तरह की विविध नृत्य शैलियाँ होती जिनको करने के लिये किसी साधक की तरह तपस्या करनी पडती न कि देख-देखर उनको सीख लिया जाता ये मिथक अगर, टूट गया तो हमारे नृत्य हाशिये पर न होकर मंच के बीचों-बीच पूरी शान-शौकत और गर्व के साथ प्रदर्शित किये जायेंगे...

एक समय था कि भारतीय नृत्य की विविधताओं ने उसे विश्व पटल पर जिज्ञासा का केंद्र बना दिया था जिससे कि विदेश में भी इसे सीखने की ललक बढ़ने लगी लेकिन आज सब जगह एक-सा उछल-कूद वाला नृत्य दिखाई दे रहा जो ये दर्शाता कि केवल हम ही पश्चिम से उसे आयातित नहीं कर रहे बल्कि वे भी भारतीय नृत्यों में दिलचस्पी दिखा रहे अतः अपनी कलाओं के सरंक्षण हेतु हमें भी प्रयास करना चाहिये ताकि हमारे विशुद्ध नृत्यों की शुद्धता कायम रहे... अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर यही शुभकामना हैं... :) :) :) !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ अप्रैल २०१७

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११८ : “भारतीय नृत्य : कहीं हो न जाये अदृश्य --- ०५”

साथियों... नमस्कार...


यूँ तो नृत्य की दो ही विशेष श्रेणियां ‘शास्त्रीय’ और ‘लोक नृत्य’ होती लेकिन सिनेमा के अविष्कार और रजत परदे पर हंसती-गाती-बोलती-नाचती आकृतियों के आगमन के बाद से इसमें एक और नई शैली का भी जुडाव हो गया जिसका प्रयोग फ़िल्मी दुनिया में होने के कारण इसे ‘फ़िल्मी नाच’ या ‘बॉलीवुड डांस’ के नाम से भी जाना जाता तथा यह नृत्य की ऐसी शैलियाँ हैं जिनमें कभी भारतीय तो कभी पश्चिमी नृत्य का मेल कर दिया जाता और कभी-कभी तो कोई नया ही सृजन कर दिया जाता जो नाटकीयता के अतिरेक के कारण अधिक आकर्षक और लुभावना होता तथा उसकी नकल करना भी कोई मुश्किल काम नहीं होता तो जिसे देखो वही उसका दीवाना बना हुआ और आजकल तो शादियों में भी इनका चलन बढ़ता जा रहा कि वर-वधु पक्ष वालों को अलग से अपनी-अपनी प्रस्तुति देनी पडती तो इस वजह से भी उसे सीखने की ललक बढ़ी हैं जो एक सुखद संकेत लेकिन जब लोग केवल इनको ही प्राथमिकता देते और अपने शास्त्रीय या लोक नृत्यों से मुंह बिचकाते तो बुरा लगता कि वास्तविक नृत्य तो वही और वही सभी नृत्य की जड़ भी इसलिये यदि इनको सीख लिया जाये तो फिर ये सब नृत्य करना भी सहज-सरल हो जायेगा कि सभी तरह के नृत्य की आधारशिला हमारे ये शास्त्रीय नृत्य ही हैं जिसमें सभी तत्वों का संतुलित समावेश उसे किसी पूजा में तब्दील कर देता जबकि फ़िल्मी डांस से पी.टी. का अहसास होता फिर भी इसने तमाम विरोधों के बावज़ूद भी न केवल अपना अलग स्थान बनाया बल्कि अपने आपको पूरी तरह से स्थापित भी कर लिया हैं इसलिये अब नृत्य कला में इसका जिक्र भी जरूरी हो गया हैं क्योंकि आख़िरकार इसे भी नृत्य का एक प्रकार मान ही लिया गया हैं तो फिर हम इसे किस तरह से नकार सकते तो आज उसी पर केन्द्रित हैं श्रृंखला की ये पांचवी कड़ी जिसमें हम इसके इन नकारात्मक पहलुओं के साथ ही इसके सकारात्मक पक्ष पर भी दृष्टि डालेंगे जिसने इसे इस मुकाम तक पहुँचाया...

