साथियों... नमस्कार...
यूँ तो नृत्य की दो ही विशेष श्रेणियां
‘शास्त्रीय’ और ‘लोक नृत्य’ होती लेकिन सिनेमा के अविष्कार और रजत परदे पर
हंसती-गाती-बोलती-नाचती आकृतियों के आगमन के बाद से इसमें एक और नई शैली का भी जुडाव
हो गया जिसका प्रयोग फ़िल्मी दुनिया में होने के कारण इसे ‘फ़िल्मी नाच’ या ‘बॉलीवुड
डांस’ के नाम से भी जाना जाता तथा यह नृत्य की ऐसी शैलियाँ हैं जिनमें कभी भारतीय
तो कभी पश्चिमी नृत्य का मेल कर दिया जाता और कभी-कभी तो कोई नया ही सृजन कर दिया
जाता जो नाटकीयता के अतिरेक के कारण अधिक आकर्षक और लुभावना होता तथा उसकी नकल
करना भी कोई मुश्किल काम नहीं होता तो जिसे देखो वही उसका दीवाना बना हुआ और आजकल
तो शादियों में भी इनका चलन बढ़ता जा रहा कि वर-वधु पक्ष वालों को अलग से अपनी-अपनी
प्रस्तुति देनी पडती तो इस वजह से भी उसे सीखने की ललक बढ़ी हैं जो एक सुखद संकेत
लेकिन जब लोग केवल इनको ही प्राथमिकता देते और अपने शास्त्रीय या लोक नृत्यों से
मुंह बिचकाते तो बुरा लगता कि वास्तविक नृत्य तो वही और वही सभी नृत्य की जड़ भी
इसलिये यदि इनको सीख लिया जाये तो फिर ये सब नृत्य करना भी सहज-सरल हो जायेगा कि
सभी तरह के नृत्य की आधारशिला हमारे ये शास्त्रीय नृत्य ही हैं जिसमें सभी तत्वों
का संतुलित समावेश उसे किसी पूजा में तब्दील कर देता जबकि फ़िल्मी डांस से पी.टी.
का अहसास होता फिर भी इसने तमाम विरोधों के बावज़ूद भी न केवल अपना अलग स्थान बनाया
बल्कि अपने आपको पूरी तरह से स्थापित भी कर लिया हैं इसलिये अब नृत्य कला में इसका
जिक्र भी जरूरी हो गया हैं क्योंकि आख़िरकार इसे भी नृत्य का एक प्रकार मान ही लिया
गया हैं तो फिर हम इसे किस तरह से नकार सकते तो आज उसी पर केन्द्रित हैं श्रृंखला
की ये पांचवी कड़ी जिसमें हम इसके इन नकारात्मक पहलुओं के साथ ही इसके सकारात्मक
पक्ष पर भी दृष्टि डालेंगे जिसने इसे इस मुकाम तक पहुँचाया...
जब भारत में ‘सिनेमा’ की शुरुआत हुई तो कुलीन
वर्ग के द्वारा इसे हेय दृष्टि से देखा जाता था अतः उच्च वर्ग या सभ्य परिवार के
लोगों का इसमें काम करना तो दूर इसे देखना भी गलत समझ जाता था ऐसे में नायिका की
भूमिका भी पुरुष ही अभिनीत करते थे तथा नृत्य के लिये कोठे वाली या नर्तकियों को
ही लिया जाता था फिर समय के साथ धीरे-धीरे इसके प्रति लोगों का नजरिया बदला और
मध्यम से लेकर उच्चतम वर्ग ने इसमें प्रवेश करना आरंभ किया तो सुशिक्षित व्यक्तियों
के आने से इसके स्तर में भी सुधार हुआ साथ ही प्रशिक्षित नायक-नायिका ने जब काम
करना शुरू कर दिया तो नृत्य का क्षेत्र भी परिष्कृत हुआ और विदेशों से प्रेरणा
प्राप्त करने से पाश्चात्य नृत्यों का भी इसमें समावेश होता गया जिससे कि नृत्य की
‘फ़िल्मी शैली’ विकसित हुई जिसमें कुछ कलाकार तो शास्त्रीय नृत्य में पारंगत थे
जिन्होंने अपनी इस काबिलियत से रजत पर्दे पर ऐसे अदाकारी पेश की कि लोगों का इसके
प्रति रुझान बढ़ने लगा जिसने समाज के हर क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन पैदा
किया और लोग फिल्मों के ऐसे प्रशसंक बने कि हर बात में उसकी नकल करने लगे और अपने
विशुद्ध नृत्य में उन्होंने वेस्टर्न डांस का ऐसा तड़का लगाया कि जिस तरह चाईनीज
फ़ूड को हमने अपने मसालों के जरिये भारतीय भोजन में परिवर्तित कर लिया उसी तरह इन
नृत्य में भी हमने भारतीयता की अदायें मिलाना चालू कर दिया जिससे इंडो-वेस्टर्न की
नई शैली बनी और अन्य देशों के डांस फॉर्म को भी इसमें सम्मिलित कर लिया गया तो
बॉलीवुड डांस के खज़ाने में भी वृद्धि होती गयी और आज इसमें हिप-हॉप, जाज, स्विंग,
कॉण्ट्रा, सालसा, बेले, बॉलरूम डांस आदि भी शामिल हो गये हैं तथा टेलीविजन के डांस
शो की वजह से इसकी पॉपुलैरिटी में उतरोत्तर वृद्धि होती गयी जिसने आज इसे मूल
नृत्य विधाओं की जगह लाकर खड़ा कर दिया और जिसे देखो वही ये करता नजर आ रहा...
हिंदी सिनेमा ने नृत्य कला को प्रचारित व
प्रसारित करने में योगदान दिया जिससे कि वो आज पूरी दुनिया में न केवल विख्यात हैं
बल्कि देश के बाहर भी लोग उसे सीख रहे उसके प्रशिक्षण हेतु नृत्य अकादमी स्थापित
हो रही जिसने हमारी इस कला को परिपक्व बनाया लेकिन इसकी वजह से कहीं न कहीं हमारी
शास्त्रीय और लोक नृत्य की श्रेणी को थोड़ा-बहुत
नुकसान भी हुआ फिर भी यदि हम चाहे तो इसे बढ़ावा देने की छोटी-छोटी कोशिशें कर सकते
जिससे कि ये विलुप्त न होने पाये आखिर, हमारे नृत्य हमारी प्राचीन सभ्यता की अनमोल
विरासत जिसे सहेजना हमारा नैतिक दायित्व और फर्ज़... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२८ अप्रैल २०१७
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