जब भारत में ‘सिनेमा’ की शुरुआत हुई तो कुलीन वर्ग के द्वारा इसे हेय दृष्टि से देखा जाता था अतः उच्च वर्ग या सभ्य परिवार के लोगों का इसमें काम करना तो दूर इसे देखना भी गलत समझ जाता था ऐसे में नायिका की भूमिका भी पुरुष ही अभिनीत करते थे तथा नृत्य के लिये कोठे वाली या नर्तकियों को ही लिया जाता था फिर समय के साथ धीरे-धीरे इसके प्रति लोगों का नजरिया बदला और मध्यम से लेकर उच्चतम वर्ग ने इसमें प्रवेश करना आरंभ किया तो सुशिक्षित व्यक्तियों के आने से इसके स्तर में भी सुधार हुआ साथ ही प्रशिक्षित नायक-नायिका ने जब काम करना शुरू कर दिया तो नृत्य का क्षेत्र भी परिष्कृत हुआ और विदेशों से प्रेरणा प्राप्त करने से पाश्चात्य नृत्यों का भी इसमें समावेश होता गया जिससे कि नृत्य की ‘फ़िल्मी शैली’ विकसित हुई जिसमें कुछ कलाकार तो शास्त्रीय नृत्य में पारंगत थे जिन्होंने अपनी इस काबिलियत से रजत पर्दे पर ऐसे अदाकारी पेश की कि लोगों का इसके प्रति रुझान बढ़ने लगा जिसने समाज के हर क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन पैदा किया और लोग फिल्मों के ऐसे प्रशसंक बने कि हर बात में उसकी नकल करने लगे और अपने विशुद्ध नृत्य में उन्होंने वेस्टर्न डांस का ऐसा तड़का लगाया कि जिस तरह चाईनीज फ़ूड को हमने अपने मसालों के जरिये भारतीय भोजन में परिवर्तित कर लिया उसी तरह इन नृत्य में भी हमने भारतीयता की अदायें मिलाना चालू कर दिया जिससे इंडो-वेस्टर्न की नई शैली बनी और अन्य देशों के डांस फॉर्म को भी इसमें सम्मिलित कर लिया गया तो बॉलीवुड डांस के खज़ाने में भी वृद्धि होती गयी और आज इसमें हिप-हॉप, जाज, स्विंग, कॉण्ट्रा, सालसा, बेले, बॉलरूम डांस आदि भी शामिल हो गये हैं तथा टेलीविजन के डांस शो की वजह से इसकी पॉपुलैरिटी में उतरोत्तर वृद्धि होती गयी जिसने आज इसे मूल नृत्य विधाओं की जगह लाकर खड़ा कर दिया और जिसे देखो वही ये करता नजर आ रहा...

हिंदी सिनेमा ने नृत्य कला को प्रचारित व प्रसारित करने में योगदान दिया जिससे कि वो आज पूरी दुनिया में न केवल विख्यात हैं बल्कि देश के बाहर भी लोग उसे सीख रहे उसके प्रशिक्षण हेतु नृत्य अकादमी स्थापित हो रही जिसने हमारी इस कला को परिपक्व बनाया लेकिन इसकी वजह से कहीं न कहीं हमारी शास्त्रीय और लोक नृत्य की  श्रेणी को थोड़ा-बहुत नुकसान भी हुआ फिर भी यदि हम चाहे तो इसे बढ़ावा देने की छोटी-छोटी कोशिशें कर सकते जिससे कि ये विलुप्त न होने पाये आखिर, हमारे नृत्य हमारी प्राचीन सभ्यता की अनमोल विरासत जिसे सहेजना हमारा नैतिक दायित्व और फर्ज़... :) :) :) !!!
              
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२८ अप्रैल २०१७

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११७ : “भारतीय नृत्य : कहीं हो न जाये अदृश्य --- ०४”

साथियों... नमस्कार...

 
जब भी कोई ख़ुशी की बात हो या आनंद का कोई उत्सव लोग अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर करने के लिये नाचते-गाते और इस तरह अनायास ही ‘नृत्य’ और ‘संगीत’ उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा जिसका इतिहास उतना ही पुराना जितना इस दुनिया का अस्तित्व में आना और ये तो ऐसा भाव कि जिसे हम केवल इंसान ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी, प्रकृति के सभी पेड़-पौधे और यहाँ तक कि पूरी कायनात की हर एक शय धरती, आकाश और अंतरिक्ष में स्थित ग्रह-नक्षत्र भी अपनी धूरी पर नाचते जो स्वयमेव ही ये दर्शाता कि व्यक्ति बिना सीखे भी सहज-सरल ढंग से हाथ-पैरों व अंग-संचालन के माध्यम से नृत्य कर सकता क्योंकि ये तो मन का एक ऐसा आंतरिक अहसास जिसे कि चेहरे के हाव-भाव एवं मुखाकृति के द्वारा दर्शाया जाता फिर उसमें किसी नियम या सिद्धांत की भी कोई आवश्यकता नहीं होती और इस तरह से नृत्य की जो शैली प्रदर्शित होती उसे ‘लोक-नृत्य’ कहा जाता कि यह तो जन-जन का अपना नाच जिसे वो अपने ही ढंग से करता और हर राज्य या प्रांत ही नहीं बल्कि हर एक हिस्से का अपना ही एक अलग लोक-नृत्य होता जिसे ज्यादातर समूह में किया जाता कि ये समाज के एक बड़े वर्ग की जिंदगी को प्रभावित करता अतः इसे सामूहिक रूप से किया जाता और जितने ज्यादा लोगों का जमावड़ा होता आनंद उतना ही बढ़ जाता क्योंकि शास्त्रीय नृत्य की तरह इसमें किसी ख़ास पद्धति का पालन करने की जगह स्वाभाविकता को अपनाया जाता और जैसा मन चाहता उसी तरीके से अपनी अनुभूति को प्रकट किया जाता लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं कि लय-ताल या गीत-संगीत के तालमेल का ध्यान नहीं रखा जाता क्योंकि नृत्य कोई भी उसे एक लय में करने से उसकी प्रस्तुति आकर्षक ही नहीं प्रभावशाली भी बन जाती तो लोक-नृत्य में भी समूह का पद-संचालन और मुद्रायें एक समान होती केवल उसे इतनी छूट होती कि वो उसे अपने ढंग से भी कर सकता जबकि शास्त्रीय नृत्य के बंधे-बंधाये नियम व निश्चित क्रम होते जिनमें परिवर्तन करने या उनको तोड़ने से वो बेताल हो जाता जबकि लोक-नृत्य में ऐसी कोई बंदिश नहीं ये तो लोक या जनता का अपना नाच...

हम देश के किसी भी एक राज्य के सभी इलाकों का ही भ्रमण करे तो हम पाते हैं कि सबका अपना अलग लोकनृत्य हैं जो एक-दूसरे से भिन्न भी हैं और एक विशेष संप्रदाय या जाति के लोग मिलकर इसे करते जैसे कि मछुआरे अपनी ख़ुशी को कोली नृत्य या कोलयाचा के द्वारा प्रदर्शित करते तो ग्वाले या दूध बेचने वाले अहीर नृत्य कर उत्सव मनाते और इस तरह से यदि हम लोकनृत्य को समझने का प्रयास करे तो पाते कि ये भी अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं जो कि मुख्यतः चार होती हैं---

१.    वृत्तिमूलक इसमें ऐसे लोक नृत्यों को रखा जाता जो व्यक्ति के कर्म या वृत्ति से जुड़े होते जैसे कि जुताई, बुआई, मछली पकड़ना और शिकार आदि और इस तरह के नाच में लोग अपने काम के साथ-साथ इसे करते... अर्थात ये इनके व्यवसाय या इनकी गतिविधि को अंजाम देते समय या उनके पूर्ण हो जाने की ख़ुशी में किया जाता

२.    धार्मिक या आध्यात्मिक लोक नृत्यों के अंतर्गत इस तरह की शैलियों को रखा जाता जो कि किसी भी पर्व-त्योहार या उत्सव के आयोजन में किया जाता जैसे कि महारास, राम-लीला, गरबा, नटपूजा, नौराता, गणगौर आदि जिन्हें लोग तीज-त्यौहार के अवसर पर करते

३.     आनुष्ठानिक लोक नृत्य को सामान्यतः किसी विशेष अनुष्ठान के आयोअजं पर किया जाता जैसे कि तांत्रिक अनुष्ठान द्वारा प्रसन्न कर देवी या दानव-प्रेतात्मा के कोप से मुक्ति के लिये या फिर किसी मानता के पूर्ण होने पर अपनी ख़ुशी का इज़हार करने के लिये  

४.    सामाजिक लोक नृत्य सम्पूर्ण समाज को समाहित करता अतः इसके अंतर्गत हर वर्ग के द्वारा किया जाने लोक नृत्यों को सामाजिक मान्यता प्राप्त और इसमें सभी तरह के नृत्यों को शामिल किया गया हैं जैसे कि भांगड़ा, गिद्दा, लावणी, भोरताल, भवई, बिहू, कुम्मी, देवरत्तनम, थबल छोंगबा, जात्रा, चेरा, नाटी, गरबा. घुरई, झमाकड़ा, सिंघी छम, रउफ, घूमर, पण्डवानी आदि

इस तरह हम देखते कि नृत्य तो भारतीय जीवन का अंग जिसकी वजह से तमाम अभावों के बाद भी व्यक्ति आनंदित नजर आता कि इन नृत्यों से उसे ऐसी सकारात्मक ऊर्जा मिलती जो उसके जीवन की कमियों को भर देती उसके अंदर आनंद की तरगें हिलोरें लेने लगती जिससे मन के अवसाद या अन्य विकार भी पल में दूर हो जाते तो इस तरह से नृत्य मनुष्य को निरोगी बनाने में भी सहायक साबित होता... :) :) :) !!!   
      
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ अप्रैल २०१७

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११६ : “भारतीय नृत्य : कहीं हो न जाये अदृश्य --- ०३”

साथियों... नमस्कार...

भारत देश की विविधताओं में ही इसकी ख़ासियत छिपी हुई हैं जिसकी वजह से ये किसी महासागर की तरह छोटी-छोटी नदियों जैसी संस्कृतियों को खुद में समो लेती हैं और यही वजह की यहाँ अलग-अलग संप्रदाय के अलग-अलग रीती-रिवाज़ को भी उनकी विशिष्टता के साथ स्वीकार किया गया हैं जिसमें ‘नृत्य कला’ का भी समावेश हैं जिसे यूँ तो मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है---

१.    शास्त्रीय नृत्य
२.    लोक नृत्य

परंतु भारतीय फिल्मों में दिखाये जाने वाले डांस की लोकप्रियता को देखते हुये आजकल ‘फ़िल्मी नृत्य’ की भी एक अलग श्रेणी विकसित हो गयी हैं लेकिन जिस तरह ‘शास्त्रीय’ या लोकनृत्य’ के अपने नियम, सिद्धांत और ख़ास शैली हैं जिसे सीखने के लिये उसका विधिवत प्रशिक्षण लेना जरूरी हैं उस तरह फ़िल्मी नृत्य के साथ जरूरी नहीं क्योंकि ये कोई अलग शैली न होकर वास्तव में इन्हीं नृत्यों क मिश्रण होता जिसमें आजकल ‘पश्चिमी  नृत्य’ का भी तड़का लगा दिया जाता तो इस तरह अन्य देशों से भी नृत्य की शैलियाँ आयातित होकर भारत आ गयी हैं फिर भी भारतीय नृत्यों का जवाब नहीं कि इनमें अपनी वाली बात हैं जिसे देखकर अपने देश की सौंधी मिट्टी की महक, अपनी सभ्यता की झलक के साथ अपनेपन का अहसास भी महसूस होता तभी तो इस पर हर प्रांत को गर्व होता कि हर एक राज्य या भाग का अपना ही एक विशेष नाच होता जिसे कभी उस राज्य के नाम पर तो कभी विधा के अनुसार जाना जाता और इस तरह शास्त्रीय एवं लोकनृत्य जमीन से जुड़े हुये हैं जिनके अभ्यास से हम अपनी विरासत को ही सहेजते पर, अफ़सोस कि यही अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही ऐसे में हमें इनको बढ़ावा देने हेतु विदेशी डांस की नकल करने की जगह इनका प्रशिक्षण लेकर इनको प्रचारित करना चाहिये कि अधिक-से-अधिक संख्या में लोग इससे जुड़े और अपने देश में ही नहीं संपूर्ण विश्व में इन्हें विख्यात करे...

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार नृत्य की जिस शैली का निर्माण किया गया उसे ‘शास्त्रीय नृत्य’ कहते हैं जिसकी अपनी विशिष्ट शैली, नियम, सिद्धांत और ख़ास परिपाटी होती तथा हर राज्य के अपने अलग नृत्य व उनकी अलग प्रस्तुति होती जैसे तमिलनाडू में भरतनाट्यम, उत्तरप्रदेश में कत्थक, करेल में कत्थककली, आँध्रप्रदेश में कुचिपुड़ी, मणिपुर में मणिपुरी, उड़ीसा में ओडिसी, केरल में मोहिनीअट्टम, आसाम में सत्त्रिया नृत्य प्रचलित हैं जिनकी अपनी ख़ास मुद्राएँ, भाव-भंगिमा, लय-ताल, वेशभूषा होती जिसके द्वारा उसे पहचाना जाता... इनमें भरतनाट्यम सबसे प्रचलित नृत्य विधा हैं इसके अतिरिक्त भी इस सूची में कई अनेक नृत्यों को भी जोड़ा गया हैं... जिनको सीखकर हम अपनी धरोहर को सहेजने में भी योगदान दे सकते कि यह भी तो समाज-सेवा कहलायेगी... स्वदेशी नृत्य का प्रचार-प्रसार करना यह भी तो एक तरह की देशभक्ति होगी या नहीं...???

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२६ अप्रैल २०१७

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११५ : “भारतीय नृत्य : कहीं हो न जाये अदृश्य --- ०२”

साथियों... नमस्कार...

 
कला के माध्यम से मानव अपने मन की अनुभूतियों को प्रकट करता जो वो कह नहीं पाता उसे कभी शब्दों तो कभी लकीरों या कभी चेहरे के हाव-भाव से अभिव्यक्त करता हैं ‘नृत्य’ भी अभिव्यक्ति का एक ऐसा ही माध्यम हैं जो कि कला के अन्य सभी माध्यमों से सबसे अधिक सशक्त व प्रभावशाली हैं क्योंकि इसके द्वारा इंसान को एक साथ गीत, संगीत, वाद्य, लय, ताल का ज्ञान तो होता ही हैं साथ ही साथ इससे तन-मन का व्यायाम भी हो जाता हैं जिससे उसका पूर्णरूपेण विकास होने के साथ-साथ उसके मस्तिष्क व सभी अंगों में में रक्तसंचार का प्रवाह तेज होने से बुद्धि विकसित होती हैं और मुख की आभा भी बढ़ती हैं और केवल इतना ही नहीं होता बल्कि साधना की गहन अवस्था में पहुँचने पर समाधि की स्थिति आ जाती हैं जिससे ये ‘मोक्ष’ प्राप्ति का साधन भी बन जाता हैं याने कि केवल एक नृत्य के अभ्यास मात्र से एक साथ अनेक लाभ मिलते हैं तो इस तरह यह बहुउपयोगी विधा हैं जो आत्मा को परमात्मा तक ले जाने में भी सहायक सिद्ध हो सकती हैं...

तभी कलाओं को ‘साधना’ भी कहा जाता और इनकी शुरुआत करने से पूर्व कला की देवी या देवता की उपासना की जाती और इस साधना में रत रहने वालों को ‘साधक’ की उपाधि दी जाती लेकिन इतनी ऊँचाईयों तक पहुंचने के लिये हद दर्जे के समर्पण की आवश्यकता होती इतना कि खुद को भूलकर सिर्फ और सिर्फ उसे ही याद रखा जाये तो फिर अनवरत अभ्यास से व्यक्ति किसी तपस्वी की तरह अपनी तपस्या के लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता तब कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता... लेकिन ऐसा किसी विरले के साथ ही घटित होता कि हर कोई इस तरह से अंतर में डूबकर साधना में लीन हो विदेह बन अपने आपको उस साधना के लिये समर्पित नहीं कर पाता... यही वजह कि उसे झटपट ‘मेगी’ की तरह तैयार होने वाले डांस फॉर्म पसंद आते जबकि ‘भारतीय नृत्य’ को पकने में बहुत अधिक समय लगता और इतना धैर्य सबके पास कहाँ तभी तो इस इंस्टेंट फ़ास्ट फ़ूड के जमाने में लोगों को सब्र ही कहाँ रहा कि वो किसी एक कला को परफेक्ट बनाने अपने आपको तपस्या की आग में झोंक सके तो उसने शोर्टकट को अपनाया जिसका नतीजा हम सब देख ही रहे कि किस तरह भेलपुरी जैसे नाच हमें देखने पड़ रहे जो कुछ पल भले ही अच्छे लगे लेकिन लम्बे समय तक अपना असर नहीं छोड़ पाते...

‘द्वारिका-महात्म्य’ में तो ये तक कहा गया हैं कि, “जो भी प्रसन्नचित्त होकर श्रद्धा व भक्तिपूर्ण भाव से अपने आप में डूबकर नृत्य करता हैं वह जन्म-जन्मान्तरों के पाप से मुक्त हो जाते हैं” तो इस तरह ये व्यक्ति के अंतर को पवित्र बनाता हैं और वे मनोभाव जिन्हें किसी भी तरह से दर्शा पाना मुमकिन नहीं होता उसे नृत्य के द्वारा बड़ी सहजता से प्रकट कर दिया जाता हैं बोले तो जहाँ गायन और वादन किसी अहसास को हूबहू उसी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर पाता तो फिर नृत्य का सहारा लिया जाता और फिर तो वो जज्बात भी सामने आ जाते जो कहीं भीतर ही दबे रह गये थे तभी तो इसे संप्रेषण के लिये सर्वाधिक अनुकूल विधा माना गया हैं जहाँ मुखाकृति, पैरों की थाप, घुंघरू की आवाज़ मात्र से ही हृदय के उद्गार को बिना बोले ही कह दिया जाता और हमारे लिये तो ये ख़ुशी की बात कि भारतीय नृत्य इतने समर्थ कि हर रस, हर अनुभूति, हर अहसास को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते क्योंकि हमारे यहाँ विविध तरह के नृत्यों का समावेश जिन्हें अलग-अलग श्रेणियों में रखा गया हैं आज यही तक अगली कड़ियों में नृत्य के उन भिन्न प्रकारों पर ही चर्चा की जायेगी... :) :) :) !!!   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२५ अप्रैल २०१७

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११४ : “भारतीय नृत्य : कहीं हो न जाये अदृश्य --- ०१”

साथियों... नमस्कार...

जो भी एक बार ‘भारत’ आता हैं उसे ये बहुत अधिक लुभाता हैं क्योंकि विविधताओं से भरा हुआ ये राष्ट्र जो ‘अनेकता में एकता’ का प्रतीक हैं संपूर्ण विश्व में कहीं ऐसा दूसरा कोई भी मुल्क नहीं हैं जहाँ इतनी सारी भाषा बोलने वाले, अलग-अलग धर्म मानने वाले, यहाँ तक कि भिन्न-भिन्न जाति-संप्रदाय से जुड़े करोड़ो लोग एक साथ मिलकर एक ही परचम के तले रहते हैं उसकी इसी विशेषता के कारण ही हमेशा से कई शासकों के द्वारा उस पर कब्जा जमाने के प्रयास किये गये क्योंकि यूँ तो दुनिया में बहुत से देश हैं लेकिन सामान्यतः वहां एक ही धर्म और भाषा से जुड़े लोग ही रहते तो उस एकरूपता के बाद जब वे इसकी बहुरूपता को देखते तो इसकी तरफ ज्यादा आकर्षित होते इसके अलावा यहाँ की संस्कृति व सभ्यता भी इतनी प्राचीन और विविध कलाओं से परिपूर्ण कि किसी गुलदस्ते की तरह अपने में कई रंग और ढंग के फूलों को समेटे हुये हैं ऐसे में कौन हो जो इस पर फ़िदा न हो जायेगा लेकिन जैसा कि हमारे देश के लोगों की एक कमजोरी भी कि उन्हें घर की मुर्गी दाल बराबर लगती तो जैसे-जैसे विकास हुआ और अन्य देशों के साथ उसके ताल्लुकात बढ़े तो उन्हें विदेशों का कल्चर और उनके रीति-रिवाज़ इस कदर भाने लगे कि उन्होंने अपनी उन पुरातन अमूल्य गौरवशाली संस्कृति को भी ताक पर रख उनकी नकल करनी शुरू कर दी जिसके कारण अब उनमें और हम में अधिक अंतर न रहा कि अब तो भारत में लोग सूट-बूट पहनते, कुर्सी-टेबल पर जूते-चप्पल पहनकर कांटें-छुरी से खाना खाते, अंग्रेजी में गिटर-पिटर करते और पिज़्ज़ा-बर्गर-हॉटडॉग-नूडल्स-मंचूरियन-पास्ता जैसे विदेशी नाश्तों के संग पानी की जगह कोला-पेप्सी पीते खुद को किसी दूसरे देश का साबित करने का प्रयत्न करते यहाँ तक तो फिर भी ठीक था लेकिन उसने अपनी पहचान बन चुकी नृत्य-संगीत जैसी कलाओं को भी खतरे में डाल दिया जो कि केवल चिंतनीय ही नहीं बल्कि व्यवहारिक रूप से इस सोच में परिवर्तन लाकर कदम उठाने लायक स्तर तक पहुँच चुकी समस्या हैं...
             
जिस तरह से आजकल के रियाल्टी डांस शो में ‘वेस्टर्न डांस’ को अधिक महत्व देकर लोगों के मन में उसके प्रति आकर्षण पैदा किया जा रहा उसकी वजह से हमारे देश के अलग-अलग प्रान्त के अनेकानेक नृत्यों पर संकट खड़ा होता जा रहा ऐसे में अब भी यदि हमने इसे गंभीरता से न लिया तो एक दिन ऐसे आयेगा कि जिस तरह से खान-पान-पहनावा में भारतीयता समाप्त हो गयी उसी तरह फ्यूजन या मिक्सचर के नाम पर हमारे शुद्ध भारतीय नृत्यों में से भी उसका खालिसपन निकल जायेगा तो फिर जिस तरह हम मजबूरीवश ‘हिंगलिश’ को ही अपनाने लगे उसी तरह एक दिन इंडो-वेस्टर्न को भी स्वीकार कर लेंगे क्योंकि यही तो हमें आता हम खुद अपने हाथों से अपनी विरासत को लुटाते फिर जब अहसास होता तो पछताते इसलिये जरुरी कि हम इस पर अभी से ही ध्यान दे जिससे कि हमारी ये सांस्कृतिक धरोहर कहीं खो न जाये जिसकी वजह से हमें जाना जाता उस पर हम तो इस मामले में इतने अधिक धनवान कि हमारे यहाँ कदम-कदम पर पानी या बोली ही नहीं बल्कि संस्कृति भी बदल जाती और हर प्रान्त की अपनी एक अलग ख़ासियत जिससे कई चीजें जुडी हुई हैं जैसे उस प्रांत के लोगों का बोलचाल, उनकी खाने-पीने की आदतें और उनकी अपनी नृत्य-संगीत की शैलियाँ जिस पर उसे गर्व होता लेकिन जिस तरह से उनके स्वरुप को बिगाड़ा जा रहा जरूरी कि इसे रोकने ठोस कार्यवाही की जाये नहीं तो अभी हम अपने देश और उसके अनेक प्रदेश की भिन्नताओं को सर उठाकर गर्वित स्वर में उसका वर्णन करते अगर, किसी दिन जब वो पहचान ही खो जायेगी तो फिर हम भी एकरूपता का शिकार होकर उब जायेंगे और बोलो फिर किधर जायेंगे कि तब तो हम भी उनके रंग में ढल जायेंगे तो फिर ऐसा करे कि अपने इंद्रधनुषी रंगों वाली भारतीयता को बचाये जिसके रंगों में हमारी बहुरंगी संस्कृति बसी हुई हैं...  

२९ अप्रैल को ‘अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस’ आ रहा उसी अवसर पर ‘भारतीय नृत्य, कहीं हो न जाये अदृश्य’ नाम से एक श्रृंखला आरंभ की हैं जिसकी प्रथम क़िस्त आप सबके समक्ष हैं अगली कडियों में अपने देश के अलग-अलग प्रांतों के अलग-अलग नृत्य और उनकी विशेषताओं पर बात करेंगे ताकि हम जान सके कि जो बात स्वयं की पहचान में हैं वो किसी दूसरे की नकल करने में नहीं... :) :) :) !!!    

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२४ अप्रैल २०१७

रविवार, 23 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११३ : विश्व पुस्तक दिवस पर पुकारती किताबें... पाठकों फिर से पुस्तकालय आयें...!!!

साथियों... नमस्कार...


आजकल रोज ही कोई न कोई दिन होता जिसे किसी देश या प्रांत नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर मनाया जाता कि अब कोई भी ख़ुशी हो या गम या कोई भी समस्या वो किसी एक की नहीं रही बल्कि संपूर्ण जगत अब उसका हिस्सेदार हैं जो तकनीकी युग में इंटरनेट के माध्यम से एक पटल पर एकत्रित समस्त भूमंडल के वैश्वीकरण को तो दर्शाता ही साथ ही ये भी बताता कि अब सब कुछ साँझा हैं चाहे फिर वो किसी उत्सव का खुशनुमा माहौल हो या किसी ग़मगीन खबर का असर या फिर दुनिया के किसी कोने में उपजी कोई समस्या सभी मिल-जुलकर कभी उसकी खुशियाँ मनाते तो कभी दुःख में शरीक होते और कभी मिलकर उस मुश्किल का निदान ढूंढते जो इस दिन की सार्थकता के लिये जरूरी भी लेकिन अमूमन यही होता कि दिन आता उस पर विचार-विमर्श टाइप कुछ गोष्ठी या औपचारिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते और दिन बदलते ही अगले दिवस की तैयारी में सब जुट जाते जिससे कि उस दिवस का औचित्य पूर्ण नहीं हो पता जिसके लिये उसे बनाया गया क्योंकि वैसे भी जिस तरह की भाग-दौड़ और व्यस्तता भरी जिंदगी आदमी की हो चुकी उसके लिये दिन आम हो या ख़ास महज़ रस्म अदायगी रह गया जिसे इस तरह से निरर्थक बनाने में गेजेट्स व सोशल मीडिया का भी हाथ हैं क्योंकि इनकी वजह से इंसान सुबह से शाम तक केवल उस दिन से संबंधित संदेशों व जानकारी को ही इधर-उधर फारवर्ड करता रहता लेकिन एक पल भी उसके मूल में जाने का प्रयास नहीं करता तो ऐसे में अब ये भी जरुरी कि हम दिन विशेष पर कोई व्यवहारिक कदम भी उठाये जिससे कि उस दिवस के आयोजन को सफल बना सके...

आज भी एक ऐसा ही दिन हैं ‘विश्व पुस्तक दिवस और कॉपीराइट दिवस’ जिसके नाम से ही ये अहसास होता कि ये महज़ मनाने मात्र का दिन नहीं बल्कि इसके साथ किताबों व कॉपीराइट के उपयोग का मुद्दा भी जुड़ा और जिस तरह से आजकल हम देख रहे कि किताबें भले ही छप रही लेकिन उन्हें खरीदकर पढ़ना या सहेजना लगभग समाप्त हो गया क्योंकि नई पीढ़ी को मोबाइल या लैपटॉप के स्क्रीन पर ही उन्हें पढने की आदत पड़ चुकी हैं जिससे हमारे प्राचीन ग्रंथ, उपन्यास, महाकाव्य आदि केवल बुक शेल्फ या अलमारी का हिस्सा मात्र बनकर रह गये हैं जिन पर गुजरते दिन के साथ धूल की परतें चढ़ती जा रही हैं पर, पाठकों के पास उनको देखने या पढ़ने की भी फुर्सत नहीं कि अब उसके हाथों में दिन-रात कोई न कोई यंत्र होता जिस पर पल-पल की खबरें और ई-बुक्स का भंडार भरा और उसके पास तो उन्हें पढने का भी पर्याप्त समय नहीं लेकिन संतुष्टि का भाव रहता कि जब भी उसे कोई जानकारी चाहिये वो एकदम सहज-सुलभ हैं जिसके लिये उसे किताबें खंगालने या पुस्तकालय घुमने की जरूरत नहीं सब कुछ एक क्लीक पर हाज़िर तो इस सुविधा ने उससे वो अहसास छीन लिये जो किसी किताब को पकड़कर ही महसूस किया जा सकता जैसे कि उसकी सोंधी खुशबू, मुड़े हुये यादगार पन्ने, सफों पर दर्ज कोई बात, किसी जगह रखा कोई गुलाब या किसी से मिली स्पेशल भेंट या किसी जगह रखा कोई ख़त ये सब रूहानी अहसास कभी भी कोई यंत्र नहीं दे सकता इसे तो बस, छूकर ही महसूस किया जा सकता पर, अब तो ये सिर्फ किताबों का ही किस्सा बनकर रह गया...

किताब के साथ कॉपीराइट का भी मामला जुड़ा होता कि कोई भी लेखन हो वो लेखक का अपना नितांत मालिकाना अधिकार वाला दस्तावेज होता जिसे कोई भी बिना उसकी अनुमति के इस्तेमाल नहीं कर सकता तो उसके साथ कॉपीराइट को भी जोड़ दिया जाता कि उस किताब के किसी हिस्से या जानकारी का किसी के भी द्वारा दुरपयोग न किया जा सके और लेखक को भी आर्थिक नुकसान न हो इस तरह से बुक एंड कॉपीराइट एक सिक्के के दो पहलु की तरह एक-दूसरे से जुड़े जिसका उल्लंघन करने पर सजा का भी प्रावधान होता आखिर ये किसी भी रचनाकार का बौद्धिक संपदा अधिकार जो ठहरा और जो उसने अपनी बुद्धि व दिमाग का प्रयोग कर रचा उस पर उसका हक़ उसे मिलना ही चाहिये तो इस उद्देश्य के लिये २३ अप्रैल को ‘विश्व पुस्तक एवं कॉपीराइट दिवस’ बना दिया गया कि सिर्फ पाठक ही नहीं लेखक का भी पुस्तकों से गहरा रिश्ता होता भले ही एक पाठक लेखक न हो लेकिन लेखक अक्सर एक पाठक होता तो उसे अपने सृजन पर अधिकार के साथ-साथ आमदनी भी प्राप्त हो साथ ही लोग जिस तरह से किताबों से दुरी बनाते जा रहे इस फासले को भी कम किया जा सके... तो हम सब मिलकर ये प्रयास करे कि रोज कुछ न कुछ किताबों से जरुर पढ़े अपनी इस आदत को पूरी तरह से न छोड़े और अपने आस-पास के लोगों को भी इस अभियान से जोड़े... फिर ये दिवस स्वतः ही  हो जायेगा... तो सबको बधाई व शुभकामनायें... :) :) :) !!!
              
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२३ अप्रैल २०१७

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

सुर-२०१७-११२ : No more planet... Save Earth... 🌎 !!!

साथियों... नमस्कार...


एक व्यक्ति को बैग व घर का सामान ले जाते देख बाहर खड़ा पड़ोसी बोला---

पड़ोसी - अरे, भई ये सामान लाद कर कहां चले ?

व्यक्ति - यार, अब तो पृथ्वी पर रहना मुश्किल हो गया जहां देखो वहाँ गंदगी, सांस लेना भी मुश्किल हो गया छी... तो बस, दूसरे ग्रह 'चाँद' पर गृह बनाने जा रहे ।

पड़ोसी - सुना वहां अभी कुछ व्यवस्था ऐसे में यदि वहां भी यही हाल हुआ या इससे भी बदतर तो क्या करोगे ?

व्यक्ति - तो मंगल पर चले जायेंगे सुना वहां भी जीवन हैं ।

पड़ोसी - कब तक यहाँ-वहाँ भटकोगे इससे अच्छा अपनी पृथ्वी को ही साफ़-सुथरा बनाओ... 'स्वच्छ भारत' का अभियान सफल बनाओ ।

व्यक्ति - सच, क्या बात कही तुमने चलो... चले... पृथ्वी को कचरा एवं प्रदूषण मुक्त करे... आओ साथ में बढ़े... !!!

संदेश :
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Searching other planet
Moving other country
Is not solution...
Saving our Earth
Clean our "India"
Is only option !!!

🌎🌎🇮🇳🇮🇳🌎🌎
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२२ अप्रैल २०१७